Saturday, February 23, 2019

खेल के मैदान से जंग के मैदान तक सब जायज


मंथन का वक्त है कि क्या देश की भावना से ऊपर दो अंक हैं? क्या हो जाएगा अगर भारत एक मैच नहीं खेलता है। क्या हो जाएगा अगर भारत एक और विश्व कप नहीं जीतता है। बहुत ऐसे मौके आएंगे। पर यह मौका नहीं आएगा। अब क्रिकेट के मैदान में भी पाक को अलग-थलग करने की जरूरत है।



पुलवामा में पाक प्रायोजित आतंकी घटना के बाद पूरे विश्व में पाकिस्तान के खिलाफ आक्रोश है। तमाम राष्ट्रों ने भारत के समर्थन में अपनी बात कही है। साथ ही आतंक के खिलाफ किसी भी कार्रवाई में भारत को पूरी तरह समर्थन देने का एलान किया है। अमेरिका हो या रूस या फिर फ्रांस सभी देशों ने पुलवामा अटैक पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। इस आतंकी घटना के बाद पाकिस्तान भी खुद ही एक्सपोज हो गया। भारत ने बिना पाकिस्तान का नाम लिए आतंक को प्रश्रय देने वाले देशों को संभल जाने की चेतावनी दी, जबकि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने खुद ही सामने आकर यह बयान दे दिया कि भारत पाकिस्तान पर बेवजह का आरोप लगा रहा है। यह वैसा ही हुआ जैसा कि चोर की दाढ़ी में तिनका।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान खुद एक बेहतर क्रिकेटर रहे हैं। लंबे समय तक पाकिस्तान की क्रिकेट टीम को लीड किया है। ऐसे में उन्हें यह बात बखूबी पता होगी कि क्रिकेट का मैदान हो या फिर जंग का मैदान। सभी के कुछ न कुछ नियम कायदे होते हैं। फिर भी दोनों ही मैदान में सब कुछ जायज होता है। अब जबकि पुलवामा अटैक के बाद दोनों देशों के बीच विश्व कप के दौरान होने वाली भिड़ंत पर चर्चा चल रही है तो पाकिस्तान एक बार फिर सहमा हुआ है। वैसे भी पाकिस्तान के साथ कोई भी देश किसी तरह की क्रिकेट सीरीज खेलने में रुचि नहीं दिखाता है। पाकिस्तान में क्रिकेट सीरीज हुए तो लंबा समय गुजर चुका है। पाकिस्तान की टीम ही दूसरे देशों में जाकर क्रिकेट खेलती है। कोई भी देश पाकिस्तान में जाकर क्रिकेट नहीं खेलना चाहता है। वजह साफ है। पाकिस्तान में पनप रही आतंकवाद की फैक्ट्री।
ऐसे में भारत जो कुटनीतिक कदम उठा रहा है उसके दूरगामी परिणाम सामने आएंगे। पुलवामा में हुए आतंकी हमले के बाद यह बहस लगातार तेज हो रही है कि टीम इंडिया को आगामी वर्ल्ड कप में पाकिस्तान के खिलाफ अपने मैच का बहिष्कार कर देना चाहिए। भारत के कई दिग्गज क्रिकेटर्स ने भी यह बात दोहराई है कि पाकिस्तान के साथ किसी तरह का खेल संबंध नहीं रखना चाहिए। विश्व कप में नहीं खेलने से एक साफ मैसेज जाएगा कि अब पाक के साथ संबंध सुधारने के दिन गुजर चुके हैं। अब तो बातचीत तब ही शुरू होगी जब पाकिस्तान भारत में अपनी प्रयोजित आतंकवाद की घिनौनी हरकत बंद करे।
