Tuesday, March 27, 2018

दो कौड़ी का स्टिंग किया है ‘कोबरा पोस्ट’ ने



कोबरा पोस्ट के अनिरुद्ध बहल और उनकी टीम का स्टिंग सच कहूं तो बचकाने की हद का है। बचकानी हरकत इसलिए क्योंकि उन्होंने स्टिंग भी किया तो किनका? मार्केटिंग हेड्स, एरिया मैनेजर, डायरेक्टर आदि..आदि। अरे मेरे भाई जिनका काम ही मीडिया हाउस के लिए ऐन केन प्रकारेण धन लाना है उसका स्टिंग करके आप किस एजेेंडे पर काम कर रहे हो? दम होता तो इसी तरह का स्टिंग किसी बड़े मीडिया हाउस के एडिटर, एडिटर इन चीफ, ब्यूरो प्रमुख, पॉलिटिकल एडिटर आदि का करते।

क्या अनिरुद्ध और उनकी टीम को यह नहीं पता कि किसी मीडिया हाउस में मुख्य तौर पर तीन डिपार्टमेंट होते हैं। इन्हीं तीन डिपार्टमेंट में से एक होता है मीडिया मार्केटिंग। इस डिपार्टमेंट के लोगों का काम ही होता है मार्केट से पैसा लाना। विज्ञापन के तौर पर आने वाले पैसे से ही हम जैसे पत्रकारों को सैलरी मिलती है। जिससे हमारा पेट पलता है और घर चलता है। विज्ञापन की तमाम पुरानी विधाएं आज के इस कॉरपोरेट जगत में बदल चुकी हैं। विज्ञापन की दुनिया में रोज नए प्रयोग हो रहे हैं। टीवी से लेकर प्रिंट तक में इसमें इतने सारे बदलाव आ चुके हैं कि रोज मीडिया मार्केटिंग के लोग नए-नए कांसेप्ट पर काम रहे हैं। हां यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि मीडिया मार्केटिंग के नाम पर कंटेंट सेलिंग का काम भी धड़ल्ले से चल रहा है। इस मामले में प्रिंट मीडिया ने अपना वजूद इसलिए बचा रखा है क्योंकि इस तरह के कंटेंट सेलिंग के साइड में छोटे से बॉक्स में मीडिया मार्केटिंग इनिसिएटिव जरूर लिखा जाता है।
क्या आज से दस साल पहले इस तरह का कांसेप्ट था? आज जब मीडिया मार्केटिंग के स्वरूप में बदलाव आया है तो मीडिया हाउसेस ने भी अपने वजूद बनाए रखने के लिए इस तरह के प्रयोग को स्वीकार करते हुए नए कांसेप्ट के जरिए अनुमति प्रदान कर दी है। मेरे अनुसार यह कोई गलत भी नहीं है। अगर मीडिया हाउसेस को विज्ञापन के जरिए धन प्राप्त नहीं होगा तो क्या अनिरुद्ध बहल और उनकी टीम हम पत्रकारों का पेट पालेगी।

तमाम सरकारी विज्ञापनों से आज सभी हिन्दी, अंग्रेजी और रिजनल लैंग्वेज के अखबार भरे होते हैं। हाल के दिनों में इसमें बड़ा बदलाव यह आया है कि वे न्यूज फॉर्मेट में अपना विज्ञापन प्रकाशित करवाते हैं। सामान्य पाठक को यही लगता है कि वह न्यूज है। क्योंकि फॉन्ट, मैटर, हेडिंग, क्रॉसर, फोटो और ले-आउट बिल्कुल उस न्यूज पेपर के डेली एडिशन की तरह ही होता है। हां यह जरूर है कि पत्रकारिता की साख को बचाने के उद्देश्य से मीडिया हाउस उसमें मीडिया मार्केटिंग इनिसिएटिव जरूर लिखता है। इसमें क्या बुरा है, अगर किसी मीडिया हाउस को इस तरह के विज्ञापन या मार्केटिंग इनिसिएटिव के बदले अच्छी खासी रकम मिलती है?

