बागेश्वर धाम का मुख्य मंदिर |
दिसंबर के अंतिम सप्ताह में मां और बुआ दोनों नोएडा में ही थीं। पहले मैंने गाड़ी से चलने के लिए कहा, लेकिन मां ने मना कर दिया। इतनी दूर अकेले गाड़ी चलाकर कैसे चलोगे। हालांकि आपको बता दूं कि नोएडा से बागेश्वर धाम की दूरी करीब छह सौ किलोमीटर ही है। पर वहां पहुंचने में आपको आठ से नौ घंटे लग जाएंगे। खैर मां से बहस हम भाई-बहनों के बस में नहीं है। तय हुआ कि ट्रेन से चलेंगे। अगर आप दिल्ली-एनसीआर के किसी शहर से बागेश्वर धाम जाना चाहते हैं तो ट्रेन बेहतर विकल्प है। कम पैसे में आप आराम से पहुंच सकते हैं। विमान यात्रा का विकल्प भी आपके पास मौजूद है। आप दिल्ली से खजुराहो की सीधी फ्लाइट ले सकते हैं।
कुरुक्षेत्र से प्रतिदिन खजुराहो के लिए ट्रेन चलती है। ट्रेन नंबर 11842 को आप दिल्ली के सब्जी मंडी रेलवे स्टेशन, नई दिल्ली रेलवे स्टेशन या हजरत निजामुद्दीन स्टेशन से पकड़ सकते हैं। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से यह ट्रेन शाम छह बजे खुलती है। यह आपको दूसरे दिन सुबह आठ बजे खजुराहो पहुंचा देगी। आप चाहें तो छतरपुर में भी सुबह छह बजे उतर सकते हैं। अगर आपके पास पर्याप्त समय है तो खजुराहो एक बेहतर पर्यटन स्थल है। यहां से आगे आप पन्ना राष्ट्रीय उद्यान भी जाने का कार्यक्रम बना सकते हैं। केंद्र सरकार ने इसे वर्ष 1994 में टाइगर रिजर्व घोषित किया था। बागेश्वर धाम मंदिर खजुराहो और छतरपुर के बीच में पड़ता है। आप अपनी सुविधा के अनुसार या तो छतरपुर में रूक सकते हैं या खजुराहो। हमने तय किया कि हम खजुराहो में रुकेंगे। कारण स्पष्ट था। छतरपुर भले ही जिला मुख्यालय है, लेकिन अच्छे होटल के मामले में खजुराहो बेहतर विकल्प है।
यात्रा का दिन तय हुआ। ट्रेन यात्रा के लिए हमारा रिजर्वेशन हो गया। पर ट्रेन यात्रा के ठीक एक दिन पहले रविवार को छोटे चाचा का घर आगमन हुआ। वो मां-पापा से मिलने आए थे। बातों ही बातों में मां ने बागेश्वर धाम यात्रा के बारे में उन्हें बताया। अब वो भी मंदिर जाने की यात्रा में शामिल हो गए। यात्रा के एक दिन पहले ट्रेन का टिकट कहां से मिलता। तय हुआ गाड़ी से ही चलेंगे। मां ने भी गाड़ी से न जाने की अपनी जिद त्यागी, क्योंकि चाचा भी ड्राइव कर सकते थे।
हमलोग सोमवार की सुबह नोएडा से सुबह निकल गए। रात में ही सड़क मार्ग का मैप दिमाग में उतार लिया था। दिल्ली-एनसीआर से बागेश्वर धाम जाने के लिए सड़क मार्ग से आपके पास दो विकल्प हैं। पहला विकल्प जो काफी पुराना है, वो आगरा से ग्वालियर और झांसी होते हुए है। यह रास्ता भी नेशनल हाईवे है, लेकिन इस पर काफी अधिक ट्रैफिक है। दूसरा विकल्प जो हमने चुना वो था तीन एक्सप्रेस हाईवे होकर।
दिल्ली से यमुना एक्सप्रेस हाईवे, आगरा से लखनऊ एक्सप्रेस हाईवे और बुंदेलखंड एक्सप्रेस हाईवे। आगरा से लखनऊ एक्सप्रेस हाईवे पर आगे बढ़ने पर करहल और सैफई को क्रॉस करेंगे तो आगे आपको बुंदेलखंड एक्सप्रेस हाईवे का साइन बोर्ड नजर आएगा। अगर आप बुंदेलखंड एक्सप्रेस वे से यात्रा करने की सोच रहे हैं तो आपके लिए दो महत्वपूर्ण सलाह।
