Thursday, May 30, 2019

चुंबकीय आकर्षण की गोद में कसार देवी की अद्भुत यात्रा

कसार देवी का अद्भूत नजारा। 
पत्रकारिता से सन्यास लेकर ययावरी लेखन कर रहे विश्वनाथ गोकर्ण भैय्या का दो दिन पहले फोन आया। उन्होंने मुसाफिर पर मेरी गंगोत्री यात्रा और गुफा स्टे के बारे में पढ़ने के बाद फोन किया था। कहने लगे, तुम तो ऐसी यात्रा के बारे में बता दिए जहां जाने का मन कर रहा है। फिर चर्चा चलने लगी कि कुछ और ऐसी ही यात्रा के बारे में। पूछने लगे कि कुछ दिन के लिए पहाड़ में समय व्यतीत करना चाहता हूं। कुछ ऐसी ही जगह बताओ जहां सुकून के दो पल मिले। मैंने उन्हें उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में स्थित कसार देवी जाने की सलाह दी। आइए आपको भी लेकर चलता हूं कसार देवी की यात्रा पर।
कसार देवी तक पहुंचने का एक मात्र जरिया सड़क मार्ग है। आप अगर उत्तराखंड के बाहर के हैं तो ट्रेन से आप हल्दवानी तक पहुंच सकते हैं। यहां से टैक्सी के जरिए आप पहले अल्मोड़ा फिर वहां से करीब 10-12 किलोमीटर ऊपर कसार गांव तक पहुंच सकते हैं। यहीं कसारदेवी का मंदिर स्थित है। जो विश्व भर के वैज्ञानिकों के लिए आज भी एक रहस्य के समान है।


अल्मोड़ा का खतरनाक रास्ता और मेघा जी की डर वाली मुस्कुराहट।
फरवरी का महीना था। अचानक एक दिन आॅफिस के तनाव के बीच मैंने दो दिन ब्रेक लेने का मन बनाया। पहले नैनीताल जाने का प्लान था। हम लोग वहां के लिए निकल भी गए। देहरादून से मैं और मेघा अपनी कार से नैनिताल के लिए निकले। शाम का स्टे काशीपुर में था। गर्मी की आहट के बीच सर्दी का मजा कुछ और ही होता है। गेस्ट हाउस की लॉन में शाम की चाय पीते-पीते और वहां के केयर टेकर से बात करते हमने कसार देवी के बारे में जाना। नैनीताल पहले भी दो बार जा चुके थे। इसलिए चाय और नाश्ता खत्म करते करते हमने कसार देवी का प्लान कर लिया। चुंकि रास्ता वही था, इसलिए प्लान में कोई विशेष तब्दीली नहीं करनी पड़ी। हां, इतना जरूर था कि नैनीताल में होटल की बुकिंग का पैसा डूबने का मोह त्यागना पड़ा। नैनीलाल के बाहर ही बाहर आप अल्मोड़ा के रास्ते पर चले जाते हैं।


सुबह सात बजे हम काशीपुर से निकले। रास्ते में घने धुंध से हमारा जबर्दस्त सामना हुआ। नैनीताल से आगे रास्ता भी बेहद खराब था। रास्ते का मजा लेते लेते हम करीब 2 बजे अल्मोड़ा पहुंचे। वहां से कसार देवी के लिए सीधी चढ़ाई थी। अरुण भाई ने पहाड़ में गाड़ी चलाने में एक्सपर्ट करवा दिया था, इसलिए कोई दिक्कत नहीं हुई। हां मेघा जी इस रास्ते को देखकर जरूर बजरंग बली का जाप करने लगी थीं। पर जैसे-जैसे हम ऊपर की ओर बढ़ते गए आखें खुली की खुली रह गर्इं।
चारों तरफ हरियाली ही हरियाली। न आबादी की चहल पहल, न गाड़ियों का शोर। हर जगह फूलों की खूशबू। चीर और देवदार के घने जंगल। सामने दिख रहा था, बर्फ की सफेद चादर ओढ़े विशाल हिमालयन रेंज। कसार देवी शुरू होते ही दो तीन रिसॉर्ट नजर आए। पर हमने पहले ही मन बना लिया था कि गांव में रुकेंगे। इसलिए ऊपर की ओर बढ़ते गए। करीब पांच-छह किलोमीटर ऊपर चढ़ते ही हमने सड़क किनारे एक सुरक्षित जगह देखकर गाड़ी पार्क की और वादियों को निहारने लगे। खूबसूरती ऐसी थी कि शब्दों में बयां करना मुश्किल है। इस खूबसूरती को सिर्फ वहां जाकर ही महसूस किया जा सकता है। करीब आधे घंटे वहीं बैठकर थकान उतारी। वहां से कुछ किलोमीटर ऊपर ही कसार देवी का मंदिर था। उसी मंदिर के आसपास आपको कई ऐसे घर मिल जाएंगे जो होम स्टे की सुविधा देते हैं। आप वहां से नीचे गांव की तरफ भी बढ़ जाएंगे तो आपको वहां भी ग्रामीणों द्वारा होम स्टे की सुविधा का प्रबंध मिलेगा। विदेशी सैलानियों का यह फेवरेट स्पॉट है। खासकर ईजराइली पर्यटक यहां होम स्टे में तीन-तीन महीने रूकते हैं। वो अपनी कठिन आर्मी ट्रेनिंग पूरी कर यहां पहुंचते हैं, ताकि मानसिक शांति पा सकें।

