प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चरखे के साथ फोटो सेशन करवाकर क्या इतना बड़ा गुनाह कर दिया कि उस पर इतनी बहस हो रही है? क्यों हमने मान लिया है कि गांधी ही खादी और चरखे के सबसे बड़े ब्रांड एंबेसडर हैं। एक कैलेंडर का छपना और उसका 12 महीने बाद बदल जाना वैसे ही शास्वत है जैसे दिन महीने और साल का बदलना। फिर खुद के ब्रांड वैल्यू को खादी के लिए प्रमोट करना क्या खादी के लिए बेहतर नहीं है। मन की बात में प्रधानमंत्री द्वारा खादी की बात पर जोर देना, सबसे खादी पहनने की अपील करना क्या आलोचकों को नहीं दिखा था। फिर मंथन का वक्त है कि चर्चा खादी की बदहाल स्थिति पर होनी चाहिए या फिर खादी के प्रमोशन के लिए मोदी की ब्रांड वैल्यू पर। क्योंकि किसी प्रोडक्ट के प्रमोशन के लिए ब्रांड एंबेसडर बदलते ही रहते हैं। और खादी स्वतंत्रता आंदोलन से कई कदम आगे बढ़कर एक प्रोडक्ट के रूप में हमारे मार्केट में है।
हालांकि मंथन पहले इस बात पर भी करनी चाहिए कि आखिर कैसे महात्मा गांधी खादी के सबसे बड़े ब्रांड एंबेसडर हुए। दरअसल भारत के साथ खादी का रिश्ता सदियों पुराना है। इस तथ्य से कोई इनकार नहीं कर सकता कि हिन्दुस्तान की धरती पर ही चरखा और करघा का जन्म हुआ। दुनिया में सबसे पहले सूत और सबसे पहले कपड़ा भी यहीं बुना गया। ऋग्वेद में लिखा गया है ‘वितन्वते धियो अस्मा अपांसि वस्त्रा पुत्राय मातरो वयंति।’ मतलब माता अपने पुत्र के लिए और पत्नी अपने पति के लिए वस्त्र तैयार करती थीं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी सूत और वस्त्रों का विस्तृत वर्णन मौजूद है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि हिन्दुस्तान के बुनकर इतना बारीक काम करते थे माचीस की छोटी सी डिब्बी में भी एक पूरा का पूरा थान समा जाए। सात सौ साल पहले चरखे के बारे में अमीर खुसरो ने चार पंक्तियां लिखी थी। हिन्दुस्तान के इस सर्वकालिक मुस्लिम कवि अमीर खुसरो ने लिखा..
‘एक पुरुष बहुत गुनचरा, लेटा जागे सोये खड़ा
उलटा होकर डाले बेल यह देखो करतार का खेल।’
कहने का आशय इतना भरा है कि न तो खादी और न ही चरखा कोई नई चीज है। फिर बात आती आखिर कैसे खादी और चरखे पर मोहनदास करमचंद गांधी का कॉपीराइट हो गया। कैसे और किन परिस्थितियों में गांधी और खादी एक दूसरे के परिचायक हो गए। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत में अपनी जड़े मजबूत करने के दिनों तक भारत में सूती वस्त्र अपने स्वर्णीम काल में था। यहां तक कि यहां से बने सूत यूरोप में धमाल मचा रहे थे। लॉर्ड मैकाले ने एक समय लिखा था कि लंदन और पेरिस की महिलाएं बंगाल के करघों पर तैयार होने वाले कोमल वस्त्रों से लदी हुई रहती हैं। भारत के सूती वस्त्र ने एक समय में इग्लैंड का ऊनी और रेशन का व्यवसाय चौपट कर दिया। यही कारण था कि 1700 और 1721 में इंग्लैंड के पार्लियामेंट ने कानून पास किया और हिन्दुस्तान के माल पर चुंगी लगवाई। इस तरह भारत के सूती वस्त्र उद्योग को बर्बाद करने की शुरुआत हुई।
