Monday, April 30, 2018

विरासतों को सहेजने के लिए निजी कंपनी ही क्यों?

ऐतिहासिक लाल किले को सहेजने, संवारने और संरक्षण के लिए केंद्र सरकार ने जो कदम उठाया है वह भी ऐतिहासिक ही है। ऐतिहासिक इसलिए क्योंकि यह पहली बार हो रहा है। बताया जा रहा है कि आने वाले समय में ताजमहल सहित कई अन्य इमारतें भी प्राइवेट कंपनी को सौंप दी जाएगी। ये कंपनी इन ऐतिहासिक धरोहरों के सहेजने और संवारने का काम करेगी। यह एक अच्छी शुरुआत हो सकती है। पर मंथन करने की जरूरत है कि आखिर ऐसी स्थिति क्यों पैदा हो गई कि हमें इन धरोहरों को प्राइवेट कंपनी को सौंपने की जरूरत पड़ गई। क्या हमारी सरकारें और एजेंसी इतनी अक्षम है कि वह अपनी चीजों को भी नहीं सहेज सकती? इतने दिनों तक इन धरोहरों से करोड़ों रुपए की कमाई होती आई, क्यों नहीं इन पैसों का सदुपयोग हुआ? क्यों आज हमें एमओयू साइन करनी पड़ रही है।

केंद्र सरकार ने एडॉप्ट ए हेरिटेज प्रोग्राम के तहत देश के प्रमुख व्यवसायी घराने डालमिया ग्रुप के साथ एमओयू साइन किया है। इस इस योजना के तहत केंद्र ने द डालमिया भारत समूह को लाल किला सौंप दिया है। यह समूह लाल किले और उसके चारों ओर के आधारभूत ढांचे का रखरखाव करेगा। समूह ने इस उद्देश्य के लिए पांच वर्ष की अवधि में 25 करोड़ रुपए खर्च करने की प्रतिबद्धता जताई है। पर्यटन मंत्रालय के अनुसार डालमिया समूह ने 17 वीं शताब्दी की इस धरोहर पर छह महीने के भीतर मूलभूत सुविधाएं मुहैया कराने पर सहमति जताई है। इसमें पेयजल कियोस्क, सड़कों पर बैठने की बेंच लगाना और आगंतुकों को जानकारी देने वाले संकेतक बोर्ड लगाना शामिल है। समूह ने इसके साथ ही दिव्यांगों की सुविधा के लिए स्पर्शनीय नक्शे लगाना, शौचालयों का उन्नयन, जीर्णोद्धार कार्य करने पर सहमति जताई है। इसके साथ ही वह वहां 1000 वर्ग फुट क्षेत्र में आगंतुक सुविधा केंद्र का निर्माण करेगा। वह किले के भीतर और बाहर 3 डी प्रोजेक्शन मानचित्रण, बैट्री चालित वाहन और चार्ज करने वाले स्टेशन और थीम आधारित एक कैफेटेरिया भी मुहैया कराएगा। इसके अलावा भी कई अन्य अत्याधुनिक सुविधाओं को भी यहां लागू किया जाएगा।
पर मंथन करना चाहिए कि एमओयू में कौन सी ऐसी चीज या सुविधा है जो सरकार अपने दम पर नहीं करवा सकती है। ऐसी कौन सी सुविधा है कि जो सिर्फ और सिर्फ प्राइवेट कंपनी ही दे सकती है। एमओयू 25 करोड़ रुपए का है। क्या सरकार के खजाने में इतने पैसे नहीं कि वह अपनी धरोहरों को सहेजने और संवारने के लिए इतने पैसे का इंतजाम कर सके। क्या सरकार और उसके मंत्रालय के पास अन्य योजनाएं नहीं है कि वह अपनी योजनाओं के तहत पैसों का इंतजाम कर सके। सरकार हर साल बजट में अलग से प्रावधान भी करती है। जिसके तहत संबंधित मंत्रालय को ऐतिहासिक धरोहरों को संवारने पर अपना बजट खर्च करना पड़ता है। तो क्या मान लिया जाए कि अब तक जो बजट जारी हुए वह कूडेÞ में चले गए। या यह मान लिया जाए कि इन बजट के पैसों से शौचालय और बैट्री से चलने वाली गाड़ी जैसी बेसिक फैसिलिटी भी मुहैया नहीं कराई जा सकती थी।
केंद्र सरकार के ही संस्कृति मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट पर एक नजर दौड़ाएं तो बेहद चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। मंत्रालय की आधिकारिक वेबसाइट पर 2013-2014 की रिपोर्ट हैरान करने वाली है। रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2013-14 के दौरान लाल किले से सरकार को 6 करोड़ 15 लाख 89 हजार 750 रुपए की कमाई हुई है। अगर एक साल में इतनी कमाई हुई है तो एवरेज 6 करोड़ रुपए ही मान लिया जाए तो पांच साल में सीधे तौर पर 30 करोड़ की कमाई हुई होगी। अब अगर हिसाब लगाया जाए कि कोई प्राइवेट कंपनी 25 करोड़ रुपए का एमओयू साइन कर लाल किले के अंदर बेसिक फैसिलिटी प्रोवाइड करवाएगी। ऐसे में क्या हमारी सरकारी एजेंसियां निकम्मी हैं, जिन्होंने इतने साल से सिर्फ और सिर्फ कमाई की और खर्च करने के नाम पर नजरे फेर ली। यह कैसी विडंबना है कि जो धरोहर हमें करोड़ों रुपए कमाई कर दे रहा है उसी धरोहर की देखभाल के लिए हमें प्राइवेट एजेंसी का सहारा लेना पड़ रहा है। 
यह सिर्फ लाल किले का ही मसला नहीं है। योजना के अनुसार अन्य ऐतिहसिक धरोहरों को भी प्राइवेट कंपनी के हाथों सौंपने की तैयारी है। इसमें विश्व प्रसिद्ध ताजमहल भी है। यहां भी एंट्री और अन्य सुविधाओं के लिए पर्यटकों को पैसे खर्च करने पड़ते हैं। विदेशी मेहमानों को कुछ अधिक रुपए खर्च करने पड़ते हैं। यहां की कमाई भी सालाना कराड़ों रुपए होती है। ऐसे में इसे भी प्राइवेट एजेंसी को देने की योजना है। वही प्राइवेट एजेंसी अपनी एमओयू में क्या-क्या फैसिलिटी देने का वादा करती है यह देखने वाली बात होगी। देखना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि हम मंथन कर सकें कि करोड़ों रुपए कमाने के बाद भी सरकार ऐसी कौन सी फैसिलिटी यहां नहीं दे सकती जो प्राइवेट एजेंसी या कंपनी देगी।
केंद्र सरकार की यह योजना काफी महत्वाकांक्षी हो सकती है, क्योंकि हम हर चीज प्राइवेट कंपनी को देने के लिए अति उत्साहित हैं। पर मंथन जरूर करना चाहिए कि क्यों अत्याधिक सुविधाओं के बावजूद हमारी सरकारी एजेंसिज और डिपार्टमेंट्स इतनी निकम्मी बन चुकी हैं? क्यों नहीं हम अपनी सरकारी व्यवस्थाओं को सुधारने पर ध्यान दे रहे हैं? क्यों हम हर चीज के लिए प्राइवेट कंपनी का मूंह ताकने पर मजबूर हैं? यह एक ऐसा मसला है जिस पर गंभीरता से मंथन करने की जरूरत है। यह बहुत असान है कि हम प्राइवेट एजेंसी को सबकूछ सौंप कर निश्ंिचत हो जाएं। पर यह बहुत मुश्किल है कि हम अपने अंदर झांक कर देखें।

