तुम अगर मुझको न चाहो तो कोई बात नहीं
कॉपी-पेस्ट करके चाहोगे तो मुश्किल होगी
गाने के बोल को आप राहूल गांधी से बिल्कुल जोड़ सकते हैं। मैं अपने ब्लॉग के माध्यम से यह हक आपको दे रहा हूं।
क्या जरूरत थी उन्हें कि वे नेपाल एंबेसी में गए। वह भी जबर्दस्ती की संवेदना लिखने को। संवेदनाएं दिल से निकले शब्द होते हैं। पर राहूल गांधी तो अपने पापा की तरह बनना चाहते हैं। शायद उन्हें इस बात का अहसास नहीं है कि आप पापा के जूते पहन सकते हो, पापा के कपड़े भी फिट बैठ जाएं पर बेटा कभी अपने पापा के बराबर खड़ा नहीं हो सकता। बेटा अपनी पहचान, अपनी शख्सियत तो बना सकता है पर अपने पिता से हमेशा छोटा ही रहेगा। पर राहूल गांधी की विडंबना ऐसी है कि वह न तो अपनी पहचान कायम कर पा रहे हैं और पिता की तरह बनना तो दूर की बात है।
कॉपी पेस्ट की संवेदनाओं ने ही उन्हें इस मुकाम तक पहुंचाया है कि अगर किसी सीरियस मुद्दे पर भी वे कुछ बोलें तो मजाक बन जाता है। सोशल मीडिया के टॉप ट्रेंड पर उनसे जुड़े जोक्स ट्रेंड करने लगते हैं। ऐसा नहीं है कि राहूल गांधी में वो क्षमता नहीं है कि वो दो लाइन संवेदना के लिख सकें, पर कहते हैं न कि दूध का जला छाज भी फूंक-फूंक कर पीता है। फिलहाल राहूल गांधी ऐसे दौर से गुजर रहे हैं कि उनकी हर एक बात पर मीडिया की निगाहें हैं। ऐसे में नेपाल त्रासदी को लेकर वे जो संवेदना प्रकट करना चाहते थे उसमें भी परफेक्शन चाहते थे। शायद यही कारण रहा होगा कि उन्हें कॉपी पेस्ट की जरूरत पड़ गई। दरअसल जब आपकी अपनी बुद्धी काम करनी बंद कर दे तो ऐसा ही होता है। इस समय राहूल गांधी को एक ऐसी टीम ने घेर रखा है जो राहूल को अपना दिमाग यूज करने नहीं दे रही है।
राहूल पंजाब के किसानों के बीच पहुंचे, विदर्भ के किसानों के बीच पहुंचे। अच्छी बात है वे किसानों का दर्द जानने जा रहे हैं, लेकिन उनकी हर चाल में सियासत की बू क्यों आ जाती है। पंजाब में जल्द ही चुनाव होने वाले हैं, वहां का राजनीतिक पारा ऐसे ही गरम है। ऐसे में हरियाणा के रास्ते सिर्फ पंजाब की यात्रा करने का उनका मकसद क्या था। जबकि आंकड़े गवाह हैं कि हरियाणा में इस वक्त तक करीब 50 किसान मौत की आगोश में चले गए हैं। खराब फसल और प्रकृति की मार से इनमें से कई किसानों ने आत्महत्या कर ली है, जबकि कई सदमे से काल की गाल में समा गए। जबकि पंजाब में स्थिति दूसरी है। वहां भी किसान परेशान हैं, पर मौत के आंकड़ों को हमेशा ऊपर रखा जाता है। वहां किसानों की मौत का प्रतिशत हरियाणा के मुकाबले न्यूनतम है। राहूल गांधी या यूं कहे कि उनके सिपहसलारों को पता था कि हरियाणा के किसानों के प्रति संवेदनाएं जता कर क्या होगा। पांच साल के लिए खट्टर सरकार कुर्सी पर विराजमान है। चलो पंजाब चलते हैं वहां के किसानों की संवेदना बटोरते हैं, सियासी फायदा मिलेगा।
हद है। किसानों के नाम से जन्मजात राजनीति करने वाली कांग्रेस के युवराज की। नहीं चाहिए हमें ऐसी दिखावटी संवेदनाएं। नहीं चाहिए हमें आपके कॉपी पेस्ट वाली संवेदनाएं। दिल से आप एक गरीब किसान के आंसू ही पोछ दें तो हम खुश हो जाएंगे। आप हमें न चाहो यह मंजूर है, पर दिखावटी और कॉपी पेस्ट वाली संवेदनाएं प्रकट करोगे तो मुश्किल होगी।
कॉपी-पेस्ट करके चाहोगे तो मुश्किल होगी
गाने के बोल को आप राहूल गांधी से बिल्कुल जोड़ सकते हैं। मैं अपने ब्लॉग के माध्यम से यह हक आपको दे रहा हूं।
