Monday, February 4, 2019

सीबीआई न हुई कि मंदिर का घंटा हो गया, जिसे देखो वही बजा रहा है



हाल के दिनों में सीबीआई जैसी प्रतिष्ठित जांच एजेंसी का जो हश्र हुआ है उसकी शायद किसी ने कल्पना नहीं की होगी। पूर्व में उसे तोता तो कहा जाता था, लेकिन जिस तरह कैट फाइट में इसे उलझा दिया गया है उसने इसके पतन का इतिहास लिख दिया है। सीबीआई का नाम अब मंदिर का घंटा रख देना चाहिए, जिसे देखो वही मुंह उठाए चला आ रहा है और इसे बजा दे रहा है।
कांग्रेस की सरकार में बीजेपी के नेताओं के खिलाफ कोई कार्रवाई होती थी, तब भी इसे राजनीतिक रंग ही दिया जाता था। अब जब बीजेपी की सरकार है तब भी वही स्थिति है। पर सवाल सीबीआई की साख है। क्या ऐसे ही चलता रहेगा। जब राज्य सरकारें किसी बड़े मामले को लेकर यह बयान देती है कि फलां मामले की जांच सीबीआई से करवाई जाएगी, तब ऐसा लगता है कि वाह सरकार ने क्या बड़ा कदम उठाया है। अब तो निष्पक्ष जांच होगी। पर वही सीबीआई जब सरकार के खिलाफ ही जांच करने जाती है तो उसे बंधक बना लिया जाता है। यह कैसी विडंबना है।
जब सवाल लोगों का हो। जब सवाल लोकतांत्रिक प्रतिष्ठा का हो। और जब सवाल सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का हो तो इसमें राजनीतिक एंगल नहीं खोजना चाहिए। पश्चिम बंगाल में जो कुछ भी हो रहा है इसके पीछे की राजनीति को समझने में ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरकार बनने के 14 दिन पहले इस मामले की जांच सीबीआई को सौंपी थी। सीबीआई को जांच सौंपने के पीछे निश्चित तौर पर कोर्ट की यह मंशा होगी कि यही एक एजेंसी है जो ठगे गए लोगों को इंसाफ दिला पाएगी। और ठगे गए लोगों को भी विश्वास था कि सीबीआई ही उनके लिए मरहम का इंतजाम कर सकेगी। अब इसमें मोदी सरकार ने क्या किया और क्या नहीं किया इसे ममता बनर्जी ही ठीक से बता सकती हैं।
ममता बनर्जी को बंगाल की शेरनी भी कहा जाता है। पर उनसे बड़ी नौटंकी कोई और नहीं कर सकता है। जब-जब मौका मिला है उन्होंने सहानुभूति की ऐसी राजनीति खेली है कि चारों तरफ से उन्हें समर्थन मिल जाता है। रविवार को सीबीआई द्वारा की गई ‘छोटी सी गलती’ ने उन्हें फिर से मौका दिया। उन्होंने रिएक्ट भी वैसा ही किया। एक बॉस की जिम्मेदारी उन्होंने खूब निभाई। वैसा बॉस जो अपने इंप्लॉई के हितों की रक्षा के लिए किसी से भी टकरा जाए। मालिकों से टकरा जाए, मैनेजमेंट से टकरा जाए। ममता ने अपना दांव बखूबी खेल दिया है। भले ही बंगाल के बाहर के लोग ममता को कोस रहे हैं, पर मुझे नहीं लगता कि बंगाल के भीतर उन्हें कोई हानि हो रही है। उल्टे अब वहां के लाखों कर्मचारी जरूर ममता के साथ कंधा से कंधा मिलाकर खड़े हो गए हैं। अभी बंगाल की स्थिति वैसी ही है जब नैनो फैक्ट्री के समय थी। उस वक्त भी बंगाल की शेरनी की तरह ममता बनर्जी ने खूब अपनी वाहवाही करवाई थी। रिजल्ट क्या हुआ था यह बताने की जरूरत नहीं।
ममता बनर्जी ठीक वैसी ही हैं जैसी एक शेरनी होती है। शेरनी सबसे अधिक डरी हुई होती है। वह हमेशा अपने आसपास के खतरों से डरी सहमी रहती है। ममता भी इतनी डरी हुई हैं कि कभी अमित शाह को रोकने में अपनी पूरी ताकत झोंक देती हैं, कभी योगी आदित्यनाथ के हेलिकाप्टर को रोकने में अपनी ताकत का इस्तेमाल करती हैं। डर के हालात यह हैं कि बीजेपी के खिलाफ जो कुछ भी संभव है वह कर रही हैं। ममता का यह रिएक्शन एक सामान्य रिएक्शन है। इसमें कुछ भी गलत नहीं है, क्योंकि यही राजनीति है।
पर सीबीआई अधिकारियों के साथ इस तरह का विहेवियर न केवल गैरजिम्मेदाराना है, बल्कि असंवैधानिक भी है। डरी हुई शेरनी अचानक शिकार देखकर जैसे टूट पड़ती है, ठीक उसी तरह ममता बनर्जी ने किया है। सीबीआई के रूप में उन्हें एक ऐसा शिकार मिला जिसे झप्पटा मार कर पकड़ लिया। अब नैनो फैक्ट्री की तरह ही बंगाल में सिंपैथी वोट गेन करने की पॉलिसी पर काम शुरू हो गया है।
यहां तक तो सब ठीक है। पर फर्ज करिए अभी बंगाल में कोई बड़ा मामला फंस जाए। जनभावना ऐसी हो कि सरकार को उस मामले की निष्पक्ष जांच करवानी पड़ जाए। फिर ममता बनर्जी कहां जाएंगी? इंटरपोल के पास या सीआईए के पास? या उसी सीबीआई के पास जाएंगी जिनके अधिकारियों के साथ उन्होंने ऐसा सलूक किया।
हां इसमें भी दो राय नहीं कि सीबीआई ने भी कुछ ज्यादा ही जल्दबाजी दिखाई। दो दिन पहले ही नए सीबीआई डायरेक्टर की नियुक्ति हुई। फिर ऐसी क्या जल्दबाजी थी कि अचानक से यह धावा बोल दिया गया। कम से कम नए डायरेक्टर की ज्वाइनिंग का तो इंतजार किया ही जा सकता था। वैसे भी कलकत्ता हाईकोर्ट ने इस चिटफंड मामले में समनिंग पर रोक लगा रखी है। ऐसे में क्या सीबीआई अधिकारी इतने बेवकूफ हैं कि बिना किसी प्लानिंग के बंगाल जैसे बड़े राज्य के पुलिस मुखिया को घेरने और दबोचने चले जाएं। क्या उन्हेंं हाईकोर्ट के आॅर्डर का पता नहीं। क्या उनकी जिम्मेदारी नहीं बनती थी कि वो कोर्ट के जरिए पुलिस मुखिया से पूछताछ की इजाजत लें। क्या पुलिस मुखिया की इतनी औकात है कि वह न्यायपालिका के निर्देशों की अवहेलना कर दे और पूछताछ में सहयोग न करे।
फिलहाल सीबीआई अपनी करनी के लिए खुद ही जिम्मेदार है। उनके साथ जैसा सलूक हुआ उसके लिए कोई और दोषी नहीं हो सकता। पुलिसकर्मियों ने अपने बॉस को प्रोटेक्ट करने के लिए जो कुछ भी किया वह असंवैधानिक तो हो सकता है, लेकिन मोरल लेवल पर गलत नहीं हो सकता है। ममता बनर्जी भी जिस तरह अपने कर्मियों के खिलाफ मोरचा ले रही हैं उसे भी मोरल लेवल पर अस्विकार नहीं किया जा सकता है। एक बॉस को ऐसा ही होना चाहिए।

