Monday, April 30, 2018

विरासतों को सहेजने के लिए निजी कंपनी ही क्यों?

ऐतिहासिक लाल किले को सहेजने, संवारने और संरक्षण के लिए केंद्र सरकार ने जो कदम उठाया है वह भी ऐतिहासिक ही है। ऐतिहासिक इसलिए क्योंकि यह पहली बार हो रहा है। बताया जा रहा है कि आने वाले समय में ताजमहल सहित कई अन्य इमारतें भी प्राइवेट कंपनी को सौंप दी जाएगी। ये कंपनी इन ऐतिहासिक धरोहरों के सहेजने और संवारने का काम करेगी। यह एक अच्छी शुरुआत हो सकती है। पर मंथन करने की जरूरत है कि आखिर ऐसी स्थिति क्यों पैदा हो गई कि हमें इन धरोहरों को प्राइवेट कंपनी को सौंपने की जरूरत पड़ गई। क्या हमारी सरकारें और एजेंसी इतनी अक्षम है कि वह अपनी चीजों को भी नहीं सहेज सकती? इतने दिनों तक इन धरोहरों से करोड़ों रुपए की कमाई होती आई, क्यों नहीं इन पैसों का सदुपयोग हुआ? क्यों आज हमें एमओयू साइन करनी पड़ रही है।

केंद्र सरकार ने एडॉप्ट ए हेरिटेज प्रोग्राम के तहत देश के प्रमुख व्यवसायी घराने डालमिया ग्रुप के साथ एमओयू साइन किया है। इस इस योजना के तहत केंद्र ने द डालमिया भारत समूह को लाल किला सौंप दिया है। यह समूह लाल किले और उसके चारों ओर के आधारभूत ढांचे का रखरखाव करेगा। समूह ने इस उद्देश्य के लिए पांच वर्ष की अवधि में 25 करोड़ रुपए खर्च करने की प्रतिबद्धता जताई है। पर्यटन मंत्रालय के अनुसार डालमिया समूह ने 17 वीं शताब्दी की इस धरोहर पर छह महीने के भीतर मूलभूत सुविधाएं मुहैया कराने पर सहमति जताई है। इसमें पेयजल कियोस्क, सड़कों पर बैठने की बेंच लगाना और आगंतुकों को जानकारी देने वाले संकेतक बोर्ड लगाना शामिल है। समूह ने इसके साथ ही दिव्यांगों की सुविधा के लिए स्पर्शनीय नक्शे लगाना, शौचालयों का उन्नयन, जीर्णोद्धार कार्य करने पर सहमति जताई है। इसके साथ ही वह वहां 1000 वर्ग फुट क्षेत्र में आगंतुक सुविधा केंद्र का निर्माण करेगा। वह किले के भीतर और बाहर 3 डी प्रोजेक्शन मानचित्रण, बैट्री चालित वाहन और चार्ज करने वाले स्टेशन और थीम आधारित एक कैफेटेरिया भी मुहैया कराएगा। इसके अलावा भी कई अन्य अत्याधुनिक सुविधाओं को भी यहां लागू किया जाएगा।
पर मंथन करना चाहिए कि एमओयू में कौन सी ऐसी चीज या सुविधा है जो सरकार अपने दम पर नहीं करवा सकती है। ऐसी कौन सी सुविधा है कि जो सिर्फ और सिर्फ प्राइवेट कंपनी ही दे सकती है। एमओयू 25 करोड़ रुपए का है। क्या सरकार के खजाने में इतने पैसे नहीं कि वह अपनी धरोहरों को सहेजने और संवारने के लिए इतने पैसे का इंतजाम कर सके। क्या सरकार और उसके मंत्रालय के पास अन्य योजनाएं नहीं है कि वह अपनी योजनाओं के तहत पैसों का इंतजाम कर सके। सरकार हर साल बजट में अलग से प्रावधान भी करती है। जिसके तहत संबंधित मंत्रालय को ऐतिहासिक धरोहरों को संवारने पर अपना बजट खर्च करना पड़ता है। तो क्या मान लिया जाए कि अब तक जो बजट जारी हुए वह कूडेÞ में चले गए। या यह मान लिया जाए कि इन बजट के पैसों से शौचालय और बैट्री से चलने वाली गाड़ी जैसी बेसिक फैसिलिटी भी मुहैया नहीं कराई जा सकती थी।
