Thursday, August 17, 2023

ब्रांडेड स्टोर्स में एक रुपये की भीख !

हाल के वर्षों में आपने भी एक बात नोटिस की होगी। किसी भी ब्रांडेड स्टोर में आप चले जाएं बिलिंग के वक्त एक या दो रुपये की "भीख" मांगी जाती है। हालांकि इसे अंग्रेजी में चैरेटी का नाम दे दिया जाता है, ताकि आपको इमोशनली ब्लैकमेल किया जा सके। मैं इस चैरेटी को कंपनी द्वारा मांगी जाने वाली भीख क्यों लिख रहा हूं आपको जल्द ही समझ में आ जाएगा। बिलिंग काउंटर पर मौजूद महिला या पुरुष आपसे बेहद शालीनता और विनम्रता के साथ पूछेंगे, सर क्या आप एक रुपये चैरेटी में देना चाहेंगे। अब आप सोचेंगे इतना बड़ा स्टोर है। इतनी विनम्रता से पूछा जा रहा है। आपके पीछे लाइन में एक-दो लोग खड़े भी होंगे जो आपकी और सेल्सपर्सन की बात सुन रहे होंगे। बात सिर्फ एक रुपये की ही तो है, ना कह देने पर स्टेटस गड़बड़ा जाएगा। आप मुस्कुराते हुए हां कह देंगे। आपके हां कहते ही आपके बिल में एक या दो रुपये जोड़ दिए जाएंगे। अगर आप क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड या यूपीआई से पेमेंट करेंगे तो ये स्टोर वाले आपसे एक या दो रुपये की भीख मांगेंगे। अगर आपने कैश में देने की बात कही तो देखेंगे कि राउंड फिगर अमाउंट कितना है, उसी के अनुसार चैरेटी के लिए बोलेंगे। आप जब पूछेंगे कि यह पैसे किस चैरेटी में जाएंगे, वो कुछ बताने की स्थिति में नहीं रहेंगे। बस यही कहेंगे कि सर हमारी कंपनी जरूरतमंदों की मदद करती है। वो जरूरतमंद कौन हैं, किस तरह की चैरेटी है, कौन लोग लाभांवित होंगे? यकीन करिए काउंटर पर मौजूद "बेचारों" के पास कोई जानकारी नहीं होगी। बेचारा भी इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि कंपनी उनसे कहती है कि चैरेटी करवाओ, नहीं तो बाहर जाओ। वो मजबूरन हंसते मुस्कुराते आपसे भीख मांग कर चैरेटी करवाएंगे। एक बार हिसाब लगा कर देखिए.. अब आप जरा हिसाब लगाइए। किसी कपड़े के बड़े ब्रांडेड स्टोर में प्रतिदिन औसतन दो हजार कस्टमर पहुंचते हैं। इनमें से 1800 लोग कुछ न कुछ खरीदते ही होंगे। इन 1800 लोगों में से 1500 लोगों ने भी अगर कम से कम एक रुपया भीख के रूप में दे दिया तो स्टोर के पास 1500 रुपये अतिरिक्त आ गए। यानि एक महीने में 45 हजार रुपये। और एक साल में पांच लाख चालीस हजार रुपये। तीन साल में 16 लाख 20 हजार रुपये। यह सिर्फ एक स्टोर की कमाई है। मैंने सिर्फ आंकड़े बताने के लिए एक बड़े स्टोर की वेबसाइट को खंगाला। दुबई की इस कंपनी के सिर्फ भारत में इस वक्त 97 स्टोर हैं। यानि तीन साल में इन सभी स्टोर से यह रिटेल ब्रांड की कंपनी करीब 15 करोड़ 71 लाख 40 हजार रुपये कमा ले रही है। बता दूं कि यह सिर्फ अनुमानित आंकड़े हैं, वास्तविक कमाई इससे भी कहीं ज्यादा होगी। मैंने इसमें सिर्फ एक रुपये चैरेटी का हिसाब लगाया है। दो रुपये का या तीन या पांच रुपये का हिसाब लगा लें तो आंकड़े आप खुद जोड़ सकते हैं। क्यों मांगते हैं भीख ? अब बड़ा सवाल उठता है कि आखिर ये कंपनियां हमसे चैरेटी के नाम पर एक रुपये का भीख क्यों मांगती हैं? सामान्य तरीके से समझाने की कोशिश करता हूं। दरअसल आयकर अधिनियम के तहत भारत में व्यापार करने वाली सभी बड़ी कंपनियों के लिए सीएसआर यानि कॉरपोरेट सोशल रेस्पांसब्लिटी एक्टीविटी को अनिवार्य कर दिया गया है। स्पष्ट किया गया कि एक वित्त वर्ष में अगर आपको पांच करोड़ या उससे ऊपर का शुद्ध लाभ हुआ है तो कंपनी की कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी (सीएसआर) नीति के लिए पिछले 3 वर्षों के औसत शुद्ध लाभ का कम से कम 2% खर्च करना होगा। यदि उक्त राशि खर्च नहीं की जाती है, तो ऐसा न करने के कारणों का खुलासा बोर्ड की वार्षिक रिपोर्ट में किया जाना अनिवार्य है। 2014 में मोदी सरकार आने के बाद कंपनी अधिनियम, 2013 में कुछ और कड़े प्रावधान जोड़ दिए गए। बड़ी कंपनियों को सीएसआर गतिविधियों पर अनिवार्य रूप से खर्च करने की आवश्यकता एक अप्रैल 2014 से प्रभावी कर दी गई। साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया गया कि सीएसआर गतिविधि पर खर्च होने वाली रकम का इनकम टैक्स छूट से कोई लेना देना नहीं होगा। अब यहीं पर कंपनियों के लिए पेंच फंस गया। पहले उन्हें सीएसआर के जरिए इनकम टैक्स में छूट का लाभ मिल जाया करता था। अब वह सुविधा बंद हो गई। ऐसे में कंपनियों को सीएसआर का पैसा अपने मुनाफे में से देना पड़ रहा था। ऐसे में इन कंपनियों ने शातिराना अंदाज में इमोशनल गेम प्लान किया। प्लान का हिस्सा बने हमारे और आपके जैसे मीडिल क्लास लोग। पैसा हमारा, नाम उनका अब यह कंपनियां अपने पैसों से तो सामाजिक कार्य करने से रहीं। ऐसे में इनके काम आते हैं हम जैसे मीडिल क्लास लोग। यानि पैसा हमारा, नाम उनका। बड़े बड़े बैनर और पोस्टर्स पर इनकी सीएसआर एक्टीविटी भी आपको स्टोर में नजर आ जाएंगी। अपने दान पुण्य के कामों की ब्रांडिंग अलग। टैक्स फाइल करते समय भी लेखा जोखा पूरा अपडेट। बड़े-बड़े प्लेटफॉर्म पर सामाजिक कार्यों के लिए सम्मान अलग से। मतलब हींग लगे न फिटकरी, रंग पूरा चोखा। आपके द्वारा चैरेटी में दिए गए पैसे इनकी चैरेटी में काम आ रहे हैं। समझदार बन सकते हैं तो अगली बार आप किसी स्टोर में जाएं और आपसे भी एक या दो रुपये का भीख मांगा जाए तो सावधान हो जाएं। एक रुपये देकर आप अपना तथाकथित स्टेटस बचाना चाहते हैं तो बचाएं, नहीं तो मेरी तरह साफ मना कर दें। मैं तो साफ कह दे देता हूं, कागज के थैले तक के तो पैसे काट ले रहे हो (हालांकि यह भी अवैध है, इसकी चर्चा फिर कभी) और चैरेटी हमसे करवा रहे। मेरे पास चैरेटी के लिए फालतू पैसा नहीं है। एक काम और कर सकते हैं। जब भी खरीदारी करके आएं एक से लेकर पांच रुपए प्रति खरीदारी आप गुल्लक में डाल दें। साल के अंत में या तीन साल पर सीएसआर की जगह एसएसआर(सेल्फ सोशल रेस्पांसब्लिटी) एक्टीविटी करें। किसी वृद्धा आश्रम में दान कर दें। किसी गरीब बच्चे की पढ़ाई में मदद कर दें। सोशल वर्क के लिए और भी बहुत कुछ कर सकते हैं। इस स्वतंत्रता दिवस पर खरीदारी के जरिए एसएसआर की शुरुआत करें। यकीन मानिए, अच्छा लगेगा। जय हिंद।

