Friday, June 29, 2018

संजू : कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना

 
किसी भी बायोपिक देखने में काफी रिस्क होता है। रिस्क इसलिए क्योंकि आप उस शख्स के बारे पहले से बहुत कुछ जानते होते हैं। खासकर तब जब वो एक सेलेब्रेटी हो। ऐसे में उस जिंदा किरदार को फिल्मी परदे पर देखना आपको और आपके मन मस्तिष्क को अलग ही फील देता है। पर सामने जब राजकुमार हिरानी जैसा मंजा हुआ डायरेक्टर हो और रणबीर कपूर जैसा सुपर टैलेंटेड हीरो तो फिल्म बिना किसी रिस्क के देखी जा सकती है। संजू वैसी ही फिल्म है। संजय दत्त का जीवन जितना उतार चढ़ाव भरा रहा है वह किसी से छिपा नहीं है। पर तीन घंटे में उस पूरे उतार चढ़ाव को बेहतरीन अंदाज में प्रस्तुत किया गया है।
क्यों देखें इस फिल्म को
  • तीन बड़े कारणों से आपको यह फिल्म जरूर देखनी चाहिए। पहली बात राजकुमार हिरानी जैसे डायरेक्टर, दूसरा रणबीर कपूर जैसा एक्टर और तीसरा संजय दत्त जैसी शख्सियत जो इतना विवादित हो जाने के बावजूद आज भी करोड़ों दिलों पर राज करता है।
  •  यह फिल्म आपको एक ऐसी इमोशनल फिलिंग देगा जो आपकी आंखें नम कर दे। साथ ही गुदगुदाने के कई मौके भी आपको देगा। 
  • सुनील दत्त की भूमिका निभा रहे परेश रावल को उनकी अदाकारी के लिए नब्बे अंक दिए जा सकते हैं। दस अंक इसलिए काट रहा हूं क्योंकि गुजराती स्टाइल में पंजाबी बोलना उनके किरदार को कहीं शोभा नहीं देता। 
  • संजय दत्त का किरदार निभा रहे रणबीर कपूर ने अपने किरदार से पूरा न्याय किया है। उनके एक्सप्रेशन, डायलॉग डिलिवरी, बॉडी लैंग्वेज ने कहीं से यह फील नहीं होने दिया कि सामने संजय दत्त न हों। यहां तक की मुन्नाभाई एमबीबीएस के एक सीन को भी इस फिल्म में दोहराने के दौरान वो बिल्कुल संजू बाबा की तरह ही नजर आए हैं।
  • दोस्त अच्छा मिल जाए तो आपकी जिंदगी सुधर जाए, पर वह गड़बड़ हो तो आपकी जिंदगी नरक कैसे बन जाती है यह भी संजू में आपको देखने को मिलेगा। बेहतर दोस्त के रूप में विक्की कौशल ने महफील लूट ली है। उनके गुजराती कैरेक्टर ने फिल्म में जान डाल दी है, जो फिल्म के अंत तक अपना प्रभाव छोड़ती है। 
क्या मिस करेंगे आप
इस फिल्म को पूरी तरह संजय दत्त की बायोपिक कहना बायोपिक के अर्थ को कम करना होगा। तीन घंटे की इस मूवी में संजय दत्त के दो सबसे बड़े कंट्रोवर्सी को जस्टिफाई करने का ही प्रयास किया गया है।
फिल्म का पहला पार्ट संजय दत्त के ड्रग्स वाली जिंदगी और दूसरा पार्ट मुंबई बम धमाकों के इर्द गिर्द ही चक्कर खाता है। अगर आप संजय दत्त के बचपन से लेकर अब तक के किरदार या उनकी जिंदगी के कुछ अनछुए पहलुओं को देखने के लिए सिनेमा हॉल में जा रहे हैं तो आपको निराशा होगी।
और क्या-क्या है संजू में
-संजय दत्त की अय्यासी वाली जिंदगी, ड्रग्स वाली जिंदगी, मां नरगिश और पिता सुनील दत्त के साथ उनकी बांडिंग, जिंदगी में दोस्तों की अहमियत, मीडिया के प्रति उनकी नफरत ये कुछ अलग अलग प्वाइंट्स हैं जिसे आप संजू में देखेंगे।
फाइनल कमेंंट
एक दो सीन को अगर इग्नोर कर दें तो परिवार के साथ यह फिल्म जरूर देखी जा सकती है। साल 2018 की यह सबसे बड़ी फिल्म होगी। और हां फिल्म के अंतिम संवाद को अपनी जिंदगी का फलसफा अगर आप भी बना लेंगे तो हंसते खिलखिलाते यह जिंदगानी कटती रहेगी। उसी संवाद के बोल हैं..कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना..