क्या जरूरत थी उन्हें कि वे नेपाल एंबेसी में गए। वह भी जबर्दस्ती की संवेदना लिखने को। संवेदनाएं दिल से निकले शब्द होते हैं। पर राहूल गांधी तो अपने पापा की तरह बनना चाहते हैं। शायद उन्हें इस बात का अहसास नहीं है कि आप पापा के जूते पहन सकते हो, पापा के कपड़े भी फिट बैठ जाएं पर बेटा कभी अपने पापा के बराबर खड़ा नहीं हो सकता। बेटा अपनी पहचान, अपनी शख्सियत तो बना सकता है पर अपने पिता से हमेशा छोटा ही रहेगा। पर राहूल गांधी की विडंबना ऐसी है कि वह न तो अपनी पहचान कायम कर पा रहे हैं और पिता की तरह बनना तो दूर की बात है।
कॉपी पेस्ट की संवेदनाओं ने ही उन्हें इस मुकाम तक पहुंचाया है कि अगर किसी सीरियस मुद्दे पर भी वे कुछ बोलें तो मजाक बन जाता है। सोशल मीडिया के टॉप ट्रेंड पर उनसे जुड़े जोक्स ट्रेंड करने लगते हैं। ऐसा नहीं है कि राहूल गांधी में वो क्षमता नहीं है कि वो दो लाइन संवेदना के लिख सकें, पर कहते हैं न कि दूध का जला छाज भी फूंक-फूंक कर पीता है। फिलहाल राहूल गांधी ऐसे दौर से गुजर रहे हैं कि उनकी हर एक बात पर मीडिया की निगाहें हैं। ऐसे में नेपाल त्रासदी को लेकर वे जो संवेदना प्रकट करना चाहते थे उसमें भी परफेक्शन चाहते थे। शायद यही कारण रहा होगा कि उन्हें कॉपी पेस्ट की जरूरत पड़ गई। दरअसल जब आपकी अपनी बुद्धी काम करनी बंद कर दे तो ऐसा ही होता है। इस समय राहूल गांधी को एक ऐसी टीम ने घेर रखा है जो राहूल को अपना दिमाग यूज करने नहीं दे रही है।
राहूल पंजाब के किसानों के बीच पहुंचे, विदर्भ के किसानों के बीच पहुंचे। अच्छी बात है वे किसानों का दर्द जानने जा रहे हैं, लेकिन उनकी हर चाल में सियासत की बू क्यों आ जाती है। पंजाब में जल्द ही चुनाव होने वाले हैं, वहां का राजनीतिक पारा ऐसे ही गरम है। ऐसे में हरियाणा के रास्ते सिर्फ पंजाब की यात्रा करने का उनका मकसद क्या था। जबकि आंकड़े गवाह हैं कि हरियाणा में इस वक्त तक करीब 50 किसान मौत की आगोश में चले गए हैं। खराब फसल और प्रकृति की मार से इनमें से कई किसानों ने आत्महत्या कर ली है, जबकि कई सदमे से काल की गाल में समा गए। जबकि पंजाब में स्थिति दूसरी है। वहां भी किसान परेशान हैं, पर मौत के आंकड़ों को हमेशा ऊपर रखा जाता है। वहां किसानों की मौत का प्रतिशत हरियाणा के मुकाबले न्यूनतम है। राहूल गांधी या यूं कहे कि उनके सिपहसलारों को पता था कि हरियाणा के किसानों के प्रति संवेदनाएं जता कर क्या होगा। पांच साल के लिए खट्टर सरकार कुर्सी पर विराजमान है। चलो पंजाब चलते हैं वहां के किसानों की संवेदना बटोरते हैं, सियासी फायदा मिलेगा।
हद है। किसानों के नाम से जन्मजात राजनीति करने वाली कांग्रेस के युवराज की। नहीं चाहिए हमें ऐसी दिखावटी संवेदनाएं। नहीं चाहिए हमें आपके कॉपी पेस्ट वाली संवेदनाएं। दिल से आप एक गरीब किसान के आंसू ही पोछ दें तो हम खुश हो जाएंगे। आप हमें न चाहो यह मंजूर है, पर दिखावटी और कॉपी पेस्ट वाली संवेदनाएं प्रकट करोगे तो मुश्किल होगी।
6 comments:
Sir papu to papu hi nikla. Kab samjhega ye papu ki papu can't dance sala.
वाह क्या लिखा है। बहुत खूब!
Sir bahut badhiya likha hai aapne fully agree.. but agar ye paidaishi hi pappu hai to isme is bechare kaya kaya kasoor hai...congress ke hi log kahte hai ki ye pappu hai politics nahin kar sakta..ye politically incorrect pappu hai..
Thanks Sanjay Bhaiya
@ kharikhoti
Haan sahi kaha.. lekin Rahul Gandhi agar apne dimag se kaam kare to logon ke dil me jagah bana skta hai.
ये हैं हमारी राजनीति के Rराजकुमार जिन्हे लगता है बच्पन से ही खाना पूर्ति जैसे ही पाठ पढ़ाए जाते हैं बहुत ही उम्दा लेख सर very nice
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