बीसीसीआई ने भी स्पष्ट कर दिया है कि विश्व कप में पाक के साथ खेलने का फैसला पूरी तरह केंद्र सरकार को लेना है। टीम इंडिया भारत सरकार के साथ है। टीम इंडिया के कप्तान विराट कोहली ने भी कहा है कि टीम का वही स्टैंड होगा जो देश का होगा। उन्होंने कहा कि लिया गया फैसला उन्हें और पूरी टीम को मंजूर होगा। विश्व कप में भारत और पाकिस्तान की टीमों का आमना-सामना 16 जून होना है। इससे पहले कोच रवि शास्त्री ने भी सरकार का सपोर्ट करने की बात कही थी। पुलवामा हमले के बाद खिलाड़ियों के साथ-साथ पूर्व क्रिकेटर्स भी इस मसले पर अपनी राय रख रहे हैं। भारत की तरफ से सौरभ गांगुली ने पाक के साथ क्रिकेट ही नहीं, सभी खेलों के रिश्ते खत्म करने को कहा था। वहीं सचिन तेंडुलकर ने पाकिस्तान के साथ खेलने की वकालत करते हुए कहा कि वह व्यक्तिगत तौर पर विश्व कप में बिना खेले पाकिस्तान को 2 अंक देना पसंद नहीं करेंगे। सुनील गावस्कर ने कहा था कि विश्व कप में पाक से न खेलकर भारत का ही नुकसान होगा। वहीं पाकिस्तान की तरफ से शोएब अख्तर ने हमले की निंदा करते हुए कहा कि भारत को मैच नहीं खेलने का फैसला लेने का हक है।
यह सही है कि पाकिस्तान के साथ मैच न खेलकर भारत मुफ्त में पाकिस्तान को दो अंक दे देगा। निश्चित तौर पर इस दो अंक का फायदा पाकिस्तान को विश्व कप के अगले दौर में लेकर चला जाएगा। इसमें भी दो राय नहीं कि विश्व कप में हमेशा से ही पाक के खिलाफ भारत का पलड़ा काफी भारी रहा है। आज तक विश्व कप में भारत ने पाक के खिलाफ हार का मुंह नहीं देखा है। ऐसे में तेंदुलकर और गावस्कर की बातों को भी नकारा नहीं जा सकता है। इन दिग्गजों का मानना है कि हम मुफ्त में क्यों पाक को अंक दें , जबकि हम उन्हें आसानी से हरा सकते हैं।
पर मंथन का वक्त है कि क्या देश की भावना से ऊपर दो अंक हैं? क्या हो जाएगा अगर भारत एक मैच नहीं खेलता है। क्या हो जाएगा अगर भारत एक और विश्व कप नहीं जीतता है। बहुत ऐसे मौके आएंगे। विश्व में हमारी क्रिकेट टीम की कितनी धाक है यह किसी से छिपी नहीं है। टॉप टेन क्रिकेटर्स में छह नाम इंडियन क्रिकेटर्स के ही हैं। ऐसे में यह बताने की जरूरत नहीं है कि टीम इंडिया कहां है और पाकिस्तान की टीम कहां है। मौके तमाम आएंगे जब पाकिस्तान को पहले जैसा धूल चटाया जाएगा। पर यह मौका नहीं आएगा। जब पूरे विश्व की नजर क्रिकेट वर्ल्ड कप पर होगी और भारत पाक के साथ क्रिकेट खेलने से मना कर देगा, क्योंकि यह देश आतंक को प्रश्रय देता है। भारत के खिलाफ आतंकवादियों का सहारा लेकर प्रॉक्सी वॉर करता है। पुलवामा अटैक के बाद भारत ने अपनी विदेश नीति में पाकिस्तान को लेकर बड़ा परिवर्तन किया है। पाक से मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा लेकर भारत ने पहले ही पाकिस्तान की आर्थिक रीढ़ तोड़ने जैसा कदम उठा दिया है। पाकिस्तान को जाने वाली पानी को लेकर भी भारत अब तक जो दरियादिली दिखाता आ रहा था उस पर भी बड़े फैसले लिए जा चुके हैं। अंतरराष्टÑीय स्तर पर पाकिस्तान को आतंकवाद का चेहरा बताने में भारत ने अपनी पूरी ताकत झोंक रखी है। इसी का परिणाम है कि अमेरिका हो या रूस या फिर अन्य यूरोपियन देश, सभी ने पाकिस्तान को संभलने को कहा है। ऐसे में अगर क्रिकेट के मैदान पर भी पाकिस्तान को अलग थलग कर कड़ा प्रहार करने की जरूरत है।