Monday, June 25, 2018

रघुवर राज : रेप भी धर्म देखकर होने लगा है

एक तरफ जहां कश्मीर में बीजेपी की सरकार ने तीन सालों तक तुष्टिकरण की नीति पर चलते हुए अपनी इज्जत को तार-तार किया। वहीं दूसरी तरफ बीजेपी शासित झारखंड की रघुवर सरकार भी कमोबेस इसी तरह की स्ट्रेटजी पर काम कर रही है। कश्मीर में बीजेपी को समझ में आ गया कि हम तुष्टिकरण की नीति पर काम करेंगे तो आने वाले समय में हम लगातार पीछे होते जाएंगे। यह सच्चाई भी है, क्योंकि 2014 में बीजेपी को प्रचंड बहुमत इसलिए मिला था क्योंकि लोगों को विश्वास था कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार किसी खास वर्ग, समुदाय, धर्म आदि के तुष्टिकरण वाली राजनीति का हिस्सा नहीं बनेगी। पर चार साल बाद आज बीजेपी शासित राज्यों का विश्लेषण करें तो स्पष्ट होगा कि हर एक सरकार वोट सहेजने में तुष्टिकरण की नीति को तव्वजो दे रही है। झारखंड की ताजा गैंगरेप घटना ने मंथन करने पर मजबूर कर दिया है। मंथन इस बात पर कि क्या आदिवासियों और ईसाई समुदाय के प्रति तुष्टिकरण की नीति का ही यह परिणाम है कि पांच युवतियों से दिन दहाड़े रेप उनका धर्म देखकर किया गया। पांच युवतियों के अलावा दो ईसाई समुदाय की महिलाएं भी थीं, उन्हें वहां के फादर ने यह कहकर बचा लिया कि इन्हें छोड़ दो ये हमारे समुदाय की हैं। शेष लड़कियों को दरिंदों के हवाले कर दिया।
झारखंड की रघुवर सरकार के लिए इससे बड़ी शर्म की बात क्या होगी कि राजधानी रांची से महज एक घंटे की दूरी पर पांच युवतियों के साथ सामूहिक दुष्कर्म होता है और राज्य सरकार की मशीनरी को 48 घंटे बाद इसकी जानकारी मिलती है। हद तो यह है कि एक मिशनरी स्कूल में भरी दोपहरी में चल रहे कार्यक्रम के बीच से इन पांचों युवतियों का अपहरण किया जाता है। जिस वक्त अपहरण होता है उस वक्त स्कूल के सारे करीबन सारे शिक्षक, कर्मचारी और साढ़े तीन सौ बच्चे मौजूद होते हैं। दोपहर करीब दो बजे अपहरण होता है। पास के जंगल में ले जाकर पांचों युवतियों से सामूहिक दुष्कर्म होता है। उन्हें प्रताड़ना की पराकाष्ठा तक प्रताड़ित किया जाता है। पर आश्चर्यजनक है कि सरकारी तंत्र इस बात से पूरी तरह अनजान होता है। भरी दोपहरिया के बीच इतनी हृदय विदारक घटना हो जाती है पर सरकार का कोई भी तंत्र इस घटना को रिपोर्ट नहीं करता।
साधुवाद है झारखंड की मीडिया का जिन्होंने सच को सामने लाने में मदद की। रघुवर सरकार के सरकारी तंत्र ने कोई कसर बाकि नहीं रखी इस मामले को दबाने में। पर मीडिया रिपोर्टिंग के आगे वे बेबस हुए। जैसे तैसे पुलिस अधिकारियों ने स्वीकार किया कि हां सामूहिक दुष्कर्म हुआ था। यह वारदात जितनी बड़ी थी रघुवर सरकार की मशीनरी ने इसे उतने ही हल्के तरीके से लिया। सवाल और मंथन इस बात पर भी है कि इतने हल्के तरीके से लेने की उन्हें हिम्मत किसने दी। क्या रघुवर दास की ईसाइयों और मिशनरी के प्रति तुष्टिकरण पॉलिसी ने यह हिम्मत दी, या फिर सरकारी तंत्र को भी पता है कि इस तरह की घटनाएं सामान्य हैं। इसे सामान्य ही मान लिया जाए। रघुवर सरकार इस बात को स्वीकारने की हिम्मत क्यों नहीं जुटा पा रही है कि ईसाई मिशनरियों की आड़ में घोर अलगाववादी ताकतों ने झारखंड के आदिवासी इलाकों में अपनी पैठ जमा ली है। क्यों नहीं इस बात को स्वीकार किया जा रहा है कि आदिवासियों को बरगला कर उनसे अनैतिक कामों को बढ़ावा देने में विदेशी ताकतें सक्रिय हैं। यह सक्रियता ठीक उसी तरह है जैसे कश्मीर में मुस्लिम समुदाय को बरगलाया जा रहा है।
