Friday, August 24, 2018

सरकार मीडिया में हस्तक्षेप करती है क्या?



जब देहरादून में जागरण ग्रुप के साथ था तब की एक कहानी है। पढ़िए फिर पता चलेगा कि सरकार मीडिया के साथ क्या करती है और क्या नहीं कर सकती है?

पिछले कुछ दिनों से मीडिया की आजादी उसकी बेबाकी और उस पर प्रतिबंध को लेकर बहुत कुछ कहा जा रहा है। खासकर तब, जबसे टीवी न्यूज के कुछ प्रमुख चेहरों की विदाई हुई है। उन लोगों को मीडिया के एक धड़े ने अघोषित शहीद का दर्जा दे दिया है। उनके नाम से मोदी सरकार को कोसा जा रहा है। कहा जा रहा है मीडिया पर ऐसा प्रतिबंध लगा दिया गया है कि वह न कुछ बोल सकता है, न लिख सकता है। सरकार ही तय करेगी कि क्या लिखना है, क्या बोलना है। आपको यह कुछ ज्यादा हास्यास्पद नहीं लगता?
अगर ऐसा ही है तो शहीद का दर्ज मिलने के बाद वे कैसे लिख रहे हैं? अब उनपर कैसे प्रतिबंध नहीं लग रहा। जिस दुर्भावना से प्रेरित होकर वो अपनी बातों को बेबाकी से सोशल मीडिया और वेब न्यूज प्लेटफॉर्म पर लिख रहे हैं वह कैसे संभव हो रहा है? जब मोदी सरकार न्यूज चैनल पर प्रतिबंध (जैसा की शहीद पत्रकारों द्वारा बताया जा रहा) लगा सकती है तो वेब न्यूज प्लेटफॉर्म को तो झटके में ब्लॉक करवा सकती है। फिर कूदते रहिए। और हां सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म की टीआरपी तो ऐसी है कि उस तक पहुंचने में चैनल्स को सात जनम तक लग जाएंगे। वहां तो आप बेबाकी के साथ, पूरी हनक के साथ लिख रहे हैं। कौन रोक रहा है आपको? अब सवाल उठता है कि सरकार मीडिया के मामले में हस्तक्षेप करती है या नहीं।

इसका जवाब हां में है बिल्कुल सच है सरकार मीडिया के मामले में कुछ हद तक हस्तक्षेप करती है। खासकर तब जब उसे दर्द होता है। इस दर्द के भी कई प्रकार होते हैं। उसकी चर्चा फिर कभी। फिलहाल बात सरकार के हस्तक्षेप की।
आप अपनी निजी जिंदगी में झांक कर देखिए। आप किसी को दो पैसे भी देते हैं तो उसे आप अपना अहसानमंद मान लेते हैं। अपेक्षा रखते हैं कि वह आपकी हर बात माने। घर के बच्चे को भी पांच रुपए का लॉलीपॉप देकर आप उससे अपने अनुसार काम करवाने की इच्छा रखते हैं। बच्चा नहीं करता है तो उसे जरूर कहते हैं जाओ, अब तुम्हें मैं लॉलीपॉप नहीं दूंगा। फिर आप कैसे यह कैसे सोच सकते हैं कि जो सरकार आपको करोड़ों रुपए का विज्ञापन दे रही है वह आपसे अपेक्षा नहीं रखेगी?
सरकारें अपेक्षा रखती हैं। बहुत ज्यादा अपेक्षा रखती हैं। तभी तो केंद्र में इतना भारी भरकम सूचना और प्रसारण मंत्रालय अस्तित्व में है। राज्य में डिपार्टमेंट आॅफ पब्लिक रिलेशन है। यहां तक की जिलों और तहसीलों तक में सूचना विभाग के प्रतिनिधि मौजूद हैं। यही वो लोग हैं जो मीडिया और सरकार के बीच रिलेशनशिप बनाए रखते हैं। इन्हीं के माध्यम से अखबार या चैनल्स को विज्ञापन मिलता है जहां से करोड़ों रुपए की आमदनी मीडिया हाउसेस के खाते में जाती है। बताइए जरा इतनी भारी भरकम रकम देने वाली सरकार क्यों नहीं अपेक्षा रखेगी। लेकिन क्या इसका मतलब यह निकाला जाए कि सरकार के हाथों मीडिया हाउसेस बिक गई?

इसका जवाब न में हैलोकतंत्र का चौथा स्तंभ इतना भी कमजोर नहीं है।
विज्ञापन एक साधन है, साध्य नहीं। यह सरकार की भी मजबूरी है कि वह विज्ञापन देकर अपने कार्यों का प्रचार-प्रसार करवाए। अखबार के पन्नों और चैनल्स की टाइमिंग में सभी के रेट्स तय हैं। सब इसी के अनुसार होता है। हां सरकार जरूर चाहती है कि उसके कामों का न्यूज के जरिए भी प्रचार प्रसार हो, ताकि आम लोग लाभांवित हो सके। अब इस अपेक्षा को हस्तक्षेप मान लिया जाए तो इसमें दोष किसका है? अगर हस्तक्षेप कह दिया जाए तो सरकार के इतने बड़े-बड़े घोटाले मीडिया के जरिए कैसे सामने आ जाते हैं? क्यों मीडिया की ही रिपोर्ट पर कई मंत्री और मुख्यमंत्री की कुर्सी तक चली जाती है। यह मीडिया की मजबूती ही है कि वह अपेक्षा और हस्तक्षेप में समानांतर लकीर खींच कर चलती है। अब बात आती है कि आखिर क्यों मीडिया का एक तबका अपने ही प्रोफेशन को बिका हुआ बताने पर तुला हुआ है।
इस सवाल का जवाब देने से पहले अपनी निजी जिंदगी के दो अनुभवों से आपको रू-ब-रू करवाता हूं।
पहला अनुभव है उत्तराखंड की राजधानी देहरादून का। जुलाई 2011 की बात है। पत्रकार से नेता बने रमेश पोखरियाल निशंक उस वक्त उत्तराखंड के मुख्यमंत्री थे। वे खुद दैनिक जागरण में रिपोर्टर के तौर पर नौकरी कर चुके थे। एक अच्छे पत्रकार के रूप में उनकी पहचान थी, शायद आज भी उनके स्वामित्व का एक समाचार पत्र देहरादून से प्रकाशित होता है। बाद में वे राजनीति में आ गए। राजनीतिक पारी दमदार तरीके से निभा रहे हैं। उत्तराखंड सरकार में मुख्यमंत्री के पद तक पहुंचना एक बड़ी उपलब्धि रही। इस वक्त हरिद्वार से सांसद भी हैं। 

तो मैं बता रहा था निशंक मुख्यमंत्री थे। चूंकि मुख्यमंत्री बनने से पहले वे स्वास्थ मंत्री थे, इसलिए यह विभाग भी उन्होंने अपने ही पास रखा था। मैं उस वक्त देहरादून में दैनिक जागरण ग्रुप के बाइलिंगवल टैब्लॉइड न्यूजपेपर ‘आई-नेक्स्ट’ का संपादकीय प्रभारी था। भारत में टैब्लॉइड जर्नलिज्म के क्षेत्र में जागरण गु्रप का यह अभिनव प्रयोग था। टैब्लॉइड जर्नलिज्म के इतिहास को जानेंगे और पढ़ेंगे तो समझ में आएगा टैब्लॉइड जर्नलिज्म का मतलब था सनसनी। पर आई-नेक्स्ट ने इसके विपरीत आम लोगों की भाषा में अखबार निकालकर और गंभीर पत्रकारिता के जरिए अपनी अलग पहचान कायम थी।
आई नेक्स्ट की रिपोर्टिंग टीम में आफताब अजमत मेडिकल और एजुकेशन की बीट कवर करते थे। आफताब इन दिनों अमर उजाला देहरादून की सिटी टीम को हेड कर रहे हैं। उन दिनों हेल्थ बीट उन्हें नई-नई मिली थी। उनके हाथ एक दस्तावेज लगा। यह दस्तावेज क्या था बम था। धमाका था। वे उसे लेकर मेरे पास आए। कहा, सर इस दस्तावेज को देखिए मुझे तो बड़ा घालमेल वाला मामला लग रहा है। मैंने उस दस्तावेज को रख लिया और कहा कल इसे देखेंगे। आज वाली खबरों पर फोकस करो। दूसरे दिन सुबह की मीटिंग के बाद जब मैंने दस्तावेज का अध्ययन किया तो बड़ी खबर हाथ लग गई। मेरी एक दो और क्योरी थी, जिसे आफताब ने अपने सूत्रों से बातचीत कर क्लियर कर दिया। शाम तक एक बड़ी खबर डेवलप हुई।
खबर सीधे तौर से मुख्यमंत्री से जुड़ी थी। उनके स्वास्थ विभाग में बड़ा घोटाला हो रहा था। एक साधारण इंजेक्शन जिसकी मार्केट वैल्यू रीटेल में 4 रुपए थी, उसे करीब 15 रुपए के हिसाब से खरीदा जा रहा था। जबकि थोक भाव में वही इंजेक्शन करीब दो रुपए पचास पैसे की पड़ रही थी। इसी तरह करीब 35 दवाइयों और लाइफ सेविंग इंजेक्शन की पूरी डिटेल हमारे पास थी। बड़ी खबर बन गई। पूरे तथ्यों के आधार पर।

आई-नेक्स्ट अब जागरण के मूल अखबार के साथ मर्ज हो गया है। नाम भी इसका दैनिक जागरण आई-नेक्स्ट हो गया है। अब तो कोई कॉम्टिशन ही नहीं। पर उस दौर में एक ही आर्गेनाइजेशन के अखबारों के बीच जबर्दस्त प्रतिद्वंदिता थी। यह प्रोफेशनल कॉम्पिटशन था। कोई निजी अदावत नहीं थी। खैर हम लोगों ने यह खबर चुपके-चुपके बनाई। आज यह बड़ा हास्यास्पद लगता है, पर उस वक्त दोनों ही तरफ के लोगों को यह शक होता था कि हमारी खबरें चुरा ली जाती हैं। मैंने यह पेज और खबर अंतिम समय तक अपनी टीम से भी डिस्कस नहीं की। सिर्फ मुझे और आफताब को इस बात की जानकारी थी। पेज डिजाइनर हरीश भट्ट से पेज बनवाकर मैंने उसे अलग फोल्डर में रखवा दिया।
इतना तो तय था कि कल उत्तराखंड सरकार की थू-थू तो होगी और मामला गरम होगा। जागरण के संपादक थे कुशल कोठियाल जी। वह अब स्टेट हेड के तौर पर जागरण में हैं। हमेशा मेरे आदरणीय रहे। हमारी टीम में भले ही अंदरुनी तौर पर प्रोफेशनल कॉम्पिटशन था पर हम दोनों के बीच ऐसी कोई बात नहीं थी। मैं हर बात उनसे शेयर करता था। खासकर किसी बड़ी खबर को लेकर। रात साढ़े दस बजे मैं ऊपरी तल पर उनके पास गया। वहां उनसे इस खबर के बारे में चर्चा की। वे हैरान हो गए। बोले, यह तो बहुत बड़ी खबर है। पूछा आपके पास सभी तथ्य तो हैं। मैंने कहा बिल्कुल। उन्होंने एप्रीशिएट किया, पर उनकी भी दाद देनी होगी, उन्होंने भी अपनी टीम को इसकी भनक तक नहीं लगने दी कि सुबह क्या धमाका होने जा रहा है।

जैसा की उम्मीद थी सुबह खबर के प्रकाशित होते ही सरकार की हालत खराब हो गई। विरोधियों ने सरकार को निशाने पर ले लिया। सरकार के पुतले फूंके जाने लगे। हाल यह हुआ कि दिल्ली में कांग्रेस ने इस मुद्दे को लेकर प्रेस कॉन्फे्रंस तक कर दी। चूंकि मामला स्वास्थ विभाग से जुड़ा था और यह विभाग मुख्यमंत्री निशंक के पास ही था, इसलिए निशंक की अपनी ही पार्टी के लोग भी मुखर हो गए।

बात यहीं थमती तो ठीक। पर निशंक ने सीधा फोन किया जागरण के मालिकों को। चूंकि वे जागरण में ही रिपोर्टर रह चुके थे। इसलिए मालिकों से उनके सीधे संबंध थे। सीधा फोन गया नोएडा में बैठे संजय गुप्ता जी के पास। उनका फोन आया जागरण देहरादून के यूनिट हेड अनुराग गुप्ता जी के पास। सभी तरफ जबर्दस्त टेंशन का माहौल बन गया था। मेरी भी पेशी हो गई। यूनिट हेड अनुराग जी के केबिन में मैं, कुशल जी और अनुराग जी बैठे थे। संजय गुप्ता जी उधर से फोन पर थे। फोन स्पीकर पर करवा दिया गया था। पहला सवाल मुझसे पूछा गया। क्या आपकी खबर सही है। मैंने पूरे कॉन्फिडेंस के साथ कहा, हां। यह पूरी तरह तथ्यों के आधार पर है। फिर सवाल कुशल कोठियाल जी से था। वह रेफरी की भूमिका में थे। उनसे भी यही पूछा गया। कुशल जी ने भी कहा सर खबर काफी अच्छी है और पूरे तथ्यों के आधार पर है। फिर सवाल था, तो मुख्यमंत्री क्यों नाराज हैं? निशंक कुशल जी के अच्छे मित्रों में रहे हैं।