वैसे भी यह कोई पहली बार नहीं होगा कि विश्व कप में कोई टीम दूसरी टीम के खिलाफ मैच खेलने से मना कर दे। विश्व क्रिकेट इतिहास में इससे पहले भी कई मौकों पर कुछ टीमों ने अपने मैचों का बॉयकाट किया है। 1996 का वर्ल्ड कप भारत, श्रीलंका और पाकिस्तान में आयोजित किया गया था। इस टूर्नामेंट में आॅस्ट्रेलिया को श्रीलंका के खिलाफ मैच खेलना था। कंगारू टीम ने सुरक्षा का हवाला देते हुए कोलंबो विजिट नहीं किया। वर्ल्ड कप से एक महीना पहले कोलंबो में एक बम विस्फोट हुआ था। इसके बाद आॅस्ट्रेलियाई बोर्ड ने अपनी टीम को वहां भेजना उचित नहीं समझा। आॅस्ट्रेलिया को 2 प्वाइंट गंवाने पड़े। पर इससे क्या फर्क पड़ गया। आॅस्ट्रेलिया की क्रिकेट वर्ल्ड में बादशाहत आज भी कायम है। इस वर्ल्ड कप में वेस्टइंडीज ने भी श्रीलंका में मैच खेलने से मना कर दिया था। वर्ष 2001 में भी इंग्लैंड की टीम ने जिम्बाब्वे का दौरा रद किया था। इंग्लैंड के बाद कीवी टीम ने नैरोबी (केन्या) जाने से मना कर दिया। 

पाकिस्तान में भी कोई भी टीम टूर्नामेंट खेलना पसंद नहीं करती है। लंबे समय से पाकिस्तान में कोई भी अंतरराष्टÑीय स्तर का टूर्नामेंट आयोजित नहीं हो सका है। ऐसे में इस क्रिकेट वर्ल्ड कप में भारत को पाकिस्तान के खिलाफ अपने कड़े तेवर बरकरार रखने की जरूरत है। क्योंकि बात सिर्फ दो प्वाइंट गंवाने की नहीं है, बल्कि राष्ट्र के सम्मान की है। पुलवामा में शहीद हुए 40 जवानों को टीम इंडिया की यह सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

Sunday, February 17, 2019

जज्बातों को सहेज कर रखें, होश खोने की जरूरत नहीं

पूरा देश शोकाकुल है। हर तरफ भावनाओं का ज्वार उफान मार रहा है। सोशल मीडिया का हाल यह है कि हर तरफ आवाज आ रही है कि आज ही पाकिस्तान को मिट्टी में मिला दिया जाए। तरह-तरह के जज्बात भरे मैसेज इधर से उधर सर्कुलेट हो रहे हैं। पर मंथन करने की जरूरत है कि क्या इन जज्बातों से समस्या का हल निकल जाएगा। जज्बातों का असर यह है कि देश के तमाम भागों में कश्मीर के युवा खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। केंद्र सरकार ने तमाम राज्यों को एडवाइजरी जारी करते हुए कहा है कि अपने राज्य में पढ़ रहे और नौकरीपेशा कश्मीरी युवाओं की सुरक्षा का ध्यान रखें।
यह स्थिति अच्छी नहीं है। पूरा देश गमगीन है। हर कोई चाहता है कि शहीद सैनिकों का बदला लिया जाए। पर क्या अपने राज्य में रह रहे कश्मीर युवाओं पर हमला कर ही बदला लिया जा सकता है? इस तरह की मूर्खतापूर्ण हकरत करने वालों को एक्सपोज करने की जरूरत है। भारत सरकार को जो करना है वो कर रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्पष्ट तौर पर कहा है कि सेना को पूरी छूट दी गई है। वह सीमा पार से आतंक को प्रश्रय दे रहे लोगों पर किस तरह से कार्रवाई करती है। समय और स्थान उन्हें तय करना है। ऐसे मेंं हमें उद्वेलित होकर कोई ऐसा कदम नहीं उठाना चाहिए कि हमारे आसपास का माहौल सांप्रदायिकता के रंग में तब्दील हो जाए। ऐसा नहीं है कि सेना पहली बार कोई कदम उठाएगी। जब-जब जरूरत पड़ी है हमारे जांबाज सैनिकों ने दुश्मनों को माकूल जवाब दिया है। आज