Tuesday, September 25, 2018

मुजफ्फरपुर में अंडरवर्ल्ड की इनसाइड स्टोरी : मुजफ्फरपुर में पहली बार 1990 में अशोक सम्राट ने दिखाई थी एके 47 की हनक



बिहार में अंडरवर्ल्ड के इतिहास में मुजफ्फरपुर का अलग स्थान रहा है। इस धरती पर जहां कई क्रांतिकारियों ने जन्म लिया, वहीं अंडरवर्ल्ड के कई बड़े डॉन ने मुजफ्फरपुर को अपना ठिकाना बनाया। जिस दौर में भारत के बड़े माफियाओं के पास भी एके-47 जैसे अत्याधुनिक हथियार नहीं थे, उस दौर में मुजफ्फरपुर में इसकी गर्जना सुनी जाने लगी थी। एके 47 से बिहार में संभवत: पहली हत्या 1990 में हुई थी। अंडरवर्ल्ड डॉन अशोक सम्राट ने अपने प्रिय रहे मिनी नरेश की हत्या का बदला लेने के लिए मुजफ्फरपुर के छाता चौक पर एके 47 की हनक दिखाई थी। बिहार में पहली बार एके 47 से हत्या हुई थी। एके 47 की हनक का आलम यह था कि छाता चौक पर काजी मोहम्मदपुर थाने के ठीक सामने दिन दहाड़े मिनी नरेश की हत्या के मुख्य आरोपी डॉन चंद्रश्चर सिंह की हत्या की गई थी। इसके बाद न तो अशोक सम्राट ने पीछे मुड़कर देखा और न एके 47 की हनक ने। अंडरवर्ल्ड डॉन की लाश तो बिछती गई, लेकिन एके 47 की हनक आज तक कायम है। मुजफ्फरपुर के पूर्व मेयर समीर कुमार की हत्या ने एक बार फिर इस शहर में एके 47 के खौफ को कायम कर दिया है।

मुजफ्फरपुर में एके 47 की हनक और अंडरवर्ल्ड की कहानी जानने के लिए आपको थोड़ा पीछे की तरफ लेकर जाता हूं। इसकी इनसाइट स्टोरी काफी रोचक है। तीन से चार किस्तों में आपको यह कहानी बताऊंगा। आज पहली किस्त..
एलएस कॉलेज से शुरू होती है अंडरवर्ल्ड की कहानी
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि मुजफ्फरपुर में माफिया, गुंडागर्दी, अंडरवर्ल्ड चाहे कोई और नाम दे दीजिए, इसकी कहानी बिहार के सबसे प्रतिष्ठित कॉलेज लंगट सिंह महाविद्यालय से शुरू होती है। इस कॉलेज कैंपस से शुरू हुई वर्चस्व की जंग में अब तक सैकड़ों लाश गिर चुकी है। इसी कैंपस से निकले कई छात्रों ने अंडरवर्ल्ड में दशकों तक राज किया है।


1971-72 में पहली बार बम चला 1978 में पहली लाश गिरी कैंपस में
दरअसल उत्तर बिहार के सबसे बड़े शहर मुजफ्फरपुर को शैक्षणिक गढ़ भी माना जाता था। दो बड़े कॉलेज लंगट सिंह कॉलेज और रामदयालू कॉलेज के अलावा यहां बिहार यूनिवर्सिटी थी। जिसके कारण आसपास के सैकड़ों छात्र यहां शिक्षा ग्रहण करने आते थे। इन छात्रों में क्षेत्रवाद और जातिवाद बुरी तरह हावी था। इसके कारण यहां पढ़ने वाले छात्र कई गुटों में विभाजित रहे। हजारों एकड़ में फैले लंगट सिंह कॉलेज कैंपस में शुरुआती दौर में तीन हॉस्टल थे। जिसमें ड्यूक हॉस्टल का अपना वर्चस्व था। हॉस्टल में 60 के दशक से वर्चस्व की जंग शुरू हुई। जंग शुरू करने वालों में शामिल थे बेगूसराय और मुंगेर अंचल से आए छात्र। इनकी अदावत थी मुजफ्फरपुर जिले के स्थानीय युवाओं से। भुमिहार और राजपुतों के साथ शुरू हुई वर्चस्व की जंग में कैंपस में पहली लाश गिरी 1978 में। हालांकि इससे पहले साठ और सत्तर के दशक में भी कैंपस में मारपीट होती थी, पर किसी छात्र या दबंग की हत्या नहीं हुई थी। कॉलेज कैंपस में पहली बार बम और गोली भी चलाई थी बेगुसराय के छात्र ने ही। साल 1971-72 में बेगुसराय निवासी कम्युनिस्ट नेता सुखदेव सिंह के पुत्र वीरेंद्र सिंह ने अपनी दबंगई कायम करने के लिए पहली बार कैंपस में बम और गोली चलाई थी। ड्यूक हॉस्टल पर बम और गोलियों से हमला किया गया था। इस वारदात के बाद एलएस कॉलेज कैंपस में हर दूसरे महीने बम के धमाके सुने जाने लगे। धीरे-धीरे वर्चस्व की लड़ाई तेज होती गई। साल 1978 में कॉलेज कैंपस में पहली लाश गिरी मोछू नरेश के रूप में। यह वर्चस्व की जंग में पहली हत्या थी।