इन होम स्टे में आपको बेहद साफ सुथरा घर मिलेगा और उतना ही सात्वीक भोजन भी। पहाड़ के लोगों के व्यवहार का तो कहना ही क्या। ऐसा लगेगा जैसे वर्षों से आपके और उनके पारिवारिक संबंध हों। हमने वहीं एक ठिकाना खोज लिया। वहां गाड़ी पार्क करने की भी अच्छी जगह थी।
मेघा घर की महिलाओं से बात करने लगी और मैं फ्रेश होने के लिए बाथरूम में चला गया। अभी दो मिनट भी नहीं हुए थे बाहर धमाके की आवाज आने लगी। मैं चौंक गया। जल्दी-जल्दी बाथरूम से बाहर निकला। सभी महिलाएं घर के अंदर चली गर्इं थीं। कुत्ते बेतहाशा भौंके जा रहे थे। मैं कुछ समझ ही नहीं पा रहा था कि आखिर हो क्या रहा है।
इतने में घर के रावत जी नजर आए। उन्होंने कहा अरे घबराइए मत। लेपर्ड आ गया था कैंपस में। लालू ने उसे भगा दिया है। हम लोग पटाखे फोड़ रहे हैं ताकि उसे और अधिक दूर भगाया जा सके। वो सब तो ठीक था, लेकिन पहाड़ में इतनी दूर लालू कौन है? मैं ठहरा ठेठ बिहारी। लालू नाम सुनते ही कान खड़े हो गए। पर रावत जी अपने धुन में मगन थे। मैंने सोचा कहीं भालू न कह रहे हों। पर शर्म के मारे दोबारा उनसे नहीं पूछ सका। उधर, रावत जी दे दनादन आलू बम दाग रहे थे। आलू बम में आग लगाकर उसे घुमाकर जंगल में फेंकता देख मुझे हॉलिवुड की थ्रीलर फिल्मों का सीन याद आ रहा था। कैमरा अंदर गाड़ी में था। इसलिए इस अद्भूत नजारे को कैद नहीं कर सका। मेरे सामने करीब दस बारह बम फेंककर वो वहीं मुंडेर पर बैठकर बीड़ी सुलगाने लगे। मुझे भी आॅफर किया। पर शालीनता से मना करने के बाद मैंने उनसे सवाल किया कि ये लालू कौन है?
बोलने लगे लालू को नहीं जानते आप। मैंने कहा भाई लालू को तो जानता हूं, पर यहां जंगल में? हंसने लगे। अरे बिहार वाला लालू नहीं। यहां मेरे घर में लालू है। वो जब आप गाड़ी लगा रहे थे और आपको घूर रहा था। फिर सम्मान के साथ आपको लेकर यहां तक आया था, वही तो लालू है।
यही हैं लालू जी।

मैं हंसने लगा। दरअसल लालू उनके पालतू कुत्ते का नाम था। यह भुटिया प्रजाति का कुत्ता था। पहाड़ों में रहने वाले और भेड़ पालने वाले भुटिया कुत्तों को पालते हैं। यह प्रजाति इतनी खतरनाक होती है कि तेंदुओं से अकेले लोहा ले सकती है। रावत जी को भेड़ पालने वालों ने इसे उपहार में दिया था। रावत जी बताने लगे कि जब वह सात आठ दिन का था, तभी से यहां रह रहा है। लालू नाम क्यों रख दिया? मेरे सवाल का जवाब देते हुए रवात जी पुराने दिनों में खो गए। बताने लगे। दरअसल एक बार पहाड़ से भेड़ पालने वाले नीचे आ रहे थे। यहां से गुजर रहे थे तो मेरे यहां पानी पीने को रूक गए। मैंने उन्हें पानी के साथ-साथ खाना भी खिलाया। उनके पास करीब तीन सौ भेड़ें थी। इनकी रखवाली के लिए दो भुटिया कुत्ते थे। एक मेल और दूसरी फिमेल। हाल ही में उनके चार बच्चे हुए थे। अपने कंधे पर रखकर उन चार बच्चों को लेकर वो नीचे आ रहे थे। इनमें से तीन की रास्ते में ही मौत हो गई। एक बचा था। रावत जी ने बताया कि उन्हें मैंने खाना खिलाया जब वो जाने लगे तो उपहार स्वरूप उस एकलौते बचे बच्चे को मुझे दे गए। मैं मना करता रहा, लेकिन वो नहीं माने। भेड़ पालने वालों ने बताया कि हमें अभी काफी दूर जाना है। पता नहीं यह बचेगा या नहीं। पर इतना विश्वास है कि अगर यहां ठिकाना मिल गया तो जरूर बच जाएगा। जब वो उसे छोड़कर जा रहे थे तो उसके मां और पिता उसे दुलार करके और मेरी तरफ देखकर चले गए। मानो कह रहे हों मेरे बच्चे का ख्याल रखना। भेड़ पालने वालों ने बताया था कि इसके पिता का नाम कालू है। कालू बिल्कुल काले रंग का था। जबकि यह लाल रंग का। मैंने उसी वक्त इसका नाम लालू रख दिया। कालू का बेटा लालू।
रावत जी ने बताया कि लालू पर इसी कैंपस के अंदर एक बार लेपर्ड ने हमला कर दिया था। लालू ने अकेले ही उस लेपर्ड को निपटा दिया। यह जितना हमसे और आपसे फ्रेंडली हो जाएगा उतना ही लेपर्ड या दूसरे जानवरों को देखकर हिंसक हो जाता है। खासकर जब यह अपने ऊपर खतरा देखता है तो इसका रौद्र रूप देखकर अच्छे-अच्छों की हालत खराब हो जाती है।  लालू पुराण के साथ रावत जी बीड़ी का कश भी मार  रहे थे। जबतक बीड़ी खत्म होती तब तक लालू जी भी प्रकट हो गए। बिल्कुल बेदम लग रहे थे। हांफ रहे थे। नीचे जंगल से ऊपर आना कोई साधारण बात नहीं थी। रावत जी ने उसे पानी दिया। पानी पीने के बाद लालू फिर से सामान्य हो गया। मैंने उसे सहलाया तो वहीं मेरे पैर के पास बैठ गया। बातों बातों में शाम घिर आई।

रावत जी और उनके परिवार ने हमारी खूब खातीरदारी की। दो दिन का पूरा प्रोग्राम भी बना दिया। उनके परिवार के साथ खाना खाया। रात में उसी कैंपस में बोन फायर के साथ पहाड़ी गानों का लुत्फ लिया। वहीं नीचे के कमरे को उन्होंने होम स्टे के रूप में बदल रखा था। अटैच बाथरूम के साथ बेहद करीने से सजा हुआ कमरा था। ठंडी हवाओं के बीच बोन फायर और उस पर पहाड़ी संगीत किसी को भी मदहोश कर दे। जो ड्रिंक करते हैं उनके लिए तो यह मदहोशी पूरे शबाब पर रहेगी। रात दस बजे तक हम वहीं रावत जी के परिवार के साथ बैठे रहे। बेड पर जाते ही कब नींद की आगोश में खो गया पता ही नहीं चला।
कसार देवी से दिखता सूर्यादय।