भी जब और जैसे जरूरत पड़ेगी वो जवाब देने में पीछे नहीं हटेंगे। पर जज्बातों के इस दौर में हमारे और आपके जैसे लोगों को होश खोने की जरूरत नहीं है। कश्मीर भी हमारा ही अंग है और यहां के रहने वाले बाशिंदे भी भारतीय नागरिक हैं। पर जिस तरह से खबरें आ रही हैं कि कश्मीर के युवाओं को कैसे धमकाया जा रहा है वह तस्वीर डरा रही है। डर इस बात का है कि कहीं हम सच में पाक के प्रोपगेंडा में तो नहीं फंस रहे हैं। पाकिस्तान यही तो चाहता है कि हमारे देश के अंदर का माहौल प्रदूषित हो। हम आपस में लड़ते रहें। हमारे बीच हिंदू मुसलमान के वैमनस्य की खाई बढ़ती जाए। ताकि वह अपने नापाक मंसूबों को और मजबूती प्रदान करे।
इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि हाल के दिनों में कश्मीर के युवा तेजी से पाक प्रयोजित प्रोपगेंडा से प्रभावित हुए हैं। यह भी सही है कि कश्मीर के अंदर उन्होंने पत्थरबाजों के रूप में एक ऐसा स्लीपर सेल तैयार कर लिया है जिसे वो जब चाहे और जैसे चाहे यूज कर रहा है। पुलवामा में हुआ आत्मघाती हमला भी इसी का परिणाम था। नहीं तो जो युवा एक साल पहले धर्मांध होकर आतंकी संगठन में शामिल होता है वह कैसे आत्मघाती हमलावर बन जाता। यह भी अपने आप में आश्चर्य है कि यूनिवर्सिटी पासआउट युवा एक साल के अंदर ही आतंक का इतना बड़ा नाम कैसे बन गया। कैसे उसने खुद को आत्मघाती हमलावर के रूप में तैयार कर हमारे चालीस जवानों की जान ले ली। इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि आज भी विभिन्न राज्यों के कॉलेज और यूनिवर्सिटी में रह रहे कुछ कश्मीरी युवाओं ने पुलवामा हमले का जश्न मनाया है।
यह साधारण बात नहीं है। दरअसल कश्मीर में आतंकियों के साथ छद्म युद्ध के साथ-साथ हमारी सेना एक बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक युद्ध भी लड़ रही है। यह मनोवैज्ञानिक युद्ध कश्मीर के उन युवाओं के साथ है जो भटकाव का रास्ता अख्तियार कर रहे हैं। भटके हुए युवाओं को सेना सबक भी सीखा रही है। विभिन्न राज्यों की पुलिस ने भी जश्न मना रहे तमाम कश्मीर युवाओं को गिरफ्तार कर स्पष्ट संकेत भी दिए हैं कि यह नाकाबिले बर्दास्त है कि भारत में रहकर ही भारत के खिलाफ आग उगलो। अगर ऐसा करोगो तो सजा भी पाओगे।
पर एक बात समझने की जरूरत है कि कश्मीरी युवाओं में भटकाव के जिम्मेदार कहीं न कहीं हमलोग भी हैं। करीब पांच साल पहले मुझे कश्मीर जाने का मौका मिला था। वहां मैं सात दिनों तक रहा। इस दौरान कश्मीर को अंदर से समझने और जानने का मौका मिला था। मैं वहां डल झील में एक शिकारा होटल में था। प्रतिदिन वहां से एक छोटे शिकारे के जरिए मेन रोड पर आना होता था। उस शिकारे को एक पढ़ा लिखा युवा चलाता था। एक दिन डल झील की सैर के दौरान मैंने उससे पूछ लिया कि तुम पढेÞ लिखे लगते हो, फिर यहां सौ दो सौ रुपए के लिए शिकारा क्यों चलाते हो। उस युवा ने बताया कि उसने एमबीए किया है। इसके बाद वह मुंबई में नौकरी के लिए चला गया। वहां कश्मीर का जान लोग उससे ठीक व्यवहार नहीं करते थे। उसके बाद वह किसी दोस्त के कहने पर देहरादून चला आया। यहां भी छह महीने एक बैंक में नौकरी की। यहां भी लोगों का व्यवहार थोड़ा दूसरा था। ऐसी स्थिति में मैं खुद को असहज महसूस करता था। इसीलिए वापस कश्मीर आ गया। यहां अपने पुस्तैनी धंधे में जुट गया। अब शिकारे से जो दो पैसे की आमदनी होती है उससे ही घर का खर्च चलाता हूं।