इतिहास में दर्ज है कि भारत में अंग्रेजों ने किस कदर कहर बरपाकर यहां के सूती वस्त्र उद्योग को चौपट कर दिया। भारत के पारंपारिक जुलाहे कंपनी के कारखानों के गुलाम बना दिए गए। एक वक्त में दुनिया पर राज करने वाला भारत का सूती वस्त्र उद्योग पूरी तरह चौपट कर दिया। आय के साधन समाप्त कर देने पर यहां के लोग ब्रिटिश कंपनी के नौकर बन गए। भूख और दरिद्रता ने भारतवासियों को वह सब करने पर मजबूर कर दिया, जिसकी उन्होंने कभी परिकल्पना नहीं की थी।
इसी बीच महात्मा गांधी का उत्थान हुआ। अफ्रीका से लौटने के बाद उन्होंने भारत को समझने के लिए काफी यात्राएं की। अपनी आत्मकथा सत्य के प्रयोग में गांधी लिखते है.. मुझे याद नहीं पड़ता कि 1908 तक मैंने चरखा या करघा कहीं देखा हो। फिर मैंने हिन्द स्वराज्य में यह माना था कि चरखे के जरिये हिन्दुस्तान की कंगालियत मिट सकती है और यह तो सबसे समझ सकने जैसी बात है कि जिस रास्ते भुखमरी मिटेगी उसी रास्ते स्वराज्य मिलेगा। 1916 में गाँधीजी ने साबरमती आश्रम की स्थापना की और उसमें आश्रम जीवन जीने की शुरुआत की। आश्रम-जीवन के लिए उन्हें वस्त्र स्वावलंबन की आवश्यकता महसूस हुई। यह वस्त्र स्वावलंबन ही गांधी को खादी उत्पादन की ओर ले जाता है।
यहीं से खादी और चरखे विषयगांधी के प्रयोग शुरू हो जाते हैं। फिर इसके बाद में इतिहास और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में खादी के रूप में स्वावलंबन ने कितनी अहम भूमिका निभाई किसी से छिपी नहीं है। खादी अहिंसा का प्रतीक बना, खादी भारतियों के स्वावलंबन का प्रतीक बना, खादी अंग्रेजों से लोहा लेने का आधार बना। भारत की आजादी के बाद खादी ने अपने स्वरूप का और अधिक विस्तार किया। खादी बोर्ड के गठन के बाद इसमें काफी समृद्धि आई। पर नब्बे के दशक के बाद खादी का हाल बुरा हो गया। कई ऐसे कारण रहे जिसने खादी को बर्बाद करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
पिछले कुछ समय में अपने घाटे से उबर रहे खादी को प्रमोट करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हर वो पहल की है जो वो कर सकते हैं। रेडियो पर मन की बात में भी प्रधानमंत्री ने खादी को जबर्दस्त तरीके से प्रमोट किया। खादी ग्रामोद्योग विभाग के आंकड़े इस बात की गवाही दे रहे हैं कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने और उनकी ओर से खादी का प्रमोशन किए जाने के बाद कारोबार में जोरदार इजाफा हुआ है। वित्त वर्ष 2015-16 में 1,510 करोड़ रुपए के खादी उत्पादों की सेल हुई, जबकि 2014-15 में यह आंकड़ा महज 1,170 करोड़ रुपए था। इस तरह एक साल के भीतर खादी प्रोडक्ट्स की सेल में 29 पर्सेंट का इजाफा हुआ। 2014-15 में खादी प्रोडक्ट्स की सेल में 8.6 प्रतिशत की ही ग्रोथ हुई थी। मौजूदा वित्तीय वर्ष में खादी ग्रामोद्योग आयोग के प्रोडक्ट्स में 35 प्रतिशत का इजाफा होने का अनुमान लगाया गया है।
ऐसे में जिस खादी को महात्मा गांधी ने अपने सार्थक प्रयासों से भारतीय स्वावलंबन और स्वाधीनता का प्रतीक बनाया था अगर उसी खादी को एक बार फिर से पुनर्जिवित करने का प्रयास नरेंद्र मोदी ने किया है तो उसे राजनीतिक चश्मा उतार कर देखना चाहिए। किसी कैलेंडर पर चरखे के साथ फोटो लगवाकर न कोई गांधी बन सकता है। और न किसी नाम के पीछे गांधी लगाकर कोई महात्मा बन सकता है। ऐसे में गांधी और उनकी विरासत की दुआई देकर राजनीति करने वालों को मंथन करने की जरूरत है क्या वह सच में गांधी के खादी को संरक्षित के लिए हल्ला मचा रहे हैं? या फिर उन्हें इस बात का डर है कि खादी अगर एक बार फिर से ग्रामीण और गरीबों के स्वावलंबन का आधार बन गया तो उनकी चूलें हिल जाएंगी। आप भी मंथन करिए और खादी के कपड़े पहनकर चरखे के साथ फोटो खिंचवाइए, इसे प्रमोट करिए, ताकि भारत एक बार फिर खाादी के जरिए आर्थिक समृद्धि का रास्ता तय कर सके।