केंद्र सरकार के ही संस्कृति मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट पर एक नजर दौड़ाएं तो बेहद चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। मंत्रालय की आधिकारिक वेबसाइट पर 2013-2014 की रिपोर्ट हैरान करने वाली है। रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2013-14 के दौरान लाल किले से सरकार को 6 करोड़ 15 लाख 89 हजार 750 रुपए की कमाई हुई है। अगर एक साल में इतनी कमाई हुई है तो एवरेज 6 करोड़ रुपए ही मान लिया जाए तो पांच साल में सीधे तौर पर 30 करोड़ की कमाई हुई होगी। अब अगर हिसाब लगाया जाए कि कोई प्राइवेट कंपनी 25 करोड़ रुपए का एमओयू साइन कर लाल किले के अंदर बेसिक फैसिलिटी प्रोवाइड करवाएगी। ऐसे में क्या हमारी सरकारी एजेंसियां निकम्मी हैं, जिन्होंने इतने साल से सिर्फ और सिर्फ कमाई की और खर्च करने के नाम पर नजरे फेर ली। यह कैसी विडंबना है कि जो धरोहर हमें करोड़ों रुपए कमाई कर दे रहा है उसी धरोहर की देखभाल के लिए हमें प्राइवेट एजेंसी का सहारा लेना पड़ रहा है। 
यह सिर्फ लाल किले का ही मसला नहीं है। योजना के अनुसार अन्य ऐतिहसिक धरोहरों को भी प्राइवेट कंपनी के हाथों सौंपने की तैयारी है। इसमें विश्व प्रसिद्ध ताजमहल भी है। यहां भी एंट्री और अन्य सुविधाओं के लिए पर्यटकों को पैसे खर्च करने पड़ते हैं। विदेशी मेहमानों को कुछ अधिक रुपए खर्च करने पड़ते हैं। यहां की कमाई भी सालाना कराड़ों रुपए होती है। ऐसे में इसे भी प्राइवेट एजेंसी को देने की योजना है। वही प्राइवेट एजेंसी अपनी एमओयू में क्या-क्या फैसिलिटी देने का वादा करती है यह देखने वाली बात होगी। देखना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि हम मंथन कर सकें कि करोड़ों रुपए कमाने के बाद भी सरकार ऐसी कौन सी फैसिलिटी यहां नहीं दे सकती जो प्राइवेट एजेंसी या कंपनी देगी।
केंद्र सरकार की यह योजना काफी महत्वाकांक्षी हो सकती है, क्योंकि हम हर चीज प्राइवेट कंपनी को देने के लिए अति उत्साहित हैं। पर मंथन जरूर करना चाहिए कि क्यों अत्याधिक सुविधाओं के बावजूद हमारी सरकारी एजेंसिज और डिपार्टमेंट्स इतनी निकम्मी बन चुकी हैं? क्यों नहीं हम अपनी सरकारी व्यवस्थाओं को सुधारने पर ध्यान दे रहे हैं? क्यों हम हर चीज के लिए प्राइवेट कंपनी का मूंह ताकने पर मजबूर हैं? यह एक ऐसा मसला है जिस पर गंभीरता से मंथन करने की जरूरत है। यह बहुत असान है कि हम प्राइवेट एजेंसी को सबकूछ सौंप कर निश्ंिचत हो जाएं। पर यह बहुत मुश्किल है कि हम अपने अंदर झांक कर देखें।

सरकार ने इतना भारी भरकम संस्कृति मंत्रालय बना रखा है। ऐसे में इस मंत्रालय की जिम्मेदारी है कि वह कैसे अपने ऐतिहासिक धरोहरों को सहेजे। ऐतिहासिक धरोहरों का प्राइवेटाइजेशन कहीं से भी स्वीकार्य योग्य नहीं है। ऐसे में गलत मैसेज जाएगा कि हमारी सरकार इतनी सक्षम भी नहीं कि वह अपने दम पर अपनी विरासतों को नहीं सहेज सकती। करोड़ों रुपए के बजट का भी कोई औचित्य नहीं। सरकार को गंभीरता से इस पर मंथन करना चाहिए। जिस लाल किले की प्राचीर से भारतीय प्रधानमंत्री हर साल देश को संबोधित करते हैं। जिस प्राचीर से दिए जाने वाले भाषण पर पूरी दुनिया की नजर रहती है, उसी प्राचीर पर अगर किसी प्राइवेट कंपनी का विज्ञापन नुमाया होगा तो हमारी आनी वाली पीढ़ी हमें कभी माफ नहीं करेगी।
चलते चलते
लाल किले के प्राइवेटाइजेशन पर पूरे देश से मिश्रित प्रतिक्रिया आ रही है। पर कवि और राजनेता कुमार विश्वास ने अपने ही अंदाज में इस पर प्रतिक्रिया दी है..चलते चलते एक नजर उस प्रतिक्रिया पर भी..
हनक सत्ता की सच सुनने की आदत बेच देती है ,
हया को, शर्म को आखिर सियासत बेच देती है ,
निकम्मेपन की बेशर्मी अगर आंखों पे चढ़ जाए ,
तो फिर औलाद, ‘पुरखों की विरासत’ बेच देती है।।

Sunday, April 22, 2018

क्या अविश्वास जताना कांग्रेस की युवा राजनीति है?

