
कोबरा पोस्ट के अनिरुद्ध बहल और उनकी टीम का स्टिंग सच कहूं तो बचकाने की हद का है। बचकानी हरकत इसलिए क्योंकि उन्होंने स्टिंग भी किया तो किनका? मार्केटिंग हेड्स, एरिया मैनेजर, डायरेक्टर आदि..आदि। अरे मेरे भाई जिनका काम ही मीडिया हाउस के लिए ऐन केन प्रकारेण धन लाना है उसका स्टिंग करके आप किस एजेेंडे पर काम कर रहे हो? दम होता तो इसी तरह का स्टिंग किसी बड़े मीडिया हाउस के एडिटर, एडिटर इन चीफ, ब्यूरो प्रमुख, पॉलिटिकल एडिटर आदि का करते।
क्या अनिरुद्ध और उनकी टीम को यह नहीं पता कि किसी मीडिया हाउस में मुख्य तौर पर तीन डिपार्टमेंट होते हैं। इन्हीं तीन डिपार्टमेंट में से एक होता है मीडिया मार्केटिंग। इस डिपार्टमेंट के लोगों का काम ही होता है मार्केट से पैसा लाना। विज्ञापन के तौर पर आने वाले पैसे से ही हम जैसे पत्रकारों को सैलरी मिलती है। जिससे हमारा पेट पलता है और घर चलता है। विज्ञापन की तमाम पुरानी विधाएं आज के इस कॉरपोरेट जगत में बदल चुकी हैं। विज्ञापन की दुनिया में रोज नए प्रयोग हो रहे हैं। टीवी से लेकर प्रिंट तक में इसमें इतने सारे बदलाव आ चुके हैं कि रोज मीडिया मार्केटिंग के लोग नए-नए कांसेप्ट पर काम रहे हैं। हां यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि मीडिया मार्केटिंग के नाम पर कंटेंट सेलिंग का काम भी धड़ल्ले से चल रहा है। इस मामले में प्रिंट मीडिया ने अपना वजूद इसलिए बचा रखा है क्योंकि इस तरह के कंटेंट सेलिंग के साइड में छोटे से बॉक्स में मीडिया मार्केटिंग इनिसिएटिव जरूर लिखा जाता है।
क्या आज से दस साल पहले इस तरह का कांसेप्ट था? आज जब मीडिया मार्केटिंग के स्वरूप में बदलाव आया है तो मीडिया हाउसेस ने भी अपने वजूद बनाए रखने के लिए इस तरह के प्रयोग को स्वीकार करते हुए नए कांसेप्ट के जरिए अनुमति प्रदान कर दी है। मेरे अनुसार यह कोई गलत भी नहीं है। अगर मीडिया हाउसेस को विज्ञापन के जरिए धन प्राप्त नहीं होगा तो क्या अनिरुद्ध बहल और उनकी टीम हम पत्रकारों का पेट पालेगी।
तमाम सरकारी विज्ञापनों से आज सभी हिन्दी, अंग्रेजी और रिजनल लैंग्वेज के अखबार भरे होते हैं। हाल के दिनों में इसमें बड़ा बदलाव यह आया है कि वे न्यूज फॉर्मेट में अपना विज्ञापन प्रकाशित करवाते हैं। सामान्य पाठक को यही लगता है कि वह न्यूज है। क्योंकि फॉन्ट, मैटर, हेडिंग, क्रॉसर, फोटो और ले-आउट बिल्कुल उस न्यूज पेपर के डेली एडिशन की तरह ही होता है। हां यह जरूर है कि पत्रकारिता की साख को बचाने के उद्देश्य से मीडिया हाउस उसमें मीडिया मार्केटिंग इनिसिएटिव जरूर लिखता है। इसमें क्या बुरा है, अगर किसी मीडिया हाउस को इस तरह के विज्ञापन या मार्केटिंग इनिसिएटिव के बदले अच्छी खासी रकम मिलती है?