मैं उस कश्मीरी युवा की कहानी आपको इसलिए बता रहा हूं ताकि आप उस मनोवैज्ञानिक युद्ध को बेहतर तरीके से समझ सकें, जिससे हमारी भारतीय सेना कश्मीर में जूझ रही है। यह सिर्फ एक युवा अहमद डार की आतंकी बनने की बात नहीं है। बल्कि कश्मीर के उन हजारों युवा की बात है जो इस वक्त उसी मनोस्थिति से गुजर रहे हैं जिससे वह शिकारे वाला युवा गुजर रहा था। मंथन करने का वक्त है कि आप और हम कश्मीर में होने वाली घटनाओं पर किस तरह रिएक्ट करते हैं। क्या वहां होने वाली प्रत्येक घटना के लिए हम कश्मीरी युवाओं को दोषी करार दें। हर बात में उन्हें आतंकी घोषित कर दें। रोजी रोजगार की तलाश में कश्मीर से बाहर आने वाले युवाओं को अपनी भावनाओं के ज्वार से इतना भयाक्रांत कर दें कि वह वापस उसी जिंदगी में लौट जाएं, जहां पाकिस्तान प्रयोजित प्रोपगेंडा में वह फंस जाए। और चंद रुपयों के लिए मुंह पर कपड़ा लपेटे, आईएसआईएस का झंडा उठाए, पत्थर फेंकता नजर आए। 

हमारी सेना, हमारी पुलिस, हमारी खुफिया तंत्र काफी मजबूत है। इसीलिए हम खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं। हमें किसी से डरने की जरूरत नहीं है। भारतीय सेना जिस तरीके से पाकिस्तान प्रयोजित युद्ध का जवाब दे रही है उस पर हमें गर्व होना चाहिए। जब भी जरूरत पड़ी है हमारे जांबाजों ने आतंकियों को उनके घर में घुसकर ढेर किया है। ऐसे में हमें चिंता करने की जरूरत नहीं है। पुलवामा में शहीद हुए चालीस सैनिकों का बलिदान कभी व्यर्थ नहीं जाएगा। केंद्र सरकार से लेकर हमारे सुरक्षाबलों ने भी आश्वासन दे रखा है। ऐसे में जज्बातों में बहकर हमें होश खोने की जरूरत नहीं। सोशल मीडिया पर क्रांति करने वालों और उन क्रांतिकारी विचारों से प्रभावित होकर उटपटांग हरकत करने वालों को मंथन करने की जरूरत है। अपने आसपास के माहौल को खराब करने की जरूरत नहीं है। जो गुनाहगार हैं उन्हें उनके किए की सजा जरूर मिलेगी। पर प्रोपेगेंडा में फंसकर हर किसी को गुनाहगार बताने की जरूरत भी नहीं है।

Monday, February 4, 2019

सीबीआई न हुई कि मंदिर का घंटा हो गया, जिसे देखो वही बजा रहा है



हाल के दिनों में सीबीआई जैसी प्रतिष्ठित जांच एजेंसी का जो हश्र हुआ है उसकी शायद किसी ने कल्पना नहीं की होगी। पूर्व में उसे तोता तो कहा जाता था, लेकिन जिस तरह कैट फाइट में इसे उलझा दिया गया है उसने इसके पतन का इतिहास लिख दिया है। सीबीआई का नाम अब मंदिर का घंटा रख देना चाहिए, जिसे देखो वही मुंह उठाए चला आ रहा है और इसे बजा दे रहा है।