सरकार ही क्यों तमाम सामाजिक संस्थान, व्यवसायिक कंपनी, शिक्षण संस्थान, धार्मिक संस्थान आदि ने भी मार्केटिंग के इस फंडे को सहस्र स्वीकार किया है। ऐसे में कोबरा पोस्ट ने किसी फेक धार्मिक या राजनीतिक संस्थान के नाम पर विज्ञापन के तौर पर पैसे देने की बात कही तो क्या नया कर दिया। और किसी मार्केटिंग के व्यक्ति ने इस आॅफर को स्वीकार कर लिया तो क्या बुरा कर दिया? कौन सा पाप कर दिया? यह उनका काम है। उनका पेशा है। वह यही करने के लिए संस्थान में रखे गए हैं। इसी तरह की मार्केटिंग इनिसिएटिव के लिए उन्हें रखा गया है।

अब आप कहेंगे कि हिंदुत्व के एजेंडे को प्रसारित करने के लिए आॅफर दिया गया था। इंटरव्यू करने के लिए आॅफर दिया गया था। खबरों के प्रकाशन या प्रसारण के लिए पैसा दिया जाना था। हां सही है। ऐसा ही होता है। पर सभी संस्थान की अपनी एडिटोरियल पॉलिसी होती है। मार्केटिंग इनिसिएटिव के बाद भी एडिटोरियल पॉलिसी को किसी हालत में इग्नोर नहीं किया जाता है। और मुझे नहीं लगता कि कोई भी बड़ा, रेपुटेट और अच्छा संस्थान इस तरह के बेहुदा और बेतुके एजेंडे को अपनी एडिटोरियल पॉलिसी को इग्नोर करके तहत पास कर देता। कोई भी समझदार संपादक अपनी एडिटोरियल पॉलिसी को इग्नोर करने की इजाजत किसी को नहीं देता है। मीडिया हाउसेस के मालिक भी एडिटोरियल पॉलिसी को सबसे ऊपर रखते हैं। अनिरुद्ध बहल ने हिंदुत्व को एजेंडे को सिर्फ इसलिए चुना ताकि उन्हें पूरी पब्लिसिटी मिले। हिंदुत्व के एजेंडे का स्टिंग करना मुझे तो किसी सोच समझी साजिश का हिस्सा ही लग रहा है।

हां मुझे इस बात से व्यक्तिगत तौर पर खुशी है कि पब्लिक डोमिन में पत्रकारिता के साख की चर्चा जोर पकड़ रही है। लोग पत्रकारिता को लेकर सवाल जवाब करने लगे हैं। अपनी समझ विकसित कर रहे हैं। बैंक में ऊंचे पद पर काम कर रहे मेरे बड़े भईया मृणाल वर्मा ने मुझे कोबरा पोस्ट से जुड़े स्टिंग की पूरी खबर भेजकर पूछा कि यह क्या हो रहा है? उसका मैसेज देखकर मुझे लगा कि आम लोगों के मन में भी पत्रकारिता के प्रति इस तरह के बेहुदा स्टिंग को देखकर काफी गलत धारणा बन रही होगी। इसीलिए यह पोस्ट लिखने बैठ गया। ताकि मैं एक सामान्य पाठक को यह विश्वास दिला सकूं कि पत्रकारिता आज भी जिंदा है। कोबरा पोस्ट का दो कौड़ी का यह स्टिंग सिर्फ मीडिया मार्केटिंग के एजेंडे को उजागर कर रहा है। विश्वास करिए आज भी भारतीय मीडिया की विश्वनियता की जड़े काफी मजबूत हैं। हर दिन भारत के किसी कोने में पत्रकारों पर हमले हो रहे हैं। पत्रकार मार दिए जा रहे हैं। उन्हें धमकी मिल रही है। यह शायद इसीलिए है क्योंकि पत्रकारिता की धाक और साख दोनों कायम है। भारतीय लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को इतना कमजोर भी न आंके। जय हिंद।

Monday, March 26, 2018

चिदंबरम की तरह आप भी आउटडेटेड तो नहीं?