कुशल जी ने बताया कि मेरे पास भी निशंक जी का फोन सुबह-सुबह आया था। वो खबर के लिए नाराज नहीं थे, बल्कि खबर के साथ उनकी बड़ी सी फोटो लग गई है इसीलिए नाराज हैं। उनको खबर से अधिक फोटो से आपत्ति है। कुणाल युवा खून हैं। उन्होंने अति-उत्साह में उनकी बड़ी फोटो भी लगा दी थी। मुझे अति-उत्साह से बचने की सलाह देने के साथ बरी कर दिया गया।
पर असली कांड अब शुरू हुआ। एक मालिक, एक डायरेक्टर और संपादक की हैसियत से संजय गुप्ता जी ने जो कुछ भी किया वह मेरी पत्रकारिता की जिंदगी के लिए एक सबक बन गया। दरअसल उत्तराखंड सरकार ने जागरण गु्रप को झुकाने के लिए दो दिन बाद प्रकाशित होने वाले सप्लीमेंट से अपना हाथ एक झटके में पीछे खींच लिया था। मुझे ठीक से तो मालूम नहीं, लेकिन यह विज्ञापन डील करीब 35 से 40 लाख रुपए की थी। संजय गुप्ता जी ने साफ निर्देश दिया। अगर खबर सही है। तथ्यात्मक है। किसी बायसनेस से नहीं है, तो फिर झुकने की जरूरत नहीं। ऐेसे लाखों रुपए की कोई वैल्यू नहीं। खबर है तभी अखबार है।

कुशल जी को निर्देश मिले कि जो आई-नेक्स्ट में प्रकाशित होगा वही खबरें आप भी जागरण के मुख्य एडिशन में लगाएं। मन गदगद हो गया। कहां मैं कठघरे में था, कहां पूरे ग्रुप के संपादक ने खबरों को लेकर ऐसा स्टैंड लिया। मन हो रहा था, काश फोन की जगह सामने संजय गुप्ता जी होते, सैल्यूट जरूर कर देता। पूरे तेवर के साथ खबरों को लगाया गया। जबर्दस्त फॉलोअप में पूरी टीम को झोंक दिया गया। एक से बढ़कर एक फॉलोअप किया गया। एक फॉलोअप की चर्चा जरूर करना चाहूंगा।

हमारी टीम सभी सरकारी अस्पतालों में गई। जिन मरीजों को मुफ्त में दवाइयां दी जाती थीं, उनसे भी कैसे बाहर से दवाइयां मंगाई जा रही थी, इसकी पड़ताल की गई। इसी को फोकस करती हुई खबर प्रकाशित हुई...हेडिंग थी .. यह घोटाला करतम सिंह के साथ है.. दरअसल करतम सिंह एक मरीज का नाम था। करतम सिंह बाद में घोटाले का पोस्टर ब्वॉय बन गए। स्टोरी का थीम था कि चलो महंगी दवाइयां खरीद ली गई, पर यह करतम सिंह जैसे जरूरतमंद मरीजों तक तो पहुंचे।

उधर, सबसे खराब स्थिति निश्ांक जी की थी। कहां वो जागरण के मालिकों से सीधी बात कर अपनी हनक दिखा रहे थे। लाखों का विज्ञापन रोक कर दबाव बना रहे थे। कहां, अब लारजेस्ट सर्कुलेशन वाले अखबार में उनकी पोल पट्टी खुलने लगी। आई-नेक्स्ट का सर्कुलेशन देहरादून सिटी तक ही सीमित था, क्योंकि इसे शहर का अखबार ही बनाया गया था। लेकिन जागरण की धमक पूरे उत्तराखंड में थी। दैनिक जागरण के जरिए देहरादून से लेकर गंगोत्री तक उत्तराखंड सरकार का दवाई घोटाला सामने आ गया। हर तरफ सरकार की थू-थू होने लगी। सरकार बैकफुट पर आ गई। अनआॅफिशियली सबसे पहले विज्ञापन रोकने को लेकर माफी मांगी गई। सप्लीमेंट का प्रकाशन भी हुआ। बावजूद इसके दवाई घोटाले से जुड़ी खबरें नहीं रुकी। उधर, सरकार ने अपनी साख बचने के लिए दोषियों पर कड़ी कार्रवाई की। हालांकि बाद में निशंक को भी इस्तीफा देना पड़ा था। आॅफ द रिकॉर्ड यही दवा घोटाला निशंक की कुर्सी खिसकाने के लिए जिम्मेदार था।

लौटते हैं मोदी सरकार के सेंसरशिप वाले प्रोपेगेंडा की तरफ। मीडिया के ही कुछ शहीद टाइप पत्रकारों ने यह बात फैलानी शुरू की है कि मोदी सरकार ने मीडिया पर लगाम कस रखा है। पर यही शहीद पत्रकार वेब मीडिया पर, सोशल मीडिया पर अपनी खूब भड़ास निकाल रहे हैं। इनसे कोई क्यों नहीं पूछता कि यहां उन पर लगाम क्यों नहीं लग रही?

दरअसल बात पत्रकारिता में बैलेंंस और बायसनेस की है। आपकी रिपोर्ट कितनी बैलेंस है, इस पर निर्भर करती है आपकी क्रेडेबिलिटी। हर चीज को अगर आप बायसनेस से रिपोर्ट करेंगे तो किसी को भी कष्ट होगा ही। खासकर आपके संस्थान को, क्योंकि उसकी क्रेडेबिलिटी डाउन होती है। बार-बार की चेतावनी के बाद भी अगर आप एजेंडा पत्रकारिता करेंगे तो आपका खात्मा तय है। कारक कोई भी हो सकता है। यह नहीं भूलना चाहिए कि तमाम घोटाले पत्रकारों ने ही उजागर किए हैं। वो आज भी उसी हनक के साथ पत्रकारिता कर रहे हैं। कोई भी सरकार नहीं चाहती कि मीडिया से उसका छत्तीस का आंकड़ा हो। निंदक नियरे राखिए के फॉर्मूले पर सरकार चलती है। लोकतंत्र चलता है। तमाम खबरों पर ही सरकार एक्शन लेती है, तभी पत्रकारिता की साख कमजोर नहीं होती है। यह नहीं भूलना चाहिए। पत्रकार के तौर पर आप सरकार को आइना दिखाइए। एजेंडा मत चलाइए।

दूसरे भाग में एक और उदाहरण के जरिए आपको बताऊंगा कि अगर आपकी पत्रकारिता बायसनेस से भरी नहीं है तो सरकार क्यों आपके साथ चलती है।

Wednesday, August 22, 2018

हे! बीजेपी के कर्णधारों अटल जी की आत्मा तुम्हें कभी माफ नहीं करेगी



प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने आराध्य अटल बिहारी वाजपेयी जी की शवयात्रा में जो उदाहरण प्रस्तुत किया वह अतुलनीय है। यही हिन्दु संस्कार है। शवयात्रा में शामिल लोग पार्थिव देह के पीछे-पीछे शवदाह गृह तक जाते हैं। प्रधानमंत्री और बीजेपी के राष्टÑीय अध्यक्ष सहित कई प्रदेशों के मुख्यमंत्री, सांसद, वरिष्ठ नेता और कार्यकर्ताओं ने इसी वैदिक परंपरा का निर्वहन किया। पूरा विश्व इसका साक्षी बना। पर अब जो बीजेपी कर रही है उसने तो संपूर्ण हिन्दू वैदिक परंपरा का मजाक ही बना डाला है। एक ऐसा मजाक जिसे अटल जी आत्मा कभी माफ नहीं करेगी। हिन्दू धर्म और वैदिक परंपरा की दुहाई देने वालों ने राजनीति के हमाम में अपना एक ऐसा दुषित चेहरा सामने ला दिया है जिससे हर एक हिन्दू शर्मशार है। जिस शवयात्रा में पैदल चलने को वैदिक संस्कार माना गया, क्यों उसी संस्कार को बीजेपी के कर्णधारों ने अस्थि कलश के विसर्जन में तिलांजलि दे दी। आइए पहले समझते हैं कि वैदिक परंपराओं में अस्थि विसर्जन को लेकर क्या-क्या कहा गया है।

आपने कभी सोचा है कि क्यों अपने प्रियजनों की मृत्यु के वक्त हम गंगाजल उनके मुंह में डालते हैं?

इसका सीधा जवाब है। वैदिक काल से यह परंपरा चली आ रही है। वेद पुराणों में भी इसका कई जगह वर्णन मिलता है। माना जाता है कि गंगा जीवनदायनी है। इसमें स्रान करने मात्र से समस्त पापों से मुक्ति मिल जाती है। यहां तक की मृत्यु के बाद भी गंगा नया जीवन प्रदान करने वाली मानी जाती है। यही कारण है कि दाह संस्कार के बाद भी एक वैदिक संस्कार के निर्वहन के लिए हम मां गंगा के तट तक जाते हैं। माना जाता है कि इसके बिना किसी मृत देह से आत्मा की मुक्ति संभव नहीं।

आइए एक नजर वैदिक और वैज्ञानिक तथ्यों पर भी डालें

आपमें से अधिकतर लोगों ने डीएनए जांच की बात सुनी होगी। डीएनए को लेकर सामान्य सी बात हम सभी समझते हैं कि मृत्यु के काफी समय बाद भी, मृत शरीर के जला देने के बाद भी, लाश सड़गल जाने के बाद भी दांत, हड्डी, नाखून या एक छोटे बाल से भी डीएनए टेस्ट के द्वारा हम उस मनुष्य के बारे में सभी जानकारी प्राप्त कर लेते हैं। अब इसका वैदिक आधार आपको समझने में कोई दिक्कत नहीं आएगी। कहने का तात्पर्य है कि मृत शरीर का जब दाह संस्कार किया जाता है उसके बाद चिता की राख को एकत्र कर हम उसे किसी नदी में प्रवाहित कर देते हैं। अमूमन गंगा में प्रवाहित करने की प्रथा है। ऐसा इसलिए है क्योंकि शरीर जल जाने के बाद भी राख में मौजूद हड्डी, दांत आदि में आत्मा का बसेरा होता है। उसमें स्पंदन होता है। वह तभी मुक्ति पाती है जब तक की उसे जल में प्रवाहित न किया जाए। अस्थियों में विद्यमान मृतदेह के अवशेष के एक छोटे से कण के स्पंदन तथा तरंगें भी व्यक्ति के स्पंदन तथा तरंगों से मेल खाती हैं। वैदिक आधार है कि अनिष्ट शक्यिां मृत देह की अस्थियों में स्पंदन के कारण अपना निवास खोजती हैं। यह अनिष्ठ शक्तियां जैसे भूत-प्रेत-पिसाच तामसिक स्वरूप के होते हैं और ये मृत शरीर और उनकी अस्थियों के मध्य एक सूक्ष्म बंधन में बंधे होते हैं। इसी कारण माना जाता है कि जब अस्थियों का विसर्जन हो गया तो मृत शरीर से निकली आत्मा ने मुक्ति पा ली।
जिस डीएनए टेस्ट की बात मैंने ऊपर की है वह मृत शरीर के अवशेषों का स्पंदन ही होता है। अग्नि संस्कार के बाद अस्थियों का जल में विसर्जन करने के पीछे भी वैदिक संस्कार और आधार ही है। मृत पुर्वजों को मृत्योत्तर जीवन में गति मिले और उनके जीवित परिजनों पर न्यूनतम नकारात्मक प्रभाव हो, यही इसका प्राथमिक उद्देश्य है ।
गरुड़ पुराण भी में इस बात का जिक्र है कि अस्थियां एकत्र करने के बाद तत्काल उसका विसर्जन जरूरी होता है। हालांकि विभिन्न हिन्दू परंपराओं में इसके दिन को लेकर अलग-अलग प्रचलन और मान्यताएं मौजूद है। पर सामान्यत: तीन दिन बाद अस्थियां एकत्र की जाती हैं। माना जाता है कि दाह संस्कार के बाद दो से तीन दिन तक वहां अग्नि का वास होता है। इस राख को ठंडा होने के बाद अस्थियां एकत्र की जाती हैं। गरुड़ पुराण ही कहता है कि तीन दिन के बाद अगर किसी कारणवश इसका विसर्जन संभव नहीं तो इसे घर में नहीं रखना चाहिए, इसे मिट्टी के कलश में बंद कर घर के बाहर किसी वृक्ष पर लटका देना चाहिए। पुराणों में कहा गया है कि जल सर्वसमावेशक होता है। अत: वह अस्थियों में विद्यमान मृतदेह के शेष स्पंदनों को अपने अंदर समाहित कर लेता है।

आइए अब सांसरिक लोक में लौटते हैं

ये तो रही वैदिक बातें। अब सांसरिक दुनिया में आते हैं। हरदिल अजीज नेता अटल जी की मृत्यु के बाद क्या हुआ इस पर फिर से लौटते हैं। शवयात्रा में वैदिक परंपराओं का निर्वहन करनेवालों ने अस्थि विसर्जन को इतना राजनीतिक अखाड़ा क्यों बना दिया है? अटल जी के दाहसंस्कार के बाद सबकुछ बेहतर हुआ। सभी रीति रिवाजों से उनकी अस्थियां एकत्र की गर्इं। परिजनों के हाथों उसका मां गंगा की कोख में विसर्जन भी कर दिया गया। वैदिक परंपरा तो कहती है कि यहीं उस मृत आत्मा की यात्रा संपन्न हो गई।

पर बीजेपी क्या कर रही है? 

अब भी अटल जी की अस्थियों को विभिन्न कलशों में लेकर पूरे देश में यात्राएं निकाल रही है। आखिर अटल जी की अस्थियों को इतना ग्लैमराइज करने की क्या जरूरत आ पड़ी है। बीजेपी की इस अस्थि नौटंकी में राजनीति की शुरुआत तो उसी दिन हो गई थी जब अस्थियों को हरिद्वार लाया गया था।

उत्तराखंड की धरती से शुरू हुआ यह अस्थि पॉलिटिक्स अब कई राज्यों में अपना जलवा दिखाएगा। पहला जलवा तो हरिद्वार से ही शुरू हो गया। उत्तराखंड के दो कैबिनेट मंत्रियों सतपाल महाराज और मदन कौशिक की राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता सामने आई। सतपाल महाराज जहां इन अस्थियों को प्रेमनगर आश्रम में रखवाना चाहते थे, बात लगभग फाइनल भी हो गई थी, लेकिन मदन कौशिक ने अपना दबाव कायम कर इसे शांतिकुंज में रखवाने का प्रोग्राम बना डाला। बात यहीं थम जाती तो ठीक था, पर हुआ क्या? फाइनली न तो प्रेमनगर से अस्थि यात्रा निकली न शांतिकुंज से। यात्रा निकली भल्ला इंटर कॉलेज से। यह वही इंटर कॉलेज है जहां कभी अटल जी ने अपनी जनसभाएं की थी। भल्ला इंटर कॉलेज ने बीजेपी के दिग्गज नेताओं के बीच सीधे टकराव को तो टाल दिया, लेकिन मैसेज क्या गया?