मैंने अपने मंथन की शुरुआत कश्मीर से की थी और झारखंड की तुलना कश्मीर से करने की हिमाकत की थी। कश्मीर में पत्थरबाज अपने शासन, अपने कानून, अपनी सरकार और अपनी सेना से भीड़ रहे हैं। वहीं झारखंड में पत्थलगड़ी के समर्थकों ने आग सुलगा रखी है। हालात दोनों जगह एक से हैं। कश्मीर में विदेशी फंडिंग से मिल रहे पैसों के बल पर पत्थर फेंक कर आक्रोश जताया जा रहा है, वहीं झारखंड में पत्थर गाड़ कर अपनी हुकूमत का ऐलान किया जा रहा है। आदिवासी इलाकों में जहां पत्थर गाड़ दिया गया वहीं उनकी हुकूमत शुरू हो जाती है। इसके बाद जो खेल हो रहा है वह काफी सोचनीय है। झारखंड में पत्थलगड़ी की परंपरा काफी पुरानी है। यह झारखंडी संस्कृति का एक हिस्सा भी है। पर अचानक ऐसा क्या हुआ है कि झारखंड में रघुवर सरकार के दौर में पत्थलगड़ी ने अपराध का रूप ले लिया है। पांच युवतियों से गैंग रेप ने तो इसका एक ऐसा घिनौना रूप सामने ला दिया है जिसकी जितनी भी भर्त्सना की जाए कम है।
युवतियों से गैंगरेप सिर्फ इस आक्रोश में हुआ कि उन्होंने पत्थलगड़ी वाले इलाके में ‘अनैतिक घुसपैठ’ की। अभी तक जो बात सामने आई है उसमें स्पष्ट हुआ है कि पत्थलगड़ी के समर्थकों ने ही युवतियों का अपहरण उन्हें सबक सिखाने के लिए किया था। जिस इलाके में यह दल नुक्कड़ नाटक प्रस्तुत करने गया था वह पत्थलगड़ी का इलाका है। यहां बगैर उनकी इजाजत के कोई आ जा नहीं सकता। यह रघुवर दास सरकार की सबसे कमजोर रणनीति का ही नतीजा है कि पत्थलगड़ी के समर्थकों के हौसले धीरे-धीरे इतने बुलंद होते गए। इंटरनेट पर सर्च करें तो मीडिया रिपोर्ट में पाएंगे कि इससे पहले भी साल 2016 में 25 अगस्त को खूंटी के कांकी में ग्रामीणों ने पुलिस के कई आला अफसरों और जवानों को तेरह घंटे तक बंधक बना लिया था। इस साल 21 फरवरी को अड़की के कुरूंगा गांव में पारंपरिक हथियारों से लैस ग्रामीणों ने कई घंटे तक पुलिस के जवानों को रोके रखा। 28 फरवरी को भी इसी गांव नक्सलियों के खिलाफ सर्च अभियान करने निकले सीआरपीएफ के जवानों को बंधक बनाया गया। इस तरह की घटना क्या संकेत दे रही है? क्या रघुवर दास सरकार इस पर मंथन नहीं कर रही है? क्यों तुष्टिकरण की नीति को स्वीकार कर इनके हौसलों को बढ़ाया जा रहा है? क्या सरकार के पास यह इनपुट नहीं है कि पत्थलगड़ी की आड़ में विदेशी ताकतों ने अलगाववादियों को प्रश्रय देना शुरू कर दिया है। विदेशी फंड की आड़ में जिस तरह कश्मीर के बेरोजगार युवकों को बरगलाया जा रहा है, ठीक उसी तरह की स्थिति झारखंड के ग्रामीण इलाकों में हो चुका है। यहां भी अलगववाद की आग फैल चुकी है। युवतियों के साथ गैंग रेप इसका सबसे घिनौना रूप है।
ऐसा नहीं है कि झारखंड की पत्थलगड़ी की परंपरा कोई नई है। काफी सालों से वहां के ग्रामीण अपने ग्रामीण शासन की मुनादी करने के लिए पत्थर गाड़ते आ रहे हैं। पर अब परिस्थितियां दूसरी है। अब इसकी आड़ में असमाजिक तत्वों ने अपनी पैठ बना ली है। अभी नक्सली समस्याओं से सरकार इतने सालों से जूझ ही रही है कि पिछले तीन चार सालों में पत्थलगड़ी की समस्या ने अपना घिनौना रूप दिखाना शुरू कर दिया है। अब भी मंथन का वक्त है। रघुवर सरकार के साथ-साथ केंद्र सरकार को भी झारखंड की इस नवांकुर समस्या पर वृहत ध्यान देना होगा। अगर मंथन नहीं किया तो आने वाले समय में कश्मीर जैसे हालात बनते देर नहीं होगी। जिस तरह कश्मीर के पत्थर फेंक कर वहां के शरारती तत्वों ने सरकार की नाक में दम कर दिया है। उसी तरह पत्थर गाड़ कर झारखंड में एक नई समस्या का बिजारोपण हो चुका है। पांच युवतियों की इज्जत ने पूरे झारखंड को शर्मशार कर दिया है। पूरे झारखंड में शोक और आक्रोश की लहर है। अगर इस वक्त भी सरकार अपनी तुष्टिकरण वाली रणनीति पर काम करती है तो अधिक वक्त नहीं है अगले चुनाव में। जनता जवाब देना जानती है। कहीं ऐसा न हो कि जिस तरह झारखंड में युवतियों की जाति और धर्म को देखकर बदसलूकी की शुरुआत हुई है, यह रघुवर सरकार की अर्थी की आखिरी कील बन जाए।