Monday, April 24, 2023

सचिन सचिन की वो गूंज और अब "माहीमय" ईडन गार्डन

याद करिए 2010 से 2012 के क्रिकेट का दौर। ये सचिन के अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट करियर के अंतिम पड़ाव का दौर था। सचिन जहां भी जाते थे स्टेडियम में सचिन सचिन का शोर सुनाई देता था। विदेश का दौरा हो या भारतीय सरजमीं पर सचिन का मैच, खड़े होकर दर्शकों का सचिन के प्रति सम्मान प्रकट करना हर किसी को अंदर से भाव विभोर कर जाता था। हर एक क्रिकेट प्रेमी सचिन के प्रति अपने प्यार को प्रकट करने को बेताब रहता था। क्रिकेट के प्रति सचिन के समर्पण, सम्मान, सआदत, सकरात्मक सोच, सक्रियता का ही नतीजा था कि वो सफलता के उस सोपान पर पहुंचे कि आज तक कई ऐसे क्रिकेट रिकॉर्ड हैं जो टूटने का इंतजार ही कर रहे हैं। सचिन ने भी कई मौकों पर दर्शकों को उनके इस प्यार के लिए आभार जताया है। 24 अप्रैल को अपने जीवन का पचासवां जन्मदिन मनाने के वक्त भी वो अपने चाहने वालों का शुक्रिया कहना नहीं भूले।
भले ही सचिन के कई रिकॉर्ड को कोई आज तक तोड़ नहीं पाया हो। पर उनके प्रति दीवानगी से अगर कोई आगे बढ़ सका है तो वह है भारत का सर्वकालिक सफलतम कप्तान महेंद्र सिंह धोनी। अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से धोनी को विदा हुए लंबा वक्त होने जा रहा है पर आईपीएल में उनकी एक झलक पाने को जिस तरह दर्शक आज भी बेताब हैं वह धोनी की लोकप्रियता को बताने के लिए काफी है। धोनी के बैटिंग का समय आता है तो जियो सिनेमा पर लाइव देखने वाले दर्शकों की संख्या अचानक से एक करोड़ से छलांग लगाकर दो करोड़ के ऊपर पहुंच जाती है। कई मैच में मैंने देखा कि लोग चेन्नई सुपरकिंग के प्रशंसक होने के बावजूद जल्द से जल्द चौथा विकेट के गिरने की दुआएं मांगने लगते हैं। चौथा विकेट गिरते ही उनकी खुशी चौगुनी हो जाती है। चौथा या पांचवां विकेट गिरते ही किसी भी दूसरी टीम के प्रशंसकों में खामोशी छा जाती है, जबकि चेन्नई सुपरकिंग का मैच अगर हो रहा है तो इतना शोर होता है मानो बवंडर आ गया हो। धोनी-धोनी के शोर से पूरा स्टेडियम गूंजने लगता है। कल ईडन गार्डेन में हुए मैच को अगर किसी ने लाइव देखा हो तो उसे महसूस हुआ होगा कि ईडन गार्डन "माहीमय" हो गया था। मैच कोलकाता में हो रहा था, घरेलू मैदान पर कोलकाता नाइड राइडर्स की टीम थी। पर लोग सिर्फ और सिर्फ माही को देखने आए थे। हर तरफ पीली जर्सी ही नजर आ रही थी। वह भी नंबर सात की।
उफ ! किसी क्रिकेटर के प्रति ऐसी दीवानगी मैंने तो कभी नहीं देखी। ऐसा प्यार, ऐसा दुलार, ऐसा सम्मान, ऐसा क्रेज, मुझे लगता है कभी होम ग्राउंड में दादा (सौरभ गांगुली) को भी न मिला हो। धोनी ने यह सम्मान कमाया है अपनी जुनून और मेहनत के बल पर। क्रिकेटप्रेमियों को लग रहा है यह आईपीएल उनका अंतिम टूर्नामेंट होगा। इसके बाद वो माही को मैदान में नहीं देख सकेंगे। ऐसे में शायद लोग माही को हर एक नजरिए से शुक्रिया कहना चाह रहे हैं, शुक्रिया माही देश को जीतने का जुनून देने के लिए। (सभी फोटो चेन्नई सुपरकिंग के ट्विटर अकाउंट से साभार)

Monday, April 3, 2023

भोजपुरी के इ बेइज्जती बर्दास्त के बाहर बा....