मैसेज साफ है। यह अस्थि यात्रा सिर्फ एक राजनीतिक प्रोपगेंडा है। वोटों के धु्रवीकरण का एक नायाब तरीका है। अटल जी जैसी शख्शियत की मृत्यु को राजनीतिक महत्वाकांक्षा की बलिवेदी पर चढ़ाना है। यह बेहद दुखद स्थिति है। जिस वैदिक परंपरा की दुहाई दी गई, उसी वैदिक परंपरा को तार-तार किया जा रहा है। जिस धूमधाम से विभिन्न राज्यों के बीजेपी प्रभारियों या बड़े नेताओं के बीच अस्थि कलश का वितरण किया गया उसे देखकर दुख हुआ। अब उसी तरीके से विभिन्न राज्यों में इन अस्थियों के विसर्जन का पूरा शेड्यूल मीडिया के पास भेजा जा रहा है।

जब हरिद्वार में मुक्ति मिल गई तो फिर अस्थियों के अवशेषों को सहेजने की जरूरत नहीं थी। अगर बीजेपी को अटल जी की मौत का राजनीतिक फायदा ही लेना था तो वैदिक परंपराओं के साथ नहीं खेलना चाहिए था। अटल जी याद में तमाम कार्यक्रमों का आयोजन किया जा सकता था। श्रद्धांजलि सभाओं का वृहत आयोजन किया जा सकता था। उनकी जिंदगी की यादों, उनको मिले सम्मानों आदि के साथ एक बस या ट्रेन को डेकोरेट कर पूरे देश भर में निकाला जा सकता था। अटल यात्रा के नाम से उनकी जीवनी को पूरे देश में प्रदर्शित करने से भी राजनीतिक फायदा उठाया जा सकता था। ‘रथयात्रा’ बीजेपी के लिए जीवन दायनी बनी थी। ठीक उसी तरह उत्तरप्रदेश सहित तमाम राज्यों में रथयात्रा के रूप में अटल यात्रा का आयोजन किया जा सकता था।

पर अफसोस ऐसा नहीं हो सका। वैदिक परंपराओं के अनुसार आज भी अटल जी की आत्मा अपनी मुक्ति की राह देख रही होगी। मुक्ति के मार्ग पर चली उनकी यह अस्थि यात्रा कब जाकर समाप्त होगी, इसका इंतजार रहेगा। पर हिन्दू धर्म की दुआई देने वालों ने हिन्दू धर्म की सारी परंपराओं का सर्वनाश कर दिया है। इसका मुझे अफसोस रहेगा।

Saturday, August 18, 2018

गुरू ! वो कॉमेडी का मंच नहीं था कि उठे और लिपट लिए


अपने इसी कॉलम ‘मंथन’ में मैंने पिछली बार सिद्धू के पाकिस्तान जाने का समर्थन किया था। मैंने लिखा था यह दोस्ती से ज्यादा एक राजनीतिक मंच है। वह भी ऐसे देशों के बीच जहां दोस्ती को भी शक की निगाह से देखा जाता है। ऐसे में इमरान खान की तरफ से बढ़े दोस्ती के हाथ को भी संभल कर मिलाने में ही भलाई होगी। सिद्धू को पाकिस्तान जाने से पहले मंथन जरूर करना चाहिए था। पर शायद अति उत्साह में वह जो कर बैठे हैं वह लंबे समय तक भारतीयों को सालता रहेगा।
नवजोत सिंह सिद्धू एक क्रिकेटर, एक कमेंटेटर, एक हास्य कलाकार, एक होस्ट के अलावा कांग्रेस के बड़े नेता हैं। पर अब वो भारतीयों के नजर में एक खलनायक की भूमिका में भी नजर आएंगे। पाकिस्तान में उनके क्रिकेटर दोस्त के साथ दोस्ती निभाते निभाते उन्होंने अपने देश में एक झटके में कई दुश्मन बना लिए। हाल यह हुआ है कि उनकी अपनी ही पार्टी उनसे किनारा करने में भलाई समझ रही है। सिद्धू का पाकिस्तान जाना शुरू से ही विवादों को जन्म दे रहा था। तमाम तर्क और वितर्क के बीच उन्होंने वीजा के लिए अप्लाई किया। सिद्धू के अलावा कई अन्य भारतीय क्रिकेटर्स के साथ भी इमरान खान के अच्छे रिश्ते हैं। इन्हीं रिश्तों को और मजबूती देने के लिए उन भारतीय क्रिकेटर्स को भी इमरान ने न्योता भेजा था। पर सिद्धू के अलावा सभी ने शुरूआती दौर से ही इस न्योते को नकार दिया था।
सिद्धू ने सभी आलोचनाओं को दरकिनार कर न्योता कबूल किया। कई प्लेटफार्म पर इसकी तरीफ भी की गई। मैंने खुद इस कॉलम में सिद्धू की प्रशंसा करते हुए लिखा था कि खेल के मैदान में जिस तरह खेल की भावना दिखती है वैसी ही भावना यहां दिखनी चाहिए। यह राजनीतिक मंच नहीं बनना चाहिए। यह स्पोर्ट्स स्प्रीट के साथ की जाने वाली डिप्लोमेसी है। इसी स्प्रीट के साथ इसे अंजाम तक पहुंचाना चाहिए। शायद मैं गलत था। मैं सिद्धू की राजनीतिक महत्वाकांक्षा को भांप नहीं सका। क्योंकि सिद्धू शुरू से ही इस मामले का राजनीतिकरण करना चाहते थे। वे शायद यह दिखाना चाहते थे कि कांग्रेस कितनी उदारवादी नीति का अनुसरण कर रही है।
यही कारण है कि उन्होंने वीजा अप्लाई करते ही मीडिया में यह बात उछाल दी कि अब केंद्र सरकार के ऊपर है कि वह उन्हें जाने की परमिशन देती है की नहीं। सिद्धू की मंशा उसी वक्त जाहिर हो गई थी जब उन्होंने केंद्र की मोदी सरकार को बीच में घसीट लिया था। भला केंद्र को क्या आपत्ती होगी। क्या मोदी सरकार के रणनीतिकार इतने कमजोर हैं जो बैठे बिठाए विपक्ष को एक बड़ा मुद्दा दे देंगे। तत्काल सिद्धू को ग्रीन सिग्नल मिल गया। अब सिद्धू के पास वो बहाना भी नहीं था कि वे नहीं जा सकते। जबकि फिर दोहरा दूं कि उनके हमराही रहे दोस्तों ने इमरान के न्योते को बिना किसी हिचक के साथ अस्वीकार कर दिया था।
इसी बीच अटल बिहारी वाजपेयी जैसे सर्वमान्य नेता के देहांत ने पूरे देश को शोकाकुल कर दिया। सिद्धू के ही पार्टी के अध्यक्ष राहुल गांधी सहित तमाम दिग्गज कांग्रेसी नेता न केवल एम्स में अटल जी का हाल पूछने गए, बल्कि उनके देहावसान से लेकर उनके अंतिम संस्कार तक पूरे समय मौजूद रहे। क्या सिद्धू को अपनी दोस्ती इतनी प्यारी थी कि वे एक बड़े नेता को श्रद्धांजलि देने तक का समय नहीं निकाल पाए। बताता चलूं कि अमृतसर होते हुए बाघा बॉर्डर पहुंचे सिद्धू ने अमृतसर में समय निकालकर वहां आयोजित कार्यक्रम में भी भाग लिया था। एक तरफ जहां पूरा देश शोकाकूल था, अटल जी को याद कर रहा था। सिद्धू के मूंह से उनके लिए दुख के एक शब्द नहीं निकले। सिद्धू को अपने यहां बुलाकर इमरान ने भले ही दोस्ती का पैगाम भेजा हो। पर इससे कौन इनकार कर सकता है कि पाकिस्तान में कमान पूरी तरह सेना के हाथ में होती है। पाक सेना ने सिद्धू के आने पर अपनी पूरी स्ट्रेटजी तैयार की और इमरान खान के शपथ ग्रहण समारोह में जो कुछ भी हुआ उसे पूरे विश्व ने देखा।
डिप्लोमेटिक स्ट्रेटजी में पाकिस्तान ने सिद्धू को ऐसी बुरी तरह घेर कर रख दिया कि अब सिद्धू को न इसे निगलते बनेगा न उगलते। पाक सेनाध्यक्ष को गले लगाने पर भारतीयों का गुस्सा सोशल मीडिया पर साफ तौर पर नजर आया। आम लोगों के गुस्से को देखते हुए कांग्रेस ने भी सिद्धू की इस हरकत से खुद को अलग रखना ही बेहतर समझा। इमरान खान के शपथ ग्रहण की तस्वीर और वीडियो के वायरल होते ही लोगों की टिप्पणियों की झड़ी लग गई। तस्वीरों और वीडियो में सिद्धू को साफ तौर पर पाक सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा के गले लगते देखा जा सकता है। जिस आत्मीयता से सिद्धू ने उन्हें लगाया वह अपने आप में कई सवालों और शंकाओं को जन्म दे गया। सवाल उठने लगे कि यह पाक सेना प्रमुख की सोची समझी रणनीति का हिस्सा था या सिद्धू की बचकानी हरकत। यह महज संयोग नहीं हो सकता कि जिस वक्त इमरान खान शपथ ले रहे थे पाकिस्तानी सेना द्वारा जम्मू कश्मीर बॉर्डर पर भारत की तरफ गोले दागे जा रहे थे और इधर गले लगाने का कार्यक्रम चल रहा था। गले लगने के बाद एक और वीडियो सामने आया जिसमें सिद्धू को पाक अधिकृत कश्मीर के राष्टÑपति मसूद खान के साथ बैठा देखा जा सकता है। क्या सिद्धू की राजनीतिक समझ इतनी कमजोर है कि वह पाकिस्तान की इस डिप्लोमेटिक स्ट्रेटजी को भांप नहीं सके। क्रिकेट की पिच पर अपने प्रतिद्वंदियों का सामना करने के लिए जितनी स्ट्रेटजी और प्लानिंग करनी पड़ती है, उससे भी कहीं ज्यादा सियासत की जमीन पर तैयारी करनी पड़ती है। वह भी जब सामने पाकिस्तान जैसा देश हो। तो क्या मान लिया जाए कि सिद्धू जैसा क्रिकेट का बड़ा खिलाड़ी और सियासत का दलबदलू खिलाड़ी पाकिस्तान के लिए किसी तैयारी के साथ नहीं गया था। शपथ ग्रहण समारोह में अन्य देशों के प्रतिनिधि भी पहुंचे थे। वे डिप्लोमेट्स के लिए निर्धारित स्थान पर बैठे थे। फिर ऐसी क्या मजबूरी थी कि सिद्धू पीओके राष्टÑपति के ठीक बगल में बैठ गए। यह मान भी लिया जाए कि पाकिस्तान ने सिद्धू के लिए वहां स्थान निर्धारित किया था, लेकिन क्या सिद्धू इस बात को भांप नहीं सके कि आखिर उनको ही यह स्थान क्यों दिया जा रहा है? 

सिद्धू को यह नहीं भूलना चाहिए था कि वह एक दोस्त से ज्यादा करोड़ों भारतवासियों का वहां प्रतिनिधित्व कर रहे थे। उनकी हर एक हरकत पर भारतीयों की नजर होगी। आज भारत का हर एक व्यक्ति आशंकित है कि सिद्धू की तस्वीरों का पाकिस्तान किस प्लेटफॉर्म पर कैसे इस्तेमाल करेगा। एक दोस्त के नाते सिद्धू ने जरूर दोस्ती निभाई, लेकिन एक भारतीय होने के नाते सिद्धू ने क्या किया इसे पूरे विश्व ने देख लिया। सिद्धू ने इमरान खान के शपथ समारोह की सराहना करते हुए कहा है कि उनके लिए यह एक बहुत भावुक अवसर है। वह अत्यंत भाग्यशाली हैं कि उन्हें इमरान खान को देखने का मौका मिला। उन्होंने कहा, मेरा यार दिलदार, वजीर-ए-आजम पाकिस्तान। उम्मीद की जानी चाहिए कि उनका यार पीठ पर वार न करे। क्योंकि जब-जब ऐसी दोस्ती का पैगाम सरहद पार से आया है पीठ पर वार ही हुआ है।

Thursday, August 16, 2018

लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं?