पहला... यमुना एक्सप्रेस-वे से लखनऊ एक्सप्रेस-वे पर आते ही आप गुगल मैप लगा लें। मैप में खजुराहो टाइप करें। क्योंकि अगर आपने लखनऊ एक्सप्रेस-वे से बुंदेलखंड एक्सप्रेस-वे का कट मिस कर दिया तो लंबे चक्कर में पड़ सकते हैं।
दूसरी महत्वपूर्ण सलाह... बुंदेलखंड एक्सप्रेसवे पर चढ़ने से पहले अपनी गाड़ी में तेल का लेवल चेक कर लें। नहीं तो बड़ी मुसीबत में पड़ सकते हैं। बुंदेलखंड एक्सप्रेस वैसे तो पूरी तरह चालू हो चुका है, लेकिन यात्री सुविधा अभी यहां बिल्कुल शुन्य है। बुंदेलखंड एक्सप्रेस वे पर 300 किलोमीटर तक आपको न तो एक भी पेट्रोल पंप मिलेगा और न ही कोई ढ़ाबा या रेस्टोरेंट। हमने बुंदेलखंड एक्सप्रेस शुरू होने से कुछ ही किलोमीटर पहले लखनऊ एक्सप्रेस-वे के पेट्रोल पंप पर टंकी फुल करवा ली थी।
बुंदेलखंड एक्सप्रेस वे पर करीब दो सौ किलोमिटर चलने के बाद आपको झांसी-मिराजपुर हाईवे पर आना होगा। यह हाईवे वैसे तो अच्छा बना है, लेकिन अपको यहां से करीब एक सौ दस किलोमीटर की यात्रा काफी ट्रैफिक वाले रोड पर करनी होगी। गुगल मैप की यहां आपको जरूरत पड़ेगी। हालांकि कई बार यह आपको शार्टकार्ट रास्ता भी दिखाएगा। पर आप सीधा रास्ता ही लें। अगर कहीं आपको लगता है कि रास्ता समझ में नहीं आ रहा है स्थानीय दुकानदारों की आप मदद ले सकते हैं। सभी लोगों को बागेश्वर धाम के बारे में पता होगा।
करीब नौ घंटे की यात्रा कर हम शाम में पांच बजे छतरपुर पहुंचे। हमने खजुराहो रुकने का मन बनाया था, वहां के एक होटल में बात भी कर ली थी। बुकिंग नहीं कराई थी, क्योंकि इस वक्त पर्यटन सीजन नहीं था, और न ही स्वामी धीरेंद्र शास्त्री बागेश्वर धाम में थे। एक और सलाह। अगर धीरेंद्र शास्त्री बागेश्वर धाम में हैं और आप उन दिनों वहां जाने का कार्यक्रम बना रहे हैं तो छतरपुर या खजुराहो के होटल में प्री-बुकिंग करवाकर ही जाना बेहतर विकल्प है।
हमीरगढ़ी हेरिटेज होटल के बाहर मां, चाचा और बुआ। |
खैर हमने बुकिंग तो करवाई नहीं थी, ऐसे में चाचा जी ने रास्ते में और भी विकल्प देखना शुरू किया। और उन्हें मिली छतरपुर रजवाड़े की एक ऐतिहासिक हवेली। इस हवेली को छतरपुर महाराज ने अपने ऐशगाह के रूप में बनवाया था। छतरपुर और खजुराहो के बीच में बसारी नाम के गांव में यह हवेली पड़ती है। होटल का नाम है हमीरगढ़ी हेरिटेज रिसोर्ट। कई एकड़ में फैले इस हवेली के एक हिस्से को हेरिटेज होटल में तब्दील कर दिया गया है। यह जगह डेस्टिनेशन वेडिंग के लिए बेहद उपयुक्त है।
एक तो ऑफ सीजन ऊपर से धीरेंद्र शास्त्री का बागेश्वर धाम में न होना हमारे लिए अच्छा हुआ। चाचा जी ने मोल भाव किया और हमें बेहद किफायती दर पर कमरे मिल गए। रात में हमने शुद्ध सात्वीक भोजन का आनंद लिया। हमें गांव का शुद्ध दूध भी उपलब्ध करवाया गया। दिन भर की ड्राइविंग के बाद थकान से हमें तुरंत नींद आ गई।
दूसरे दिन हमने अहले सुबह तैयार होकर होटल छोड़ दिया। करीब आठ बजे हम बागेश्वर धाम मंदिर के पास पहुंच गए। दरअसल हमारे होटल से मंदिर की दूरी महज छह किलोमीटर थी। छतरपुर से खजुराहो तक छह लेन का शानदार हाईवे है। इसी हाईवे से गड़ा गांव का रास्ता कटा है, जहां बागेश्वर धाम मंदिर स्थित है।