सरकार ही क्यों तमाम सामाजिक संस्थान, व्यवसायिक कंपनी, शिक्षण संस्थान, धार्मिक संस्थान आदि ने भी मार्केटिंग के इस फंडे को सहस्र स्वीकार किया है। ऐसे में कोबरा पोस्ट ने किसी फेक धार्मिक या राजनीतिक संस्थान के नाम पर विज्ञापन के तौर पर पैसे देने की बात कही तो क्या नया कर दिया। और किसी मार्केटिंग के व्यक्ति ने इस आॅफर को स्वीकार कर लिया तो क्या बुरा कर दिया? कौन सा पाप कर दिया? यह उनका काम है। उनका पेशा है। वह यही करने के लिए संस्थान में रखे गए हैं। इसी तरह की मार्केटिंग इनिसिएटिव के लिए उन्हें रखा गया है।
अब आप कहेंगे कि हिंदुत्व के एजेंडे को प्रसारित करने के लिए आॅफर दिया गया था। इंटरव्यू करने के लिए आॅफर दिया गया था। खबरों के प्रकाशन या प्रसारण के लिए पैसा दिया जाना था। हां सही है। ऐसा ही होता है। पर सभी संस्थान की अपनी एडिटोरियल पॉलिसी होती है। मार्केटिंग इनिसिएटिव के बाद भी एडिटोरियल पॉलिसी को किसी हालत में इग्नोर नहीं किया जाता है। और मुझे नहीं लगता कि कोई भी बड़ा, रेपुटेट और अच्छा संस्थान इस तरह के बेहुदा और बेतुके एजेंडे को अपनी एडिटोरियल पॉलिसी को इग्नोर करके तहत पास कर देता। कोई भी समझदार संपादक अपनी एडिटोरियल पॉलिसी को इग्नोर करने की इजाजत किसी को नहीं देता है। मीडिया हाउसेस के मालिक भी एडिटोरियल पॉलिसी को सबसे ऊपर रखते हैं। अनिरुद्ध बहल ने हिंदुत्व को एजेंडे को सिर्फ इसलिए चुना ताकि उन्हें पूरी पब्लिसिटी मिले। हिंदुत्व के एजेंडे का स्टिंग करना मुझे तो किसी सोच समझी साजिश का हिस्सा ही लग रहा है।
हां मुझे इस बात से व्यक्तिगत तौर पर खुशी है कि पब्लिक डोमिन में पत्रकारिता के साख की चर्चा जोर पकड़ रही है। लोग पत्रकारिता को लेकर सवाल जवाब करने लगे हैं। अपनी समझ विकसित कर रहे हैं। बैंक में ऊंचे पद पर काम कर रहे मेरे बड़े भईया मृणाल वर्मा ने मुझे कोबरा पोस्ट से जुड़े स्टिंग की पूरी खबर भेजकर पूछा कि यह क्या हो रहा है? उसका मैसेज देखकर मुझे लगा कि आम लोगों के मन में भी पत्रकारिता के प्रति इस तरह के बेहुदा स्टिंग को देखकर काफी गलत धारणा बन रही होगी। इसीलिए यह पोस्ट लिखने बैठ गया। ताकि मैं एक सामान्य पाठक को यह विश्वास दिला सकूं कि पत्रकारिता आज भी जिंदा है। कोबरा पोस्ट का दो कौड़ी का यह स्टिंग सिर्फ मीडिया मार्केटिंग के एजेंडे को उजागर कर रहा है। विश्वास करिए आज भी भारतीय मीडिया की विश्वनियता की जड़े काफी मजबूत हैं। हर दिन भारत के किसी कोने में पत्रकारों पर हमले हो रहे हैं। पत्रकार मार दिए जा रहे हैं। उन्हें धमकी मिल रही है। यह शायद इसीलिए है क्योंकि पत्रकारिता की धाक और साख दोनों कायम है। भारतीय लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को इतना कमजोर भी न आंके। जय हिंद।