हालांकि मंथन पहले इस बात पर भी करनी चाहिए कि आखिर कैसे महात्मा गांधी खादी के सबसे बड़े ब्रांड एंबेसडर हुए। दरअसल भारत के साथ खादी का रिश्ता सदियों पुराना है। इस तथ्य से कोई इनकार नहीं कर सकता कि हिन्दुस्तान की धरती पर ही चरखा और करघा का जन्म हुआ। दुनिया में सबसे पहले सूत और सबसे पहले कपड़ा भी यहीं बुना गया। ऋग्वेद में लिखा गया है ‘वितन्वते धियो अस्मा अपांसि वस्त्रा पुत्राय मातरो वयंति।’ मतलब माता अपने पुत्र के लिए और पत्नी अपने पति के लिए वस्त्र तैयार करती थीं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी सूत और वस्त्रों का विस्तृत वर्णन मौजूद है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि हिन्दुस्तान के बुनकर इतना बारीक काम करते थे माचीस की छोटी सी डिब्बी में भी एक पूरा का पूरा थान समा जाए। सात सौ साल पहले चरखे के बारे में अमीर खुसरो ने चार पंक्तियां लिखी थी। हिन्दुस्तान के इस सर्वकालिक मुस्लिम कवि अमीर खुसरो ने लिखा..
‘एक पुरुष बहुत गुनचरा, लेटा जागे सोये खड़ा
उलटा होकर डाले बेल यह देखो करतार का खेल।’
कहने का आशय इतना भरा है कि न तो खादी और न ही चरखा कोई नई चीज है। फिर बात आती आखिर कैसे खादी और चरखे पर मोहनदास करमचंद गांधी का कॉपीराइट हो गया। कैसे और किन परिस्थितियों में गांधी और खादी एक दूसरे के परिचायक हो गए। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत में अपनी जड़े मजबूत करने के दिनों तक भारत में सूती वस्त्र अपने स्वर्णीम काल में था। यहां तक कि यहां से बने सूत यूरोप में धमाल मचा रहे थे। लॉर्ड मैकाले ने एक समय लिखा था कि लंदन और पेरिस की महिलाएं बंगाल के करघों पर तैयार होने वाले कोमल वस्त्रों से लदी हुई रहती हैं। भारत के सूती वस्त्र ने एक समय में इग्लैंड का ऊनी और रेशन का व्यवसाय चौपट कर दिया। यही कारण था कि 1700 और 1721 में इंग्लैंड के पार्लियामेंट ने कानून पास किया और हिन्दुस्तान के माल पर चुंगी लगवाई। इस तरह भारत के सूती वस्त्र उद्योग को बर्बाद करने की शुरुआत हुई।
इतिहास में दर्ज है कि भारत में अंग्रेजों ने किस कदर कहर बरपाकर यहां के सूती वस्त्र उद्योग को चौपट कर दिया। भारत के पारंपारिक जुलाहे कंपनी के कारखानों के गुलाम बना दिए गए। एक वक्त में दुनिया पर राज करने वाला भारत का सूती वस्त्र उद्योग पूरी तरह चौपट कर दिया। आय के साधन समाप्त कर देने पर यहां के लोग ब्रिटिश कंपनी के नौकर बन गए। भूख और दरिद्रता ने भारतवासियों को वह सब करने पर मजबूर कर दिया, जिसकी उन्होंने कभी परिकल्पना नहीं की थी।