लोकतंत्र और लोकतांत्रिक व्यवस्था में कुछ बातें ऐसी होती हैं जो सर्वकालिक मान्य हैं। ऐसी ही एक व्यवस्था है अविश्वास। सरकार में अविश्वास, सरकारी नीतियों में अविश्वास, सरकार के किसी फैसले पर अविश्वास, सरकार की किसी जांच पर अविश्वास, सरकार के हर एक कदम पर अविश्वास। यह अविश्वास बेहद सार्थक होता है, क्योंकि इसी अविश्वास की बदौलत सरकार को इस बात का भय होता है कि वह अपनी कार्यप्रणाली बेहतर रखे। विपक्ष का काम सरकार से सवाल करना और उनकी नीतियों पर तर्कसंगत तरीके से अविश्वास जताना होता है। कांग्रेस को विपक्ष में बैठने का काफी कम अनुभव है। हमेशा से वह सत्ता में रही है। ऐसे में अब जबकि वह लंबे वक्त बाद विपक्ष की सीट पर विराजमान है, उसे सोच समझ कर अविश्वास का हथियार उठाना चाहिए। कुछ संवेदनशील मामले ऐसे हैं जिनमें बिना सोचे समझे अविश्वास का दांव कहीं उल्टा ही न पड़ जाए। खासकर संवैधानिक व्यवस्था और न्यायपालिका की व्यवस्था पर अविश्वास जताकर कांग्रेस ने एक ऐसा गड्ढा खोद डाला है, जिसमें उसके खुद के गिर जाने की संभावना अधिक है।
हाल के वर्षों में कांग्रेस ने बीजेपी सरकार के कुछ ऐसे मामलों पर अविश्वास जताया है जो कांग्रेस के लिए घातक ही सिद्ध हुआ है। पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक का मामला हो, नोटबंदी का मामला हो या फिर जीएसटी जैसे देशहित का मामला हो। कांग्रेस ने अपनी नीतियों में ड्रामेटिक बदलाव किया है। एक सूत्री कार्यक्रम के तहत कांग्रेस ने विपक्ष की भूमिका से अधिक अविश्वास की भूमिका में खुद को स्थापित कर दिया है। लोकतांत्रिक व्यवस्था का सबसे बड़ा आधार ही यही है कि आप सरकार द्वारा किए जा रहे कार्यों पर गहरी नजर रखें। तार्किक तरीके से उन कार्यों की समीक्षा करें। संसद से लेकर सड़क तक आप उन कार्यों और नीतियों का विरोध करें। विपक्ष की इन्हीं भूमिकाओं के कारण सत्ताधारी सरकार थोड़ी डरी रहती है कि कहीं उससे कोई बड़ी चूक या भूल न हो जाए, जिसे विपक्षी पार्टियां बड़ा मुद्दा बना लें।
पर गौर करें, हाल के दिनों में कांग्रेस जैसी अनुभवयुक्त पार्टी की विपक्ष की भूमिका। कांग्रेस फिलवक्त एक ऐसे दौर से गुजर रही है जहां उसके पास राहूल गांधी जैसे युवा और सशक्त नेता की लीडरशीप है तो वहीं पार्टी के कर्ताधर्ता ऐसे लोग हैं जिनके पास अब खोने को कुछ नहीं। ये ऐसे लोग हैं जिन्होंने हमेशा सत्ता का रसास्वादन किया। अब जब उनके पास सत्ता का सुख नहीं है तो बौखलाए हुए हैं। कांग्रेस के युवा नेतृत्व को ऐसी सलाह दे रहे हैं जो उनके गले की फांस बन जा रहा है। विरोधाभासी बयानों, क्रिया कलापों और नीतियों के कारण कांग्रेस खुद ही अपने जाल में फंस जा रही है। कांग्रेस को यह नहीं भूलना चाहिए कि उनका सामना एक ऐसी पार्टी से है जिसने लंबे समय तक विपक्ष की भूमिका निभाई है। एक ऐसी पार्टी से उनका सामना है जिन्होंने मात्र एक वोट से अपनी सरकार को गिरते हुए देखा है। ऐसे में उन्हें पता है कि विपक्ष किस मुद्दे पर किस तरह से रिएक्ट करेगा। वो पूरी तैयारी के साथ मैदान में मौजूद हैं।