कांग्रेस के दिग्गज नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री पी. चिदंबरम के एक ट्वीट ने एक ऐसे विषय पर मंथन करने पर विवश कर दिया है, जिसे झेलते तो सब हैं, लेकिन चर्चा कम करते हैं। सार्वजनिक मंच से तो ऐसे विषयों पर चर्चा करना इगोस्टिक लगने लगता है। पर अच्छा हुआ कि पूर्व वित्तमंत्री को इतने सालों बाद इस विषय पर कुछ ज्ञान हुआ और इस दिव्य ज्ञान को उन्होंने सार्वजनिक मंच से व्यक्त भी कर दिया। लंबे समय तक भारत के वित्तमंत्री रहे पी. चिदंबरम को चेन्नई एयरपोर्ट पर इस बात का पता चला कि एयरपोर्ट पर साधारण चाय की कीमत भी कितनी अधिक होती है। चिदंबरम को चाय की कीमत इतनी अधिक लगी कि वे डर गए। हम आम लोगों को इस बात का शुक्रगुजार होना चाहिए कि इतने बड़े राजनेता को कीमत से डर लगा, क्योंकि शायद इस डर के बाद लूट का अड्डा बन चुके एयरपोर्ट्स लाउंज के बारे में मंथन करने की जरूरत पड़ेगी।
देश के पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदंबरम रविवार को चेन्नई एयरपोर्ट पर थे। चाय की तलब लगने पर उन्होंने आॅर्डर दे दिया। यह तलब राजनीतिक थी या सामाजिकयह तो पी. चिदंबरम ही बता सकेंगे, लेकिन उन्होंने चाय की कीमत को लेकर जो ट्वीट किया उसकी व्याख्या राजनीतिक और सामाजिक दोनों तरीके से अतिमहत्वपूर्ण होगी। चिदंबरम ने अपने ट्वीट में लिखा है कि कॉफी और चाय की एयरपोर्ट पर कीमतें देखकर मैं डर गया हूं। उन्होंने लिखा कि यहां 135 रुपए में एक कप चाय और 180 रुपए में कॉफी, ये कीमतें सुनकर मैं डर गया हूं। फिर उन्होंने सवाल पूछा है कि कहीं वो खुद आउटडेटेड तो नहीं हैं? चिदंबरम की मानें तो उन्होंने चेन्नई एयरपोर्ट पर एक कप चाय मांगी तो उन्हें कप में गर्म पानी और टी-बैग दिया गया और उसकी कीमत 135 रुपए बताई गई, जिसके बाद उन्होंने चाय खरीदने से इनकार कर दिया। उन्होंने पूछा है कि वो सही हैं या गलत?
यह बहुत आश्चर्यजनक तथ्य है कि जो व्यक्ति इतने लंबे समय तक देश के वित्तमंत्री सहित तमाम पदों पर रहा उसे आज विपक्ष में बैठकर एयरपोर्ट पर अधिक कीमतों पर मिलने वाले खाद्य पदार्थों के बारे में ज्ञान प्राप्त हुआ है। दरअसल यह कोई नई बात नहीं है कि एयरपोर्ट पर मिलने वाले खाद्य पदार्थ ऊंची कीमतों पर मिलते हैं। पानी की एक बोतल भी आपको पचास से डेढ़ सौ रुपए तक मिलेगी। साधारण चाय और कॉफी की कीमत भी हैरान करने वाली रहती है। पर यह बेहद अफसोसजनक है कि सभी तथ्यों से रूबरू होने के बावजूद भी हमारी सरकारें इस पर कुछ भी करने में खुद को असमर्थ पाती हैं। लंबे समय तक वित्तमंत्री रहने वाले चिदंबरम भी चाहते तो लूट का अड्डा बन चुके एयरपोर्ट्स पर लगाम कसने के लिए किसी पॉलिसी में अपना योगदान दे सकते थे। पर वे ऐसा नहीं कर सके और आज विपक्ष में बैठकर 135 रुपए की चाय के लिए ट्वीट कर रहे हैं। खुद को आउटडेटेड बता रहे हैं। 