Monday, June 18, 2018

कायरों ने एक औरंगजेब मारा, हजारों मर मिटने को तैयार



आज मंथन से पहले आप पाठकों को इंडियन मिलिट्री एकेडमी (आईएमए) के एंथम की चंद पंक्तियां पढ़वा रहा हूं। गौर से पढ़िए। जावेद अख्तर के लिखे इस एंथम को आप यू-ट्यूब पर बेहतर तरीके से सुन सकते हैं, ताकि इसके बोल को आप हमेशा के लिए गुनगुनाने को आत्मसात कर सकें।

भारत माता तेरी कसम, तेरे रक्षक रहेंगे हम
वंदे मातरम..वंदे मातरम..वंदे मातरम
मां हमने तनमन जीवन तुझसे ही पाए हैं
तेरी धरती से जन्मे हैं तेरे ही फल खाए हैं
हम पर तेरी ममता, तेरी करुणा के साये हैं
तेरी बाहों में हैं पले, मां हम तेरे हैं लाडले
दीवारें हम बनेंगे मां, तलवारें हम बनेंगे मां
छू ले तुझको है किसमें दम
भारत माता तेरी कसम
वंदे मातरम..वंदे मातरम..

न पंक्तियों को पढ़कर आपको अहसास हो गया होगा कि एक उमर फैयाज और एक औरंगजेब को मारकर आतंकी हमारे बहादुर जवानों का हौसला नहीं डिगा सकते। यह कायराना हरकत कर आतंकी सिर्फ दहशत का संदेश देना चाहते हैं, पर उन्हें शायद यह मालूम नहीं कि जिस धरती मां के साये में इन जांबाजों को दफन किया गया है, उसी धरती मां की कोख से हजारों नौजवान देश पर मर मिटने को तैयार हैं। पिछले साल मई के महीने में आतंकियों ने लेफ्टिनेंट उमर फैयाज को किडनैप कर लिया था। बाद में उनकी हत्या कर दी थी। यह संदेश कश्मीरी युवाओं के लिए था, जो सेना में हैं या जाना चाहते हैं। आतंकियों का संदेश साफ था। जो युवा सेना से जुड़ेंगे उनका भी हश्र ऐसा ही होगा। पर हुआ इसका उलटा।