सुबह छह बजे दरवाजा खटखटाने की आवाज आई। रावत जी की बहू चाय लेकर दरवाजे पर खड़ी थी। बोली बाहर आइए आपलोग। सूर्य देवता का आगमन होने ही वाला है। दरअसल कसार देवी में लोग सन राइज और सन सेट देखने दूर-दूर से पहुंचते हैं। सूर्य की पहली किरण जब बर्फ से आच्छादित चोटियों तक पहुंचती है तो एक अद्भूत दृश्य उत्पन्न होता है। हमलोगों ने फटाफट चाय पी और लॉन में उस रोमांचकारी दृश्यों को कैद करने के लिए अपने कैमरे के साथ बैठ गए। इस बीच कई और भी पर्यटक कसार देवी टैंपल के पास बने एक होटल की बालकोनी में नजर आने लगे थे।
कसार देवी से दिखता सूर्यादय।
मैंने पहाड़ों में कई जगह से सन राइज देखा है। शिमला, मसूरी, धनौल्टी, नई टिहरी जैसी अनगिनत जगहों से मैंने यह नजारा लिया है। पर सच मानिए कसार देवी से जो सनराइज देखने को मिला वह सच में अद्भूत और अविश्वमरणीय था। सफेद बर्फ की चादरों पर सूर्य की पहली किरण ऐसी प्रतीत हो रहा थी जैसे वहां ज्वालामुखी उत्पन्न हो रही हो। आप भी अगर कसार देवी जाएं तो इस पल को किसी भी कीमत पर मिस न करें।
काफी देर कैंपस की लॉन में बैठे हम प्रकृति का रसास्वादन करते रहे। इसी बीच दूसरी और तीसरी कप चाय भी निपटा ली। लालू जी वहीं लॉन के पास सो रहे थे। रावत जी ने बताया कि लालू रात भर सोता नहीं है। इधर-उधर अपने दोस्तों के साथ घूमता रहता है। सुबह चार बजे के आस पास सोता है। आठ बजे उठेगा। लालू अपने रूटीन का बड़ा पक्का है।
सुबह दस बजे तक हम भी फ्रेश हो गए। पहाड़ी नाश्ता किया। और कसार देवी मंदिर की तरफ बढ़ गए। पैदल ही रास्ता है। कसार देवी का यह मंदिर दुनिया भर के वैज्ञानिकों के लिए किसी रहस्य से कम नहीं है। असीम शक्ति है इस मंदिर में। आपको जानकर हैरानी होगी कि नासा के वैज्ञानिक भी इस मंदिर और इसके आस पास के क्षेत्रों पर अध्ययन कर रहे हैं। यह मंदिर और इसके आसपास का क्षेत्र जबर्दस्त चुंबकीय प्रवाह लिए है। नासा के वैज्ञानिक चुम्बकीय रूप से इस जगह के चार्ज होने के कारणों और प्रभावों पर शोध कर रहे हैं। आपको बता दूं कि कसारदेवी मंदिर के आसपास वाला पूरा क्षेत्र वैन एलेन बेल्ट है, जहां धरती के भीतर विशाल भू-चुंबकीय पिंड है। इस पिंड में विद्युतीय चार्ज कणों की परत होती है जिसे रेडिएशन भी कह सकते हैं। पर आजतक कोई भी इस भू-चुंबकीय पिंड का पता नहीं लगा सका है। हाल के वर्षों में एक बार फिर से नासा के वैज्ञानिक इस बेल्ट के बनने के कारणों को जानने में जुटे हैं। इस वैज्ञानिक अध्ययन में यह भी पता लगाया जा रहा है कि मानव मस्तिष्क या प्रकृति पर इस चुंबकीय पिंड का क्या असर पड़ता है। मैंने जब गुगल किया था तो पता चला था कि जिस तरह का भू-चुंबकीय पिंड कसार देवी में मौजूद है। ठीक वैसा ही दक्षिण अमेरिका के पेरू स्थित माचू-पिच्चू व इंग्लैंड के स्टोन हेंग में मौजूद है। तीनों जगहों में अद्भुत समानताएं हैं।
पहाड़ की चोटी पर कसार देवी मंदिर।

विश्व के इन तीनों स्थानों पर तमाम वैज्ञानिक रिसर्च कर रहे हैं। इसी भू-चुंबकीय पिंड के कारण कसार देवी को भारत की कई रहस्यमयी मंदिरों में से एक माना गया है। माना जाता है कि कसार देवी एक जागृत देवी हैं। इनसे आप जो भी मन्नत मांगे पूरी होगी। पर मंदिर के रहस्य से आज तक पर्दा उठ नहीं सका है। आज भी देश विदेश के कई वैज्ञानिक कसार देवी सिर्फ इसी चुंबकिय रहस्य का पता लगाने यहां पहुंचते हैं। आपको यह जानकर भी हैरानी होगी कि कसार देवी में किसी समय स्वामी विवेकानंद भी मानसिक शांति और साधना के लिए आ चुके हैं। इस जगह के चमत्कारों से प्रभावित होकर स्वामी विवेकानंद भी कसारदेवी मंदिर पर 1890 में कुछ महीनों के लिए आये थे। आज भी यहां स्वामी विवेकानंद का छोटा सा आश्रम स्थापित है। कसार मंदिर से थोड़ी दूर पर स्थापित इस आध्यात्मिक केंद्र के दरवाजे सभी के लिए खुले हैं। आप यहां मेडिटेशन कर सकते हैं और स्वामी विवेकानंद के विचारों को नजदीक से समझ सकते हैं। मैं भी इस केंद्र में करीब चार घंटे रहा। चारों तरफ इतना सन्नाटा था कि सूई गिरने की आवाज भी आपको सुनाई दे। मेघा जीे को यहां मन नहीं लगा। इसलिए वो थोड़ी देर में अपने होम स्टे में चली गर्इं। पर मैं वहां देर शाम तक रूका रहा। जाने का मन नहीं कर रहा था, पर वहां मौजूद आश्रम के एक व्यक्ति ने धीरे से आकर कहा कि अब आप चले जाएं। अंधेरा होने को है। आसपास जंगली जानवरों का खतरा रहता है। मैं वहां से विदा हो गया, दोबारा आने के वादे के साथ।
आध्यात्मिक केंद्र।