इसी बीच महात्मा गांधी का उत्थान हुआ। अफ्रीका से लौटने के बाद उन्होंने भारत को समझने के लिए काफी यात्राएं की। अपनी आत्मकथा सत्य के प्रयोग में गांधी लिखते है.. मुझे याद नहीं पड़ता कि 1908 तक मैंने चरखा या करघा कहीं देखा हो। फिर मैंने हिन्द स्वराज्य में यह माना था कि चरखे के जरिये हिन्दुस्तान की कंगालियत मिट सकती है और यह तो सबसे समझ सकने जैसी बात है कि जिस रास्ते भुखमरी मिटेगी उसी रास्ते स्वराज्य मिलेगा। 1916 में गाँधीजी ने साबरमती आश्रम की स्थापना की और उसमें आश्रम जीवन जीने की शुरुआत की। आश्रम-जीवन के लिए उन्हें वस्त्र स्वावलंबन की आवश्यकता महसूस हुई। यह वस्त्र स्वावलंबन ही गांधी को खादी उत्पादन की ओर ले जाता है।
यहीं से खादी और चरखे विषयगांधी के प्रयोग शुरू हो जाते हैं। फिर इसके बाद में इतिहास और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में खादी के रूप में स्वावलंबन ने कितनी अहम भूमिका निभाई किसी से छिपी नहीं है। खादी अहिंसा का प्रतीक बना, खादी भारतियों के स्वावलंबन का प्रतीक बना, खादी अंग्रेजों से लोहा लेने का आधार बना। भारत की आजादी के बाद खादी ने अपने स्वरूप का और अधिक विस्तार किया। खादी बोर्ड के गठन के बाद इसमें काफी समृद्धि आई। पर नब्बे के दशक के बाद खादी का हाल बुरा हो गया। कई ऐसे कारण रहे जिसने खादी को बर्बाद करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
पिछले कुछ समय में अपने घाटे से उबर रहे खादी को प्रमोट करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हर वो पहल की है जो वो कर सकते हैं। रेडियो पर मन की बात में भी प्रधानमंत्री ने खादी को जबर्दस्त तरीके से प्रमोट किया। खादी ग्रामोद्योग विभाग के आंकड़े इस बात की गवाही दे रहे हैं कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने और उनकी ओर से खादी का प्रमोशन किए जाने के बाद कारोबार में जोरदार इजाफा हुआ है। वित्त वर्ष 2015-16 में 1,510 करोड़ रुपए के खादी उत्पादों की सेल हुई, जबकि 2014-15 में यह आंकड़ा महज 1,170 करोड़ रुपए था। इस तरह एक साल के भीतर खादी प्रोडक्ट्स की सेल में 29 पर्सेंट का इजाफा हुआ। 2014-15 में खादी प्रोडक्ट्स की सेल में 8.6 प्रतिशत की ही ग्रोथ हुई थी। मौजूदा वित्तीय वर्ष में खादी ग्रामोद्योग आयोग के प्रोडक्ट्स में 35 प्रतिशत का इजाफा होने का अनुमान लगाया गया है।
ऐसे में जिस खादी को महात्मा गांधी ने अपने सार्थक प्रयासों से भारतीय स्वावलंबन और स्वाधीनता का प्रतीक बनाया था अगर उसी खादी को एक बार फिर से पुनर्जिवित करने का प्रयास नरेंद्र मोदी ने किया है तो उसे राजनीतिक चश्मा उतार कर देखना चाहिए। किसी कैलेंडर पर चरखे के साथ फोटो लगवाकर न कोई गांधी बन सकता है। और न किसी नाम के पीछे गांधी लगाकर कोई महात्मा बन सकता है। ऐसे में गांधी और उनकी विरासत की दुआई देकर राजनीति करने वालों को मंथन करने की जरूरत है क्या वह सच में गांधी के खादी को संरक्षित के लिए हल्ला मचा रहे हैं? या फिर उन्हें इस बात का डर है कि खादी अगर एक बार फिर से ग्रामीण और गरीबों के स्वावलंबन का आधार बन गया तो उनकी चूलें हिल जाएंगी। आप भी मंथन करिए और खादी के कपड़े पहनकर चरखे के साथ फोटो खिंचवाइए, इसे प्रमोट करिए, ताकि भारत एक बार फिर खाादी के जरिए आर्थिक समृद्धि का रास्ता तय कर सके।
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