आउटडेटेड होना बेहद रोमांचकारी अनुभव होता है। क्योंकि आपको नई-नई चीजों के बारे में जानकारी होती है। अच्छा है चिदंबरम साहब को नई जानकारी मिली और उन्होंने ट्वीट किया, जिसने एक सार्थक बहस को तो जन्म दे ही दिया है। भारत के तमाम एयरपोर्ट्स से हर रोज लाखों यात्री यात्रा करते हैं। हर दिन उन्हें एयरपोर्ट पर मिलने वाले खाद्य पदार्थों की ऊंची कीमतों से रूबरू भी होना पड़ता है। वे सबकुछ जानते समझते हुए भी ऊंची कीमत देकर चूप रह जाते हैं। क्योंकि यह स्टेट्स सिंबल से जुड़ा मामला होता है। वह 135 या दो सौ रुपए के लिए कोई हंगामा खड़ा करना नहीं चाहता। न ही वह सोशल प्लेटफॉर्म पर इस संबंध में चर्चा करना चाहता है। यह तो संयोगवश चाय की राजनीति का प्रश्न था जिसने पूर्व वित्तमंत्री को ट्वीट करने पर मजबूर कर दिया।
दरअसल हाल के दिनों में एयरपोर्ट ही नहीं, तमाम मल्टीप्लेक्स, मॉल, स्टेडियम आदि जगहों पर भी तयशुदा कीमतों से ज्यादा कीमत वसूलना आम बात है। लोग भी बिना किसी हिचकिचाहट के यह कीमत अदा कर देते हैं। पर सवाल यह है कि क्या यह सब सरकार और संबंधित विभागों की निगरानी में हो रहा है? अगर नहीं तो आखिर क्यों नहीं ऐसी जगहों पर कार्रवाई करने की हिम्मत जुटाई जाती है? आखिर संबंधित विभागों को किस बात का भय सताता है कि वह ऐसी तमाम जगहों पर छापेमारी से बचते हैं? केंद्र सरकार के अलावा तमाम राज्य सरकारों के पास भी अपनी पॉलिसी है। जिसमें इस बात का जिक्र होता है कि पैकेट बंद खाद्य पदार्थों के लिए अधिकतम खुदरा मूल्य (एमआरपी.) से अधिक नहीं वसूला जा सकता है। केंद्र सरकार ने भी दिसंबर 2016 में सभी राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को एक ही शहर, जिले या राज्य में एक ही वस्तु पर अलग-अलग एमआरपी. लेने का चलन बंद करने का निर्देश दिया था। इस निर्देश से पहले भी 2009 में लीगल मेट्रोलॉजी एक्ट बनाया गया था। 2011 में दो कदम आगे बढ़ते हुए केंद्र सरकार ने पैकेज्ड कमोडिटी रुल्स का भी गठन किया, ताकि एयरपोर्ट, सिनेमाघरों, मॉल आदि पर मिलने वाली खाद्य वस्तुओं की कीमतों को नियंत्रित किया जा सके। पर अफसोस है कि ये सारे नियम-कानून कागजों पर ही हैं। 
  लीगल मेट्रोलॉजी एक्ट एंड रुल्स में इतने सख्त प्रावधान हैं कि संबंधित विभाग चाहे तो किसी भी दुकान का लाइसेंस तक रद कर सकती है। पर ये सारे नियम कानून प्रभावहिन हो चुके हैं, क्योंकि केंद्र सरकार के अलावा राज्य सरकारों ने भी कभी इस तरफ ध्यान नहीं दिया। शायद यही कारण है कि इतने साल केंद्र सरकार में महत्वपूर्ण पदों पर रहने के बावजूद पी. चिदंबरम जैसे दिग्गज नेताओं को आज यह पता चला कि कैसे एयरपोर्ट लूट का अड्डा बन चुके हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि पूर्व वित्तमंत्री का यह ट्वीट आने वाले समय में केंद्र सरकार की एजेंसियों को मंथन करने पर मजबूर करे कि सार्वजनिक स्थानों पर खाद्य पदार्थों की कीमतों के नियंत्रण को लेकर कोई सख्त कदम उठाया जाए। और हां बिना किसी हिचक और स्टेटस सिंबल के इगो को किनारे रखते हुए आम और खास लोगों को भी इन कीमतों के नियंत्रण के लिए सार्वजनिक मंच पर अपनी राय व्यक्त करनी चाहिए। मंथन करिए, नहीं तो आप भी पी. चिदंबरम की तरह आउटडेटेड ही रह जाएंगे।

Sunday, March 18, 2018

तो क्या ईवीएम से तय होगी गठबंधन की राजनीति?