यह जगह मध्यप्रदेश के सबसे पिछड़े इलाकों में आता है। ऐसे में आप अभी यहां बहुत अधिक सुविधाओं की उम्मीद लेकर न जाएं। आपको हाइवे छोड़ते ही छोटी बड़ी गाड़ियों की भीड़, पैदल चल रहे लोगों का रेला नजर आने लगेगा। बड़ी-बड़ी बसों और ट्रक में भी भरकर हजारों श्रद्धालु यहां पहुंच रहे हैं। हालांकि बड़ी बसों और ट्रकों को हाइवे पर ही रोक दिया जाता है। क्योंकि गांव का रास्ता सिंगल लेन है।
गड़ा गांव का एक घर। |
हाईवे से करीब पांच किलोमीटर अंदर जाकर आपको पार्किंग नजर आएगी। इसको लेकर काफी विवाद भी चल रहा है। स्थानीय ग्रामीणों का आरोप है कि मंदिर कमेटी जबरन उनके जमीनों पर कब्जा कर रही है। अभी यह विवाद कोर्ट कचहरी तक पहुंचा हुआ है। पार्किंग से भी आपको करीब दो किलोमीटर पैदल चलना पड़ेगा। गांव की गलियों से होते हुए आप मंदिर परिसर तक पहुंचते हैं। गांव के पूरे रास्ते पर आपको हर तरफ छोटी-छोटी दुकानें नजर आएंगी। ये दुकानें वैसी ही हैं जैसा की किसी भी धार्मिक स्थल के आस-पास नजर आती हैं। प्रसाद के दुकान भी भरे पड़े हैं। नारियल, लाल कपड़ा, काला कपड़ा और पीला कपड़ा आपको सभी जगह बिकता नजर आएगा। छोटे-छोटे बच्चों को भी रोजगार मिल गया है। हर श्रद्धालु को वो जय बजरंबली का टीका लगाते नजर आएंगे। टीका के बदले श्रद्धालु उन्हें दस पांच रुपये देते नजर आए।
दूर से आने वाले लोगों के लिए स्थानीय गांव वालों ने अपने घर के बाहर ही स्नान ध्यान की व्यवस्था कर रखी है। इसके बदले आपको कुछ रकम चुकानी होगी। सार्वजनिक शौचालय आपको कहीं नजर नहीं आएगा। कुछ जगह स्थायी रूप से कमरे भी बना दिए गए हैं। जो श्रद्धालु यहां रुकना चाहते हैं वो निश्चित किराया देकर रुक सकते हैं। कुछ समय बाद इस गांव में अच्छे होटल नजर आने लगे तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
कुछ गांव वालों से बात करने का मुझे मौका मिला। उनमें संतोष भी था और गुस्सा भी। गांव वालों का आरोप है कि मंदिर से जुड़े लोग काफी दबंग हैं। अपनी दबंगई के बल पर वो स्थानीय ग्रामीणों के जमीनों पर अपनी सुविधा के लिए कब्जा कर रहे हैं। संतोष इस बात से है कि इतने पिछड़े इलाके में दो से तीन साल में आय के असीमित साधन उत्पन्न हो गए हैं।
मिठाई की दुकान, चाय समोसे की दुकान, फूल पत्तों से लेकर नारियल और कपड़ों की दुकान आपको हर तरफ दुकान ही दुकान नजर आएंगे। मेरी मां और बुआ जहां से प्रसाद ले रही थी उस दुकानदार से बात करने का मौका मिला। उन्होंने अपना नाम प्रमोद बताया। प्रमोद का पूरा परिवार सूरत में था। एक कपड़ा फैक्टरी में दस घंटे की नौकरी करता था, महीने का करीब 18 हजार कमाता था। पत्नी कुछ घरों में काम करके छह हजार कमाती थी। जैसे-तैसे जिंदगी चल रही थी। कोरोना के समय लॉकडाउन में गांव आ गया। समझ में नहीं आ रहा था जिंदगी कैसे चलेगी।
झोपड़ीनुमा दुकानें आपको हर तरफ नजर आएंगी। |