स्वामी विवेकानंद की तरह ही बौद्ध गुरु लामा अंगरिका गोविंदा ने गुफा में रहकर विशेष साधना की थी। स्वामी विवेकानंद ने इस स्थान के बारे में कहा था कि यदि धार्मिक भारत के इतिहास से हिमालय को निकाल दिया जाए तो उसका अत्यल्प ही बचा रहेगा। यह केंद्र केवल कर्म प्रधान न होगा, बल्कि निस्तब्धता, ध्यान और शांति की प्रधानता होगी। सच मानिए आध्यात्मिक शांति के लिए इससे बेहतर कोई दूसरा स्थान नहीं हो सकता है। (यह बातें गुगल से प्राप्त हुर्इं)
कसार देवी मंदिर के बारे में मान्यता है कि मां कौशिकी के रूप में देवी दुर्गा यहां वास करती हैं। उन्होंने ही शुंभ-निशुंभ दानवों का संहार किया था। यह मंदिर कश्यप पहाड़ी की चोटी पर एक गुफानुमा जगह पर बना हुआ है। इसी गुफा में मां कौशिकी मौजूद हैं। यहां पर एक शिव मंदिर भी है, जिसे शायद बाद में बनाया गया है। मंदिर के आसपास कई पाषाण युग के अवशेष और शिलालेख भी आपको देखने को मिलते हैं। आप अगर इस मंदिर में जाना चाहते हैं शाम का वक्त सबसे उपयुक्त होता है। क्योंकि शाम में यहीं की से आपको सनसेट का अद्भूत नजारा देखने को मिलता है। देश विदेश के वैज्ञानिक इस केंद्र पर रिसर्च कर रहे हैं। वर्ष 2012 में नासा के वैज्ञानिकों का एक दल भी इस क्षेत्र का अध्ययन करने पहुंचा था। आज भी यहां देशी विदेशी सैलानियों का तांता लगा रहता है।
उत्तराखंड सरकार ने कभी भी इस क्षेत्र को विकसित करने या टूरिस्ट स्पॉट के रूप में चिह्नित का प्रयास नहीं किया। मेरे अनुसार उत्तराखंड सरकार को इस बात के लिए धन्यवाद देना चाहिए। जिस दिन सरकार ने इसे अत्यधिक प्रचारित और प्रसारित कर दिया उसी दिन से यहां की खूबसूरती पर ग्रहण  लग जाएगा। होटल्स और मॉल खुल जाएंगे। मल्टीनेशनल फूड कॉर्नर के चेन खुल जाएंगे। लोग यहां शांति के लिए नहीं अय्यासी के लिए पहुंचने लगेंगे। हमें शुक्रगुजार होना चाहिए कि उत्तराखंड सरकार का ध्यान इस तरफ नहीं है। उनका ध्यान नैनीताल और भीमताल तक ही रहे तो बेहतर होगा।
कसार गांव से विदाई की बेला।
प्रकृति की गोद में रहने का प्लान तो दो दिन का था। पर रावत जी के परिवार का प्यार और अद्भूत आध्यात्मिक और मानसिक शांति ने हमें वहां तीन दिन रोक लिया। जाते-जाते बुझे मन से यह तस्वीर उतारी जो सुबह सुबह की थी। एक तरफ सूर्य की उगती किरणें हमें अपनी जिंदगी में उल्लास भरने को प्रेरित कर रही थी, दूसरी तरफ मुरझाए फूल हमारे मन की उदासी को भांप रहे थे। हम उदास थे प्रकृति के इस अद्भूत उपहार से दूर जो हो रहे थे। कभी मौका मिले तो नैनीताल, मसूरी, ऊटी और दार्जलिंग को भूलकर कसार जैसे ही किसी छोटे से पहाड़ी गांव में जाकर रह कर आईए। ताउम्र इसकी यादें आपको ताजगी का अहसास कराएगी। मैं आज फिर से खुद को ऊर्जावान पा रहा हूं।
कसार देवी से लौटते वक्त नैनीताल जाने से खुद को रोक नहीं सका। वहीं नाश्ता किया और फिर देहरादून के रास्ते पर निकल पड़े।

Tuesday, May 21, 2019

मोदी की गुफा यात्रा के बहाने एक गुफा यात्रा यह भी


गंगोत्री धाम में गंगा किनारे मैं।
यह कहानी आज से दस साल पहले की है। उन दिनों मैं अक्सर पहाड़ों में निकल जाता था। ट्रैकिंग के बहाने या लांग ड्राइव के बहाने। पहाड़ों पर गाड़ी चलाने में उतना कांफिडेंस नहीं था, इसलिए मेरे साथी होते थे अरुण सिंह। अरुण सिंह उत्तराखंड के सीनियर फोटो जर्नलिस्ट हैं। इन दिनों देहरादून में दैनिक जागरण में हैं। उनकी बदौलत मैंने पहाड़ों पर अच्छी ड्राइविंग सीखी। उत्तराखंड के ही एक वरिष्ठ पत्रकार हैं मनमीत। इन दिनों वो ंिहंदुस्तान देहरादून में हैं। अरुण और मनमीत दोनों में ही पहाड़ बसता है। इन दोनों की बदौलत मुझे भी पहाड़ को नजदीक से जानने और समझने का मौका मिला था।
मनमीत तो अक्सर मुझसे बहाना बना कर छुट्टी लेता था। बाद में पता चलता था कि वो कभी तुंगनाथ की ट्रैकिंग पर है कभी रुद्रप्रयाग की खाक छान रहा है। मैं भी उसकी छुट्टियों के बारे थोड़ा दरियादिल था, क्योंकि इन छुट्टियों से आने के बाद वो वहां की जो रोमांचक यात्रा का वर्णन करता था, उसे मैं सुनने के लिए बेताब रहता था। आते ही वह सारी फोटो मेरे कंप्यूटर में सेव कर देता था और फिर एक एक फोटो के बारे में विस्तार से बताता था। ऐसे ही एक यात्रा पर वह गोमुख गया था। वहां से वह तपोवन होते हुए बेहद ही रोमांचक ट्रैकिंग कर लौटा था। उसकी यात्रा का वर्णन सुन मैं बेहद उत्साहित हो गया। मन ही मन डियाइड कर लिया कि मैं भी यहां जरूर जाऊंगा।