कांग्रेस के संदर्भ में यहां तीन महत्वपूर्ण हालिया घटनाओं का जिक्र जरूरी है। पहला मामला कठुआ रेप कांड से जुड़ा है। दूसरा जज लोया की मौत का और तीसरा सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव का। कठुआ रेप मामले में एक तरफ जहां कांग्रेस अध्यक्ष राहूल गांधी के नेतृत्व में आनन फानन में नई दिल्ली में देर रात कैंडल मार्च निकाला जाता है। इसमें प्रियंका वाड्रा और उनके पति रॉबर्ट वाड्रा भी शामिल थे। यह अच्छा संकेत है कि कांग्रेस पार्टी किसी बच्ची को न्याय दिलाने के लिए देर रात सड़क पर आई। पर दूसरी तरफ इस बात पर भी गौर जरूर करना चाहिए कि जहां यह जघन्य अपराध हुआ वहां पार्टी का स्टैंड क्या है। कठुआ में पुलिस की जांच से असंतुष्ट स्थानीय हिंदू संगठन आंदोलित हैं। उनकी मांग है कि सीबीआई इस मामले की जांच करे। ऐसी ही मांग आरोपितों के परिवार के लोग भी कर रहे हैं। इसी मांग को लेकर जम्मू बार काउंसिल के अध्यक्ष बीएस सलाठिया के नेतृत्व में सैकड़ों वकील सड़क पर प्रदर्शन करते हैं और आरोप-पत्र दाखिल होने से रोकने का भी प्रयास करते हैं।
सलाठिया राज्यसभा में कांग्रेस के नेता प्रतिपक्ष गुलाम नबी आजाद के मुख्य चुनावी एजेंट होने के साथ-साथ कांग्रेस के पुराने कार्यकर्ता हैं। क्यों नहीं दिल्ली में बैठे कांग्रेस पार्टी के सलाहकार मंडल मामले की सीबीआई जांच की मांग कर रहे हैं। क्या कारण है कि जम्मू में कांग्रेस के नेता घटना की सीबीआई जांच की मांग कर रहे हैं तो दिल्ली में इन्हीं के प्रतिनिधि जम्मू से विपरीत भाषा बोल रहे हैं? क्यों दिल्ली और जम्मू में एक ही राजनीतिक दल की भावनाओं में एकरूपता नहीं है? इस विरोधाभास का कारण क्या है? उन्नाव मामले में सीबीआई की जांच जायज है तो कठुआ मामले में यह मांग नजायज कैसे हो सकती है? क्यों सीबीआई जांच की मांग को सांप्रदायिकता का चश्मा पहनाने का प्रयास किया गया?
ठीक इसी तरह जज लोया के संबंध में आए फैसले के बाद कांग्रेस का स्टैंड रहा। आखिर क्या कारण है कि मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग की राजनीति ठीक फैसले के बाद आती है। भले ही प्रेस कांफे्रंस में कांग्रेस के नेताओं ने कपिल सिब्बल के नेतृत्व में अपना स्टैंड क्लियर किया। उन्होंने यह बताया कि जज लोया के फैसले से इस मामले का कोई लेना देना नहीं। उन्होंने पांच बिंदुओं पर महाभियोग की बात कही, इनमें जज लोया के फैसले का कहीं जिक्र नहीं। पर पूरे देश में संदेश क्या गया? क्या पार्टी को इस पर मंथन नहीं करना चाहिए। दूसरे दिन जब मीडिया के जरिए पूरे मामले का विश्लेषण हुआ तब यह बात लोगों को समझ आई कि आखिर चीफ जस्टिस के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव का मूल कारण क्या है।
भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में यह पहला मौका है जब किसी मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ इस तरह का कदम उठाया गया है। संसद में अंकों की बाजीगरी के बीच कांग्रेस को भी यह पता है कि उसका यह प्रस्ताव खारिज हो जाएगा। खुद कांग्रेस इस मुद्दे पर दो फाड़ है। महाभियोग प्रस्ताव पर जिस तरह पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, पूर्व वित्त और गृह मंत्री पी. चिदम्बरम, पूर्व विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद, पूर्व कानून मंत्री अश्विनी कुमार और वरिष्ठ कांग्रेस सांसद और अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने दूरी बनाई है वह अपने आप में बहुत कुछ बता रहा है। यह सिर्फ और सिर्फ कपिल सिब्बल के दिमाग की उपज है जिसने कांग्रेस जैसी विश्वसनीय पार्टी को अविश्वसनीय बनाने का खेल रचा है। क्या राहूल गांधी ने पार्टी के इस ऐतिहासिक कदम से पहले पार्टी के बड़े नेताओं से कोई राय नहीं ली? सवाल इसलिए भी उठ रहे हैं क्योंकि कांग्रेस ने चीफ जस्टिस के खिलाफ जिन पांच बिंदुओं का जिक्र किया है उसमें चार बिंदु तीस साल पहले के हैं। इसमें दीपक मिश्रा के खिलाफ एक जमीन और ट्रस्ट से जुड़ा मामला है। दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग लाने से पहले कांग्रेस यह क्यों भूल गई कि उनकी नियुक्ति कांग्रेस कार्यकाल में ही हुई थी। क्यों नहीं उस वक्त इस मामले पर गौर किया गया। क्यों नहीं उस वक्त दीपक मिश्रा की नियुक्ति को रद किया गया।