कहीं सुना था...जिंदगी की शोर, राजनीति की आपाधापी। रिश्ते नातों की गलियों और क्या खोया क्या पाया के बाजारों से आगे, सोच के रास्ते पर कहीं एक ऐसा नुक्कड़ आता है जहां पहुंच कर इंसान एकांकी हो जाता है। तब जाग उठता है कवि। फिर शब्दों के रंगों से जीवन की अनोखी तस्वीरें बनती हैं। कविताएं और गीत सपनों की तरह आते हैं और कागज पर हमेशा के लिए अपने घर बना लेते हैं। अटल जी की कविताएं ऐसे ही पल, ऐसे ही क्षणों में लिखी गर्इं। जब सुनने वाले और सुनाने वाले में तुम और मैं की दीवारें टूट जाती हैं। दुनिया की सारी धड़कनें सिमट कर एक दिल में आ जाती हैं। और कवि के शब्द दुनिया के हर संवेदनशील इंसान के शब्द बन जाते हैं।

इमरजेंसी के दौर में जब बंगलौर की जेल में अटल जी थे तब उनकी तबियत खराब हो गई थी। उन्हें दिल्ली लाया गया। यहां आॅल इंडिया मेडिकल इंस्टीट्यूट एंड साइंस (एम्स) में रखा गया था। चौथी या पांचवीं मंजिल पर उनका कमरा था। चारों तरफ काफी सुरक्षा थी। रोज सुबह करीब पांच से साढ़े पांच बजे के बीच अटल जी की नींद खुल जाती थी। उनकी नींद लोगों के रुदन, क्रंदन से टूटती थी। अटल जी को आश्चर्य होता था रोज सुबह यहां कौन रोता है। अपने लोगों को उन्होंने पता करने के लिए कहा। पता चला कि जहां उनका कमरा था वहां से थोड़ी दूर नीचे की फ्लोर पर एम्स का शवगृह था। एम्स में इलाज के दौरान जिंदगी की जंग हार जाने वालों के परिजनों को रोज सुबह इसी जगह पर शव सौंपा जाता था। वह रुदन क्रंदन की आवाज यहीं से आती थी। अटल जी ने अपने संस्मरणों में बताया था कं्रदन की आवाज दूर से सुनाई पड़ती थी, लेकिन हृदय को चीर कर चली जाती थी। कवि हृदय अटल जी की कलम से जो शब्द निकले वह जगजीत सिंह के द्वारा गायी गई गजलों में आज भी सुनी जाती हैं। उनके शब्द थे..

दूर कहीं कोई रोता है
तन पर पहरा भटक रहा मन
साथी है केवल सुनापन
बिछड़ गया क्या स्वजन किसी का
कं्रदन सदा करुण होता है
दूर कहीं कोई रोता है
जन्मदिवस पर हम इठलाते
क्यूं न मरन त्योहार मनाते
अंतिम यात्रा के अवसर पर
आंसू का अशगुन होता है
दूर कहीं कोई रोता है
अंतर रोये आंख न रोये
धुल जाएंगे स्वप्न संजोए
छल न भरे विश्व में केवल
सपना भी तो सच होता है
इस जीवन से मृत्यु भली है
आतंकित जब गली गली है
मैं भी रोता आसपास जब
कोई कहीं नहीं होता है
दूर कहीं कोई रोता है
पर क्या कोई सोच सकता है जिस एम्स के कमरे में बैठकर उन्होंने मृत्यु से साक्षात्कार करती यह कविता लिखी आज उसी एम्स में वे अंतिम सांस लेंगे। यह अटल जी का निश्चछल और पवित्र दिल ही था जिसने कभी सच्चाई से मुख नहीं मोड़ा। उस अटल सत्य को उन्होंने कविता की पंक्तियों में ढालकर अपनी मौत को भी अमर कर दिया। आज पूरा देश रो रहा है। कं्रदन ऐसा है कि सभी नि:शब्द हैं। मौत साश्वत है। पर इस सत्य को कोई स्वीकार नहीं कर पा रहा है। उनके चाहने वाले कं्रदन कर रहे हैं पर दिल से उस शख्स को मृत्युशैया पर नहीं देख पा रहे हैं। यह अटल जी की महानता की पराकाष्ठा ही थी कि आज धर्म, जाति, ऊंच, नीच, राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं से ऊपर उठकर लोग अपनी भावनाओं को सहेज रहे हैं। उनकी यादों को आत्मसात करने की कोशिश कर रहे हैं।
अपने संस्मरणों को सुनाते हुए उनकी एक रिकॉर्डिंग मेरे आॅडियो कलेक्शन में मौजूद है। उसमें अटल जी कहते हैं। राजनीति की आपधापी और व्यस्तताओं के बीच उन्हें कविता लिखने का अब समय नहीं मिलता। पर पिछले कुछसालों से अपने जन्मदिन के दिन वो एक कविता जरूर लिखते हैं। इन्हीं कविताओं में से उनकी लिखी एक कविता की पंक्तियां हैं.....
जो कल थे वो आज नहीं हैं
जो आज हैं वो कल नहीं होंगे
होने न होने का क्रम इसी तरह चलता रहेगा
हम हैं हम रहेंगे ये भ्रम भी सदा बनता रहेगा
सत्य क्या है
होना या न होना
या दोनों ही सत्य हैं
जो है उसका होना सत्य है
जो नहीं है उसका न होना सत्य है
मुझे लगता है कि होना या न होना
एक ही सत्य के दो आयाम हैं
इसलिए सब समझ का फेर
बुद्धि के व्यायाम हैं
यह पंक्तियां कोई असाधारण व्यक्ति का स्वामी ही लिख सकता है। अटल जी ऐसे ही असाधारण व्यक्ति थे। शायद यही कारण है कि जब एम्स में उनका इलाज चल रहा था पूरे देश में दुआओं का दौर चल रहा था। सभी राजनीतिक दल के लोग उनकी सेहत का हाल चाल पूछने एम्स पहुंच रहे थे। हर एक व्यक्ति गमगीन था। हर एक की आंखों में आंसू थे। अटल जी जब राजनीति में एक ऊंचे मुकाम पर थे तब भी उनका कवि हृदय हमेशा कुछ न कुछ नया लिखता था। उनके लिखे एक-एक शब्द सौ-सौ गोलियों पर भारी पड़ते थे। इमरजेंसी के दौर में जब एक साल बीत गया था। उस दौरान उनकी लिखी ऐसी ही एक कविता की पंक्तियों में वो कहते हैं..
झुलासाता जेठ मास, शरद चांदनी उदास
सिसकी भरते सावन का, अंतर्घट रीत गया
एक बरस बीत गया
सीकचों में सिमटा जग, किंतु विकल प्राण विहग
धरती से अम्बर तक गूंज मुक्ति गीत गया
एक बरस बीत गया
पथ निहारते नयन , गिनते दिन पल छिन
लौट कभी आएगा , मन का जो मीत गया
एक बरस बीत गया
   

अटल जी चाहे संसद के अंदर रहे या बाहर। हमेशा उन्होंने अपनी राजनीतिक विचारधारा को व्यक्तिगत आरोपों प्रत्यारोपों से दूर रखा। आज उनके जैसे बिरले ही जन प्रतिनिधि दिखते हैं। आज उनका जाना राजनीति के एक स्वर्णिम युग का अवसान है। यह अवसान लंबे समय तक भारतीय लोकतंत्र के प्रहरियों को सालता रहेगा। पूरा देश गमगीन है। रो रहा है। दिल से कोई उनकी मृत्यु को स्वीकार नहीं कर पा रहा है। पर मृत्यु अटल है। यह समझना भी जरूरी है। अटल जी के शब्दों में ही..
मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं, जिंदगी सिलसिला, आज कल की नहीं।
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं,
लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं?
अटल जी जैसा व्यक्ति सदियों में पैदा होता है। वे लौट कर आएंगे या नहीं, यह कहा नहीं जा सकता है। पर अपने सिद्धांतों और असाधारण व्यक्तित्व के जरिए वो हर एक भारतीय के दिलों में जिंदा रहेंगे। नमन ऐसे ‘अटल’ को।