मैं भोजपुरी भाषी नहीं हूं, पर अन्य भाषाओं के साथ भोजपुरी पर भी अच्छी पकड़ है। मैं धारा प्रवाह भोजपुरी बोल सकता हूं। दरअसल, मुजफ्फरपुर में जहां हम लोग शुरुआती दौर में रहते थे वहां हमारे पड़ोसी पश्चिमी चंपारण के चनपटिया से थे। विशुद्ध भोजपुरी बोलने वाले। हम लोग करीब 24 साल उनके पड़ोसी रहे। आपको याद होगा कुछ साल पहले मैंने हिटलर से जुड़ी कहानी बताई थी। दरअसल वो हिटलर http://musafir-kunal.blogspot.com/2016/12/blog-post_23.html का ही परिवार था। जब मैं छोटा था तो यह भाषा या बोली समझ में नहीं आती थी। पर मिठास इतनी अधिक थी कि बोलने की कोशिश करने लगा। अपनी दादी को वो लोग ईया कहते थे। मुझे इस शब्द में इतना अपनापन लगता था कि पूछिए मत। ए ईया खाना खा ल.. इस शब्द को महसूस करिए कि जब कोई पोता अपनी दादी को ऐसे बोले तो कितना प्यारा लगता है। और तो और भोजपुरी में डांटना तो और प्यारा लगता था। चाची जी को कई बार अपने बच्चों को डांटते हुए सुनता था। खाने में जब हिटलर नखरा दिखाता थे तो वो कहती थीं... चुपचाप खाना खइबा, की मार खइबा। तो ईया से शुरू हुई भोजपुरी की कहानी हमारे जीवन का अंग बन गई। 24 साल साथ में रहने के कारण हम (यानी मैं और मेरे बड़े भैय्या) भोजपुरी बोलने में पारंगत हो गए। दीदी भी बोल समझ लेती है, लेकिन हमारे जैसी अच्छी भोजपुरी नहीं बोल सकती। मैं और भैय्या कई बार उनके घर चनपटिया गए थे। गांव में कई लोग हमें शानदार भोजपुरी बोलता देख हैरान हो जाते थे। आज भी कहीं भी कोई भोजपुरी में संवाद करता दिख जाता है तो उनसे भोजपुरी में ही संवाद करना अच्छा लगता है। दो दिन पहले ही दिल्ली से राजीव भाई और प्रगति जी नोएडा आए थे। राजीव भाई बिहार में आरा, जबकि प्रगति जी बनारस से हैं। दोनों ही भोजपुरी भाषी क्षेत्र से हैं। दोनों लंबे वक्त से दिल्ली में हैं। इन दोनों ने कड़ी मेहनत के दम पर अपनी कंपनी को छोटे स्तर से आज एक बड़े मुकाम तक पहुंचा दिया है। पर विदेशों का दौरा हो या देश के किसी दूसरे राज्य में जाना हो, इन लोगों ने भोजपुरी का साथ नहीं छोड़ा है। आपसी संवाद भोजपुरी में ही करते हैं। उस दिन उनके साथ मैं भी भोजपुरी में ही बातचीत करने लगा। उन दोनों के साथ भोजपुरी में बात कर मन प्रसन्न हो गया। दिन में हुआ भोजपुरी का संवाद रात तक दिमाग पर हावी था। ऐसे में रात का खाना खाते समय आईपीएल लगा लिया। तभी याद आया कि इस बार तो आईपीएल की कमेंट्री भी भोजपुरी में हो रही है। मन हुआ कि सुनें कैसे कमेंट्री की जा रही है। बता दूं कि पहली बार आईपीएल में एक साथ 12 भाषाओं में कमेंट्री की जा रही है। भोजपुरी को भी इसका सौभाग्य मिला है कि वो अपना और अधिक विस्तार पा सके। दुनिया में करीब 16-17 देश हैं जहां भोजपुरी बोली जाती है। मॉरीशस, फिजी, त्रिनिदाद जैसे देशों में तो लगेगा कि आप यूपी-बिहार में हैं। बहुत शान से लोग भोजपुरी में बात करते मिल जाएंगे। एक अनुमान के मुताबिक दुनिया में बीस से पच्चीस करोड़ लोग भोजपुरी बोलते हैं। ऐसे में आईपीएल में इसकी इंट्री सच में बड़ी बात है। बड़े उत्साह के साथ भोजपुरी में कमेंट्री का मजा लेने बैठा था, पर कुछ देर ही बर्दास्त कर सका। भोजपुरी की ऐसी बेइज्जती और बेकद्री देखकर मन दुखी हो गया। सिनेमा और छोटे परदे ने पहले ही भोजपुरी को कॉमेडी की भाषा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। अब आईपीएल ने इसमें और इजाफा कर दिया। कमेंट्री सुनकर ऐसा लग रहा था कि मानो आप कोई कॉमेडी शो में बैठे हों। हर बात में हंसी ठिठोली... इ गेंदा त आरा छपरा के पार चल जाई हो... हई का... मुहवां फोड़ देब का.. जा नो बॉल हो गईल। जियो हो बाबू, जिया जवान.. जा झाड़ के। रवि किशन एक अच्छे नेता और अभिनेता हो सकते हैं, पर कैसे स्वीकार कर लिया जाए कि क्रिकेट कमेंट्री को भी मनोरंजन के नाम पर फुहड़ता में शामिल कर लेंगे। बिहार, यूपी, झारखंड में एक से बढ़कर एक टैलेंटेड क्रिकेटर मौजूद हैं, जिन्हें क्रिकेट की समझ भी है और वो भोजपुरी भी शानदार बोल सकते हैं। फिर ऐसी क्या मजबूरी है कि एक बार फिर भोजपुरी के नाम पर हमें हंसी ठिठोली करने वाले ही याद आए। क्या आपने कभी अंग्रेजी या हिन्दी में कमेंटेटर को इस तरह दो कौड़ी की हंसी ठिठोली करते देखा है। फिर ऐसा क्यों है कि भोजपुरी कमेंट्री में हमें जबर्दस्ती हंसाने का प्रयास किया जा रहा है। अच्छे क्रिकेटर को लाकर उनके जरिए भी क्रिकेट की बारीकियों और उसके फॉर्मेट को बेहतर तरीके से दर्शकों के सामने रखा जा सकता था। हां यह भी सच है कि भोजपुरी कमेंटेटर्स की लिस्ट में कई एक्टिव क्रिकेटर भी मौजूद हैं, जिनसे उम्मीद की जा सकती है कि वो बेहतर करें। अभी कई मैच शेष हैं, ऐसे में उम्मीद की जा सकती है कि हास परिहास के साथ कुछ बेहतर कमेंट्री सुनने को मिले। पर शुरुआती दौर के क्रेज में अफसोस है कि भोजपुरी ने वह मौका हाथ से गंवा दिया है। भोजपुरी के ई बेइज्जती त हमरा से बर्दास्त न भइल... रऊआ लोगिन भी सुन के देखीं अउर आपन बात बताईं.... इंतजार रही...