ऐसे वक्त में जब पूरा विश्व एक तरफ जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देख रहा है, वहीं दूसरी तरफ भारतीय लोकतंत्र की सबसे पुरानी पार्टी के युवा नेतृत्व पर भी उसकी नजर है। कांग्रेस को गंभीर मंथन करने की जरूरत है। खासकर युवा अध्यक्ष को इस बात को समझना जरूरी है कि सरकार पर अविश्वास करना जरूरी है, लेकिन यह अविश्वास कहां जताया जाए उस वक्त का इंतजार सबसे जरूरी है। कहीं ऐसा न हो कि हर बात में अविश्वास की राजनीति कांग्रेस की बची खुची राजनीतिक पैठ को भी न ले डूबे। सर्जिकल स्ट्राइक पर अविश्वास, चुनाव आयोग पर अविश्वास, सीबीआई पर अविश्वास, संसदीय प्रक्रिया पर अविश्वास, चंद सांसदों के बलबूते सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के बाद अब मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ आत्मघाती अविश्वास कांग्रेस को कहां लेकर जाएगा। इस पर मंथन जरूरी है।

Monday, April 16, 2018

कैंडल मार्च के लिए सही मुद्दा चुनने की जरूरत

रेप...। कहने को तो सिर्फ दो शब्द हैं। पर जब इसके प्रभाव पर चर्चा होगी तो यकीन मानिए इसकी पीड़िता सौ बार मरती रहेगी। चाहे वह चर्चा मीडिया में हो। पुलिस स्टेशन में हो। या फिर न्याय के द्वार पर हो। रेप को अगर एक वाक्य में परिभाषित किया जाए तो यह कहना अतिशियोक्ति नहीं होगी कि मनुष्य जाति की यह क्रूरतम मानसिकता का परिणाम है। एक ऐसी क्रूरतम मानसिकता जिसका इलाज लंबे समय से खोजा जा रहा है, लेकिन अफसोस यह है कि यह लाइलाज बनता जा रहा है। हर साल हंगामा होता है, बातें होती हैं, राजनीति की जाती है पर एनसीआरबी के आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि यह मानसिकता दिनों दिन बढ़ती जा रही है। मंथन करने की जरूरत है कि हमारे समाज में ऐसा क्या हो रहा है जिसने रेप की मानसिकता को बढ़ाने में मदद की है।
कठुआ में एक बच्ची के साथ जो कुछ भी हुआ उसे न तो पहली घटना मानी जा सकती है और न यह उम्मीद की जा सकती है कि भविष्य में इस तरह की घटना नहीं होगी। बिहार से लेकर बंगाल तक और कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक ऐसी कुत्सित मानसिकता के लोग हमारे सामाज में, हमारे आस-पास, हमारे परिवार में मौजूद हैं जो कभी भी कुछ भी कर सकते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सिर्फ विरोध, प्रदर्शन और कैंडल मार्च निकालकर हम रेप जैसे जघन्य अपराध पर काबू पा सकते हैं। मेरा जवाब है नहीं। यह विरोध प्रदर्शन, कैंडल मार्च सिर्फ और सिर्फ राजनीति के अलावा कुछ भी नहीं है। कैंडल मार्च निकालने वालों में ही आपको कई ऐसे दुष्कर्मी मिल जाएंगे। राष्ट्रीय राजधानी की ही बात कर लें, जिस दिन कांग्रेस के नेतृत्व में देर रात इंडिया गेट पर कैंडल मार्च निकालने का ड्रामा चल रहा था उसी मार्च में महिला मीडियाकर्मी से छेड़छाड़ हो रही थी। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार प्रियंका गांधी तक को इस तरह की असहज स्थिति का सामना करना पड़ गया था। कहने का तात्पर्य यह है कि हम कैंडल मार्च निकालकर मानसिकता को खत्म नहीं कर सकते।