मंदिर से करीब पांच किलोमीटर दूर प्रमोद का गांव है। अब उन्होंने मंदिर के पास ही एक स्थानीय ग्रामीण से किराये पर जमीन ले ली है। झोपड़ी डालकर पत्नी के साथ प्रसाद बेचने का काम कर रहे हैं। उन्होंने अपने यहां दो हलवाई और दो हेल्पर भी रखे हैं। हर मंगलवार और शनिवार को ही इतनी कमाई हो जाती है जितनी सूरत में महीने भर में कमाते थे। वो बताते हैं अगर स्वामी धीरेंद्र शस्त्री मंदिर में रहते हैं तो हर दिन भीड़ रहती है, नहीं तो मंगलवार और शनिवार को अधिक भीड़ होती है।
हम भी मंगलवार की सुबह पहुंचे थे। स्वामी धीरेंद्र शास्त्री के वहां नहीं होने के बावजूद हजारों लोगों की भीड़ थी। एक दूसरे को धक्का मारते हुए लोग आगे बढ़ रहे थे। भीड़ को नियंत्रित करने के लिए हालांकि पुलिस मौजूद थी, पर वो मंदिर परिसर के अंदर थी। बाहर क्या हो रहा है, या क्या हो सकता है इससे किसी को मलतब नहीं था। मुख्य मंदिर तक पहुंचते-पहुंचते हमें करीब डेढ़ घंटा लग गया।
पूरे मंदिर परिसर में आपको इस तरह लाल कपड़े में नारियल बंधे नजर आएंगे। |
अगर आप कोई मन्नत मांगते हैं या फिर आपकी कोई मन्नत पूरी हो जाती है तो वहां लाल कपड़े में नारियल चढ़ाने की प्रथा है। आपको पूरे मंदिर परिसर की रेलिंग पर लाल कपड़ों में बंधे नारियल नजर आएंगे। कुछ जगह काले और पीले कपड़ों में भी नारियल बंधे हैं। स्थानीय लोगों का कहना है कि प्रेत आत्माओं से जुड़ी मान्यताओं के लिए काले-पीले कपड़े का चलन है।
मुख्य द्वार से अंदर आने के साथ ही आपको एक पेड़ नजर आएगा, इसे लोगों ने प्रेत वृक्ष का नाम दे रखा है। यहां भी कुछ लोग जप तप में नजर आ जाएंगे। मान्यता है कि प्रेत आत्माओं को इसी पेड़ पर आसरा मिलता है। पुलिस की व्यवस्था यहीं आपको नजर आएगी। बैरिकेडिंग कर श्रद्धालुओं को यहां से एक-एक कर आगे जाने दिया जा रहा था। ताकि मुख्य मंदिर के सामने एक साथ अधिक भीड़ न हो।
मंदिर परिसर में इसी विशाल वृक्ष को प्रेत वृक्ष बोला जाता है। |
जहां मुख्य मंदिर है वो छोटे से पहाड़ पर है। हनुमान जी की मूर्ति को आप दूर से ही देख सकते हैं और प्रणाम कर सकते हैं। मंदिर के बाहर प्लास्टिक की पारदर्शी शीट लगी थी। एक पुजारी ने बताया कि लोग सिक्के और फूल दूर से फेंक देते थे। उसी से बचाव के लिए ऐसा किया गया है। मंदिर में दर्शन करने के बाद आप दूसरी तरफ से बाहर आते हैं।
मां और बुआ की सख्त हिदायत के मद्देनजर सुबह से पेट में अन्न का एक दाना नहीं गया था। दर्शन करने के बाद वहीं झोपड़ी नुमा होटल में हमने गरमा गरम समोसे और चाय का लुत्फ उठाया। मां और बुआ ने दुकानदार से सख्ती से पूछ लिया था कि इसमें प्याज और लहसून तो नहीं। दुकानदार ने कहा, मां जी हमें पाप लगेगा अगर हमने प्याज और लहसून डाला तो, बजरंग बली तुरंत सजा दे देते हैं। आश्वासन मिलने के बाद ही मां और बुआ ने समोसा खाया। खाते वक्त भी समोसे के आलूओं पर दोनों की करीबी निगाह थी। आसपास लगी दुकानों से कुछ खरीदारी भी हुई।
करीब 12 बजे हम वहां से नोएडा के लिए निकल पड़े। रास्ता एक बार फिर हमने बुंदेलखंड एक्सप्रेस वाला ही लिया। आठ घंटे की ड्राइव के बाद हम नोएडा में थे।