उन दिनों सेल्फी का इनोवेशन नहीं हुआ था, लेकिन कैमरे में टाइमर जरूर था। इसी के सौजन्य से खुद की खींची गई तस्वीर।
अचानक एक दिन मैंने भी मनमीत वाला फॉमुर्ला अपनाया। बैकपैक पैक किया और गढ़वाल जाने वाली रात की गाड़ी में बैठ गया। उत्तराखंड अखबार की दृष्टि से दो भाग में बंटा है। एक गढ़वाल और दूसरा कुमांऊ। गढ़वाल का बेस कैंप देहरादून है और कुमांऊ का हल्दवानी। गढ़वाल के पहाड़ों पर जितने भी अखबार पहुंचते हैं उनका प्रकाशन देहरादून में होता है, जबकि कुमांऊ का बेस कैंप हल्दवानी है।
पहाड़ के दूरस्त क्षेत्रों में जाने के लिए अखबार लेकर जाने वाली गाड़ियों से बेहतर विकल्प कुछ नहीं है। एक तो रात में इनकी ही सर्विस मौजूद होती है, दूसरी बिल्कुल समय से आप अपने गंतव्य पर पहुंच जाते हैं। मैंने भी यही विकल्प चुना, देर रात आॅफिस का काम समाप्त किया और उत्तरकाशी जाने वाली गाड़ी में बैठ गया। जागरण के सर्कुलेशन मैनेजर ने पहले ही गाड़ी वाले को मेरे लिए बोल दिया था, उसने मेरे लिए आगे वाली सीट रिजर्व रखी थी।
मैं इससे पहले कभी इस तरह की गाड़ी में नहीं गया था। पर कसम से इस यात्रा के बाद दूसरी बार इन गाड़ियों में पहाड़ पर कभी नहीं निकला। सांसें थाम देने वाली यात्रा थी। पहाड़ी रास्तों पर अखबार लेकर जाने वाली गाड़ियों के जांबाज ड्राइवर अस्सी नब्बे पर गाड़ी चलाते हैं। चलती गाड़ियों से बंडल भी फेंकते हुए जब आप इन्हें देखते हैं तो ये किसी सुपर हीरो की तरह नजर आते हैं। आप अगर दिलेर हैं तभी इन गाड़ियों की यात्रा कर रिस्क उठाएं। खैर रात 11 बजे से शुरू हुई यात्रा सुबह पांच बजे उत्तरकाशी में जाकर समाप्त हुई। रातभर मैं बजरंगबली की शरण में रहा।
उत्तरकाशी में उस वक्त जागरण के ब्यूरो चीफ थे रावत जी। उन्होंने मेरे लिए वहीं गढ़वाल निगम के गेस्ट हाउस में एक रूम बुक करवा दिया था। वहां थोड़ी देर आराम करने के बाद मैं गंगोत्री की तरफ निकल गया। उत्तरकाशी में ही पता चल गया था कि कुछ कारणों से गोमुख ट्रैक अभी दो से तीन दिन बंद रहेगा। मैं बेहद निराश हो गया था। पर गंगोत्री जाने का मन में ठान रखा था।
गंगोत्री पहुंचने के बाद मैंने निर्णय लिया कि यहां से ऊपर की ओर रहने वाले साधु सन्यासियों के मिलूंगा। आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि जिस तरह केदारनाथ, बद्रीनाथ, यमुनोत्री धाम साल के छह महीने ही दर्शन के लिए खुले होते हैं। ठीक उसी तरह गंगोत्री धाम की प्रथा है। यहां भी छह महीने मां गंगा की डोली नीचे चली आती है। पूरे छह महीने यह धाम विरान होता है। चारों तरफ बर्फ ही बर्फ होती है। पर गंगोत्री धाम से ऊपर की ओर करीब दो से तीन किलोमीटर हिमालय की गोद में जाएंगे तो वहां आपको चार पांच साधु मिलेंगे जो अलग-अलग गुफाओं में सालों भर वहीं रहते हैं। ये तपस्वी माइनस 30 डिग्री टैंपरेचर में भी सालों भर वहीं जमे रहते हैं।
मैंने इन साधुओं और तपस्वियों के बारे में सुन रखा था, इसलिए इनसे मिलने की जबर्दस्त इच्छा थी।  मेरे रहने की व्यवस्था गंगोत्री धाम स्थित मुख्य धर्मशाला में थी। पर मैं गंगोत्री धाम में दर्शन करने के बाद सीधे ऊपर की ओर निकल गया। पीठ पर बैकपैक लादे अपना छोटा वाला डिजिटल कैमरा लिए मैं पगडंडियों के सहारे जैसे-जैसे ऊपर की ओर बढ़ रहा था। चारों तरफ की हसीन वादियों में खोता जा रहा था। एक तरफ कलकल बह रही मां गंगा थीं, दूसरी तरफ हरे भरे वन। दूर से हिमालय की बर्फ से आच्छादित चोटियां एक अलग तरह का रोमांच पैदा कर रही थीं।
मुझे नहीं मालूम था कि कितनी दूर ऊपर तक चढ़ना है। वहां कौन-कौन मिलेगा। किससे क्या बात होगी। वो साधू सन्यासी मुझसे बात भी करेंगे या नहीं। मन में तमाम तरह के विचारों से ओत प्रोत मैं चढ़ता जा रहा था।
मैं पहाड़ का रहने वाला नहीं हूं, इसलिए मेरा कार्डियो सिस्टम उस तरह का नहीं कि बिना थके लगातार चढ़ता जाऊं। मनमीत ने एक बार बेहद वैज्ञानिक तरीके से मुझे पहाड़ी लोगों के कार्डियो सिस्टम पर लेक्चर दिया था। उसने बताया था कि क्यों और कैसे पहाड़ के लोग अपने दिलों की हिफाजत करते हैं। उसी ने बताया था कि मैदान के लोग जब पहाड़ों पर ट्रैकिंग करते हैं तो उन्हें क्या क्या नहीं करना चाहिए। वैसे तो मैंने पहाड़ों में कई बार ट्रैकिंग की है, लेकिन यह रास्ता ट्रैकिंग के लिए बना नहीं था। गोमुख ट्रैकिंग रूट से बिल्कुल उल्टा यह रास्ता था। न तो ठीक से रास्ता समझ में आ रहा था और न यह समझ में आ रहा था कि जाना कहां है। मुझे गंगोत्री धाम के मुख्य पुजारी जी ने इतना जरूर बता दिया था कि उस तरफ से ऊपर चढ़ते जाइए आपको साधू सन्यासियों के दर्शन हो जाएंगे, जो गुफाओं में सालों भर रहते हैं और वहां तप करते हैं।
गंगात्री धाम से ऊपर वीरान पड़ी एक गुफा।
उस वक्त मेरे पास डीएसएलआर कैमरा नहीं था। सोनी का छोटा वाला साइबर शॉट डिजिटल कैमरा था। मैं उसमें टाइमर सेट कर अपनी फोटो भी लेता रहा और वादियों की तस्वीरें भी लेता रहा। बेहद आराम आराम से मैं ऊपर की चढ़ाई कर रहा था। क्योंकि मेरे पास दिनभर का समय था। जल्दबाजी बिल्कुल नहीं थी। मेरे मन में इतना जरूर था कि अगर किस से मुलाकात नहीं हुई तो शाम चार बजे तक नीचे चला आऊंगा। पुजारी जी ने बता दिया था कि गंगा का किनारा नहीं छोड़िएगा। चाहे आप कितने भी ऊपर चले जाएंगे, इसी के सहारे आप लौटते वक्त गंगोत्री मंदिर तक पहुंच जाएंगे। कहीं नहीं भटकेंगे।
करीब एक घंटे की चढ़ाई के बाद मैं एक गुफा के पास पहुंचा। बेहद खूबसूरती से वह सजा हुआ था। चारों तरफ हरियाली ही हरियाली थी। मैंने वहां आवाज लगाई। पर कोई नहीं था। बड़ी हिम्मत कर मैं प्रांगण में पहुंचा। चारों तरफ नजर दौड़ाई पर कोई नजर नहीं आया। मां गंगा का किनारा नजर नहीं आ रहा था, इसलिए मैंने निर्णय लिया कि थोड़ा दूसरी तरफ से चलूं। करीब दस मिनट विश्राम कर मैं दूसरी दिशाा की ओर बढ़ गया। मां गंगा का किनारा तुरंत ही नजर आ गया। उसी के सहारे मैं थोड़ा और ऊपर जाने लगा। थोड़ी ही दूर पर मुझे कं्रदण घाट लिखा दिखाई पड़ा।