1978 : मोछू नरेश की हत्या से शुरू हुआ खूनी संघर्ष
दबंग छात्र रहे मोछू नरेश की हत्या ने कॉलेज और यूनिवर्सिटी कैंपस को आतंक का गढ़ बना दिया। मोछू नरेश की हत्या में नाम आया बेगूसराय के कामरेड सुखदेव सिंह के पुत्र वीरेंद्र सिंह का। कैंपस में हत्याओं की नींव डाली बेगूसराय के छात्रों ने ही। पर सबसे बड़ा तथ्य यह है कि सबसे अधिक लाश भी गिरी बेगुसराय के छात्रों की ही। मोछू नरेश के बाद कैंपस में दबंगई कायम की मिनी नरेश ने। मोछू नरेश की गद्दी संभालते ही मिनी नरेश कैंपस में अपनी दहशत कायम की। उसे राजनीतिक और बाहरी संरक्षण भी मिला। जिसके कारण विरेंद्र सिंह को शांत होना पड़ा। पर अंदरूनी अदावत जारी रही। दोनों का ठिकाना कॉलेज और यूनिवर्सिटी हॉस्टल ही रहा।

1983 : मिनी नरेश का वर्चस्व
मोछू नरेश की गद्दी संभाल रहे मिनी नरेश ने कॉलेज कैंपस से ही अपना वर्चस्व कायम किया। उसे अशोक सम्राट जैसे अंडरवर्ल्ड डॉन का समर्थन प्राप्त था। यह वह दौर था जब बिहार यूनिवर्सिटी का कई सौ एकड़ में अपना कैंपस बन रहा था। एलएस कॉलेज कैंपस से सटे इस नए साम्राज्य का विस्तार हो रहा था। इस साम्राज्य पर भी अपने अधिकार का जंग शुरू हो गया था। मिनी नरेश ने कई हॉस्टल और डिपार्टमेंट का ठेका भी लिया। इसमें मोटी कमाई हो रही थी। अशोक सम्राट का अपने ऊपर हाथ होने के कारण मिनी नरेश ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1983 में मिनी नरेश ने ठेकेदार रामानंद सिंह की हत्या कर दी। इसी दौर में मोतिहारी से मुजफ्फरपुर में आ बसे चंदेश्वर सिंह अपना वर्चस्व कायम कर रहा था। उसके रास्ते का सबसे बड़ा कांटा बना था वीरेंद्र सिंह। 1983 में चंदेश्वर सिंह ने छाता चौक पर वीरेंद्र सिंह की हत्या कर मुजफ्फरपुर के डॉन के रूप में अपनी दस्तक दी।

ठेकेदारी की जंग
एलएस कॉलेज और बिहार यूनिवर्सिटी कैंपस से शुरू हुई अंडरवर्ल्ड की कहानी से इतर कैंपस से बाहर भी अंडरवर्ल्ड की दूसरी कहानी चल रही थी। इस कहानी के नायक थे बाहूबली अंडरवर्ल्ड डॉन अशोक सम्राट और एलएस कॉलेज कैंपस से ही निकले छोटन शुक्ला। वैशाली जिले के साधारण परिवार से आने वाले छोटन शुक्ला ने 12वीं की पढ़ाई के लिए एलएस कॉलेज में नामांकन करवाया। इसी वक्त उनके पिता की हत्या हो गई। कलम थामने के लिए उठे हाथ ने बंदूक थाम ली। छोटन शुक्ला ने काफी तेजी से अंडरवर्ल्ड की दुनिया में अपनी दबंगता कायम की। यह वह दौर था जब पूरे तिरहुत प्रमंडल में ठेकेदारी में वर्चस्व की जंग चल रही थी। अशोक सम्राट का यहां एकछत्र राज था। उन्हें राजनीति संरक्षण मिला था बिहार के चर्चित नेता हेमंत शाही का। उधर मोतिहारी से मुजफ्फरपुर आए चंदेश्वर सिंह ने भी शहर में अपनी दहशत कायम कर ली थी। चंदेश्वर सिंह के ऊपर हाथ था उत्तर बिहार के सबसे दबंग नेता रघुनाथ पांडे का। चंदेश्वर सिंह के नाम से पूरा शहर कांपने लगा था। ठेकेदारी में सबसे अधिक पैसा था। इसलिए हर कोई इसमें वर्चस्व चाहता था। वर्चस्व की जंग में लाशें गिरनी शुरू हो गई थी। एक दूसरे के कारिंदों पर गोलियां दागी जाने लगी थी। पर सबसे बड़ी लाश गिरी चंदेश्वर सिंह के बेटे के रूप में।