एक बार फिर से ईवीएम की राजनीति चरम पर है। यूपी और बिहार के उपचुनाव में अप्रत्याशित नतीजों के बाद भी विपक्षी पार्टियां ईवीएम की विश्वनियता पर प्रश्न चिन्ह लगा रही हैं। मायावती हो या अखिलेश यादव या बिहार में आरजेडी के नेता। सभी एक सुर में भविष्य का चुनाव ईवीएम की जगह बैलेट पेपर से करवाने की वकालत कर रहे हैं। सबसे बड़ी बात शनिवार को शुरू हुए कांग्रेस के 84वें महाधिवेशन में देखने को मिली। इतने बड़े मंच से कांग्रेस ने भी ईवीएम की विश्वनियता पर सवाल उठाते हुए बैलेट पेपर से चुनाव करवाने की बात कही। आम आदमी पार्टी पहले से ही ईवीएम को कठघरे में पेश कर चुकी है। आप ने तो दो कदम आगे बढ़ते हुए दिल्ली विधानसभा की कार्यवाही के दौरान ईवीएम हैक करने का लाइव डेमो तक दे डाला था। ऐसे में कई बातें मंथन करने पर मजबूर कर देती हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या भविष्य की राजनीति जिसे गठबंधन की राजनीति के तौर पर देखा जा रहा है, क्या वह ईवीएम के रास्ते तय होगी?
मंथन इसलिए भी जरूरी है क्योंकि ईवीएम से चुनाव करवाया जाने की शुरुआत ने भारतीय राजनीति की परिभाषा को बदल कर रख दिया था। उस दौर को अभी भुलाया नहीं जा सकता जब बूथ कैपचरिंग की बात सामान्य बात होती थी। चुनाव के दिन अघोषित कर्फ्यू का माहौल होता था। काफी कम संख्या में लोग वोटिंग के लिए बाहर आते थे। एक अनजाना सा भय उन्हें बाहर आने से रोकता था। सबसे खराब स्थिति महिलाओं के लिए थी। पर ईवीएम प्रणाली ने लोगों में लोकतंत्र के प्रति आस्था को मजबूती प्रदान की। बूथ कैपचरिंग की सूचना शायद ही कहीं से आई होगी। तमाम प्रयोगात्मक दौर से बाहर निकलते हुए आज चुनाव आयोग अपने सबसे बेहतर अवस्था में है। पर इसी बेहतर अवस्था में चुनाव आयोग और ईवीएम की विश्वनियता पर गंभीर सवालों के घेरे में ला खड़ा किया है। तमाम विपक्षी पार्टियों का स्टैंड ईवीएम को लेकर क्लियर है। कांग्रेस, राजद, सपा, आप, बसपा सहित तमाम दक्षिण की विपक्षी पार्टियों ने ईवीएम को देश की लोकतंत्र के लिए खतरा बताया है। यह बात जानते हुए भी तमाम उपचुनाव के अलावा पंजाब में बीजेपी को करारी हार का सामना करना पड़ा है। अभी नार्थ ईस्ट में हुए चुनाव के रिजल्ट भी बहुत कुछ कह रही है। सभी चुनाव ईवीएम से ही हुए हैं। यह सारे उदाहरण सामने होने के बावजूद विपक्षी पार्टियों को लगता है कि ईवीएम के सहारे ही बीजेपी की जीत और मोदी नाम के लहर को रोका जा सकता है। जिस तरह मोदी को रोकने के लिए गठबंधन की राजनीति को मजबूती प्रदान की जा रही है, उसमें ईवीएम आने वाले समय में बड़ा रोल अदा कर सकता है। यूपी उपचुनाव में जीत के तुरंत बाद बसपा सुप्रीमो मायावती चंडीगढ़ में थीं। यहां उन्होंने रैली को संबोधित किया। मंच से उन्होंने एक बार फिर से ईवीएम राग को गया। उन्होंने भविष्य के चुनाव ईवीएम की जगह बैलेट पेपर से करवाने की बात दोहराई। उधर, इंडिया न्यूज के मंच से यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने भी ईवीएम की कार्यप्रणाली को कठघरे में खड़ा किया।