घाट पढ़कर मुझे आश्चर्य हुआ कि इस विराने में घाट की परिकल्पना किसने की होगी। वहां तक पहुंचने के लिए मुझे अच्छी खासी मशक्त करनी पड़ी। पर वहां पहुंचकर मुझे लगा कि मैं जन्नत में आ गया हूं। चारों तरफ विशाल परिसर। बेहद करीने से सजा हुआ घाट। तरह तरह के पेड़। बिल्कुल मां गंगा के तट पर सजा हुआ प्रांगण मानो ऐसा लग रहा था कि मैं किसी रिसॉर्ट में हूं। बैग उताकर मैंने गंगा जल का सेवन किया और इधर-उधर नजर दौड़ाने लगा। गंगा तट से करीब दो सौ मीटर ऊपर मुझे एक कॉटेज नजर आया। मैं जब ऊपर की ओर आया तो वहां सीढ़ियां मौजूद थी, जो कॉटेज की ओर ले जा रही थीं।
क्रंदण घाट से स्वामी वेदांतानंद की गुफा की ओर जाने वाली सीढ़ी।

बिल्कुल हरे रंग से पेंट की हुई यह सीढ़ियां ऐसी लग रही थी कि मानो आप किसी स्वर्ग के द्वार की ओर बढ़ रहे हैं। चारों तरफ हरियाली ही हरियाली। मां गंगा के लहरों की आवाज आपके कानों को सुकून दे रही थी। चीड़ियों की चहचहाट मानों आपके रोम-रोम को पुलकित कर रही थीं। यही मई का महीना था, लेकिन वहां का तापमान करीब चार से पांच डिग्री था।
कॉटेज तक पहुंचने में मुझे करीब बीस मीनट लग गए। वहां पहुंचने पर मुझे एक नंग धड़ंग अवस्था में साधु मिले। मैंने उन्हें नमस्कार किया। उन्होंने मुझे बैठने को कहा। मेरा नाम पता जानकर उन्होंने मुझसे बेहद आत्मयिता से बात की। मेरे आने का प्रयोजन पूछा। फिर तो उनसे बातचीत का जो सिलसिला शुरू हुआ वो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था।
उस सन्यासी का नाम स्वामी वेदानंतानंद था। वो करीब चौदह साल से यहीं रह रहे थे। जिसे मैं कॉटेज समझ रहा था वो दरअसल क्रिस्टल की एक गुफा थी, जिसे बेहद ही खूबसूरती से सजाया संवारा गया था। सालों भर वो इसी गुफा में निवास करते हैं। जब गंगोत्री सहित पूरा इलाका बर्फ से छिप जाता है और टेंपरेचर माइनस तीस डिग्री से भी नीचे चला जाता है, तब भी स्वामी वेदांतानंद इसी गुफा में रहते हैं। गुफा में रहने खाने से लेकर वो तमाम सुविधाएं मौजूद थीं जिनकी आप कल्पना नहीं कर सकते हैं। आपको हैरानी होगी कि उस वक्त उनकी गुफा में सीसीटीवी कैमरे तक मौजूद थे।
स्वामी वेदांतानंद से मेरी पहली मुलाकात।
मैं आश्चर्यचकित था। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि मैं इसे कैसे समझूं। कैसे इसे आत्मसात करूं। एक तरफ वो सन्यासी था जो सालों भर यहां तप करता है। दूसरी तरफ वो संसाधन थे जिसे अत्याधुनिक कहा जा सकता है। पूरी दुनिया से कटे रहने वाले साधु सन्यासी की गुफा के बाहर एक शौचालय भी था। एक बेहद अत्याधुनिक रसोईघर था। जिसमें काजू, किशमिश, गाय के घी से लेकर रसोई गैस तक की सुविधा थी।
खैर, जैसे-तैसे मैंने खुद को संयमित किया। बातचीत तो हो ही रही थी। मैंने स्वामी वेदांतानंद से उनकी गुफा में रात गुजारने की अनुमति ले ली। पहले तो वो आनाकानी करते रहे। पर मेरे हठी स्वभाव ने उन्हें मना लिया। उन्होंने मुझे आज्ञा दे दी। सिर्फ एक रात के लिए।
बातचीत में ही उन्होंने बताया कि उनका एक शिष्य है जो दिल्ली का एक बड़ा बिजनेसमैन है। वह जब गंगोत्री धाम बंद होने वाला रहता है तभी आता और पूरे साल का राशन पानी, गैस आदि की व्यवस्था कर चुपचाप चला जाता है। गुफा के पीछे ही एक छोटा सा रूम बना है, जिसमें सालों भर का राशन पानी आदि इकट्ठा रहता है। जब चारों तरफ बर्फ ही बर्फ होती है तब गैस ही एकमात्र सहारा होता है। इसी पर बर्फ को उबालकर पानी तैयार करते हैं। मां गंगा की धाराएं भी जम जाती हैं। ऊपर बर्फ ही बर्फ रहता है, जबकि धारा नीचे से धीरे-धीरे प्रवाहित होती रहती है। वहां से पानी कोई ले नहीं सकता है।