Saturday, March 25, 2023

तो क्या सच में जोधाबाई कपोल कल्पना है?

इतिहास के गर्भ में कुछ शख्सियत ऐसी हैं जिनके जीते जागते सबूत होने पर भी उनके अस्तित्व पर ही सवाल उठाए जाते रहे हैं। उन्हीं में से एक नाम है महारानी जोधाबाई का। इतिहास का छात्र होने के कारण मैं भी तमाम पाठ्य पुस्तकों, ऐतिहासिक दस्तावेजों और इतिहासकारों के अलग-अलग दावों में इस नाम को लेकर उलझा हुआ महसूस करता था। दावों और प्रतिवादों के बीच जोधाबाई को न मानने के कई कारण भी मौजूद थे। पर पिछले दिनों फतेहपुर सिकरी की यात्रा से लौटने के बाद मन में उठे कई प्रश्नों और जिज्ञासाओं पर मैंने पूर्ण विराम लगाने का फैसला किया। पूरे विश्व में मौजूद ऐतिहासिक धरोहरें उस काल की जीवंतता की कहानी कहते हैं। ये आपको अतीत में झांकने का एक मौका देते हैं। कुछ ऐसी ही थी महारानी जोधाबाई की शख्सियत और उनसे जुड़ा जोधाबाई का किला।
उत्तरप्रदेश के ऐतिहासिक शहर आगरा से करीब चालीस किलोमीटर दूर फतेहपुर सिकरी में महारानी जोधाबाई का किला न केवल स्थापत्य कला का अद्भूत नमूना है, बल्कि अपनी विहंगम विरासत और भव्यता का जीता जागता प्रमाण है। कट्टर मुस्लिम मुगल शासन के बावजूद इस किले में आप हिन्दू धर्म से जुड़ी बारीक से बारीक चीजों को बेहद शान से आज भी देख सकते हैं और करीब चार सौ साल पहले की विरासत एवं विलासिता को करीब से महसूस कर सकते हैं। हालांकि कहते हैं कि असल में जोधाबाई का यह किला मुगल शासक अकबर का मुख्य हरम था। इस किले को मुगलों के ऐतिहासिक दस्तावेजों में शबिस्तान-ए-इकबाल के नाम से चिह्नित किया गया है। जोधाबाई को लेकर सदियों से बहस होती आ रही है, पर हाल के वर्षों में जोधाबाई एक बार और चर्चा में तब आई जब लेखक लुइस डी असिस कोरिआ ने जोधाबाई को एक पुर्तगाली महिला बताकर एक अलग बहस को जन्म दे दिया। अपनी किताब 'पोर्तुगीज इंडिया एंड मुगल रिलेशंस 1510-1735' में उन्होंने दावा किया है कि जोधाबाई नामक कोई महिला अकबर की पत्नी थी ही नहीं। अकबर ने एक पुर्तगाली महिला से शादी की थी। जोधाबाई वास्तव में डोना मारिया मास्करेन्हस नाम की एक पुर्तगाली महिला थीं। उन्होंने तमाम बातें लिखी हैं, हो सकता है इसमें कुछ सच्चाई भी हो पर व्यक्तिगत रूप से मैं उनके दावों से असहमत हूं। हालांकि जोधाबाई के किले में ही मारिया या मरियम की कोठी आपको एक बार फिर दावे प्रतिवादों में उलझने को मजबूर जरूर करता है। कई इतिहासकारों ने जोधाबाई के अस्तित्व को सिर्फ इस आधार पर खारिज कर दिया है कि मुगलों के ऐतिहासिक दस्तावेजों में जोधाबाई का कहीं जिक्र नहीं है। यहां तक कि आइने अकबरी और जहांगीरनामा तक में जोधाबाई कहीं नहीं हैं। हां यह भी सच्चाई है कि उस वक्त के इतिहासकारों ने यह जरूर लिखा कि अकबर ने एक कच्छवा कुल की राजपूत लड़की से शादी की थी, लेकिन उसका नाम जोधाबाई ही था इसका जिक्र कहीं नहीं है। हालांकि कुछ इतिहासकारों ने आमेर की राजकुमारी हीरा कंवर या हरखा बाई को ही जोधाबाई बताया है जो अकबर की चौथी पत्नी थीं। इन्हीं की कोख से अकबर को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई, जिसे शहजादा सलीम का नाम दिया गया। यही सलीम इतिहास में बादशाह जहांगीर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। शहजादा सलीम का नाम प्रसिद्ध सूफी संत सलीम चिश्ती के नाम पर रखा गया था। कहा जाता है कि सूफी संत के आशीर्वाद से ही शहजादा सलीम का जन्म हुआ था। महारानी जोधाबाई के किले से करीब दो सौ मीटर पर ही सलीम चिश्ती की दरगाह है। यहीं बुलंद दरवाजा और बादशाही दरवाजा भी है जहां से दरगाह पर जाने का रास्ता है। कहते हैं महारानी जोधाबाई ने ही सलीम चिश्ती की दरगाह को भव्य रूप दिया और सफेद संगमरमर से इसका निर्माण करवाया। उन्होंने इस दरगाह की दायीं तरफ खुद के प्रवेश के लिए एक छोटा लकड़ी का दरवाजा बनवाया। कहा जाता है कि उन्होंने यह छोटा दरवाजा इसलिए बनवाया ताकि जब भी वो मजार पर सजदा करने के लिए प्रवेश करें तो उनका सिर झुका हुआ रहे। यह एक हिन्दू महारानी का सूफी संत के प्रति आदर और सम्मान का भाव व्यक्त करता है। यह दरवाजा अब बंद रहता है, लेकिन बाहर और दरगाह के अंदर से आप इसे देख सकते हैं।
बात जोधाबाई के किले की... अगर आप आगरा घूमने का कार्यक्रम बना रहे हैं तो एक दिन का समय आपको फतेहपुर सिकरी के लिए भी जरूर निकालना चाहिए। आगरा का ताजमहल अगर आपको प्रेम की जीती जागती निशानी नजर आएगी तो जोधाबाई के किले में आप मुगल काल के दौरान हिन्दू सभ्यता और संस्कृति से रूबरू होंगे। आगरा से करीब एक घंटे की ड्राइव के बाद आप फतेहपुर सिकरी में प्रवेश करते हैं। सरकारी बस सेवा भी यहां आने के लिए सुलभ साधन है। शहर में प्रवेश करते ही आपको अपनी गाड़ी पार्किंग में लगानी होगी। उत्तरप्रदेश पर्यटन विभाग ने यहां पर्यटकों की सुविधा के लिए काफी बेहतर प्रबंध कर रखे हैं। पार्किंग से ही आपको यूपी सरकार की शटल बस सेवा लेनी होगी। हर पांच मिनट में आपको बस मिल जाएगी। यही बस आपको जोधाबाई के किले तक छोड़ेगी। पार्किंग से महल तक जाने में आपको दस मिनट तक का समय लग सकता है। दूसरा रास्ता पैदल जाने का है। यह पैदल रास्ता बुलंद दरवाजा होकर जाता है। यह रास्ता थोड़ा थकाने वाला है। बुलंद दरवाजा होकर आप जा रहे हैं तो आपको अतिरिक्त सावधान रहने की जरूरत है। टूरिस्ट गाइड के नाम पर स्थानीय युवाओं से खुद को घिरा पाएंगे। पहली बात आपको