कांग्रेस के महाधिवेशन से भी ईवीएम के विरोध के स्पष्ट स्वर सुनाई दिया। ऐसे में इस बात को मजबूती मिल रही है कि आने वाले समय में ईवीएम मुद्दे को लेकर विपक्ष की एकता देखने को मिलेगी। शायद यह एक ऐसा मुद्दा होगा जो गठबंधन की राजनीति को आगे बढ़ाने में मददगार साबित होगा। जहां तक गठबंधन का सवाल और मोदी रथ को रोकने की राजनीति है उसमें भले ही ईवीएम को बलि का बकरा बनाया जा रहा है। पर क्या इस बात से कोई इनकार कर सकता है कि कैसे ईवीएम प्रणाली ने देश की स्वतंत्र चुनाव प्रणाली को विकसित करने में अपना योगदान किया है। हम कैसे उस मंजर को भुला सकते हैं जब चुनावी दौर में गोलियों और बमों की दहशत से लोग कांपते थे। चुनाव में सैकड़ों लोगों की जान चली जाती थी। ये हालात सिर्फ इसलिए पैदा किए जाते थे क्योंकि बैलेट पेपर पर टेंपरिंग करना बेहद आसान था। भारतीय लोकतंत्र ने उस दौर को भी देखा है जब नकली बैलेट पेपर से प्रत्याशियों ने अपनी जीत सुनिश्चित करवा ली थी1 अपनी हार निश्चित मानने वाले प्रत्याशियों ने बैलेट बॉक्स में इंक डालकर सभी वोट खराब करवाने तक काम किया। चुनाव आयोग उस दौर में भी निश्पक्षता से चुनाव करवाने के लिए तत्पर रहता  था और आज भी उसी प्रतिबद्धता को दोहरा रहा है। चुनाव और वोटिंग प्रकिया को सुरक्षित करने के लिए ही ईवीएम जैसे उपाय करवाए गए। पर अफसोस है कि आज उसी ईवीएम की विश्वनियता पर सवाल उठाया जाने लगा है।
कई दूसरे देशों ने
भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में ईवीएम प्रणाली पर अपना विश्वास जताते हुए यहां की प्रणाली साझा करने की मांग की है। पर अब हमारे देश में ही हाल जुदा है। विपक्षी दलों का कहना है कि कई यूरोपियन देशों में ईवीएम को बैन कर दिया गया है। पर यह कोई बताने को तैयार नहीं कि आखिर ईवीएम को बैन क्यों किया गया। दरअसल उन देशों में ईवीएम को और आगे ले जाने के लिए इसे इंटरनेट से कनेक्ट करने का प्रयोग किया गया। जो बूरी तरह असफल रहा। क्योंकि इंटरनेट की दुनिया सुरक्षा मामलों में बेहद कमजोर है। ऐसे में यह प्रयोग बूरी तरह असफल रहा। हालांकि उन यूरोपिय देशों में आज भी ईवीएम प्रणाली से ही बेहतर चुनाव करवाने के लिए तमाम रिसर्च हो रहे हैं।
भारतीय लोकतंत्र का इतिहास काफी उथल पुथल भरा रहा है। खासकर चुनावी प्रकिया के मामले में यह इतिहास काफी स्याह रहा है। ऐसे में सिर्फ अपनी राजनीति स्वार्थ के लिए ईवीएम जैसे सुरक्षित प्रणाली को सिरे से खारिज कर देना कहीं से तर्कसंगत नहीं है। हां यह बात चुनाव आयोग ने भी स्वीकारी है कि तमाम प्रयोगों के कारण कुछ विसंगतियां जरूर सामने आई हैं, पर इसे तत्काल दूर भी कर लिया गया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि चुनाव आयोग जिस तरह पूरी निष्पक्षता से अपना काम कर रही है उसी निष्पक्षता और ईमानदारी से अपनी कमजोरियों को स्वीकारते हुए ईवीएम की विश्वनियता को कायम करने पर मंथन करेगी। आने वाले समय में खासकर 2019 में चुनाव आयोग की सबसे बड़ी परीक्षा है। यह परीक्षा ईवीएम के जरिए ही बेहतर तरीके से हो सकती है इस बात का विश्वास भारतीय जनता को भी दिलाना होगा।