आपको जानकर सुखद आश्चर्य होगा कि इस साल इंडियन मिलिट्री एकेडमी से जम्मू कश्मीर के सर्वाधिक युवाओं ने भारतीय सेना में कमिशन प्राप्त किया है। पिछले साल की पीओपी में जहां जम्मू-कश्मीर टॉप टेन से बाहर था। वहीं इस साल जून के प्रथम सप्ताह में संपन्न हुए पासिंग आउट परेड में जम्मू कश्मीर के 17 युवा भारतीय सेना में आॅफिसर बने हैं। सर्वाधिक सैन्य अधिकारी देने वाले राज्यों में जम्मू कश्मीर आठवें स्थान पर रहा है। यह कोई साधारण बात नहीं है, क्योंकि जब पिछले साल लेफ्टिनेंट उमर की हत्या हुई थी तो कई तरह की आशंकाएं पैदा हो गई थी। आतंकियों ने लगभग 26 साल बाद इस तरह की कायराना हरकत की थी। मैंने पिछले साल उमर फैयाज की शहादत पर अपने इसी कॉलम में उनकी चर्चा करते हुए लिखा था कि ‘‘उमर की शहादत ने कश्मीर के युवाओं को बड़ा संदेश देकर उमर को अमर कर दिया है।’’ आज मुझे गर्व के साथ दुख भी हो रहा है। गर्व इस बात पर कि जम्मू कश्मीर से एक साथ इतने युवाओं ने भारतीय सेना में शामिल होकर भारत मां की रक्षा की कसम खाई है। दुख इस बात पर कि एक बार फिर आतंकियों ने अपनी पुरानी स्ट्रेटजी पर काम करते हुए राइफल मैन औरंगजेब की हत्या कर दी है। उमर की तरह औरंगजेब को भी किडनैप करके मारा गया।
उमर और औरंगजेब की शहादत ने हमारे हुक्मरानों को भी सोचने और मंथन करने का नया नजरिया दिया है। कश्मीर के युवाओं को एक नए नजरिए से समझने की जरूरत है। चंद पत्थरबाजों की बात छोड़ दें तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कश्मीर के युवा भटकाव की स्थिति में नहीं हैं। कुछ रुपयों की लालच में पाकिस्तान और आईएसआईएस का झंडा उठाए कश्मीर के युवा जब पत्थरबाजी करते हैं तो आश्चर्य होता है। आश्चर्य इस बात से कि कैसे युवाओं का एक वर्ग इतनी जल्दी बहक जा रहा है। कैसे उन्हें मोटिवेट कर लिया जा रहा है। क्यों वे भारत में रहकर भारत मां के खिलाफ हो रहे हैं। राजनीतिक चश्मा उतार कर मंथन करें तो पाएंगे कि आसानी से मिलने वाले रुपयों की खातिर वे पत्थर फेंकने से नहीं हिचक रहे हैं। पहले इन्हीं रुपयों की लालच में वे सेना पर हैंड ग्रेनेड तक फेंक दिया करते थे। कई रिपोर्ट्स में इस बात का खुलासा हो चुका है कि ये पत्थरबाज पेड इंप्लाई की तरह काम कर रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि इन पेड इंप्लाइज की हरकतों को कैमरे में कैद कर सोशल मीडिया पर वायरल किया जाता है, ताकि पूरा विश्व कश्मीर के ‘पैदा किए हुए’ हालातों से रूबरू हो सके। यह इतना प्लांड तरीके से किया जा रहा है कि सबकुछ सामान्य लगे। 