टूरिस्ट करने की खास जरूरत नहीं है क्योंकि हर जगह आपको जानकारी लिखी मिलेगी। अगर आपको गाइड करना ही है तो यूपी पर्यटन विभाग के ऑफिस से ही गाइड करें। मेरे साथ मेरे परिजन भी थे, इसलिए हमने शटल बस सेवा ली। जोधाबाई महल के पास बस से उतरते ही टिकट काउंटर है। टिकट लेकर ही आपको महल में प्रवेश की इजाजत मिलेगी। लाल पत्थरों से सुसज्जित इस भव्य प्रांगण में प्रवेश करते ही आपको हर तरफ भारतीय सभ्यता और संस्कृति की झलक मिलेगी। जोधाबाई का महल बेहद खूबसूरत दो मंजिला इमारत है। यह महल न केवल भव्य है, बल्कि स्थापत्य कला और विज्ञान का बेजोड़ मिश्रण है। महल का डिजाइन इस तरह बनाया गया है कि गर्मी और सर्दी में रहने के लिए अलग-अलग आरामगाह हैं। इन आरामगाह को शरद विलास और ग्रीष्म विलास कहते हैं। सूर्य के विचरण की गणना और हवाओं के रुख के अनुसार इसका निर्माण किया गया है ताकि एक हिस्सा गर्म और दूसरा हिस्सा शीतलता प्रदान करे।  
महल के अंदर ही आपको दीवान-ए-खास, दीवान-ए-आम, अनूप तालाब, हरमसरा यानि अस्तबल, बीरबल का महल, मरियम का घर, पंचमहल, ज्योतिषी का स्थान, खजाना घर, तुर्की सुल्ताना का मकान, मदरसा, ख्वाबगाह, संग्रहालय, कारखाना और नौबतखाना देखने को मिलेगा। इन स्थानों पर आपको मुगल दरबार की भव्यता और सुनियोजित क्रिया कलापों का नमूना देखने को मिलेगा।  अकबर के जिन नौ रत्नों के बारे में आपने सुना या पढ़ा होगा उनके अस्तित्व से भी यहां आप रूबरू हो सकेंगे। तानसेन जहां बैठकर अपना कार्यक्रम देते थे वह अनूप तालाब भी यहां आप देख सकेंगे। यहीं आपको एक छोटी सी जगह भी देखने को मिलेगी जिसे अब आंख मिचौली कहा जाता है। हालांकि यह असल में खजाना था। तीन कमरों वाला यह भवन जो  गलती से अब आंख मिचौली कहा जाता है वास्तव में सोने और चांदी के सिक्कों का राजकीय कोष था। इस भवन का डिजाइन मूल रूप से पश्चिमी भारत के प्राचीन जैन मंदिर से काफी मिलता है। इसी के बगल में आपको खजाने की छतरी नाम का स्थान मिलेगा। इसे ज्योतिषी की बैठक भी बोला जाता है। कहा जाता है कि अकबर को ज्योतिषी गणना पर काफी विश्वास था। इसकी मेहराबें मुगल स्थापत्य कला का बेजोड़ नमुना है। दीवान-ए-खास और ख्वाबगाह ....... लाल पत्थरों पर सुंदर नक्काशी से सुसज्जित यह जगह मुगल शासकों का सबसे अहम स्थान था। कहा जाता है कि सम्राट अकबर यहां अपनी रानियों के साथ क्रिड़ा करते थे। बादशाह के ख्वाबगाह तक जाने का भी आपको मौका मिलेगा। यह इस तरह से और इस ऊंचाई पर बना था कि अगर किसी दुश्मन ने तलवार से हमला किया तो वह बादशाह तक नहीं पहुंच सकता था। पूजा घर और रसोई......
इस महल के अंदर आपको जोधाबाई की रसोई और पूजा घर भी नजर आएगा। कृष्ण भक्त जोधाबाई ने महल के अंदर अपनी नियमित पूजा पाठ के लिए भव्य पूजा घर बनवाया था। पूजाघर में कृष्ण लीलाओं से जुड़े आपको चित्र दीवारों पर उकेरे मिल जाएंगे। वक्त के साथ चित्र धुंधले पड़ गए हैं। अंग्रेजों ने भी इस किले को काफी नुकसान पहुंचाया। यहां लगे बेसकीमती हीरे जवाहरातों को वे निकाल ले गए। पर दीवारों और खंभों पर मौजूद पत्थरकारी आज भी आपका मन मोह लेंगे। इन खंभों पर पुरातन हिन्दू सभ्यता और संस्कृति के प्रतीक आपको नजर आएंगे। महल के बीचों बीच विशाल प्रांगण में तुलसी का चबूतरा आज भी मौजूद है। कहा जाता है कि प्रतिदिन महारानी जोधाबाई यहां मां तुलसी की पूजा करती थीं। महल के संपूर्ण डिजाइन में आपको भारत के प्राचीन मंदिरों की प्रतिमूर्ति नजर आएगी। मरीयम की कोठी..... इसी प्रांगण में आपको मरीयम की कोठी भी नजर आएगी। यहीं से एक बार फिर आपको जोधाबाई और मरियम में द्वंद नजर आएगा। जोधाबाई के अस्तित्व को नकारने वाले इतिहासकार इसे पूर्तगाली महिला डोना मारिया मास्करेन्हस से जोड़ते हैं। इसी पुर्तगाली महिला को जोधाबाई और उनके खिताब मरियम उज जमानी से जोड़ते हैं। पर कोठी के बाहर छोटी सी मांसाहारी रसोई इन दावों को दरकिनार करती है। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि यह संभव है कि अकबर के हरम में एक पूर्तगाली महिला रही होगी, जिसका नाम डोना मारिया हो सकता है। अकबर ने सभी धर्मों को साथ लेकर चलने की अपनी नीति पर अमल किया। बहुत संभव है कि मरियम को भी अकबर ने जोधाबाई की तरह अपना पृथक धर्म अपनाने की छूट दी होगी। इसीलिए उनकी कोठी और रसोई भी अलग रही होगी। लंबे समय से जोधाबाई पर बहस चलती आ रही है और संभव है आने वाले समय में भी उनके अस्तित्व पर बहस होती रहेगी। अगर मैं फतेहपुर सिकरी नहीं आता तो शायद मैं भी इतिहास के भूल भुलैया में भटकता रहता। पर मुगल काल की इस जीवंत निशानी को देखकर अब एक बात मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि मुगल बादशाह अकबर के जीवन में एक हिन्दू रानी का बहुत प्रभाव था। उस हिन्दू रानी का नाम हीरा कंवर रहा हो या हरखा बाई। इतिहास उसे मरियम उज जमानी के नाम से याद रखे या जोधाबाई या किसी और नाम से। इस बहस में पड़े बगैर मैं यह स्वीकारने पर मजबूर हूं कि हां मुगल सम्राट अकबर की एक हिन्दू धर्म पत्नी थीं, जिन्होंने मुगल काल में अपने धर्म से समझौता किए बगैर न केवल महारानी का सुख पाया, बल्कि उस महान महिला ने मुगल काल में भी हिन्दु धर्म को वही सम्मान दिलाया जो उसकी पौराणिक परंपरा रही है। भारत में कट्टर मुसलमान शासकों के दौर में एक हिन्दू महारानी भी थीं जिन्होंने अपने विचारों और कर्मों से हिन्दुत्व की मसाल जलाये रखी।  