पर एक मुख्यमंत्री के तौर पर उनका यह कृत सदियों तक उदाहरण के तौर पर देखा जाएगा।  चिटफंड मामले में करोड़ों रुपए का गेम हुआ है। यह गेम भी आम लोगों के साथ हुआ है। ऐसे में क्या ममता बनर्जी की यह जिम्मेदारी नहीं बनती थी कि वह अपने लोगों को न्याय दिलाने के लिए मोरचा ले। क्यों नहीं उन्होंने चिटफंड घोटाले की जांच में इतना एग्रेशन दिखाया। क्यों नहीं जांच एजेंसियों को उस हद तक मदद पहुंचाई जिसकी दरकार थी, ताकि पीड़ितों को न्याय दिलाया जाए।
जिस मुकुल रॉय को लेकर मुद्दा बनाया जा रहा है कि वह बीजेपी में शामिल हो गए, उस मुकुल रॉय को भी सीबीआई ने घंटों बिठाकर पूछताछ कर रखी है। अभी उन्हें क्लीन चिट नहीं मिली हुई है। अगर दोषी होंगे तो वह भी सजा के हकदार होंगे। ऐसे में ममता बनर्जी की ऐसी क्या मजबूरी थी कि उन्होंने बंगाल के पुलिस कमिश्नर को सीबीआई की पूछताछ से दूर करने के लिए एक्ट में ही संशोधन करवा लिया। हाईकोर्ट तक का सहारा ले लिया। अगर ममता को बंगाल के लोगों की इतनी चिंता है तो क्यों नहीं उन्होंने अपने पुलिस मुखिया को कहा कि जब सीबीआई समन कर रही है तो चले जाओ पूछताछ के लिए।
सवाल तो बहुत हैं। आगे भी उठेंगे। पर सबसे बड़ा सवाल बंगाल के ठगे गए लोगों का है। क्या उन्हें न्याय दिलाने के लिए ममता बनर्जी ऐसे ही धरना देंगी, जैसे अपने पुलिस कमिश्नर को बचाने के लिए दे रही हैं?

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