ज्यादा वक्त नहीं गुजरा है, जब नई दिल्ली में निर्भया के साथ जो कुछ हुआ था। पिछले साल ही हिमाचल प्रदेश में हुए गुड़िया रेप कांड की आंच भी अभी कम नहीं हुई है। ऐसे ही कुछ मामले और हैं जिन्हें मीडिया और राजनीतिक दलों की बदौलत काफी चर्चा मिली। ऐसे चंद मामलों के गहन विश्लेषण करने की जरूरत है कि आखिर क्यों ऐसे चंद मामले ही राष्ट्रीय परिदृश्य में क्यों नुमाया होती हैं। जबकि नेशनल क्राइम ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि भारत में प्रतिदिन औसतन 22 महिलाओं के साथ रेप की घटना होती है। आंकड़े बताते हैं कि 2017 में प्रतिदिन औसतन पांच रेप केस राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में दर्ज किए गए। 2017 में दिल्ली में 2049 रेप के मामले दर्ज हुए। आपसे पूछा जाए कि इनमें से कितने मामले आपको याद हैं, आपको जवाब के लिए इधर-उधर झांकना होगा। इनमें से कई रेप मामले ऐसे होंगे जिनमें शायद निर्भया से अधिक दरिंदगी होगी। ऐसे में आपको समझाने की जरूरत नहीं कि कैंडल मार्च और हो-हल्ला करने से कुछ नहीं होगा, जबतक कि हम इस मानसिकता की जड़ तक नहीं पहुंच जाएं।
हद तो यह है कि हाल के वर्षों में चाइल्ड रेप के मामलों में असमान्य बढ़ोतरी हुई है। साल 2016 में 26,898 मामले पोस्को एक्ट में दर्ज हुए। साल 2017 का ग्लोबल पीस इंडेक्स कहता है कि भारत महिला ट्रेवलर्स की लिहाज से चौथा सबसे खतरनाक देश है। मंथन का समय है कि हम किस दौर में जा रहे हैं। सच्चाई यह है कि अगर सही मुद्दों पर अगर हमारे राजनीतिक दल, सामाजिक संगठनों सहित आम लोग अपनी आवाज बुलंद करें तो रेप की कुत्सिक मानसिकता पर सौ फीसदी रोक तो नहीं लगाई जा सकती, हां लेकिन इतना जरूर है कि हम इसके जड़ को समाप्त करने की दिशा में दो कदम आगे बढ़ सकते हैं।
भारत में जिस तेजी से इंटरनेट का विकास हुआ है। उसी तेजी से बच्चों के प्रति यौन हिंसा में बढ़ोतरी दर्ज की गई है। इंटरनेट की सुलभता ने पोर्न साइट के व्यापार को कई गुणा बढ़ा दिया है। तमाम मनोवैज्ञानिकों ने रेप के आरोपियों के व्यवहार पर जब अध्ययन किया तो इस बात के प्रमाण मिलें कि अधिकतर रेप की घटनाएं खासकर बच्चों के साथ हुए यौन हिंसा में इंटरनेट पर मौजूद पोर्न सामग्री सबसे बड़ा कारण है। इंटरनेट की दुनिया में मौजूद पोर्न साइट्स हाल के दिनों में भारतीयों के लिए बेहद सुलभ हो चुकी है। मोबाइल कंपनियों के आपसी होड़ ने इंटरनेट डाटा का और अधिक विस्तार कर दिया है। जिस तरह की होड़ है उससे उम्मीद है कि आने वाले दिनों में इंटरनेट यूज करने वाले देशों की श्रेणी में भारत का स्थान पहला होगा। ऐसे में हमारे अपनों के ही बीच हमारे बच्चे कितने असुरक्षित है यह कल्पना से परे है। पोर्न साइट्स को लेकर यह अलार्मिंग सिचुएशन है। पर इस अलार्मिंग सिचुएशन पर कोई कैंडल मार्च क्यों नहीं निकालता? क्यों नहीं इस समस्या पर विस्तार से चर्चा होती। पोर्न साइट्स को लेकर वर्ष 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने बेहद सख्त रवैया अपनाया था। केंद्र सरकार ने वादा किया था कि चाइल्ड पोर्न और हेट कंटेंट से जुड़ी करीब पांच हजार वेबसाइट जनवरी 2018 में पूरी तरह भारत में बैन कर दी जाएगी। केंद्र सरकार ने कहा था इसके लिए एक खास नीति बनाई जा रही है। इसी क्रम में यह भी वादा किया गया था कि इस तरह के कंटेंट जेनरेट करने और इसका प्रसार करने वालों को कड़ी सजा दिलाने के लिए सरकार मौजूदा आईटी एक्ट में भी बदलाव करने जा रही है। पर केंद्र सरकार से यह पूछने की कोई हिम्मत नहीं कर रहा है कि आखिर इन वादों का क्या हुआ। क्यों नहीं आज तक पोर्न साइट्स बैन करने के लिए कारगर उपाय किए गए? हद तो यह है कि कोई राजनीतिक दल भी इस तरह के मुद्दों पर चर्चा नहीं करता। यूके की नेशनल सोसायटी फॉर प्रिवेंशन आॅफ क्रुएलिटी टू चिल्ड्रेन की 2016 की रिपोर्ट के मुताबिक, आॅनलाइन पोर्नोग्राफी बच्चे के विकास में बाधा बन सकती है और उसकी निर्णय लेने की क्षमता पर भी असर डालती है। बलात्कार जैसे जघन्य कृत के लिए इस तरह के कंटेंट सबसे अधिक जिम्मेदार हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, 15-16 साल की उम्र के 65 फीसदी और 11-16 साल की उम्र की 48 फीसदी बच्चे आॅनलाइन पोर्न की वजह से सीधे तौर पर प्रभावित हैं। यह प्रभाव मानसिक और शारीरिक दोनों तरह से है।