Monday, August 13, 2018

काशी से कामाख्या - दोस्त, यही फना है


पढ़िए काशी से कामख्या की तीसरी और चौथी किस्त

उस रात हम सोये ही नहीं। पूरी रात आंखों में कट चुकी थी। पत्नी के सेल फोन का चार बजे का अलार्म रोजमर्रा की मानिंद बांग देने लगा था। चूंकि मिसेज बबिता भारद्वाज ने हमें ताकीद किया था कि वो हमें सिक्स फिफ्टीन तक लेने आ जाएंगी लिहाजा हमें जल्दी तैयार होना था। सो, हम एक दूसरे को आवाज देते हुए नहाने धोने की तैयार में लग गये। अनवरत बारिश के चलते गुवाहाटी का टेम्परेचर बाइस या तेइस पर उतर आया था। अचानक से पता चलने पर कि होटेल का सोलर गीजर काम नहीं कर रहा है, सब बेचैन हो उठे। समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर ठंडे पानी से नहाया कैसे जाएगा। सबकी राय बनी कि जिसकी हिम्मत होगी वो नहायेगा वरना वजू से काम चलाया जाएगा। एक के बाद एक घुसता और नहा कर ही निकलता। आश्चर्य की हाथ धोते और ब्रश करते बेहद ठंडा लग रहे पानी की तासीर पीठ पर पडते वक्त बदल चुकी थी। जैसे शावर में किसी ने कोई दुआ पढ कर दम कर दिया हो। बहरहाल, साढे पांच या पौने छह बजे ही हम रेडी हो गये थे। अब हर लमहा बेचैनी बढती चली जा रही थी। मिसेज बबिता अपने बताये वक्त पर अपने हसबेंड के साथ आयीं और उन्होंने अपने मौसेरे भाई परितोष शर्मा को काॅल कर समझा दिया कि हमें जगद्जननी माता कामाख्या का विधिवत दर्शन पूजन करा दिया जाए। इसके बाद वो एक ओला कैब में हमें बैठा कर वापस लौट गयीं। और अब हम निकल पडे थे मां की जियारत के लिए। रवायत के मुताबिक हम सब निन्ने मुंह थे। मतलब हममें से किसी ने कुछ भी खाया पीया नहीं था। ये सब हमें उस सुनहरी जुल्फों वाले ने अपनी पहली तवज्जे में ही बता दिया था कि कम खाना और कम सोना राहे इश्क की पहली शर्त है। जियारत पर जाने का इरादा बांधने के साथ ही उसके तसव्वुर की बात भी उन्होंने हमें जैसे घुट्टी में पिला दी थी। सो हम सब चुपचाप चले जा रहे थे। टैक्सी ड्राइवर भी हमें देख अचंभे में था की अजीब मनहूस सूरत वाले हैं जो आपस में भी बात नहीं कर रहे हैं। रास्ते में मेन रोड आने तक तो हम बाहोश थे। गुवाहाटी की दुकानों पर लगे बोर्ड पढते हुए असम की इकाॅनमी को बूझने का प्रयास करते रहे लेकिन पता नहीं कब वो रात वाला शख्स फिर आकर जलवागर हो उठा। हिना की तेज खुशबू के चलते कुछ सूझ ही नहीं रहा था। तभी चलती टैक्सी में फिर हमें उसकी आवाज सुनायी देने लगी। कहने लगे, इश्क के लिए दर्द बहुत जरूरी है। दर्द के बगैर इश्क और इश्क के बगैर दर्द हासिल नहीं हो पाता। कहने लगे, यार अब
माता पार्वती को देखो। उन्हें अपने महबूब शिव से बेपनाह मोहब्बत थी। उन्हें नजरअंदाज किया जाना माता पार्वती को दर्द दे गया। उन्हे ये सब इस कदर नागवार गुजरा कि वो जलाल के उस मुकाम पर पहुंच गयीं कि खुद को उस अग्निकुंड में समाहित कर लिया जिसे उनके पिता राजा दक्ष ने तमाम शक्तियों को पाने के लिए प्रज्ज्वलित किया था। उनके इस जलाल ने भोलेनाथ कहे जाने वाले शिव के जमाल में भी ताप की अग्नि सुलगा दी। वो अपनी उस तीसरी आंख को खोल बैठे जो कयामत का सबब था। अब जरा माता पार्वती के दर्द को समझो कि बाप ने अपने अनुष्ठान में दुनिया जहान को न्यौता पर अपनी उस बेटी को ही नहीं बुलाया जो पराशक्ति की पर्याय है। राजा दक्ष की अज्ञानता को देखो कि वो बेशक शक्ति की आराध्य की पैदाइश के सबब थे पर वो अपनी बेटी की ताकत को पहचान ही नही सके। सुनहरे लम्बे बाल वाला वो शख्स लगातार बोले चले जा रहा था। उस पराशक्ति का मुकद्दर भी देखो कि पति के कंधे पर लदे उसके पार्थिव देह के प्रबल ताप को फरिश्ते भी बर्दाश्त नहीं कर सके। गैब को जब कुछ नहीं सूझा तो उसने उस शख्सियत से उसका सुदर्शन चक्र चलावाया जिस पर इस सृष्टि के पालन की जिम्मेदारी थी। अब जरा उस देवी के दर्द को महसूस करो जो इश्क की पर्याय थी। प्रेम की प्रतीक थी। इस सम्पूर्ण ब्रह्मांड की मां पार्वती थी। उसका पार्थिव देह अपने उस महबूब शिव के कंधे पर लदा था जिसके सिर्फ एक बार पलक झपका देने पर न जाने कितने कायनात बनते और मिट जाते हैं पर जरा उसकी तकलीफ को देखो कि उसके अंग प्रत्यंग कट कट कर जगह जगह गिरते जा रहे थे और तमाम फरिश्ते ये सारा तमाशा देख रहे थे ? उफ, कितना अफसोसनाक रहा होगा वो मंजर कि हमारी मां के देह का इक्यावन टुकडा कर दिया गया। दोस्त, यही फना है। अब फना के बाद बका को समझो। उस निष्प्राण शरीर के प्रबल ओज को देखो कि हर शेष अवशेष ने इक्यावन शक्ति पीठ का रूप धारण कर लिया। बका भी ऐसी कि कयामत के बाद भी इन शक्तिपीठों का वजूद इस ब्रह्मांड में कायम रहेगा। सुनो, मां कामाख्या इन शक्ति पीठों की सिरमौर हैंै। तुमने श्रीचक्र को देखा होगा। उसके शिखर की बिन्दु ही माता कामाख्या हैं। पहाडी रास्ते पर खाये एक हिचकोले से मेरी तन्द्रा टूट गयी। ड्राइवर ने बताया कि नील पर्वत की घाटी है। ये माता कामाख्या की दहलीज है। उसे क्या
पता कि हिना की खुशबू बिखेर रहा वो जलावागर मुझे रास्ते भर यही सारी दास्तां तो सुना रहा था। रास्ते में पहाडी चट्टानों पर लिखी इबारत मां के चमत्कार को महसूस करने का संदेश दे रहा थी। फील द मिरेकल, फील द गाॅडेस और भी न जाने क्या क्या। यह सब वाकई महसूस हो रहा था कि यहां कोई तो एक ताकत है जो अपनी तरफ लगातार खींच रही है। वो कह रही है कि हां, मैं ही हूं इस सृष्टि की जननी। इस नश्वर संसार में पैदा होने वाला हर शख्स मेरा ही अंश है। टैक्सी वाला हमें बस स्टैंड पर छोड कर जा चुका था। हम पंडित परितोष शर्मा
को काॅल कर उनसे बतियाते हुए माता के परिसर में दाखिल हो चुके थे। हम हैरान थे कि हम ठीक उन्ही सबसे मुखातिब थे जिन्हें हमने ख्वाब में देखा था। परितोष जी के अलावा तमाम लोग लाल रंग की पोशाक में थे। जाहिर है कि वो सब मां कामख्या दरबार के पंडे हैं। उनके चेहरे पर एक अलग तरह का तेज था। उसकी वजह वो नूर है जिसका वो हर रोज दीदार करते हैं। सब बेहद विनम्र और खामोश। अचानक से दिखने लगे वही कबूतर और बकरी के नन्हे बच्चे। सबके देह पर लगी लाल रंग की रोरी। जैसे वो रोरी नहीं इस दरबार का बिल्ला लगाये
घूम रहे हों। अरे हां, इनके बीच यहां कुछ बिल्ली और बिल्ले भी घूम रहे हैं। पर किसी को किसी की परवाह ही नहीं हैं। बिल्लियों का कबूतर के साथ यंू टहलना कुछ अजीब सा लगा। तभी मेरे रोंगटे खडे हो गये। रात उनकी कही बात याद आ गयी। यहां दिखने वाली हर सूरत को उसकी हकीकत मत समझना। कबूतर और बकरी की शक्ल के अलावा आसपास दिखने लगे तमाम चेहरों में भी अब मुझे डाकिनी शाकिनी नजर आने लगे। इस बीच परितोष शर्मा हमें मंदिर परिसर में स्थित एक कुंड में ले जाकर हमारा शुद्धिकरण करा रहे थे। जल प्रक्षालन के साथ शर्मा जी असमी टोन में अपना मंत्र पढ रहे थे और हम ओम अपवित्र पवित्रो वा सर्वा वस्थांग गतो पिवा की अपनी दोआ में लगे थे। उसके बाद वो हमें वीआईपी दर्शन की कतार में खडा कर पूजन सामग्री के इंतजाम में लग गये। एक दो फाटक पार कर थोडी ही देर में हम उस चौखट में दाखिल हो चुके थे जहां पहुंचने के साथ सब कुछ निस्तेज हो जाता है। पंडित परितोष शर्मा आगे आगे चल रहे थे और हम सब अपना वजूद खोये उनके पीछे कुछ ऐसे चल रहे थे जैसे वो हम नहीं हमारा देह पिंड चल रहा हो। हजारों साल पहले का बना वो मंदिर बेशक पत्थर का था पर यह बताते हुए मेरी रूह कांप रही है कि यहां के हर शिलाखंड में जान प्राण है। वो बकायदे मुस्कराती हैं। आने वाले हर शख्स का इस्तकबाल करती हैं। सबकी गुहार पुकार सुनती हैं। जिसकी जितनी समाई है उतनी उसे अता करने के लिए मां कामरूप कामाख्या से पैरवी भी करती हैं। इन प्राणवान दीवारों पर
विग्रह बन कर टंगे तमाम देव प्रतिमाओं का दीदार करते हुए अब हम गर्भगृह कामरूप कामाख्या का मुख्य विग्रह है। ऊपर रखी मूर्ति के नीचे मुख्य में दाखिल हो चुके हैं। हमारे पुरोहित शर्मा जी बता रहे हैं कि ये मां पिण्डुकी है। उन्होंने कुछ फूल हमारे हाथों में थमाये और पुष्पाजंलि पढना शुरु किया तो हमें सिंहरन होने लगी। ओम नमो भगवते... चामंुडे... नील पर्वत वासीनी... मां कामख्या... नमस्तुते... हमें वो सब याद आने लगा जिसे हमने ख्वाब में देखा था। फिर वही अंधेरी गुफा जैसी जगह में हाथ थाम कर उतरना... फिर वही संकल्प के साथ पुष्पाजंलि ओम नमो भगवते... चामंुडे... नील पर्वत वासीनी... योनी मुद्रा... मां कामख्या... नमस्तुते... इन सबके बीच हाथ में रखे फूल मां के देह अंश पर कब समर्पित हो गये पता ही नहीं चला लेकिन प्रस्थर अवशेष का स्पर्श मन मस्तिष्क में वीतराग का भाव भर गया। यहां भी वो कान में फुसफुसा रहा था। नहीं नहीं वो जैसे हुक्म दे रहा था। रख यहीं अपना सिर सजदे में। मांग अपने गुनाहों से माफी। अर्ज कर इस समस्त संसार के लिए रहम और करम। सबका भला, सबकी खैर की दुआ कर। यकीन कर की तू मां का नेक बंदा है। उसका प्यारा बच्चा है। शुक्राना अदा कर की उसने तुम्हे इस चौखट में दाखिल होने की इजाजत अता फरमायी। क्योंकि हर रोज हजारों की तादाद में आने वाले बंदों में से वो कुछ को ही दाखिले की रहम अता फरमाती हैं। वो हम सबकी मां ही नहीं हम सबकी रब हैं। उनसे अपने लिए श्रद्धा और भक्ति मांग। उन पर यकदा और यकीन मांग। उस यकीन पर कायम रहने की ताकत मांग। और मांग ले उस फकीरी को जिसके दम पर तू दुनिया जहान के लिए
ताजिंदगी, ताकयामत दुआगो रहे। वो लगातार बोले चला जा रहा था और सजदे में गिरा मैं सिर्फ आमीन, आमीन और आमीन कहे चला जा रहा था। मैं कब तक वहां इसी हाल में रहा पता ही नहीं चला। योनी मुद्रा कंुड के पवित्र जल प्रक्षालन से चैतन्यता तो आयी पर मेरा पूरा वजूद उस कुंड में डूब कर पूरी तरह से खत्म हो चुका था। बगल में माता महालक्ष्मी और महा सरस्वती की पिण्डुकी पर पुष्प अर्पित कर हम बगैर पीठ दिखाये बाहर निकल तो रहे थे पर हमारा बहुत कुछ वहीं छूट चुका था।
बाहर आने पर परितोष जी ने घूमा देवी, भैरवी, शीतला, तारा, काली, छिन्नमस्ता, भुवनेश्वरी और बगुलामुखी देवी के मंदिरों को जाने का रास्ता बता दिया। हम हर एक मंदिर में मत्था टेकते हुए सिर्फ वही दुआ मांगते रहे
जिसके लिए हमें हुक्म मिला था। इन सारे मंदिरों के अपने तिलिस्म थे और थे अपने अलौकिक अनुभव। इन सबके बाद अब हम मां कामाख्या की प्रदक्षिणा कर रहे थे। मन कुछ अलग तरह के भाव से भरा हुआ था। हमने अगरबत्तियां सुलगायीं थीं पर हमारे हाथों में गमक किसी और की थी। साथ में कोई तो था जो अपनी लगातार मौजूदगी दर्ज करा रहा था। वो हमसे मंदिर के तवाफ के लिए कह रहा था। बार बार कही अपनी इस बात पर कायम था कि इस कायनात के प्रथम पुरूष और स्त्री भगवान शिव और माता पार्वती ही थे। उनके युग्म से ही इस संसार में मनुष्य मात्र का जन्म हुआ है। वो हमें राहे इश्क में इस आशिक और महबूब के जोडे की दी हुई कुर्बानियों की याद दिला रहा था। तभी वापस लौटते हुए मेरे कदम माता के दरबार की चौखट पर आकर जड हो गये। सजदे में गिरी देह के साथ जेहन एक बार फिर दूर कहीं गहरे तक डूब चुका था। वो मां से कुछ अर्ज कर
रहा था तो कुछ याचना कर रहा था। इसमें कुछ इसरार भी था तो कुछ इकरार भी था। उसका कहना था कि क्या कहेगा यह जहां आपके दर से खाली हम अगर जाएंगे ? अर्ज का ये सिलसिला चल ही रहा था कि आवाज आयी, उठो, मां अपने बच्चों को हताश कभी देख ही नहीं सकती। जाओ उसने तुम्हारी बात सुन ली है। हमारे उठे हुए कदम चल तो रहे थे पर हमारा बहुत कुछ वहीं धरा रह गया था।

हाजिरी का वो रहस्यमय इंतजाम और बगुलामुखी...