हाल ही में जब राजनाथ सिंह ने हजारों पत्थरबाजों के ऊपर से मुकदमा हटाने की बात कही थी तो तीव्र प्रतिक्रिया सामने आई थी। कहा जाने लगा कि वोट की राजनीति ने केंद्र सरकार को मजबूर कर रखा है। पर भारत सरकार ने कश्मीर के युवाओं के प्रति नए नजरिए से मंथन शुरू किया है। यह नया नजरिया उन्हें अपने करीब लाने का है। कश्मीरी युवाओं के हालात का अर्द्धसत्य ही हम देख पा रहे हैं। जबकि दूसरे पहलू से हम अनजान हैं। आईएमए का पासिंग आउट परेड इसी तस्वीर का दूसरा पहलू है। आईएमए ही नहीं बल्कि सेना, अर्द्धसैनिक बल, कश्मीर पुलिस की तमाम भर्तियों में भारी संख्या में उमड़ रही युवाओं की भीड़ ने भी मंथन करने पर मजबूर कर दिया है। युवाओं की इसी भीड़ ने आतंकी आकाओं के होश उड़ा रखे हैं। उन्हें पता है कि बेरोजगारी ही एक ऐसा रास्ता है जहां से युवाओं को पत्थरबाज या आतंकी बनाया जा सकता है। जब बेरोजगारी का दांव फेल होता दिखा है तो उमर और औरंगजेब जैसे कश्मीरी युवाओं के जरिए संदेश दिया जा रहा है। यही वो समय है जब केंद्र सरकार अपनी सारी ताकत झोंक कर आतंकियों को मजबूत संदेश दे। 
  मंथन इस बात पर भी होना चाहिए कि कश्मीर की लड़ाई अब बंदूक और गोलियों से अधिक मनोवैज्ञानिक बन चुकी है। इस मनोवैज्ञानिक युद्ध में अगर केंद्र सरकार कमजोर पड़ गई तो आने वाले समय में मूंह पर कपड़ा बांधे पत्थरबाज और अधिक संख्या में बाहर निकलेंगे। यह सुखद संदेश है कि वर्षों से कराह रहे कश्मीर को लेकर केंद्र सरकार ने नए नजरिए से मंथन करना शुरू किया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले समय में और अधिक सकारात्मक परिणाम सामने आएंगे। केंद्र सरकार इस बात पर भी जरूर मंथन करे कि क्यों नहीं कश्मीरी युवाओं के सकारात्मक पहलुओं से पूरी दुनिया को रूबरू करवाया जाए। क्यों इस मनोवैज्ञानिक युद्ध में पत्थरबाज बाजी मार रहे हैं। खुद की बनाई वीडियो कैसे तत्काल वे वायरल कर देते हैं, जबकि कश्मीरी युवाओं के दूसरे सकारात्मक पहलूओं को क्यों नहीं वायरल होने दिया जा रहा है। क्यों नहीं पूरी दुनिया को बताया जा रहा है कि कायरों ने एक औरंगजेब को मारा है, जबकि औरंगजेब जैसे हजारों सूरवीर भारत मां की रक्षा को मर मिटने को तैयार बैठे हैं।
चलते-चलते
शहीद लेफ्टिनेंट उमर फैयाज और राइफलमैन औरंगजेब की शहादत कश्मीर के युवाओं को लंबे समय तक याद दिलाती रहेगी कि चंद कायरों की हरकत उनके कदम नहीं रोक सकती है। दीवारें हम बनेंगे मां, तलवारें हम बनेंगे मां, छू ले तुझको है किसमें दम..गीत गाने वाले हजारों सूरवीरों को मेरा नमन।

Monday, June 4, 2018

लोग आते हैं, लोग जाते हैं हम यहीं पर खड़े रह जाते हैं...