1989 : मिनी नरेश की हत्या
बिहार यूनिवर्सिटी कैंपस के पीजी ब्वॉयज हॉस्टल नंबर तीन से अपना गिरोह संचालित कर रहे मिनी नरेश ने कैंपस में एकाधिकार जमा लिया था। हाल यह था कि एलएस कॉलेज और यूनिवर्सिटी में मिनी नरेश का ही आदेश चलता था। एक दशक से अधिक समय तक मिनी नरेश ने कैंपस में राज किया। उस दौर में कैंपस में सरस्वती पूजा का जबर्दस्त क्रेज था। हजारों रुपए का चंदा जमा होता था। सबसे बड़ी और भव्य पूजा पीजी हॉस्टल नंबर पांच में होती थी। यह पूजा पूरी तरह मिनी नरेश के संरक्षण में होती थी। दस फरवरी 1989 को ठीक सरस्वती पूजा के दिन ही पीजी हॉस्टल नंबर पांच बम और गोलियों के धमाके से गूंज उठा। हर तरफ से बमों के धमाकों की आवाज आ रही थी। चंदेश्वर सिंह और उसके गुर्गों ने मिनी नरेश को संभलने का मौका तक नहीं दिया। सरस्वती पूजा के दिन कैंपस में मिनी नरेश की हत्या कर दी गई। बेगूसराय के राहतपुर निवासी मिनी नरेश की हत्या के बाद कई दिनों तक कैंपस खाली रहा। हॉस्टल विरान हो गए। किसी बड़ी अनहोनी की आशंका में क्लास तक नहीं चले। चंदेश्वर सिंह के अलावा इस हत्याकांड में पहली बार नाम आया छोटन शुक्ला का।

1990 : मिनी नरेश की हत्या का बदला
जिस फिल्मी और बेखौफ अंदाज में मिनी नरेश की हत्या हुई थी उसने बिहार के अंडरवर्ल्ड को हिला कर रख दिया था। बताया जाता है कि उस वक्त हॉस्टल नंबर पांच में हर जगह बम के छर्रे के निशान थे। करीब दो सौ बम दागे गए थे। मिनी नरेश की हत्या के बाद चंदेश्वर सिंह अंडरग्राउंड हो गए थे। मिनी नरेश के आका रहे अशोक सम्राट ने बदला लेने का खुला ऐलान कर रखा था। यही वह दौर था जब बिहार के अंडरवर्ल्ड में एके 47 पहुंच चुका था, लेकिन अब तक उसका इस्तेमाल नहीं हुआ था। अशोक सम्राट ने ठीक एक साल बाद 1990 में उसी फिल्मी अंदाज में ठीक सरस्वती पूजा के दिन ही छाता चौक पर दिनदहाड़े चंदेश्वर सिंह की हत्या कर दी। छाता चौक पर ही काजी मोहम्मदपुर थाना है। पर एके 47 की गूंज ने पुलिसवालों को भी ठिठकने पर मजबूर कर दिया। बिहार के अपराध के इतिहास में पहली बार एके 47 का इस्तेमाल हुआ था। चंदेश्वर सिंह को करीब 40 गोलियां मारी गई थी। इस हत्या ने एक झटके में अशोक सम्राट को उत्तर बिहार का बेताज बादशाह बना दिया। यह एके 47 की धमक ही थी पूरे बिहार का अंडरवर्ल्ड अशोक सम्राट के नाम से कांपने लगा था। मिनी नरेश की हत्या का बदला ले लिया गया था। चंदेश्वर सिंह की हत्या ने छोटन शुक्ला को विचलित कर दिया था। इसके बाद दोनों तरफ लाशें गिरने लगी। अशोक सम्राट और छोटन शुक्ला की अदावत खुलकर सामने आ गई थी। ठेकेदारी के वर्चस्व से शुरू हुई लड़ाई अब अंडरवर्ल्ड में बादशाहत तक आ गई थी। एक दूसरे के करीबियों को चुन चुन कर मारा जाना लगा। अगली बड़ी लाश गिरी थी गब्बर सिंह की। लंगट सिंह कॉलेज कैंपस में ठीक महात्मा गांधी की मूर्ति के सामने। इस लाश का तात्लुक भी बेगुसराय से ही था।

मुजफ्फरपुर के अंडरवर्ल्ड में एक तरफ अशोक सम्राट था, दूसरी तरफ छोटन शुक्ला। पर इसी बीच एक तीसरा डॉन भी उभर गया था, जो दलितों का मसीहा बन बैठा था। इस तीसरे डॉन की इनसाइड स्टोरी अगली किस्त में..

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1 comment:

Alok Sone said...

सच्ची घटना का गजब का चित्रांकन किया है कुणाल सर ने। एक वेब सीरीज या यूं कहें कि एक ब्लॉकबस्टर फिल्म की पूरी पठकथा तैयार है। अगर, कोई डायरेक्टर और प्रोड्यूसर इस पर काम करें तो उसे सफल होने से कोई रोक नहीं सकता है।