काशी से कामाख्या - 4

वो मंगल की रात थी। हम भुवनेश्वरी मंदिर से दर्शन के बाद हारमनी हाउस लौट आये थे। पता नहीं क्यों ऐसे लग रहा था जैसे कोई तो वहां हमारी बाट जोहता रहा और हम उससे बगैर मिले लौट आये थे। हमने कई बार गिनती की। दश महाविद्या की उन सारी देवियों का नाम स्मरण किया जिनके नाम और मंदिर का पता पंडित परितोष शर्मा जी ने हमें बताया था। उन्होंने हमसे कहा था कि माता बगुलामुखी का सिर्फ शिखर दर्शन कर लीजिएगा, क्योंकि मंगलवार होने के कारण वहां बहुत भीड होगी और एक सौ चवालिस सीढियां उतरना और फिर चढना मंदाकिनी दीदी के बस का नहीं है। हमने वही सब किया था। पता नहीं क्यों अब तक उलझन बनी हुई थी। देर रात तक हम मां कामाख्या मंदिर के तिलिस्म के बारे में ही बतियाते रह गये। इस बीच हम हारमनी हाउस को भी किसी जादू टोने की तरह ही देख रहे थे। ऐसे लग रहा था कि जैसे वहां रखी हर चीज किसी तंत्र
साधक की भैरवी हो। सीलिंग पर पतले धागे से टंगी सीरामिक की बहुरंगी ढेर सारी केटली। आलमारी में रखे बेशुमार खिलौने, किसी पुराने फोटोग्राफर की लकडी के स्टैंड पर रखी खूबसूरत फ्लैश लाइट और भी बहुत सारा, न जाने क्या क्या। शयन मुद्रा में लेटे हुए तथागत बुद्ध। उनका मुस्कराता चेहरा जैसे कह रहा हो कि मैं जानता हूं कि तुम मेरे रहस्यवाद को बूझने का प्रयास कर रहे हो। हारमनी हाउस की हर चीज में एक अट्रैक्शन था। ऐसे लग रहा था जैसे वो सब कोई शोडषी कन्याएं हों जिन्हें किसी ने उच्चाटन के मकसद से सम्मोहित कर रखा हो। सबकी बकायदा शक्लें दिख रही थीं। उस रात हमने पूरे हारमनी हाउस का भ्रमण किया। हर कमरे से लेकर हर मंजिल तक का निरीक्षण कर डाला। लोभान की तेज खुशबू की और हवा में तैरता धुआं। गलियारे में दीवार
पर टंगी बीज मंत्र के साथ हमारे कुलदेवता गणपति और मां गायत्री की तस्वीर देख हम अभिभूत थे। दूसरी तरफ कुछ बहुत पुरानी फिल्मों के पोस्टर थे जो बाकयदा फ्रेम में मढ कर यूं टंगे थे जैसे वो भी कोई देखने की चीज हो। हमारे कदम आगे बढ चुके थे लेकिन तभी अचानक ऐसे लगा जैसे किसी ने आवाज दी हो। हम हैरत में थे। पलट कर देखा तो वहां कोई नहीं था। अरे ये क्या ? हमने आगे बढ चुकीं दीदी और पत्नी को आवाज दी। बताया कि यहां अभी किसी ने मुझे आवाज दी हैै। इस बीच हम पोस्टर में बुरी तरह से खो चुके थे। पाकीजा
फिल्म के पोस्टर में राजकुमार के सीने से लगी महजबीन बानो मानो रो रही थीं। मेरे रोंगटे खडे हो गये थे। ऐसे लग रहा था जैसे वो सिसकियां ले रही हों। महजबीन को लोग मीना कुमारी के नाम से ज्यादा जानते हैं। वो अपने नाम की तरह वाकई बेहद खूबसूरत थीं। इश्क पाने के लिए महज बत्तीस की उम्र में फनाइयत से गुजरना उस आदाकारा की नियति बनी थी पर उन्होंने ऐसी बका पायी कि वो आज पोस्टर बनी यहां टंगी हुई हैं। हमें ये पोस्टर बेचैन कर गया। वो आवाज भी मुझे तंग किये हुए थी। कमरे में लौटने के बाद नेट के सर्च इंजन पर मैं अचानक महजबीन बानो उर्फ मीना कुमारी को तलाशने लगा। मेरी आंखों में उतर आया पानी मुझसे उस शख्सियत से मेरे रिश्ते का पता पूछ रहा था जिसे मैंने अपनी जिंदगी में कभी देखा ही नहीं। यह सब लिखते हुए मुझे सिंहरन हो रही है कि वो एक अगस्त की रात थी। ये वो मनहूस तारीख थी जिसमें महजबीन बानों दादर मुम्बई के एक छोटे से चाॅल में पैदा हुई थीं। मनहूस इसलिए कि महजबीन से मीना कुमारी बनने की दर्दनाक जिंदगी को उनके शैदाई ट्रेजडी क्वीन के नाम से पुकारते हैं। हम सो ही नहीं पाए। मोहतरम लोगों क्या इसे संयोग कह कर आगे बढ जाना चाहिए। नहीं साहब, ये कैसे कह सकते हैं आप ? नहीं, नहीं। बहरहाल, उस रात हम सबके बीच तय ये हुआ कि कल सुबह बाला जी के मंदिर जाएंगे। कामाख्या भी चलेंगे लेकिन दर्शन करने के लिए लाइन में लग कर न तो धक्के खाएंगे और न ही वीआईपी टिकट के लिए पैसे खर्च करेंगे। सुबह आराम से
सो कर उठेंगे फिर उसके बाद चलने का वक्त तय करेंगे। अगर मां कामाख्या ने हमें अंदर बुला लिया तो ठीक नहीं तो बाहर से हम उनका तवाफ यानि प्रदक्षिणा कर लेंगे। उस रात हम सबने सोना तो चाहा पर शायद नींद किसी को आयी ही नहीं। करवटें बदलते हुए सुबह कब हो गयी खबर ही नहीं लगी। गुवाहाटी के साथ एक मजेदार चीज है। यहां शाम जल्दी मतलब पांच बजे ढल जाती है लेकिन  सुबह साढे चार बजे सूर्य देवता अपने प्रकट होने की दस्तक दे चुके होते हैं। इस बीच ओला कैब हमें बालाजी के लिए लेकर चल पडा था। हम मंदिर के
दहलीज पर थे पर हमें यकीन ही नहीं हो रहा था कि हम गुवाहाटी में हैं। ऐसे लग रहा था जैसे हम तिरूमाला की पहाडी पर भगवान विष्णु के इस रूप को पुकार रहे हों। गणपति, पद्मावती, राजराजेश्वरी और फिर खुद आकर खडे थे भगवान बालाजी। वही कसौटी पत्थर का आदमकद विग्रह। जैसे अभी बस बोल देंगे। धोती, कमर में कसा खूबसूरत बंध, माथे पर वैष्णव तिलक। सब कुछ अद्भुत। तमिल बोलते पुजारी और प्रसाद में मिला अन्नम और लाडू। सब कुछ अवर्णनीय। कहीं पढा था कि भगवान बाला जी विष्णु के स्त्री रूप हैं। तो वो यहां मां का रूप धरे गुवाहाटी में क्यों बैठे हैं ? एक सवाल और भी था जो जेहन को मथे जा रहा था। कहीं वो गैब के कराये उस कृत्य की प्रायश्चित करने के लिए तो यहां नहीं आ गये जिसके तहत उन्होंने माता सती के पार्थिव देह पर सुदर्शन चलाया था ? इन सबके बीच हम कब फिर माता कामरूप दरबार की सीढियां चढने लगे पता ही नहीं चला। हमने कोई माला फूल नहीं लिया। बिल्कुल खाली हाथ। जैसे कोई मंगता आता है अपने मालिक के घर याचना के लिए। जेहन में सिर्फ एक ही बात थी और वो था खुद के गदाई होने का अहसास। सबका भला, सबकी खैर की दुआ। सर्व मंगल मांगल्ये, शिवे सर्वार्थ साधिके, शरण्ये त्रयम्बके गौरी नारायणी नमोस्तुते की प्रार्थना। आज हमने पंडित परितोष शर्मा जी को कोई काॅल नहीं किया। हमने तय किया कि आज हम कोई वकील नहीं रखेंगे। अपनी पैरवी खुद करेंगे। अपनी याचना सीधे मां से करेंगे। आज कुछ कम लोग थे। अब यहां मंदिर में अंदर घुसने का लालच मन में जागने लगा। दीदी को यह कह कर एक जगह बैठा दिया कि आप यहीं विराजो हम जाकर देखते हैं। किसी भी लाइन में कहीं कोई भीड नहीं थी। हम दनदानते हुए अंदर कब पहुंच गये पता ही नहीं चला। जब हम दाखिले के अंतिम फाटक पर पहुंचे तो हाथ हिलाती मंदाकिनी दीदी हमें दिख गयीं। मन बेजार सा हो उठा। पंडित पद्मपति शर्मा जी की भेजी तस्वीर और उनके माता कामाख्या के दर्शन करने की इच्छा का पूरा वाकया जैसे सामने आ गया। तभी जैसे वो अचानक से फिर आ खडा हो गया। वही सुनहरे लम्बे बाल वाला शख्स। कंधे पर काला रफ्फल और बैग टंगा हुआ था। झुका हुआ कंधा, जैसे हर लमहा वो किसी की अदब में झुका रहता हो। पान से रसदार हो गये लाल होंठ। जुल्फों को बार बार पीछे फेंकता दांया हाथ। और वही कातिल मुस्कान। उसने जैसे किसी को हमारे सामने धकेल दिया। हम अचानक से उस माला बेच रहे शख्स से गुजारिश
करने लगे, भैया वो हमारी बुजुर्ग बहन को जरा अंदर कतार में लगवा दो। हम चैनलगेट के अंदर थे और हमारे पीछे थे कम से कम पचास या साठ लोग। लम्बी कतार को देख पहले तो उसने इनकार में सिर हिलाया फिर हमने अचानक देखा कि वो इकरार में हामी भर रहा है। हम चिल्ला पडे। हमने दीदी को उसके साथ पीछे
से आने के लिए इशारा किया और वो हमारे साथ लाइन में लग चुकी थीं। अब हम मां के गर्भगृह में प्रविष्ट हो चुके थे। यह अलौकिक कृपा देख अब तक एक कैफियत तारी हो चुकी थी हम पर। कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। बस लग रहा था जैसे हमारा पुनर्जन्म हो रहा हो। रक्तवर्णी जवाकुसुम और अढहुल से ढंकी मां की प्रतिमा आज स्पष्ट दर्शन दे रही थी। उसके नीचे की पिण्डुकी भी जैसे कह रही थी कि देखो मैं ही हूं यहां की मुख्य विग्रह। लाइन में लगते समय पत्नी की खरीदी हुई माला से हमने कुछ फूल आपस में बांट लिये थे। वो सब आज सीधे विग्रह पर समर्पित हो रहे थे। इसके पहले गर्भगृह में अंदर हमने एक कोना थाम कर देर तक मां से अपने मन की वो सब बातें कह डाली थी जिसे हम उन्हें या उस काली कमली वाले को कभी सुनाना चाहते थे। मन एकदम खाली हो गया था। अब हम अंधेरी गुफा में सीढियां उतर रहे थे। मां के शेष अवशेष पर गिरा पडा हमारा सिर एक बार फिर माफीनामे के लिए अरदास कर रहा था। दुनिया जहान के लिए रहम और करम की भीख मांग रहा था। मैं हैरान था कि उस वक्त कोई बहुत ज्यादा लोग अंदर थे ही नहीं पर जैसे कोई कोलाहल था वहां।
मंदिर में न रोशनी न कोई घंटा न घडियाल। पर उस लमहा वहां जल रहे दीये की टिमटिमाहट में इतनी रोशनी हो गयी थी जैसे खुद भगवान सूर्य वहां हाजिरी लगाने आ धमके हों। ओम का गंूजता स्वर जैसे नाद ब्रह्म की उपासना कर रहा हो। जैसे सिद्ध फकीरों कोे सुनायी देने वाला ब्रह्म मुहूर्त का अनहद नाद गंूजित हो उठा हो। मां के योनी कुंड के पवित्र जल का प्रक्षालन हमें जगा गया था। उस लमहा बेशक हम उल्टे पैर वापस चल रहे थे पर हमें हमारी राह एकदम सीधी दिखायी दे रही थी। बाहर निकलने के बाद हम बगुलामुखी के दरवाजे दस्तक देने के लिए सीढी उतर रहे थे। वहां एकदम निपट सन्नाटा तारी था। घने जंगल के बीच दो चार ही लोग
थे जो तंत्र की आराध्य के दर्शन की पिपासा लिये हमारी तरह बढे चले जा रहे थे। हम जब वहां पहुंचे तो एक हवन कंुड में अग्नि की ज्वाला धधक रही थीे। तंत्र साधना में लीन कोई साधक आंखे बंद किये हाथ जोडे बैठा था। पुरोहित यमजमान से आदेश के अंदाज में कह रहा था, आज मांग ले मां से। वो पूरी तरह से मुखातिब है। जा, आज तेरी सारी इच्छाएं पूरी कर दी उन्होंने। कहीं दूर से आती हक हक की आवाज हमें बता रही थी कि किसी की कोई साधना आज वाकई पूरी हो गयी थी। हम माता बगुलामुखी के चरणों में झुके हुए थे। उनसे आफत बलाओं से बचाने की विनम्र प्रार्थना करते हुए हमारी आंखों के कोर अनायास ही गीले हो रहे थे। ये माता का प्रबल प्रताप था कि हम एक सौ चवालिस सीढियों पर कब उतरे और कब चढ गये पता ही नहीं चला। वापसी में हम एक बार फिर उस चौखट पर सलामी दे रहे थे जिसने हमें अपनी कृपा का पात्र बनाया। दुबारा दर्शन देकर उस अनुग्रह से नवाजा जिसका मिलना विरल होता है। दहलीज पर सजदे में गिरा हम सबका सिर मां कामरूप कामाख्या के अलावा उस अवलम्ब का शुक्रगुजार था जिसने हमें ये अलौकिक जियारत अता फरमायी। तभी हिना की खुशबू गमकाता वो शख्स हमारे कान में फुसफुसा रहा था। सुनो, मां ने तुम्हारी पुकार सुनी है। वो तुम सबका भला करेगी। इस कायनात के हर शख्स का कल्याण करेगी। क्योंकि वो मां हैं। वो हम सबकी पैदाइश का सबब है। बेशक पुत्र कुपुत्र हो सकता है लेकिन यकीन मानो की माता कभी कुमाता नहीं होती... माता कभी कुमाता नहीं होती... माता कभी कुमाता नहीं होती...

गुरु हैं तो गुरु ही रहें राजनीति क्यों?