आज मंथन से पहले मैं आप लोगों को एक छोटी सी सच्ची कहानी बता रहा हूं। 28 मई की रात करीब डेढ़ बजे मैं अंबाला कैंट रेलवे स्टेशन पर था। दीदी आर्इं थी। वापसी की ट्रेन गोल्डन टेंपल रात दो बजे के करीब थी। गाड़ी से सामान उतारकर कुली को खोजने लगा। पास में ही दो कुली मिले। एक सो रहा था, दूसरा लेटा हुआ आसमान को निहार रहा था। मैंने उसे चलने को कहा। सामान के पास आया निरीक्षण किया। बोला तीनों बैग के डेढ़ सौ रुपए लूंगा। मैंने हामी भरी। इतने में वह सोए हुए कुली के पास चला गया और उसे उठाने लगा। मैंने सोचा तीनों बैग उठाने के लिए वह एक और कुली लेकर आ गया। अब वह तीन सौ चार्ज करेगा। मैंने तत्काल उसे बोला, भाई मुझे एक ही कुली चाहिए। उसने तत्काल मेरी मनोदशा भांप ली और बोला सर आपसे डेढ़ सौ ही लूंगा। खैर दोनों ने मिलकर सामान उठा लिया। मेरे हाथ में छोटा सा हैंड बैग था, उसने वह भी मुझसे ले लिया। कहा आप बच्चों का हाथ पकड़ लीजिए। प्लेटफॉर्म नंबर दो पर ट्रेन थी। हम वहां पहुंचकर वेट करने लगे। दोनों कुली भी आस पास ही टहलने लगे। रात दो बजकर दस मिनट पर ट्रेन आई। दोनों ने बड़े ही शालीन तरीके से सामान बोगी के अंदर पहुंचाया। सामान को सीट के नीचे तसल्लीबख्श रखा और ट्रेन से उतर आए। नीचे आने पर एक कुली को डेढ़ सौ रुपया थमाया। दोनों चले गए। ट्रेन भी करीब पांच मिनट रूक कर चली गई।
ट्रेन तो रुख्सत हो गई, पर जो सवाल मेरे मन में थे वो कहीं से भी रुख्सत होने का नाम नहीं ले रहे थे। सवाल एक ही था, आखिर ऐसा क्या था कि उस कुली ने इतने कम सामान के लिए एक और कुली किया। फिर अपने डेढ़ सौ रुपए में से मजदूरी भी शेयर की होगी। इसी उधेड़बुन में प्लेटफॉर्म से बाहर आ गया। मेरी नजरें चारों तरफ उसी दोनों कुली को खोज रही थी। गाड़ी स्टार्ट करने के बाद भी मैंने बढ़ाई नहीं। गाड़ी बंद कर फिर से उन दोनों को खोजने निकल गया। जहां उन दोनों को मैंने पहली बार देखा था, वहीं पहले वाला कुली मिल गया। मेरे सामने आते ही वह चौंक गया। बोला क्या हुआ बाबूजी आप गए नहीं। मैंने उससे पूछा क्या मैं तुमसे बात कर सकता हूं। उसने कहा, पूछिए क्या पूछना है। सबसे पहले उसका नाम पूछा। उसने अपना नाम टोनी बताया। मैंने कहा टोनी यह बताओ मेरे पास सामान भी अधिक नहीं था, फिर भी तुमने अपने साथी को क्यों बुलाया। अपनी आधी मजदूरी भी उसे दे दी। टोनी की आंखें डबडबा गई। बोला सर दरअसल हमारा टर्म रात का है। आधी रात गुजर गई थी, हम दोनों की बोहनी (मजदूरी की शुरुआत) तक नहीं हुई थी। आप पहले पैसेंजर थे, जिन्हें कुली की जरूरत महसूस हुई थी। मेरा साथी तो हताश होकर सो गया था। मैंने उसे इसलिए साथ कर लिया चलो 75-75 रुपए तो दोनों को मिलेंगे। कहीं पूरी रात कोई पैसेंजर नहीं मिलता तो मेरे दोस्त को भी खाली हाथ ही घर जाना पड़ता। सुबह बच्चे भी इंतजार करते हैं हमारे घर आने का। अब आंखे डबडबाने की बारी मेरी थी। मैं सोचने पर मजबूर हो गया कि क्या आज कुलियों की स्थिति ऐसी हो गई है। बार-बार यह खबरें सुनने में आती हैं कि अपनी मांगों को लेकर कुली हड़ताल कर रहे हैं। पर आज उनकी हड़ताल का असली मतलब और दर्द समझ में आया।