गुफा पूरी तरह क्रिस्टल की बनी थी। जिसके अंदर अगर आप साधारण कपड़ों में भी रहेंगे तो आपको अत्यधिक ठंड का अहसास नहीं होगा। गुफा के सटे ही एक कृत्रिम गुफा भी बनाई गई है जिसमें स्वामी वेदांतानंद अपना तप करते हैं। धुनी भी वहीं रमाई गई थी। वहां एक छोटी सी खिड़की थी जहां से मांग गंगा का दर्शन होता था।
सीसीटीवी के बारे में स्वामी वेदांतानंद ने बेहद रोमांचक जानकारी दी। उन्होंने बताया कि वो सालों भर पूरी दुनिया से कटे रहते हैं, इसलिए उनके भक्त ने यहां सीसीटीवी इंस्टॉल करवा दिया, ताकि मुझे पता चलता रहे कि उनकी गुफा के बाहर क्या हो रहा है। ठंड के दिनों में जब पूरा क्षेत्र विरान हो जाता है तो कई बार इस सीसीटीवी में उन्हें पोलर बियर से लेकर ऐसे जानवर नजर आते हैं जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। एक बार इस सीसीटीवी में बर्फ में रहने वाला तेंदूआ भी कैद हुआ था। गुफा में सोलर सिस्टम इंस्टॉल था। जो सालों भर जैसे तैसे काम करता रहता है। गर्मियों में तो दिक्कत नहीं होती, लेकिन सर्दियों में कभी कभी यहां सूर्य की किरणें पहुंचती हैं।
गुफा के अंदर की तस्वीर। यहां सीसीटीवी मॉनिटर लगा है
खैर देखते देखते शाम हो गई। उन्होंने भोजन बनाना शुरू किया। मैंने हाथ बंटाने की जिद की, लेकिन इस बार मैं हार गया। उन्होंने मुझे कुछ नहीं करने दिया। पराठे और आलू की सब्जी के साथ हमने करीब आठ बजे भोजन ग्रहण किया। उस सब्जी और पराठे का स्वाद आज तक नहीं भूला हूं। उसके बाद स्वामी वेदांतानंद साधना में लीन हो गए। साधना से पहले उन्होंने मुझे कुछ जरूरी हिदायतें दे दी थी। सारी हिदायतें यहां नहीं लिख सकता, लेकिन इतना बता दूं कि यह सख्त हिदायत थी कि समय पर सो जाएं। उन्होंने मेरे लिए गुफा के अंदर ही बिस्तर लगा दिया था।  मैं बेहद थका था,  कब नींद कब आ गई पता ही नहीं चला। सुबह पांच बजे का अलार्म मैंने अपने नोकिया वाले छोटे मोबाइल में लगा लिया था। सुबह अलार्म भी बजता रहा, लेकिन नींद खुली तो छह बज चुके थे। मैं हड़बड़ाकर उठा तो देखा स्वामी वेदांतानंद वहां नहीं थे। मैंने फटापट अपना ट्रैक सूट डाला, टोपी डाली, गरम चाद ओढी और गंगा किनारे घाट की ओर बढ़ गया। मुझे पता था कि सुबह वो मां गंगा की आराधना करते हैैं।
इतने सारे गर्म कपड़े डाल कर मैं घाट तक पहुंचा था, पर सच मानिए मैं वहां पांच मिनट भी खड़ा रह नहीं सका। और वो संत वहां बेहद कम कपड़ों में कंद्रण घाट पर मां गंगा को अपने आंसू समर्पित कर रहे थे। उनकी मां-मां की पुकार मानोे मां गंगा से साक्षात्कार कर ही थी। अगले कुछ मिनटों बाद मैं वापस गुफा में था। ठंड से मेरे हाथ पांव सुन्न हो गए थे।
सुबह गंगा तट पर जाते वक्त।
करीब आठ बजे स्वामी वेदांतानंद आए। आते ही उन्होंने मुझसे पूछा घाट पर तुम आए थे? मैंने कहा कि हां आया तो था तो पर पांच मिनट भी नहीं रूक सका। जोर से हंसने लगे। कहने लगे मुर्ख, तुम मां के पास जाओगे और उन्हें प्रणाम भी नहीं करोगे, क्या यही संस्कार हैं तुम्हारे। मां गंगा का आचमन कर लेते। तभी तुम वहां उनके सानिध्य में बैठने के काबिल हो पाते। मैं बेहद शर्मिंदा हो गया। पर तत्काल ही मैंने अपनी बात भी कह दी। आपकी इजाजत हो तो मैं कल सुबह मां के पास देर तक बैठना चाहता हूं।  वो हंसने लगे। बोले तुम मुर्ख नहीं हो। बेहद चालाक हो। खैर उन्होंने मेरे अंदर की भावना पढ़ ली और मुझे उनकी गुफा में दूसरे दिन भी रहने की मौन स्वीकृति मिल गई। दूसरे दिन मैं वहीं प्रकृति की गोद में योग और मेडिटेशन करता रहा। ऐसा लग रहा था कि मुझे दोबारा जीवन मिला है। प्रकृति का सानिध्य मुझे जीवंतता प्रदान कर रहा था। मां गंगा का किनारा, ठंडी ठंडी हवा मुझे अमृत के समान लग रही थी।