Tuesday, March 14, 2023

बागेश्वर धाम की यात्रा

बागेश्वर धाम का मुख्य मंदिर 

इन दिनों हर तरफ बागेश्वर धाम की चर्चा है। मेरी मां और बुआ दोनों बागेश्वर धाम वाले स्वामी धीरेंद्र शास्त्री को यू-ट्यूब पर फॉलो करती हैं। असर इतना अधिक है कि हर हाल में उनसे मिलना चाहती हैं। खैर मुलाकात अभी नहीं हुई है। पर इन दोनों को बागेश्वर धाम की यात्रा कराने की जिम्मेदारी मेरे ऊपर आई। 

दिसंबर के अंतिम सप्ताह में मां और बुआ दोनों नोएडा में ही थीं। पहले मैंने गाड़ी से चलने के लिए कहा, लेकिन मां ने मना कर दिया। इतनी दूर अकेले गाड़ी चलाकर कैसे चलोगे। हालांकि आपको बता दूं कि नोएडा से बागेश्वर धाम की दूरी करीब छह सौ किलोमीटर ही है। पर वहां पहुंचने में आपको आठ से नौ घंटे लग जाएंगे। खैर मां से बहस हम भाई-बहनों के बस में नहीं है। तय हुआ कि ट्रेन से चलेंगे। अगर आप दिल्ली-एनसीआर के किसी शहर से बागेश्वर धाम जाना चाहते हैं तो ट्रेन बेहतर विकल्प है। कम पैसे में आप आराम से पहुंच सकते हैं। विमान यात्रा का विकल्प भी आपके पास मौजूद है। आप दिल्ली से खजुराहो की सीधी फ्लाइट ले सकते हैं।

कुरुक्षेत्र से प्रतिदिन खजुराहो के लिए ट्रेन चलती है। ट्रेन नंबर 11842  को आप दिल्ली के सब्जी मंडी रेलवे स्टेशन, नई दिल्ली रेलवे स्टेशन या हजरत निजामुद्दीन स्टेशन से पकड़ सकते हैं। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से यह ट्रेन शाम छह बजे खुलती है। यह आपको दूसरे दिन सुबह आठ बजे खजुराहो पहुंचा देगी। आप चाहें तो छतरपुर में भी सुबह छह बजे उतर सकते हैं। अगर आपके पास पर्याप्त समय है तो खजुराहो एक बेहतर पर्यटन स्थल है। यहां से आगे आप पन्ना राष्ट्रीय उद्यान भी जाने का कार्यक्रम बना सकते हैं। केंद्र सरकार ने इसे वर्ष 1994 में टाइगर रिजर्व घोषित किया था। बागेश्वर धाम मंदिर खजुराहो और  छतरपुर के बीच में पड़ता है। आप अपनी सुविधा के अनुसार या तो छतरपुर में रूक सकते हैं या खजुराहो। हमने तय किया कि हम खजुराहो में रुकेंगे। कारण स्पष्ट था। छतरपुर भले ही जिला मुख्यालय है, लेकिन अच्छे होटल के मामले में खजुराहो बेहतर विकल्प है।

यात्रा का दिन तय हुआ। ट्रेन यात्रा के लिए हमारा रिजर्वेशन हो गया। पर ट्रेन यात्रा के ठीक एक दिन पहले रविवार को छोटे चाचा का घर आगमन हुआ। वो मां-पापा से मिलने आए थे। बातों ही बातों में मां ने बागेश्वर धाम यात्रा के बारे में उन्हें बताया। अब वो भी मंदिर जाने की यात्रा में शामिल हो गए। यात्रा के एक दिन पहले ट्रेन का टिकट कहां से मिलता। तय हुआ गाड़ी से ही चलेंगे। मां ने भी गाड़ी से न जाने की अपनी जिद त्यागी, क्योंकि चाचा भी ड्राइव कर सकते थे। 

हमलोग सोमवार की सुबह नोएडा से सुबह निकल गए। रात में ही सड़क मार्ग का मैप दिमाग में उतार लिया था। दिल्ली-एनसीआर से बागेश्वर धाम जाने के लिए सड़क मार्ग से आपके पास दो विकल्प हैं। पहला विकल्प जो काफी पुराना है, वो आगरा से ग्वालियर और झांसी होते हुए है। यह रास्ता भी नेशनल हाईवे है, लेकिन इस पर काफी अधिक ट्रैफिक है। दूसरा विकल्प जो हमने चुना वो था तीन एक्सप्रेस हाईवे होकर। 

दिल्ली से यमुना एक्सप्रेस हाईवे, आगरा से लखनऊ एक्सप्रेस हाईवे और बुंदेलखंड एक्सप्रेस हाईवे। आगरा से लखनऊ एक्सप्रेस हाईवे पर आगे बढ़ने पर करहल और सैफई को क्रॉस करेंगे तो आगे आपको बुंदेलखंड एक्सप्रेस हाईवे का साइन बोर्ड नजर आएगा। अगर आप बुंदेलखंड एक्सप्रेस वे से यात्रा करने की सोच रहे हैं तो आपके लिए दो महत्वपूर्ण सलाह। 

