Sunday, February 17, 2019

जज्बातों को सहेज कर रखें, होश खोने की जरूरत नहीं

पूरा देश शोकाकुल है। हर तरफ भावनाओं का ज्वार उफान मार रहा है। सोशल मीडिया का हाल यह है कि हर तरफ आवाज आ रही है कि आज ही पाकिस्तान को मिट्टी में मिला दिया जाए। तरह-तरह के जज्बात भरे मैसेज इधर से उधर सर्कुलेट हो रहे हैं। पर मंथन करने की जरूरत है कि क्या इन जज्बातों से समस्या का हल निकल जाएगा। जज्बातों का असर यह है कि देश के तमाम भागों में कश्मीर के युवा खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। केंद्र सरकार ने तमाम राज्यों को एडवाइजरी जारी करते हुए कहा है कि अपने राज्य में पढ़ रहे और नौकरीपेशा कश्मीरी युवाओं की सुरक्षा का ध्यान रखें।
यह स्थिति अच्छी नहीं है। पूरा देश गमगीन है। हर कोई चाहता है कि शहीद सैनिकों का बदला लिया जाए। पर क्या अपने राज्य में रह रहे कश्मीर युवाओं पर हमला कर ही बदला लिया जा सकता है? इस तरह की मूर्खतापूर्ण हकरत करने वालों को एक्सपोज करने की जरूरत है। भारत सरकार को जो करना है वो कर रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्पष्ट तौर पर कहा है कि सेना को पूरी छूट दी गई है। वह सीमा पार से आतंक को प्रश्रय दे रहे लोगों पर किस तरह से कार्रवाई करती है। समय और स्थान उन्हें तय करना है। ऐसे मेंं हमें उद्वेलित होकर कोई ऐसा कदम नहीं उठाना चाहिए कि हमारे आसपास का माहौल सांप्रदायिकता के रंग में तब्दील हो जाए। ऐसा नहीं है कि सेना पहली बार कोई कदम उठाएगी। जब-जब जरूरत पड़ी है हमारे जांबाज सैनिकों ने दुश्मनों को माकूल जवाब दिया है। आज भी जब और जैसे जरूरत पड़ेगी वो जवाब देने में पीछे नहीं हटेंगे। पर जज्बातों के इस दौर में हमारे और आपके जैसे लोगों को होश खोने की जरूरत नहीं है। कश्मीर भी हमारा ही अंग है और यहां के रहने वाले बाशिंदे भी भारतीय नागरिक हैं। पर जिस तरह से खबरें आ रही हैं कि कश्मीर के युवाओं को कैसे धमकाया जा रहा है वह तस्वीर डरा रही है। डर इस बात का है कि कहीं हम सच में पाक के प्रोपगेंडा में तो नहीं फंस रहे हैं। पाकिस्तान यही तो चाहता है कि हमारे देश के अंदर का माहौल प्रदूषित हो। हम आपस में लड़ते रहें। हमारे बीच हिंदू मुसलमान के वैमनस्य की खाई बढ़ती जाए। ताकि वह अपने नापाक मंसूबों को और मजबूती प्रदान करे।
इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि हाल के दिनों में कश्मीर के युवा तेजी से पाक प्रयोजित प्रोपगेंडा से प्रभावित हुए हैं। यह भी सही है कि कश्मीर के अंदर उन्होंने पत्थरबाजों के रूप में एक ऐसा स्लीपर सेल तैयार कर लिया है जिसे वो जब चाहे और जैसे चाहे यूज कर रहा है। पुलवामा में हुआ आत्मघाती हमला भी इसी का परिणाम था। नहीं तो जो युवा एक साल पहले धर्मांध होकर आतंकी संगठन में शामिल होता है वह कैसे आत्मघाती हमलावर बन जाता। यह भी अपने आप में आश्चर्य है कि यूनिवर्सिटी पासआउट युवा एक साल के अंदर ही आतंक का इतना बड़ा नाम कैसे बन गया। कैसे उसने खुद को आत्मघाती हमलावर के रूप में तैयार कर हमारे चालीस जवानों की जान ले ली। इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि आज भी विभिन्न राज्यों के कॉलेज और यूनिवर्सिटी में रह रहे कुछ कश्मीरी युवाओं ने पुलवामा हमले का जश्न मनाया है।
यह साधारण बात नहीं है। दरअसल कश्मीर में आतंकियों के साथ छद्म युद्ध के साथ-साथ हमारी सेना एक बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक युद्ध भी लड़ रही है। यह मनोवैज्ञानिक युद्ध कश्मीर के उन युवाओं के साथ है जो भटकाव का रास्ता अख्तियार कर रहे हैं। भटके हुए युवाओं को सेना सबक भी सीखा रही है। विभिन्न राज्यों की पुलिस ने भी जश्न मना रहे तमाम कश्मीर युवाओं को गिरफ्तार कर स्पष्ट संकेत भी दिए हैं कि यह नाकाबिले बर्दास्त है कि भारत में रहकर ही भारत के खिलाफ आग उगलो। अगर ऐसा करोगो तो सजा भी पाओगे।
पर एक बात समझने की जरूरत है कि कश्मीरी युवाओं में भटकाव के जिम्मेदार कहीं न कहीं हमलोग भी हैं। करीब पांच साल पहले मुझे कश्मीर जाने का मौका मिला था। वहां मैं सात दिनों तक रहा। इस दौरान कश्मीर को अंदर से समझने और जानने का मौका मिला था। मैं वहां डल झील में एक शिकारा होटल में था। प्रतिदिन वहां से एक छोटे शिकारे के जरिए मेन रोड पर आना होता था। उस शिकारे को एक पढ़ा लिखा युवा चलाता था। एक दिन डल झील की सैर के दौरान मैंने उससे पूछ लिया कि तुम पढेÞ लिखे लगते हो, फिर यहां सौ दो सौ रुपए के लिए शिकारा क्यों चलाते हो। उस युवा ने बताया कि उसने एमबीए किया है। इसके बाद वह मुंबई में नौकरी के लिए चला गया। वहां कश्मीर का जान लोग उससे ठीक व्यवहार नहीं करते थे। उसके बाद वह किसी दोस्त के कहने पर देहरादून चला आया। यहां भी छह महीने एक बैंक में नौकरी की। यहां भी लोगों का व्यवहार थोड़ा दूसरा था। ऐसी स्थिति में मैं खुद को असहज महसूस करता था। इसीलिए वापस कश्मीर आ गया। यहां अपने पुस्तैनी धंधे में जुट गया। अब शिकारे से जो दो पैसे की आमदनी होती है उससे ही घर का खर्च चलाता हूं।
मैं उस कश्मीरी युवा की कहानी आपको इसलिए बता रहा हूं ताकि आप उस मनोवैज्ञानिक युद्ध को बेहतर तरीके से समझ सकें, जिससे हमारी भारतीय सेना कश्मीर में जूझ रही है। यह सिर्फ एक युवा अहमद डार की आतंकी बनने की बात नहीं है। बल्कि कश्मीर के उन हजारों युवा की बात है जो इस वक्त उसी मनोस्थिति से गुजर रहे हैं जिससे वह शिकारे वाला युवा गुजर रहा था। मंथन करने का वक्त है कि आप और हम कश्मीर में होने वाली घटनाओं पर किस तरह रिएक्ट करते हैं। क्या वहां होने वाली प्रत्येक घटना के लिए हम कश्मीरी युवाओं को दोषी करार दें। हर बात में उन्हें आतंकी घोषित कर दें। रोजी रोजगार की तलाश में कश्मीर से बाहर आने वाले युवाओं को अपनी भावनाओं के ज्वार से इतना भयाक्रांत कर दें कि वह वापस उसी जिंदगी में लौट जाएं, जहां पाकिस्तान प्रयोजित प्रोपगेंडा में वह फंस जाए। और चंद रुपयों के लिए मुंह पर कपड़ा लपेटे, आईएसआईएस का झंडा उठाए, पत्थर फेंकता नजर आए। 