कहते हैं गुरु साक्षात परब्रह्मा.. इसी रूप में उनकी पूजा भी होती है। पर यही गुरु जब राजनीतिक बोल बोलने लग जाएं तो तमाम तरह की आशंकाएं मन में होने लगती है। खासकर तब जब देश में राजनीति आज दो परस्पर विचारधाराओं से ऊपर उठकर सांप्रदायिकता, क्षेत्रवाद और व्यक्तिगत आरोपों-प्रत्यारोपों के इर्द-गिर्द चक्कर काटने लगी है। जब चीन के आतंक से घबराकर तिब्बतियों ने भारत में शरण लिया तब प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने खुले दिल से तिब्बतियों को स्वीकार किया। पर आज उसी तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा ने जब नेहरू पर व्यक्तिगत हमला किया तब मंथन जरूरी हो जाता है कि आखिर गुरुओं के बिगड़े बोल के क्या मायने हैं। तिब्बती धर्मगुुरु दलाई लामा पिछले दिनों गोवा इंस्टीट्यूट आॅफ मैनेजमेंट के एक प्रोग्राम में थे। यहां उन्होंने मंच से कहा कि यदि जवाहर लाल नेहरू की जगह मोहम्मद अली जिन्ना प्रधानमंत्री होते तो देश का विभाजन नहीं होता। इंस्टीट्यूट की 25वीं वर्षगांठ पर आयोजित इस कार्यक्रम में दलाई लामा इतने पर ही चुप नहीं हुए। उन्होंने कहा कि महात्मा गांधी तो जिन्ना को प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे, लेकिन नेहरू ने इसके लिए मना कर दिया। भारत पाकिस्तान एक हो जाता अगर जिन्ना प्रधानमंत्री बन जाते। मेरा मानना है कि सामंती व्यवस्था के बजाय प्रजातांत्रिक प्रणाली बहुत अच्छी होती है। सामंती व्यवस्था में कुछ लोगों के हाथों में निर्णय लेने की शक्ति होती है, जो बहुत खतरनाक होता है। पंडित नेहरू बहुत ज्ञानी थे, लेकिन उनसे गलती हो गई। उन्होंने कहा कि अब भारत की तरफ देखें। मुझे लगता है कि महात्मा गांधी जिन्ना को प्रधानमंत्री का पद देने के बेहद इच्छुक थे। लेकिन पंडित नेहरू ने इसे स्वीकार नहीं किया।
उन्होंने कहा कि मुझे लगता है कि स्वयं को प्रधानमंत्री के रूप में देखना पंडित नेहरू का आत्म केंद्रित रवैया था। ....यदि महात्मा गांधी की सोच को स्वीकारा गया होता तो भारत और पाकिस्तान एक होते। उन्होंने कहा, मैं पंडित नेहरू को बहुत अच्छी तरह जानता हूं, वह बेहद अनुभवी और बुद्धिमान व्यक्ति थे, लेकिन कभी-कभी गलतियां हो जाती हैं। जिंदगी में सबसे बड़े भय का सामना करने के सवाल पर आध्यात्मिक गुरू ने उस दिन को याद किया जब उन्हें उनके समर्थकों के साथ तिब्बत से निष्कासित कर दिया गया था।
दलाई लामा द्वारा इस तरह कही गई बातों के कई मायने हैं। पर सबसे बड़ी बहस इस पर है कि आखिर ऐसा क्या हो रहा है कि एक धर्मगुरु को इस तरह की राजनीतिक बयानबाजी करने की जरूरत पड़ गई। यहां बता दें कि दलाई लामा ने अपने बयान के दूसरे दिन माफी भी मांग ली थी। पर उनके द्वारा कही गई बातों को पूरा देश सुन रहा है। पूरा विश्व जानता है कि भारत और चीन के बीच तनाव का एक बड़ा प्रमुख कारण दलाई लामा का भारत में शरण लेना है। चीन आज तक यह स्वीकार नहीं कर सका है कि उसके दुश्मनों को भारत ने शरण दे रखी है। क्या दलाई लामा इस बात को भूल गए कि जिस नेहरू की वो आलोचना कर रहे हैं उन्होंने तिब्बती शरणार्थियों के लिए चीन से दुश्मनी मोल ली थी। आज जिसके दम पर वो भारत में स्वतंत्रता पूर्वक जीवन जी रहे हैं उसे ही राजनीति का मुहरा बनाकर वो क्या बताना चाहते हैं। क्या कारण है कि अचानक से जवाहर लाल नेहरू की नीतियों में उन्हें स्वार्थ की बू आने लगी है। क्या दलाई लामा इस बात को भूल चुके हैं कि भारत के विभिन्न राज्यों में रह रहे लाखों तिब्बती शरणार्थी खुली हवा में सांस इसीलिए ले पा रहे हैं क्योंकि भारत की सशक्त विदेश नीति की नींव उसी नेहरू के समय पड़ी थी।
आज भारत की राजनीति को एक अलग चश्मे से देखा जा रहा है। राजनीतिक विश्लेषकों ने इस युग को मोदी युग का नाम दे रखा है। प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी विदेश नीति में व्यापक परिवर्तन किया है। चाहे पड़ोसी देशों के साथ बेहतर संबंध बनाए जाने की दिशा में उनके द्वारा उठाए गए कई अप्रत्याशित कदम हों या फिर पाकिस्तान और म्यांमार में घुसकर दुश्मनों को खत्म करने की रणनीति हो। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साफ कर दिया है कि वे जैसे को तैसा की नीति में विश्वास रखते हैं। इसी क्रम में जब चीनी सेना ने नार्थ ईस्ट में अपनी हलचल बढ़ाई तो भारतीय सेना ने उनका मुंहतोड़ जवाब दिया। जबकि उसी देश के सर्वोच्य पद पर आसीन व्यक्ति को अहमदाबाद के रिवर फ्रंट पर उन्होंने झूला भी झुलाया था। अगर तिब्बती धर्मगुरु इस बात से प्रभावित हैं कि वो हिंदु मुस्लिम का कार्ड खेलकर भारत सरकार को उपकृत कर देंगे, तो शायद यह उनकी सबसे बड़ी भूल होगी। इस वक्त भारत सरकार की नीतियां बिल्कुल स्पष्ट हैं।
राजनीति के अपने मायने हैं। इसकी अपनी अच्छाई और बुराई है। पर एक धर्मगुरु को लेकर पूरे भारत में एक मत है। गुरु को गुरु ही रहना चाहिए। उन्हें न तो राजनीति में आने की जरूरत है और न राजनीतिक बयानबाजी की। भारतीय लोकतंत्र का इतिहास रहा है कि जब-जब किसी धार्मिक गुरु ने राजनीतिक बयानबाजी की है उसे संकट का ही सामना करना पड़ा है। ऐसे में दलाई लामा सहित तमाम धार्मिक गुरुओं को जरूर मंथन करना चाहिए कि उनके द्वारा कही गई राजनीतिक बातों को कितना निगेटिव असर पड़ता है। हो सकता है कि दलाई लामा अपनी बातों के जरिए वर्तमान भारत सरकार को प्रभावित या खुश करना चाहते हों। क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार सार्वजनिक मंचों से भारत की बबार्दी के लिए कांग्रेस की नीतियों को दोष दे चुके हैं। पर यहां गौर करने वाली बात है कि कभी भी प्रधानमंत्री मोदी ने पंडित नेहरू या किसी अन्य बड़े कांग्रेसी नेता पर व्यक्तिगत दोषारोपण नहीं किया है। धर्म गुुरु को यह समझना चाहिए कि यह सेंटिमेंट से जुड़ी बातें हैं। ऐसा कहकर वो अपना ही नुकसान करा रहे हैं। भारत सरकार से उन्हें न तो पहले खतरा था और न आज है। और न भविष्य में इस तरह का खतरा उत्पन्न होने की संभावना है। फिर बेवजह की राजनीतिक बयानबाजी कर वह देश के माहौल को प्रभावित करने का प्रयास क्यों कर रहे हैं।
हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला और मैकलोडगंज में हजारों तिब्बती शरणार्थी स्वतंत्रतापूर्वक रह रहे हैं। देश के किसी कोने में चले जाएं आपको तिब्बती शरणार्थी जरूर मिल जाएंगे। यह भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था और विदेश नीति का ही परिणाम है कि वे इतनी स्वतंत्रता से यहां वहां विचरण कर रहे है और स्थाई रूप से रहे हैं। भारत के सभी राज्यों की सरकारों ने इन्हें विशेष दर्जा दे रखा है। हर राज्य में इनके लिए विशेष व्यवस्था की गई है। कहीं तिब्बती कॉलोनी बसाकर, कहीं तिब्बती मार्केट बसाकर इन शरणार्थियों के लिए रोजी-रोजगार और छत की व्यवस्था की गई है। ऐसे में इनके धर्मगुरु द्वारा दिया गया बयान कहीं न कहीं इन्हें भी प्रभावित कर सकता है। इतना तो तय है कि दलाई लामा कभी भारतीय राजनीति का हिस्सा नहीं बनेंगे। फिर उनके द्वारा हिंदु और मुस्लिम राजनीति जैसी बयानबाजी कहीं से भी स्वीकार्य नहीं है। यह देश के अंदर एक अलग तरह के वैमनस्य फैलाने जैसा ही कृत है जिसकी जितनी भी आलोचना की जाए कम है।
फिलहाल दलाई लामा ने माफी मांग कर अपनी बातों को बैलेंस करने की कोशिश की है। पर उन्हें मंथन जरूर करना चाहिए कि जिस देश ने उन्हें बेहद प्यार और दुलार से रख रखा है उसमें वैमनस्य की बातों को वो क्यों तवज्जो दे रहे हैं।

Monday, August 6, 2018

उठो, जाओ, जा कर सजदे में गिर जाओ... काशी से कामाख्या - 2

काशी विश्वनाथ के चरणों में रहकर पत्रकारिता कर रहे बड़े भाई विश्वनाथ गोकर्ण भैय्या इन दिनों नौकरी की आपाधापी से दूर अपनी जिंदगी जी रहे हैं। दैनिक जागरण आईनेक्स्ट से विदा लेकर अपना स्वतंत्र काम रहे विश्वनाथ भैय्या अभी कामख्या देवी के दर्शन को गए हैं। उनका यह यात्रा संस्मरण पढ़ें। उनकी आज्ञा लेकर अपने ब्लॉग पर डाल रहा हूं। काशी से कामख्या की यह अद्भूत यात्रा आपको एक अलग ही दुनिया में लेकर जाएगी...पढ़िए काशी से कामख्या की दूसरी किस्त


वो इतवार की रात थी। रात साढे दस बजे के आसपास हमने मुगलसराय के लिए ओला टैक्सी बुक किया और अपने माल असबाब के साथ हम चार अदद निकल पडे थे काशी से कामरूप माता कामख्या की जियारत के लिए। बडी दीदी आदरणीय मंदाकिनी गोकर्ण, तारा गोकर्ण, पत्नी सरिता गोकर्ण और एक अदद नाशुक्रा नाकिस मैं। नाशुक्रा मतलब तो आप समझते ही हैं लेकिन नाकिस माने वो जो किसी काम के लायक होता ही नहीं। जिंदगी भर अखबार की नौकरी के अलावा कुछ किया ही नहीं तो बाकी दुनिया के लायक बचा ही नहीं। सो हम तो निकल पडे थे। रात में डेढ बजे की डिब्रूगढ राजधानी पकडनी थी। सारनाथ में जब हम अपने घर से निकले तो हल्की बंूदाबांदी हो रही थी। वैसे भी सारनाथ बाकी शहर के मुकाबले जल्दी सो जाता है। तो उस दिन भी काॅलोनी के लोग अपने घरो की बत्तियां बुझा चुके थे। सडक पर आवारा कुत्तों और बिल्लियों का राज कायम हो चुका था। कई कुत्ते बडी दर्दनाक सुर में रो रहे थे। पता नहीं उन्हें बिल्लियों से दुश्मनी निकाल न पाने का गम था या वो तथागत काल की किसी रूह को देख कर गमजदा थे। पर उनका रूदन बहुत मार्मिक था। आमतौर पर लोग इन सबको अपशगुन मानते हैं लेकिन लम्बे बाल वाले उस शख्स ने अपनी दुआओं से हमें इतना नवाज दिया है कि ये सब हम पर असर करती ही नहीं। वो मालिक है हमारा। मिसरे में कहूं तो जानो तन में बसता है आदमी ही लगता है, है तो आदमी लेकिन आदमी निराला है। तो दिमाग में बहुत कुछ घूम रहा था। डेढ बजे रात तक क्या करेंगे ? सेवेंटी प्लस की दीदी को स्टेशन पर कहां बैठाएंगे ? चारो बर्थ मिडिल और अपर हैं, कैसे एडजस्ट करेंगे ? तब तक हम राजघाट पुल के पास पहुंच गये थे। चंदन शहीद बाबा और आदिकेशव के अदब में झुके हमारे सिर जब उठे तो ऐसे लगा जैसे एक बडा सैलाब सडक पर उमड आया है। केसरिया कपडे पहनेे लोगों के इस झुंड को देख हम हैरान थे। अगले दिन सावन के पहले सोमवार को काशी विश्वनाथ में हाजिरी लगाने के लिए बोल बम चिल्लाते हुए जा रहे लोगों की ये भीड बेशक इंसानों की थीे पर यकीन मानिये इनकी हरकतें जानवरों को भी शर्मसार कर रही थीं। उफ, कितना लम्बा सिलसिला था वो। मुगलसराय तक कभी वो टूटा ही नहीं।
बहरहाल हम अब मुगलसराय में थे। मैंने अपने एक नौजवान साथी ललित पांडेय को काॅल किया। अपनी समस्या बतायी कि कुछ घंटे के लिए रिटायरिंग रूम का इंतजाम करवा दें तो बेहतर होगा। ललित ने कहा हो जाएगा सर। चंद लमहों के भीतर मैं खुद को जीआरपी के थानेदार के कमरे के बाहर पा रहा था। कोई सिपाही मुझसे पूछ रहा था, हां कहिए। मैंने ललित का नाम बताया। अंदर आ जाइए कहने के साथ वहां बैठे कई लोग अचानक कमरे से गायब हो गये। हम हैरान थे। सब कुछ अजीब सा घटित होता नजर आ रहा था। अगले तीन घंटे तक जैसे वहां मरघट सा सियापा छाया हुआ था। थे तो सब वहीं बाहर लेकिन सबके सब चुप। एकदम खामोश। गाडी के आने की सूचना पर हम प्लेटफाॅर्म पर थे। बोगी पर सवार होने के बाद हमने टीटीई को बताया कि दीदी की उम्र ऐसी नहीं है कि वो बीच या ऊपर के बर्थ पर चढ सकें। नीचे की एक बर्थ खाली तो थी लेकिन उसका पैसेंजर दानापुर में आने वाला था। उसने हमारी बातें सुनीं और मुस्करा पडा। हमारी शक्लें देख वो एक बार फिर मुस्कराया और उसने सिर्फ इतना ही कहा, जाओ इंतजाम हो जाएगा। हम मूरख अज्ञानी कुछ समझ नहीं सके। दरअसल वो टीटीई नहीं कोई और बोल रहा था कि जाओ इंतजाम हो जाएगा। बेशक वो आवाज टीटीई की थी पर बोल तो खुद माता कामाख्या रही थीं। भोर में चार बजे के आसपास दानापुर में वो पैसेंजर
आया जरूर और उसने बेसुध सोती दीदी को जगाया भी पर उनके सिर्फ इतना कहने के साथ ही वो अपर बर्थ पर अपना बेड रोल बिछाता दिखा कि बेटा तुम ऊपर वाली बर्थ पर सो जाओ। ये मालिक का इंतजाम था। सुबह हम पहले बिहार फिर झारखंड और फिर बंगाल होते हुए शाम तक असम की दहलीज पर जा पहुंचे थे। रास्ते में बारिश और उसमें भींगे खेतों का हसीन नजारा पूरे सफर को जन्नती बना गया था। मीलों दूर तक दिखते धान के खेत और चाय के बागान इस जन्नत के जमानतदार थे। रात के करीब आठ बजने को थे और हम गुवाहाटी स्टेशन के बाहर ओला कैब का इंतजार कर रहे थे। थोडी ही देर में हम हारमनी हाउस में थे। मेन रोड से करीब पचास मीटर अंदर गली में। यहां बिल्डंग में घुसने के पहले स्लेटी रंग की एक तगडी सी बिल्ली रास्ता काट गयी। यहां हम थोडा सा झिझके थे। इसकी पुख्ता वजह भी थी I हम उस इलाके में थे जिसे तंत्र मंत्र का गढ माना जाता है। उस बिल्ली का आकार प्रकार भी कुछ डरावना सा था। बहरहाल, हारमनी हाउस में दाखिल होने के साथ कुछ अजीब सा महसूस होने लगा। पीले रंग के जलते बल्ब, थोडी देर पहले डाली गयी लोभान की खुशबू और वहां पसरा निपट सन्नाटा। मैं कुछ सोचूं उसके पहले दीदी अपने भतीजे को फोन लगा चुकी थीं। छूटते ही उनका सवाल था ये होटल ही है ना ? ऐसा लग रहा है जैसे किसी तांत्रिक का डेरा हो। उधर से चिन्मय बोल रहा था, अरे नहीं अक्का बुआ, ये होटल नहीं होम स्टे है। ये ऐसे ही होते हैं। इसमें आपका एक पूरा फ्लैट बुक है। टू बीएचके का। अपना बनाओ खाओ और ऐश करो। देश विदेश घूमते रहने वाली इस जवान जमात की बात हमारे पल्ले पडी नहीं। रिसेप्शन पर मिले दोनो शख्स भी रहस्यमय लग रहे थे। उन्हें हमारी हिन्दी समझ में नहीं आ रही थी और हम उनकी असमी बूझ नहीं पा रहे थे। पहले इशारों में फिर पत्नी का फेंका गया बांग्ला और फिर अंत में हाथ जोड कर राष्ट्रभाषा में किया गया संवाद काम आ गया। अब वो हमें और हम उन्हें समझने लगे थे। अब हमें होम स्टे के मायने भी समझ में आने लगा था। हारमनी हाउस की हर चीज देख हम हैरत में थे। क्या कोई थोडा सा किराया देकर ठहरने वाले मेहमानों के लिए अपना घर इतना सजा कर रखता है ? ड्राइंग रूम के कीमती सोफे, एक कोने में सजा डाइनिंग टेबल, तमाम खूबसूरत शो पीसेस, सजावट के लिए सीलिंग से टंगी और आलमारी में रखी नाना प्रकार की चाय की केटली और मछली। सब कुछ अद्भुत और रहस्यमय। बेहतरीन बेडरूम और किचन। हम बेहद थके थे लेकिन कायनात के सर्वोच्च शक्ति पीठ माता कामरूप कामाख्या के दर्शन की जिज्ञासा, पिपासा और आसक्त अभिलाषा ने हमारी नींद उडा दी थी। चिन्मय ने बताया था कि उसका कोई दोस्त रौनक भारद्वाज गुवाहाटी का ही रहने वाला है। उसने जगद्जननी के दर्शन का कुछ इंतजाम कर रखा है। इन सबके बीच रात के दस बज रहे थे। एक अननोन नम्बर से आने वाले फोन पर दूसरी तरफ से आ रही आवाज किसी महिला की थी। नमस्ते, मैं रौनक की मम्मी बबिता बोल रही हूं। शुद्ध हिन्दी में बोल रही थीं वो। मेरा मौसेरा भाई मां कामख्या का प्रीस्ट है। वो आपको दर्शन कराएगा। आपको सुबह सात बजे तक वहां पहुंच जाना है। कल श्रावण का पहला मंगलवार है। बहुत भीड होगी। मैं सिक्स फिफ्टीन को आउंगी आप लोगों को लेने। आप लोग रेडी रहिएगा। रौनक की मम्मी मिसेज बबिता भारद्वाज किसी अनुभवी एअर होस्टेस की तरह एनाउंसमेंट कर रही थीं और हम जडवत होकर उन्हें सुन रहे थे। हां जी, हां जी के बाद फोन कट चुका था। हम सबका निढाल हो चुका जिस्म अपने बिस्तरों पर ढेर हो चुका था पर जेहन में चल रहा 'तमाम कुछ' उनींदी आंखों में बाइस्कोप चला रहा था। अरे, ये सब अचानक से सजीव दिख रहा है मुझे। नागपंचमी पर मोहल्ले में आने वाले मदारियों की एक बडी जमात है। महुaर में दांव मार रहे तांत्रिकों का तिलस्मी खेल है। हर दांव के साथ वो कामाख्या वाली माता कामरूप को आवाज दे रहे हैं। एक दूसरे पर मंत्र मार रहे हैं। अरे, वो सब लुंज पुंज होकर गिर पड रहे हैं। मणिकर्णिका के महाश्मशान और बनारस के दूसरे घाटों पर मानव खोपडियों को मसनद की तरह दबाये बैठे खप्परों में मदिरा पान करते तथाकथित तांत्रिक भी दिख रहे हैं। रात न जाने वो कौन सी घडी थी, मुझे लगा जैसे कोई मेरे सिरहाने आ कर खडा हो गया है। मुझे उसकी आवाज स्पष्ट सुनायी दे रही थी। मैंने सुना वो कुछ कह रहा था। सुनो, पराशक्ति के नाम पर तुमने अब तक जो कुछ भी देखा वो सब एक फरेब था। लेकिन चंद घटों बाद जो कुछ तुम देखोगे वो परब्रह्म का परम सत्य है। ये वही नूर है जिससे निर्देश पाने के लिए हजरत मूसा तूर की पहाडी पर जाया करते थे। ये आवाज नहीं एक सम्मोहन था। उस शख्स के लम्बे सुनहरे बालों से उठ रही हिना की गमक मुझे आसमानी नशे में चूर किये दे रही थी। वो लगातार बोल रहा था, सुनो, कल पूरे वक्त बाअदब रहना। वो इस खूबसूरत कायनात की जननी है। बेशक वो हम सबकी मां है पर उसके साथ
बेअदबी आसमान को गवारा नहीं है। हर लमहा सिर्फ उसके ही जिक्र और फिक्र में रहना। वहां दिखने वाली हर सूरत को उसकी हकीकत मत समझना। वो सब गैब के कारिंदे हैं। सबके सब अपनी ड्यूटी पर होंगे। वहां के चरिंद हों या परिंद सबके जिम्मे अलग अलग काम हैं। वो सब आसमान के कारकून हैं। हो सकता है तुम्हे कोई मज्जूब दिख जाएं। उनसे भी दोआ सलाम के बाद ज्यादा गुफ्तगु न करना। क्या पता वो किस हाल में हों ? जलाल में या जमाल में ? दश महाविद्याओं की आराध्य माता कामाख्या के अलावा जेहन में कुछ मत लाना। सब्र और शुक्र के अलावा कुछ मत सोचना। उठो, जाओ, जा कर सजदे में गिर जाओ। मां से जाने अनजाने में हुए गुनाहों के लिए माफी मांगो। इस कायनात के समस्त जीवों के लिए रहम और करम मांगो। इस शक्तिपात से अचानक मेरी तन्द्रा टूटी और मैं हडबडा कर पहले तो उठ कर बैठ गया और फिर सजदे में गिर पडा। पसीने से पूरा बदन तर बतर था। हलक बुरी तरह से सूख गया था। मेरे नथुने लम्बे सुनहरे बालों में लगी हिना की खुशबू से मुअत्तर थे। लगातार नमक उलीच रही आंखें मां के दर्शन के लिए दुआगो थीं।
(अगले अंक में - नील घाटी का तिलस्म और मां कामाख्या का अलौकिक दर्शन ...)