पहला... यमुना एक्सप्रेस-वे से लखनऊ एक्सप्रेस-वे पर आते ही आप गुगल मैप लगा लें। मैप में खजुराहो टाइप करें। क्योंकि अगर आपने लखनऊ एक्सप्रेस-वे से बुंदेलखंड एक्सप्रेस-वे का कट मिस कर दिया तो लंबे चक्कर में पड़ सकते हैं। 

दूसरी महत्वपूर्ण सलाह... बुंदेलखंड एक्सप्रेसवे पर चढ़ने से पहले अपनी गाड़ी में तेल का लेवल चेक कर लें। नहीं तो बड़ी मुसीबत में पड़ सकते हैं। बुंदेलखंड एक्सप्रेस वैसे तो पूरी तरह चालू हो चुका है, लेकिन यात्री सुविधा अभी यहां बिल्कुल शुन्य है। बुंदेलखंड एक्सप्रेस वे पर 300 किलोमीटर तक आपको न तो एक भी पेट्रोल पंप मिलेगा और न ही कोई ढ़ाबा या रेस्टोरेंट। हमने बुंदेलखंड एक्सप्रेस शुरू होने से कुछ ही किलोमीटर पहले लखनऊ एक्सप्रेस-वे के पेट्रोल पंप पर टंकी फुल करवा ली थी। 

बुंदेलखंड एक्सप्रेस वे पर करीब दो सौ किलोमिटर चलने के बाद आपको झांसी-मिराजपुर हाईवे पर आना होगा। यह हाईवे वैसे तो अच्छा बना है, लेकिन अपको यहां से करीब एक सौ दस किलोमीटर की यात्रा काफी ट्रैफिक वाले रोड पर करनी होगी। गुगल मैप की यहां आपको जरूरत पड़ेगी। हालांकि कई बार यह आपको शार्टकार्ट रास्ता भी दिखाएगा। पर आप सीधा रास्ता ही लें। अगर कहीं आपको लगता है कि रास्ता समझ में नहीं आ रहा है स्थानीय दुकानदारों की आप मदद ले सकते हैं। सभी लोगों को बागेश्वर धाम के बारे में पता होगा। 

करीब नौ घंटे की यात्रा कर हम शाम में पांच बजे छतरपुर पहुंचे। हमने खजुराहो रुकने का मन बनाया था, वहां के एक होटल में बात भी कर ली थी। बुकिंग नहीं कराई थी, क्योंकि इस वक्त पर्यटन सीजन नहीं था, और न ही स्वामी धीरेंद्र शास्त्री बागेश्वर धाम में थे। एक और सलाह। अगर धीरेंद्र शास्त्री बागेश्वर धाम में हैं और आप उन दिनों वहां जाने का कार्यक्रम बना रहे हैं तो छतरपुर या खजुराहो के होटल में प्री-बुकिंग करवाकर ही जाना बेहतर विकल्प है।

हमीरगढ़ी हेरिटेज होटल के बाहर मां, चाचा और बुआ। 

खैर हमने बुकिंग तो करवाई नहीं थी, ऐसे में चाचा जी ने रास्ते में और भी विकल्प देखना शुरू किया। और उन्हें मिली छतरपुर रजवाड़े की एक ऐतिहासिक हवेली। इस हवेली को छतरपुर महाराज ने अपने ऐशगाह के रूप में बनवाया था। छतरपुर और खजुराहो के बीच में बसारी नाम के गांव में यह हवेली पड़ती है। होटल का नाम है हमीरगढ़ी हेरिटेज रिसोर्ट। कई एकड़ में फैले इस हवेली के एक हिस्से को हेरिटेज होटल में तब्दील कर दिया गया है। यह जगह डेस्टिनेशन वेडिंग के लिए बेहद उपयुक्त है। 

एक तो ऑफ सीजन ऊपर से धीरेंद्र शास्त्री का बागेश्वर धाम में न होना हमारे लिए अच्छा हुआ। चाचा जी ने मोल भाव किया और हमें बेहद किफायती दर पर कमरे मिल गए। रात में हमने शुद्ध सात्वीक भोजन का आनंद लिया। हमें गांव का शुद्ध दूध भी उपलब्ध करवाया गया। दिन भर की ड्राइविंग के बाद थकान से हमें तुरंत नींद आ गई। 

दूसरे दिन हमने अहले सुबह तैयार होकर होटल छोड़ दिया। करीब आठ बजे हम बागेश्वर धाम मंदिर के पास पहुंच गए। दरअसल हमारे होटल से मंदिर की दूरी महज छह किलोमीटर थी। छतरपुर से खजुराहो तक छह लेन का शानदार हाईवे है। इसी हाईवे से गड़ा गांव का रास्ता कटा है, जहां बागेश्वर धाम मंदिर स्थित है। 

यह जगह मध्यप्रदेश के सबसे पिछड़े इलाकों में आता है। ऐसे में आप अभी यहां बहुत अधिक सुविधाओं की उम्मीद लेकर न जाएं। आपको हाइवे छोड़ते ही छोटी बड़ी गाड़ियों की भीड़, पैदल चल रहे लोगों का रेला नजर आने लगेगा। बड़ी-बड़ी बसों और ट्रक में भी भरकर हजारों श्रद्धालु यहां पहुंच रहे हैं। हालांकि बड़ी बसों और ट्रकों को हाइवे पर ही रोक दिया जाता है। क्योंकि गांव का रास्ता सिंगल लेन है।

गड़ा गांव का एक घर।

हाईवे से करीब पांच किलोमीटर अंदर जाकर आपको पार्किंग नजर आएगी। इसको लेकर काफी विवाद भी चल रहा है। स्थानीय ग्रामीणों का आरोप है कि मंदिर कमेटी जबरन उनके जमीनों पर कब्जा कर रही है। अभी यह विवाद कोर्ट कचहरी तक पहुंचा हुआ है। पार्किंग से भी आपको करीब दो किलोमीटर पैदल चलना पड़ेगा। गांव की गलियों से होते हुए आप मंदिर परिसर तक पहुंचते हैं। गांव के पूरे रास्ते पर आपको हर तरफ छोटी-छोटी दुकानें नजर आएंगी। ये दुकानें वैसी ही हैं जैसा की किसी भी धार्मिक स्थल के आस-पास नजर आती हैं। प्रसाद के दुकान भी भरे पड़े हैं। नारियल, लाल कपड़ा, काला कपड़ा और पीला कपड़ा आपको सभी जगह बिकता नजर आएगा। छोटे-छोटे बच्चों को भी रोजगार मिल गया है। हर श्रद्धालु को वो जय बजरंबली का टीका लगाते नजर आएंगे। टीका के बदले श्रद्धालु उन्हें दस पांच रुपये देते नजर आए।