हमारी सेना, हमारी पुलिस, हमारी खुफिया तंत्र काफी मजबूत है। इसीलिए हम खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं। हमें किसी से डरने की जरूरत नहीं है। भारतीय सेना जिस तरीके से पाकिस्तान प्रयोजित युद्ध का जवाब दे रही है उस पर हमें गर्व होना चाहिए। जब भी जरूरत पड़ी है हमारे जांबाजों ने आतंकियों को उनके घर में घुसकर ढेर किया है। ऐसे में हमें चिंता करने की जरूरत नहीं है। पुलवामा में शहीद हुए चालीस सैनिकों का बलिदान कभी व्यर्थ नहीं जाएगा। केंद्र सरकार से लेकर हमारे सुरक्षाबलों ने भी आश्वासन दे रखा है। ऐसे में जज्बातों में बहकर हमें होश खोने की जरूरत नहीं। सोशल मीडिया पर क्रांति करने वालों और उन क्रांतिकारी विचारों से प्रभावित होकर उटपटांग हरकत करने वालों को मंथन करने की जरूरत है। अपने आसपास के माहौल को खराब करने की जरूरत नहीं है। जो गुनाहगार हैं उन्हें उनके किए की सजा जरूर मिलेगी। पर प्रोपेगेंडा में फंसकर हर किसी को गुनाहगार बताने की जरूरत भी नहीं है।

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