स्वामी जी की आज्ञा लेकर मैं दोबारा ट्रैकिंग करता हुआ शाम करीब चार बजे नीचे गंगोत्री मंदिर तक पहुंचा। शाम की आरती में शामिल हुआ। मुख्य पुजारी से मिला और उन्हें पूरी बात बताई। वो बेहद आश्चर्यचकित थे। वो इस बात से हैरान थे कि कैसे मैं रात भर स्वामी वेदांतानंद की गुफा में रहा। सबसे ज्यादा हैरानी इस बात से थी कि उन्होंने आज्ञा कैसे दे दी। जब मैंने यह राज खोला कि मैं आज भी उनकी गुफा में ही रहूंगा तो मानो वो पगला गए। कहने लगे यह असंभव है। मैंने कहा, मेरा सारा सामान वहीं है। आरती के बाद मैं वहीं जा रहा हूं।
शाम में गंगोत्री धाम और वहां होने वाली गंगा की आरती।

मैं दोबारा सात बजे गुफा में था। स्वामी वेदांतानंद अपनी समाधी में चले गए थे। मैंने चुपचाप अपना भोजन ग्रहण किया। थोड़ा ध्यान किया। फिर सो गया। सुबह चार बजे मैं काफी सारे गर्म कपड़े पहने क्रंदन घाट पर था। मां गंगा का आचमन किया। पानी इतना ठंडा था कि मानो हाथ की अंगुली महसूस ही नहीं हो रही थी। पर जैसे ही आचमन किया पूरे शरीर में गरमाहट दौड़ गई। यकीन मानिए गर्म चादर मैंने किनारे रख दिया और सिर्फ ट्रैक सूट में करीब तीन घंटे तक वहीं ध्यान लगाता रहा। इस बीच स्वामी वेदांतानंद अपनी साधना में लीन रहे।


अहले सुबह स्वामी वेदांतानंद की आराधना।
जैसे ही उन्होंने अपनी साधना पूरी की मुझे आकर गले लगा लिया। बोले आज तुम्हें अमरत्व की प्राप्ति हो गई। जिसे मां गंगा ने अपनी शरण में रहने का मौका दे दिया वह दुनिया के किसी कोने में अपना जीवन यापन कर सकता है। उस अनुभूति को मैं अपने शब्दों में बयां नहीं कर सकता। बस आप यह समझ लें कि सच में मैं दूसरी दुनिया में था।
इन दो दिनों गुफा में रहना। प्रकृति को नजदीक से महूसस करना। मां गंगा का सानिध्य। मेरे मन के अंदर एक नई ऊर्जा का संचालन कर रहे थे। बहुत सारी यादों को अपने छोटे से कैमरे और मन के अंदर समेटे मैंने उनसे विदा लिया। वादा किया था फिर जल्दी उनसे मिलने आऊंगा। पर वक्त की आपाधापी ने आज तक दोबार वहां जाने का मौका नहीं दिया।


स्वामी वेदांतानंद और मैं। विदाई का वक्त।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का शुक्रिया। उनकी केदारनाथ में गुफा में गुजारे पल ने मुझे अपनी उस गुफा यात्रा के बारे में लिखने को प्रेरित किया, जिसे आज तक मैं लिख नहीं सका था। जिन्हें नहीं पता उनके लिए बता दूं कि उत्तराखंड में पर्यटन के तौर पर गुफा में स्टे को डेवलप किया जा रहा है। यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दूरदर्शी सोच का ही नतीजा है कि केदारनाथ घाटी में आज उत्तराखंड पर्यटन निगम ने इस तरह की प्राकृतिक गुफाओं को स्टे के लिए डेवलप किया है। यहां कोई भी व्यक्ति एक निश्चित किराया देकर रह सकता है। मेडिटेशन कर सकता है। इन गुफाओं में हर सुविधाएं प्रदान की गई हैं। सुकून की तलाश में बैंकाक, सिंगापुर, मलेशिया जाने वाले कभी इन गुफाओं में रहकर आएं। जीवन में आनंद का संचार होगा। गुफा में कैमरामैन को ले जाने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ट्रोल करने वाले वहां कैमरा लेकर न जाएं। हालांकि लेकर जाएंगे तो मेरी तरह तस्वीरों के जरिए अपनी यादों को सहेज सकते हैं और दूसरों को बता सकते हैं। तस्वीरें चंद लम्हों के लिए खींची जाती हैं। पर मेडिटेशन, ध्यान और योग के लिए आपको पर्याप्त समय मिल जाता है।


 तो जाइए आप भी किसी गुफा यात्रा पर। उत्तराखंड में रहने वाले मेरे मित्रों ने बताया है कि इन गुफाओं का किराया मात्र हजार रुपए के करीब है। फोटो जर्नलिस्ट अरुण सिंह अभी एक सप्ताह पहले ही केदारनाथ की यात्रा से लौट कर आए हैं। बेहद शानदार रिपोर्ट उन्होंने तैयार की है। पर वो गुफा पर स्टोरी बनाने से चूक गए हैं। उनसे जब बात हुई तो उन्होंने कहा कि जल्द ही इस पर एक स्टोरी तैयार करूंगा, ताकि पूरी दुनिया को पता चल सके कि गुफा स्टे क्या होता है। प्रधानमंत्री मोदी का एक बार फिर से शुक्रिया। उन्होंने पूरी दुनिया को इस स्टे से परिचय करवाया।

यात्रा वृतांत थोड़ा लंबा हो गया है, पर आपको अच्छी लगे तो इसे जरूर शेयर करें, ताकि दूसरे लोग भी जान सकें कि गुफा सिर्फ आदिम जाति के लिए नहीं है, वहां हमारे आपके जैसे साधारण लोग भी प्रकृति का सानिध्य पा सकते हैं। सभी तस्वीरें मेरे द्वारा ही ली गई हैं। इसे कहीं प्रकाशित करने से पहले मेरी स्वीकृति बिल्कुल ही आवश्यक नहीं है।  धन्यवाद