कांग्रेस की सरकार में बीजेपी के नेताओं के खिलाफ कोई कार्रवाई होती थी, तब भी इसे राजनीतिक रंग ही दिया जाता था। अब जब बीजेपी की सरकार है तब भी वही स्थिति है। पर सवाल सीबीआई की साख है। क्या ऐसे ही चलता रहेगा। जब राज्य सरकारें किसी बड़े मामले को लेकर यह बयान देती है कि फलां मामले की जांच सीबीआई से करवाई जाएगी, तब ऐसा लगता है कि वाह सरकार ने क्या बड़ा कदम उठाया है। अब तो निष्पक्ष जांच होगी। पर वही सीबीआई जब सरकार के खिलाफ ही जांच करने जाती है तो उसे बंधक बना लिया जाता है। यह कैसी विडंबना है।
जब सवाल लोगों का हो। जब सवाल लोकतांत्रिक प्रतिष्ठा का हो। और जब सवाल सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का हो तो इसमें राजनीतिक एंगल नहीं खोजना चाहिए। पश्चिम बंगाल में जो कुछ भी हो रहा है इसके पीछे की राजनीति को समझने में ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरकार बनने के 14 दिन पहले इस मामले की जांच सीबीआई को सौंपी थी। सीबीआई को जांच सौंपने के पीछे निश्चित तौर पर कोर्ट की यह मंशा होगी कि यही एक एजेंसी है जो ठगे गए लोगों को इंसाफ दिला पाएगी। और ठगे गए लोगों को भी विश्वास था कि सीबीआई ही उनके लिए मरहम का इंतजाम कर सकेगी। अब इसमें मोदी सरकार ने क्या किया और क्या नहीं किया इसे ममता बनर्जी ही ठीक से बता सकती हैं।
ममता बनर्जी को बंगाल की शेरनी भी कहा जाता है। पर उनसे बड़ी नौटंकी कोई और नहीं कर सकता है। जब-जब मौका मिला है उन्होंने सहानुभूति की ऐसी राजनीति खेली है कि चारों तरफ से उन्हें समर्थन मिल जाता है। रविवार को सीबीआई द्वारा की गई ‘छोटी सी गलती’ ने उन्हें फिर से मौका दिया। उन्होंने रिएक्ट भी वैसा ही किया। एक बॉस की जिम्मेदारी उन्होंने खूब निभाई। वैसा बॉस जो अपने इंप्लॉई के हितों की रक्षा के लिए किसी से भी टकरा जाए। मालिकों से टकरा जाए, मैनेजमेंट से टकरा जाए। ममता ने अपना दांव बखूबी खेल दिया है। भले ही बंगाल के बाहर के लोग ममता को कोस रहे हैं, पर मुझे नहीं लगता कि बंगाल के भीतर उन्हें कोई हानि हो रही है। उल्टे अब वहां के लाखों कर्मचारी जरूर ममता के साथ कंधा से कंधा मिलाकर खड़े हो गए हैं। अभी बंगाल की स्थिति वैसी ही है जब नैनो फैक्ट्री के समय थी। उस वक्त भी बंगाल की शेरनी की तरह ममता बनर्जी ने खूब अपनी वाहवाही करवाई थी। रिजल्ट क्या हुआ था यह बताने की जरूरत नहीं।
ममता बनर्जी ठीक वैसी ही हैं जैसी एक शेरनी होती है। शेरनी सबसे अधिक डरी हुई होती है। वह हमेशा अपने आसपास के खतरों से डरी सहमी रहती है। ममता भी इतनी डरी हुई हैं कि कभी अमित शाह को रोकने में अपनी पूरी ताकत झोंक देती हैं, कभी योगी आदित्यनाथ के हेलिकाप्टर को रोकने में अपनी ताकत का इस्तेमाल करती हैं। डर के हालात यह हैं कि बीजेपी के खिलाफ जो कुछ भी संभव है वह कर रही हैं। ममता का यह रिएक्शन एक सामान्य रिएक्शन है। इसमें कुछ भी गलत नहीं है, क्योंकि यही राजनीति है।
पर सीबीआई अधिकारियों के साथ इस तरह का विहेवियर न केवल गैरजिम्मेदाराना है, बल्कि असंवैधानिक भी है। डरी हुई शेरनी अचानक शिकार देखकर जैसे टूट पड़ती है, ठीक उसी तरह ममता बनर्जी ने किया है। सीबीआई के रूप में उन्हें एक ऐसा शिकार मिला जिसे झप्पटा मार कर पकड़ लिया। अब नैनो फैक्ट्री की तरह ही बंगाल में सिंपैथी वोट गेन करने की पॉलिसी पर काम शुरू हो गया है।