सरकार ने इतना भारी भरकम संस्कृति मंत्रालय बना रखा है। ऐसे में इस मंत्रालय की जिम्मेदारी है कि वह कैसे अपने ऐतिहासिक धरोहरों को सहेजे। ऐतिहासिक धरोहरों का प्राइवेटाइजेशन कहीं से भी स्वीकार्य योग्य नहीं है। ऐसे में गलत मैसेज जाएगा कि हमारी सरकार इतनी सक्षम भी नहीं कि वह अपने दम पर अपनी विरासतों को नहीं सहेज सकती। करोड़ों रुपए के बजट का भी कोई औचित्य नहीं। सरकार को गंभीरता से इस पर मंथन करना चाहिए। जिस लाल किले की प्राचीर से भारतीय प्रधानमंत्री हर साल देश को संबोधित करते हैं। जिस प्राचीर से दिए जाने वाले भाषण पर पूरी दुनिया की नजर रहती है, उसी प्राचीर पर अगर किसी प्राइवेट कंपनी का विज्ञापन नुमाया होगा तो हमारी आनी वाली पीढ़ी हमें कभी माफ नहीं करेगी।
चलते चलते
लाल किले के प्राइवेटाइजेशन पर पूरे देश से मिश्रित प्रतिक्रिया आ रही है। पर कवि और राजनेता कुमार विश्वास ने अपने ही अंदाज में इस पर प्रतिक्रिया दी है..चलते चलते एक नजर उस प्रतिक्रिया पर भी..
हनक सत्ता की सच सुनने की आदत बेच देती है ,
हया को, शर्म को आखिर सियासत बेच देती है ,
निकम्मेपन की बेशर्मी अगर आंखों पे चढ़ जाए ,
तो फिर औलाद, ‘पुरखों की विरासत’ बेच देती है।।

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