दूर से आने वाले लोगों के लिए स्थानीय गांव वालों ने अपने घर के बाहर ही स्नान ध्यान की व्यवस्था कर रखी है। इसके बदले आपको कुछ रकम चुकानी होगी। सार्वजनिक शौचालय आपको कहीं नजर नहीं आएगा। कुछ जगह स्थायी रूप से कमरे भी बना दिए गए हैं। जो श्रद्धालु यहां रुकना चाहते हैं वो निश्चित किराया देकर रुक सकते हैं। कुछ समय बाद इस गांव में अच्छे होटल नजर आने लगे तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। 

कुछ गांव वालों से बात करने का मुझे मौका मिला। उनमें संतोष भी था और गुस्सा भी। गांव वालों का आरोप है कि मंदिर से जुड़े लोग काफी दबंग हैं। अपनी दबंगई के बल पर वो स्थानीय ग्रामीणों के जमीनों पर अपनी सुविधा के लिए कब्जा कर रहे हैं। संतोष इस बात से है कि इतने पिछड़े इलाके में दो से तीन साल में आय के असीमित साधन उत्पन्न हो गए हैं। 

मिठाई की दुकान, चाय समोसे की दुकान, फूल पत्तों से लेकर नारियल और कपड़ों की दुकान आपको हर तरफ दुकान ही दुकान नजर आएंगे। मेरी मां और बुआ जहां से प्रसाद ले रही थी उस दुकानदार से बात करने का मौका मिला। उन्होंने अपना नाम प्रमोद बताया। प्रमोद का पूरा परिवार सूरत में था। एक कपड़ा फैक्टरी में दस घंटे की नौकरी करता था, महीने का करीब 18 हजार कमाता था। पत्नी कुछ घरों में काम करके छह हजार कमाती थी। जैसे-तैसे जिंदगी चल रही थी। कोरोना के समय लॉकडाउन में गांव आ गया। समझ में नहीं आ रहा था जिंदगी कैसे चलेगी।

झोपड़ीनुमा दुकानें आपको हर तरफ नजर आएंगी।

मंदिर से करीब पांच किलोमीटर दूर प्रमोद का गांव है। अब उन्होंने  मंदिर के पास ही एक स्थानीय ग्रामीण से किराये पर जमीन ले ली है। झोपड़ी डालकर पत्नी के साथ प्रसाद बेचने का काम कर रहे हैं। उन्होंने अपने यहां दो हलवाई और दो हेल्पर भी रखे हैं। हर मंगलवार और शनिवार को ही इतनी कमाई हो जाती है जितनी सूरत में महीने भर में कमाते थे। वो बताते हैं अगर स्वामी धीरेंद्र शस्त्री मंदिर में रहते हैं तो हर दिन भीड़ रहती है, नहीं तो मंगलवार और शनिवार को अधिक भीड़ होती है।  

हम भी मंगलवार की सुबह पहुंचे थे। स्वामी धीरेंद्र शास्त्री के वहां नहीं होने के बावजूद हजारों लोगों की भीड़ थी। एक दूसरे को धक्का मारते हुए लोग आगे बढ़ रहे थे। भीड़ को नियंत्रित करने के लिए हालांकि पुलिस मौजूद थी, पर वो मंदिर परिसर के अंदर थी। बाहर क्या हो रहा है, या क्या हो सकता है इससे किसी को मलतब नहीं था। मुख्य मंदिर तक पहुंचते-पहुंचते हमें करीब डेढ़ घंटा लग गया। 

पूरे मंदिर परिसर में आपको इस तरह लाल कपड़े में नारियल बंधे नजर आएंगे।

अगर आप कोई मन्नत मांगते हैं या फिर आपकी कोई मन्नत पूरी हो जाती है तो वहां लाल कपड़े में नारियल चढ़ाने की प्रथा है। आपको पूरे मंदिर परिसर की रेलिंग पर लाल कपड़ों में बंधे नारियल नजर आएंगे। कुछ जगह काले और पीले कपड़ों में भी नारियल बंधे हैं। स्थानीय लोगों का कहना  है कि प्रेत आत्माओं से जुड़ी मान्यताओं के लिए काले-पीले कपड़े का चलन है।

मुख्य द्वार से अंदर आने के साथ ही आपको एक पेड़ नजर आएगा, इसे लोगों ने प्रेत वृक्ष का नाम दे रखा है। यहां भी कुछ लोग जप तप में नजर आ जाएंगे। मान्यता है कि प्रेत आत्माओं को इसी पेड़ पर आसरा मिलता है। पुलिस की व्यवस्था यहीं आपको नजर आएगी। बैरिकेडिंग कर श्रद्धालुओं को यहां से एक-एक कर आगे जाने दिया जा रहा था। ताकि मुख्य मंदिर के सामने एक साथ अधिक भीड़ न हो।  

मंदिर परिसर में इसी विशाल वृक्ष को प्रेत वृक्ष बोला जाता है।  

जहां मुख्य मंदिर है वो छोटे से पहाड़ पर है। हनुमान जी की मूर्ति को आप दूर से ही देख सकते हैं और प्रणाम कर सकते हैं। मंदिर के बाहर प्लास्टिक की पारदर्शी शीट लगी थी। एक पुजारी ने बताया कि लोग सिक्के और फूल दूर से फेंक देते थे। उसी से बचाव के लिए ऐसा किया गया है। मंदिर में दर्शन करने के बाद आप दूसरी तरफ से बाहर आते हैं। 

मां और बुआ की सख्त हिदायत के मद्देनजर सुबह से पेट में अन्न का एक दाना नहीं गया था। दर्शन करने के बाद वहीं झोपड़ी नुमा होटल में हमने गरमा गरम समोसे और चाय का लुत्फ उठाया। मां और बुआ ने दुकानदार से सख्ती से पूछ लिया था कि इसमें प्याज और लहसून तो नहीं। दुकानदार ने कहा, मां जी हमें पाप लगेगा अगर हमने प्याज और लहसून डाला तो, बजरंग बली तुरंत सजा दे देते हैं। आश्वासन मिलने के बाद ही मां और बुआ ने समोसा खाया। खाते वक्त भी समोसे के आलूओं पर दोनों की करीबी निगाह थी। आसपास लगी दुकानों से कुछ खरीदारी भी हुई।

करीब 12 बजे हम वहां से नोएडा के लिए निकल पड़े। रास्ता एक बार फिर हमने बुंदेलखंड एक्सप्रेस वाला ही लिया। आठ घंटे की ड्राइव के बाद हम नोएडा में थे।