भारत में कुलियों का अस्तित्व तब से है जब भारत में रेल का पदार्पण हुआ। 164 वर्ष पुरानी रेल की व्यवस्था में बहुत कुछ बदला। कुलियों की वर्दी बदली। व्यवस्थाएं बदली। लाइसेंस सिस्टम शुरू हुआ। पर नहीं बदले तो सिर्फ कुलियों के हालात। जो मुफलिसी के हालात वर्षों पहले कायम थे आज भी उसी हालात में हैं भारतीय कुली। टोनी और उसके साथियों से हुई चर्चा के बाद कई ऐसे पहलू सामने आए जो आपको भी मंथन करने को मजबूर कर देंगे। स्टेशन पर सुविधाएं बढ़ती गर्इं। यात्रियों के आवागमन के लिए स्वचालित सीढ़ियां आ गर्इं। ट्रॉली वाले बैग ने भी यात्रियों को सुविधाएं दीं। बैट्री वाली गाड़ियों ने पैसेंजर्स को आराम दिया। ऐसे में सबसे अधिक प्रभावित कुली हुए। वर्षों से उनके मजदूरी के रेट रिवाइज नहीं हुए। लाइसेंस भी अधिक संख्या में दिए जाने लगे। ऐसे में कुलियों की संख्या तो बढ़ गई, लेकिन उनकी कमाई बेहद कम होती गई। कमाई घटने के कारण ही कई स्टेशनों पर कुली कई दूसरे तरह के कामों में भी व्यस्त हो गए हैं। सीटों की अवैध बिक्री, जनरल डिब्बों में चढ़ाने के लिए पैसे लेना जैसे कुछ ऐसे काम भी कुली करने लगे हैं जो अपराध की श्रेणी में आते हैं। पर पेट की मजबूरी उन्हें इस तरह के अपराध करने को विवश करने लगी है।
हर रेलवे बजट से कुलियों को अपने उत्थान के लिए बहुत उम्मीदें रहती हैं। पर उन्हें हर बार निराशा ही हाथ लगती है। ऐसे में कुलियों ने पिछले साल से अपनी मांगों के लिए देशव्यापी आंदोलन शुरू कर रखा है। उनकी एक प्रमुख मांग कुलियों को रेलवे में गु्रप डी में शामिल करना है। साथ ही मेडिकल की सुविधा और बच्चों की पढ़ाई भी प्रमुख मांगों में से है। केंद्र सरकार जहां एक तरफ सबसे उपेक्षित वर्गों के कल्याण के लिए तमाम योजनाओं का संचालन करती है, वहीं अगर कुलियों की तरफ नजर उठाएं तो उनके लिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं जिसमें वे अपना जीवन सुरक्षित कर सकें। बड़े स्टेशनों पर तो कुलियों की स्थिति थोड़ी बहुत ठीक भी है, लेकिन छोटे स्टेशनों पर इनकी स्थिति बेहद चिंताजनक है। पूरे देश के कुली एक बार फिर से दिल्ली में जुटने की तैयारी में हैं। संभवत: जुलाई में इनकी राष्टÑव्यापी हड़ताल हो, ताकि वो अपनी मांगों के प्रति केंद्र सरकार का ध्यान आकर्षित करवा सकें।
कुलियों के स्टेशन पर न होने की स्थिति में होने वाली परेशानियों से रेलवे पूरी तरह वाकिफ है। बावजूद इसके उनके विकास और उत्थान के लिए कोई कारगर कदम उठाने के प्रति संवेदनहीन बनी हुई है। मंथन करने का समय है कि क्या वह हमारे समाज का हिस्सा नहीं हैं। जब सामान्य मजदूरों की भी न्यूनतम मजदूरी और सौ दिन काम जैसे महत्वपूर्ण कदम उठाए जा सकते हैं। मनरेगा जैसी स्कीम लागू की जा सकती है, तो क्यों नहीं कुलियों के लिए भी कोई सार्थक कदम उठाया जाए।
चलते-चलते
फिल्मी दुनिया के दो महानायक हैं जिन्होंने रीयल और रील लाइफ में कुली का किरदार निभाया है। अपनी मुफलिसी के दिनों में रजनीकांत ने कुली तक का काम किया, जबकि सुपरस्टार अमिताभ बच्चन ने फिल्म कुली में अपना ऐतिहासिक किरदार निभाया। इसी फिल्म में शायद पहली बार कुलियों की जिंदगी पर कोई गाना लिखा गया, जिसके बोल थे.. सारी दुनिया का बोझ हम उठाते हैं, लोग आते हैं लोग जाते हैं हम यहीं पर खड़े रह जाते हैं।  यह बोल आज भी प्रासंगिक हैं। लोग आए गए, सरकारें आई गई पर कुली आज वहीं खड़े हैं जहां 164 साल पहले खड़े थे। उसी मुफलिसी और बेकदरी के आलम में।