Saturday, August 4, 2018

काशी से कामाख्या

काशी विश्वनाथ के चरणों में रहकर पत्रकारिता कर रहे बड़े भाई विश्वनाथ गोकर्ण भैय्या इन दिनों नौकरी की आपाधापी से दूर अपनी जिंदगी जी रहे हैं। दैनिक जागरण आईनेक्स्ट से विदा लेकर अपना स्वतंत्र काम रहे विश्वनाथ भैय्या अभी कामख्या देवी के दर्शन को गए हैं। उनका यह यात्रा संस्मरण पढ़ें। उनकी आज्ञा लेकर अपने ब्लॉग पर डाल रहा हूं। काशी से कामख्या की यह अद्भूत यात्रा आपको एक अलग ही दुनिया में लेकर जाएगी...
रथयात्रा से भेलपुर की ओर जाने वाले रास्ते में काशीराज अपार्टमेंट से सटे एक मोड पर पर न जाने कौन सी ऐसी कशिश है कि उस रास्ते से गुजरते हुए सिर अपने आप बाअदब झुक जाता था। पहले तो समझ में नहीं आया। या यूं कहूं कि ध्यान नहीं गया। एक रोज सांझ की बेला में उधर से गुजरते समय किसी परा शक्ति ने मुझे अपने होने का अहसास कराया और कहा कि देखो, मैं माता कामरूप
कामाख्या हूं। वो इलाका कमच्छा था। जो कभी कामाख्या था पर अपभं्रश होकर कमच्छा हो गया था। जिस दिन यह सब घटित हुआ उसी दिन फेसबुक पर आदरणीय पंडित पद्मपति शर्मा ने एक तस्वीर शेयर की। उनका कहना था कि वो माता कामाख्या की ओरिजनल तस्वीर है और वो भी गुवाहाटी स्थित पवित्र धाम की। मैंने पदम भैया को पंडित इसलिए नहीं कहा कि वो ब्राह्मण हैं। मैं उन्हें पंडित इसलिए कह रहा हूं क्योंकि वो हिन्दी पत्रकारिता के शलाका पुरुष होने के अलावा हर उस विषय के जानकार हैं जिन्हें कम लोग बूझ पाते हैं। गीत संगीत, तंत्र मंत्र से लेकर साहित्य तक के मर्मज्ञ पदम भैया को यह सब उनके गुरुदेव डाॅ शिवप्रसाद सिंह और पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी से प्रसाद स्वरूप प्राप्त हुआ है। बहरहाल, वो क्या अलौकिक चित्र था माता का। मैंने वो तस्वीर मातृ स्वरूपा अपनी बडी बहन आदरणीय मंदाकिनी गोकर्ण को दिखाया। हिन्दी साहित्य से लेकर पराशक्ति दर्शन तक और बुद्ध से लेकर ज्योतिष तक को घोट कर पी चुकीं दीदी उस तस्वीर को देख जैसे सम्मोहित हो गयीं। उनके मंुह से अचानक निकल गया, अरे एक बार तो यहां की यात्रा करनी ही है। बता दूं कि पदम भैया और दीदी एक ही गुरु के शिष्य हैं, सो इन दोनो की विद्वत्ता का पैमाना तय करना मुश्किल है। तो उस दिन काशी से कामाख्या के यात्रा की जैसे नींव रखी गयी। बेटे चिन्मय गोकर्ण को बताया तो उसने कहा कि टिकट से लेकर गुवाहाटी में ठहरने तक का सारा कुछ इंतजाम आॅन लाइन कर लिया जाएगा। उन दिनों नौकरी के तमाम झंझटों के बीच अवकाश मिल पाना मुश्किल था। इधर हाल ही में जैसे ही मैंने नौकरी को त्यागा तो लगा जैसे नील घाटी से कोई पुकार रहा था। आ,,,,जा,,,,,,,जा,,,,। एक रात भोरहरी में करीब चार बजे के आसपास अचानक से नींद खुली तो खुद को पसीने से तर बतर पाया। शायद कोई सपना देखा था मैंने। दिमाग पर जोर डाला तो खुद को किसी पहाडी पर पत्थरों की सीढी चढते पाया। उपर पहंुचने पर एक चैरस जगह पर कोई प्राचीन सा शिखर दिखायी देने लगा। मैं पूरे होशो हवास में था। खूनी लाल रंग का कपडा पहने कुछ लोग दिख रहे थे। एकदम शांत चित्त के वो लोग किसी से कुछ कह नहीं रहे थे पर वो कुछ बुदबुदा रहे थे। उनके देदिप्यमान चेहरे पर बरसता नूर किसी अलौकिक शक्ति से प्रदत्त नजर आ रहा था। ढेर सारे चरिंद परिंद नजर आ रहे थे। गौर किया तो वो सब कबूतर और बकरी के बच्चे थे। सबके चेहरे एकदम उदास, जैसे उनकी जिंदगी में भयानक वीरानी हो। तभी लाल कपडे पहने एक शख्स ने अचानक से मेरा हाथ थामा और एक बडे से हाॅल की ओर चलने लगा। निपट अंधेरा और सन्नाटा तारी था वहां। एक बडी सी परई में जलते हुए दीये की पीली मद्धम सी रोशनी। अजीब सा रहस्यमय शख्स था वो। चार छह सीढी नीचे उतरते ही एक कमरा। वहां लाल अढहुल के फूलों से ढंकी एक प्रतिमा को दंडवत करने का मुझे आदेश देते हुए उसने पुष्पांजलि पढना शुरु कर दिया था। ओम नमो भगवति... चामुंडे... नीलपर्वत वासीनी... नमस्तुते... पुष्प अर्पण के बाद वो मुझे फिर सीढियां उतार रहा था। वहां भी फिर वही पुष्पाजंलि। नमो भगवति... चामुंडा... नीलपर्वत वासीनी... योनी मुद्रा... कामाख्ये नमोस्तुते... उधर वो ब्राह्मण मंत्र पढ रहा था और इधर मैं सजदे में गिरा पडा मां से अपने तमाम पापों के परिहार के लिए झारे झार रो रहा था। मेरे मंुह से निकलते देव्यपराधक्षमापन स्तोत्र की स्पष्ट आवाज जैसे उस हाॅल में गंूज रही थी। मैं जग चुका था। समझ भी गया कि यह सपना था लेकिन सब कुछ घटित होता सा प्रतीत हो रहा था। सुबह चाय पीते हुए भी मन कुछ अलग सा लग रहा था। दोपहर होते होते पुणे से बेटे चिन्मय का फोन आया कि कामाख्या का उसने टिकट बुक करा दिया है। जाते हुए डिब्रूगढ राजधानी में और आते हुए नाॅर्थ ईस्ट एक्सप्रेस में इंतजाम हुआ था। आजकल रेल यात्रा में कन्फर्म टिकट पाना ओलम्पिक में गोल्ड मेडेल पाने से कमतर नहीं है। रहने का भी उसने गुवाहाटी के किसी हारमनी हाउस में इंतजाम किया था। पता चला कि ये कोई होटल नहीं होम स्टे टाइप का मामला है। फोन रखने के बाद मैं रात के सपने और इस पूरे इंतजाम को को-रीलेट करने में डूब गया था। अचानक जब तन्द्रा टूटी तो खुद को घर में बने मंदिर की दहलीज पर पाया। साष्टांग दंडवत में पडा मैं उस अवलम्ब को शुक्राना अदा कर रहा था जो मुझे इन सारे अहसासों से गुजार ही नहीं रहा था बल्कि मुझ गुनहगार को अपने रहम और करम से लगातार नवाज रहा था।

(अगले अंक में राजधानी एक्सप्रेस की यात्रा और वो हारमनी हाउस...)
काशी विश्वनाथ के चरणों में रहकर पत्रकारिता कर रहे बड़े भाई विश्वनाथ गोकर्ण भैय्या इन दिनों नौकरी की आपाधापी से दूर अपनी जिंदगी जी रहे हैं।