यहां तक तो सब ठीक है। पर फर्ज करिए अभी बंगाल में कोई बड़ा मामला फंस जाए। जनभावना ऐसी हो कि सरकार को उस मामले की निष्पक्ष जांच करवानी पड़ जाए। फिर ममता बनर्जी कहां जाएंगी? इंटरपोल के पास या सीआईए के पास? या उसी सीबीआई के पास जाएंगी जिनके अधिकारियों के साथ उन्होंने ऐसा सलूक किया।
हां इसमें भी दो राय नहीं कि सीबीआई ने भी कुछ ज्यादा ही जल्दबाजी दिखाई। दो दिन पहले ही नए सीबीआई डायरेक्टर की नियुक्ति हुई। फिर ऐसी क्या जल्दबाजी थी कि अचानक से यह धावा बोल दिया गया। कम से कम नए डायरेक्टर की ज्वाइनिंग का तो इंतजार किया ही जा सकता था। वैसे भी कलकत्ता हाईकोर्ट ने इस चिटफंड मामले में समनिंग पर रोक लगा रखी है। ऐसे में क्या सीबीआई अधिकारी इतने बेवकूफ हैं कि बिना किसी प्लानिंग के बंगाल जैसे बड़े राज्य के पुलिस मुखिया को घेरने और दबोचने चले जाएं। क्या उन्हेंं हाईकोर्ट के आॅर्डर का पता नहीं। क्या उनकी जिम्मेदारी नहीं बनती थी कि वो कोर्ट के जरिए पुलिस मुखिया से पूछताछ की इजाजत लें। क्या पुलिस मुखिया की इतनी औकात है कि वह न्यायपालिका के निर्देशों की अवहेलना कर दे और पूछताछ में सहयोग न करे।
फिलहाल सीबीआई अपनी करनी के लिए खुद ही जिम्मेदार है। उनके साथ जैसा सलूक हुआ उसके लिए कोई और दोषी नहीं हो सकता। पुलिसकर्मियों ने अपने बॉस को प्रोटेक्ट करने के लिए जो कुछ भी किया वह असंवैधानिक तो हो सकता है, लेकिन मोरल लेवल पर गलत नहीं हो सकता है। ममता बनर्जी भी जिस तरह अपने कर्मियों के खिलाफ मोरचा ले रही हैं उसे भी मोरल लेवल पर अस्विकार नहीं किया जा सकता है। एक बॉस को ऐसा ही होना चाहिए।

पर एक मुख्यमंत्री के तौर पर उनका यह कृत सदियों तक उदाहरण के तौर पर देखा जाएगा।  चिटफंड मामले में करोड़ों रुपए का गेम हुआ है। यह गेम भी आम लोगों के साथ हुआ है। ऐसे में क्या ममता बनर्जी की यह जिम्मेदारी नहीं बनती थी कि वह अपने लोगों को न्याय दिलाने के लिए मोरचा ले। क्यों नहीं उन्होंने चिटफंड घोटाले की जांच में इतना एग्रेशन दिखाया। क्यों नहीं जांच एजेंसियों को उस हद तक मदद पहुंचाई जिसकी दरकार थी, ताकि पीड़ितों को न्याय दिलाया जाए।
जिस मुकुल रॉय को लेकर मुद्दा बनाया जा रहा है कि वह बीजेपी में शामिल हो गए, उस मुकुल रॉय को भी सीबीआई ने घंटों बिठाकर पूछताछ कर रखी है। अभी उन्हें क्लीन चिट नहीं मिली हुई है। अगर दोषी होंगे तो वह भी सजा के हकदार होंगे। ऐसे में ममता बनर्जी की ऐसी क्या मजबूरी थी कि उन्होंने बंगाल के पुलिस कमिश्नर को सीबीआई की पूछताछ से दूर करने के लिए एक्ट में ही संशोधन करवा लिया। हाईकोर्ट तक का सहारा ले लिया। अगर ममता को बंगाल के लोगों की इतनी चिंता है तो क्यों नहीं उन्होंने अपने पुलिस मुखिया को कहा कि जब सीबीआई समन कर रही है तो चले जाओ पूछताछ के लिए।
सवाल तो बहुत हैं। आगे भी उठेंगे। पर सबसे बड़ा सवाल बंगाल के ठगे गए लोगों का है। क्या उन्हें न्याय दिलाने के लिए ममता बनर्जी ऐसे ही धरना देंगी, जैसे अपने पुलिस कमिश्नर को बचाने के लिए दे रही हैं?