ऐसे में क्या यह जरूरी नहीं कि हम किसी रेप की घटना पर कैंडल मार्च निकालने की जगह इसके जड़ को समाप्त करने के लिए आंदोलन करें। क्यों नहीं तमाम संगठन केंद्र सरकार पर यह दबाव बना रही कि भारत में पोनोग्रॉफी के साइट्स पूरी तरह बंद हो। क्यों नहीं केंद्र सरकार पर यह दबाव बनाया जा रहा है कि इंटरनेट पर बैड कंटेंट जो रेप के लिए ज्यादातर जिम्मेदार हैं उसे रिव्यू किया जाए। आप भी मंथन करिए और सरकार को भी मंथन करने पर मजबूर करिए। नहीं तो कल भी कैंडल मार्च निकला था, लोगों ने अपने फेसबूक और व्हॉट्सअप की डीपी ब्लैक की थी। आज भी वही हो रहा है। हम आने वाले कल में भी अपनी डीपी ब्लैक करते रह जाएंगे और अफसोस करते रह जाएंगे कि हमने अपनी आने वाली पीढ़ी की बच्चियों के लिए कुछ नहीं किया.।

Tuesday, April 10, 2018

ये कहां आ गए हम, यूं ही साथ चलते चलते

एक दूसरे के सुख दुख के साथी बने थे। अपनों के बीच दोस्ती का नया नजरिया मिला था। पुराने बिछड़े दोस्त मिलने लगे थे। कितना अच्छा लगता था जब वर्षों पुराना कोई दोस्त इंटरनेट पर मिल जा रहा था। इसी रोमांचकारी अनुभव का नाम था सोशल मीडिया। आप कहेंगे कि सोशल मीडिया को मैं ‘था’ से क्यों संबोधित कर रहा हूं। भला क्यों न करूं। आप मंथन करके देखिए। इसमें ‘है’ नामक कौन सा रोमांच बचा है। जिन चीजों के लिए सोशल मीडिया ने इतनी जल्दी लोकप्रियता पाई क्या आज वह रोमांच, वह प्यार, वह अपनापन, वह बेहतरीन अनुभव अब है? क्या आपको नहीं लगता वह सारी चीजें कहीं खो सी गई हैं। अब सोशल मीडिया सिर्फ और सिर्फ एक दूसरे को नीचा दिखाने, राजनीति का अखाड़ा और नफरत फैलाने का जरिया नहीं बन गया है।
अभी कुछ दिन पहले ही एसटी-एसटी एक्ट के संबंध में जिस विरोध का ज्वार उत्पन्न हुआ। उस ज्वार ने किस तरह पूरे भारत को प्रभावित किया। वह अपने आप में सोचनीय है। इंटेलिजेंस ब्यूरो ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि यह विरोध, हंगामा, प्रदर्शन, आगजनी सिर्फ और सिर्फ सोशल मीडिया द्वारा फैलाए गए एक अफवाह की बदौलत थी। हंगामा और आगजनी कर रहे हजारों युवाओं को यह पता ही नहीं था कि केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट एससी एसटी एक्ट को लेकर क्या बदलाव कर रही है। सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह था कि अधिकतर इस बात से अंजान थे कि उन्हें आरक्षण के लिए लड़ाई लड़नी है या फिर किसी अन्य कारण से वे सड़कों पर हैं। यह कैसी विडंबना है। यह कैसा दौर है कि हम सिर्फ एक वायरल मैसेज की बदौलत इतने व्यथित हो गए कि पूरा भारत भयग्रस्त हो गया। आईबी ने अपनी रिपोर्ट में यह भी बताया है कि सिर्फ एक व्यक्ति के दिमागी फितुर ने भारत बंद का आह्वान किया। सोशल मीडिया के जरिए भारत बंद के इस दिमागी फितुर का मैसेज इतना वायरल हुआ कि पूरा भारत इसकी चपेट में आ गया।
इस घटना को ऐतिहासिक कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा। क्योंकि आज से पहले कभी इस तरह भारत बंद का आह्वान नहीं हुआ था। भारत बंद इससे पहले भी हुआ है। पर उसके पीछे कोई राजनीतिक दल होता था। दलों की जिम्मेदारी होती थी। पर इस बार बंद के पीछे सोशल मीडिया थी। विभिन्न राजनीति दलों के नेताओं ने भी भारत बंद के मैसेज को वायरल करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। वोट की राजनीति ने इन राजनीतिक दलों को इतना अंधा बना दिया है कि उनकी सोचने समझने की शक्ति भी कम हो गई है। भारत बंद के पीछे किसी राजनीति दल का सपोर्ट न होने के बावजूद बंद के दौरान जो कुछ भी हुआ उससे आप सोशल मीडिया की ताकत का अंदाजा लगा सकते हैं।
भारत बंद के चंद दिनों बाद ही देवभूमि उत्तराखंड का सुदूर पर्वतीय इलाका भी एक सोशल मीडिया के अफवाह से जल उठा। बेहद शांत और सौम्य माने जाने वाले अगस्तयमुनी का पूरा इलाका हिंसा और आगजनी में जल गया। सोशल मीडिया पर एक मैसेज वायरल हुआ कि किसी समूदाय विशेष के युवकों ने दूसरे समूदाय विशेष की लड़की का रेप किया। न केवल रेप किया है बल्कि उसका वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर भी डाल दिया है। यह मैसेज इतना तेजी से वायरल हुआ कि दूसरे ही दिन पूरा अगस्तयमुनी संप्रदायिक हिंसा की आग में जल उठा। वर्षों से कायम भाईचारा, ईद और होली की मिठाई की मिठास खटास में बदल गई। एक दूसरे के सुख-दुख के साथी बने लोग एक दूसरे के जान के प्यासे बन गए।
इन दो उदाहरणों से आप समझ गए होंगे क्यों मैंने ऊपर सोशल मीडिया को ‘था’ से संबोधित किया है। आज सोशल मीडिया अपने सभी उद्देश्यों को दरकिनार कर चुका है। तमाम तरह की विसंगतियों ने सोशल मीडिया को इतना प्रदूषित कर दिया है कि आपके सामने सच क्या और झूठ क्या है इसे समझने की शक्ति छीन ली गई है। आने वाले दिनों में यह प्रदूषण और अधिक फैलता ही जाएगा। क्योंकि टेक्नोलॉजी के इस युग में इतने तरह के प्रयोग हो रहे हैं कि आपके सामने तमाम चुनौतियां का पहाड़ खड़ा होगा।
मंथन करने का वक्त है कि हम सोशल मीडिया पर आ रहे तमाम मैसेज को किस रूप में और किस संदर्भ में लें। किस मैसेज को सिरियसली लें, किस मैसेज को फॉरवर्ड करें और किसे डिलीट करें। तमाम सोशल मीडिया गैंग सिर्फ इसलिए ही बैठे हैं और इस बात पर काम कर रहे हैं कि कैसे समाज के लोगों का आपसी भाईचारा समाप्त कर दिया जाए। हो सकता है यह वोट की राजनीति का भी एक हिस्सा हो। पर हमें संभलना है। जब हमने ही सोशल मीडिया को आत्मसात किया है तो यह हमारा ही फर्ज है कि हम इसके प्रदूषण से खुद को कैसे बचाएं और दूसरों को भी बचाएं। हमारी आने वाली पीढ़ी क्या हमें इस बात के लिए कभी माफ कर पाएगी कि हम सोसाइटी के रूप में एक अनसोशल मीडिया उनके लिए छोड़ कर जाएंगे। जहां सिर्फ और सिर्फ हिंसा है, नफरत है, अफवाह है और कुछ नहीं।
अब भी वक्त है हमें ही संभलना होगा। 
संभलने के लिए मंथन जरूर करें। खासकर ऐसे लोगों को एक्सपोज करने की जरूरत है जो इस तरह सोशल मीडिया को यूज कर रहे हैं। सोशल मीडिया के जरिए हमारा आपसी भाईचारा खत्म कर रहे हैं। इसी सोशल मीडिया में हजारों उदाहरण आपको मिल जाएंगे जिनके जरिए जरूरतमंदों को मदद पहुंचाई गई है। सोशल मीडिया के जरिए ही अपनों को मिलने और उनकी खुशियों को भी हमने देखा है। छिपी हुई प्रतिभाओं को भी हमने इसी सोशल मीडिया के जरिए अंतराष्ट्रीय फलक पर चमकते हुए देखा है। हजारों पॉजीटिव मैसेज भी इसी सोशल मीडिया में आपको मिल जाएंगे। फिर क्यों न हम एक छोटा सा प्रण लें कि नफरतों से भरे, राजनीतिक स्वार्थ से भरे, हिंसा से भरे मैसेज फॉरवर्ड करने की जगह पॉजीटिव मैसेज पढ़ें और फॉरवार्ड करें। यकीन मानिए जिस दिन आप उल जुलूल और बिना सिर पैर के मैसेज फॉरवार्ड करना छोड़ देंगे सोशल मीडिया फिर से अपने पुराने दौर में लौट आएगा। मंथन करिए ये कहां आ गए हम, यूं ही साथ चलते चलते..।