Thursday, November 21, 2019

हां तो.. लानत है ऐसे सेकुलरिज्म पर



बीएचयू पर जवाब ढूंढते मेरे कुछ सामान्य सवाल, आप भी मदद कीजिए

पहला सवाल : सेकुलर होने का मतलब क्या है? क्या सेकुलर होने का मतलब सिर्फ यह है कि दूसरे के धर्म या धार्मिक क्रिया कलापों को बेहुदा या अवैज्ञानिक करार दे दो...! क्या सेकुलर होने का मतलब यह है कि दूसरे के धर्म, धार्मिक क्रिया कलाप, कर्मकांड की हंसी उड़ाओ...! धार्मिक मान्यताओं को न मानो और इसकी खिचड़ी बना डालो।
अरे साहब, सेकुलरिज्म हमें यह नहीं सिखाता कि दूसरे के धर्म या संप्रदाय का अपमान करो। सेकुलरिज्म समझाता है कि दूसरे के धर्म का भी सम्मान करो।


दूसरा सवाल : बीएचयू में आखिर मुस्लिम प्रोफेसर पर नियुक्ति पर हंगामा क्यों?
क्या यह पहली बार हुआ है कि बीएचयू यानी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में किसी मुस्लिम शिक्षक की नियुक्ति हुई है?
इसका जवाब है, नहीं।
बीचएयू की स्थापना काल में ही कई मुस्लिम संप्रदाय के लोगों ने पंडित मदन मोहन मालविय जी का साथ दिया था। वहां से आज तक हजारों मुस्लिम छात्र पढ़कर निकले हैं, जिन्होंने पूरे विश्व में न केवल बीएचयू बल्कि पूरे भारत का मान बढ़ाया है। इसी बीएचयू में सैकड़ों मुस्लिम शिक्षकों ने लंबे समय तक बच्चों को पढ़ाया है।


तीसरा सवाल : फिर आज क्यों वहां एक मुस्लिम शिक्षक की नियुक्ति पर बवाल मचा है?
दरअसल, यह बवाल सिर्फ बीएचयू में नियुक्ति को लेकर नहीं है। सिर्फ एक मुस्लिम प्रोफेसर के संस्कृत पढ़ाने पर नहीं है। यह बवाल एक मुस्लिम प्रोफेसर के उस संकाय में पढ़ाने को लेकर है जहां आज तक के इतिहास में सिर्फ जनेऊधारी हिंदुओं का प्रवेश हुआ है।
इसे आप सबरीमाला मंदिर प्रकरण से जोड़ कर देख सकते हैं। क्यों वहां चंद महिलाएं जबर्दस्ती घुसने की कोशिश कर रही हैं। क्यों हिंदू धर्म उन महिलाओं को वहां जाने की इजाजत नहीं देता। साथ ही इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी भी पढ़े जाने की जरूरत है।
इसे ऐसे भी समझें कि मुस्लिम महिलाओं का मस्जिद या ईदगाह में जाना वर्जित है। पर क्या सेकुलरिज्म या जेंडर बायसनेस का झंडा बुलंद कर उन्हें वहां जाने की इजाजत दी जा सकती है?


दरअसल, बीएचयू के संस्कृत विभाग के अंतर्गत आने वाले संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय में हिंदू धर्म, कर्मकांड, धार्मिक अनुष्ठान सहित हिंदू धर्म के वैज्ञानिक आधार पर शिक्षा-दीक्षा होती है। यहां से निकलने वाले छात्र पूरे विश्व में हिंदू धर्म के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ बड़े-बड़े मंदिर में पुजारी के तौर पर मान्यता पाते हैं।
जो लोग प्रोफेसर फिरोज खान का समर्थन कर रहे हैं, वो अपनी जगह बिल्कुल सही हैं। संस्कृत एक भाषा है, जिसे हर कोई सीख सकता है, पढ़ सकता है। इसका शिक्षक बन सकता है। इन लोगों को समझने की जरूरत है संस्कृत भाषा है, यह धर्म नहीं है।

चौथा सवाल : फिर फिरोज खान को लेकर विरोध क्यों?
इसे आप इस प्रकार समझिए। जरा कल्पना कीजिए कि कोई हिंदू ब्राह्मण जिसे अरबी, फारसी और उर्दू का जबर्दस्त ज्ञान हो वह मदरसे में किसी मुस्लिम छात्र को मौलवी या इमाम बनने की शिक्षा दे सकता है।
या फिर कोई गुरुमुखी का ज्ञाता मुस्लिम व्यक्ति गुरुद्वारे में जाकर ग्रंथी बनने की शिक्षा दे सकता है। नहीं न!
फिर इसे कोई कैसे स्वीकार कर ले कि एक मुस्लिम प्रोफेसर जो संस्कृत का ज्ञाता है और वह बीएचयू के संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय में नियुक्त हो और वहां के बच्चों को हिंदू धर्म, मूर्ति पूजा सहित कर्मकांड, पुरोहिताई आदि की शिक्षा दे।

दरअसल, धर्म एक भाव है और धार्मिक शिक्षा अंतरभाव से उत्पन्न एक वेग। जिसे जिस धर्म में आस्था है वह उस धर्म की शिक्षा अंतरभाव से दे सकता है। किताबी ज्ञान लेकर ऐसी शिक्षा-दीक्षा नहीं दी जा सकती। बात विषय ज्ञान की नहीं बल्कि श्रद्धा, विश्वास और आस्था की है।

दिक्कत क्या है कि इन दिनों सेकुलरिज्म की व्याख्या करने वालों ने हमें धर्म, संप्रदाय में इस कदर बांट दिया है कि हम एक दूसरे के धर्म को सम्मान देने की जगह उसका अपमान करने में जुट गए हैं। सबरीमाला मंदिर प्रकरण हो या बीएचयू दोनों जगह ऐसा ही हो रहा है। धर्म और धार्मिक मान्यताओं पर प्रहार कर लोग खुद को बहुत बड़ा सेकुूलर घोषित करने में लगे हैं। खासकर जितना हिंदू धर्म और हिंदू धर्म की मान्यताओं का आप मजाक उड़ाएं आप उतने बड़े सेकुलरवादी कहलाएंगे। लानत है ऐसे सेकुलरिज्म पर।
हमें समझना होगा कि सेकुलर होने का मलतब यह नहीं कि आप दूसरे के धर्मों का मजाक बनाएं, उनकी मान्यताओं पर चोट करें। बल्कि सेकुलर का सही अर्थ यह है कि आप दूसरे के धर्म और मजहब का सम्मान करें।


और अंत में ....
मेरे मामा जी जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से पासआउट हैं। यहां लंबे समय तक उन्होंने पढ़ाया भी। मध्यकालीन भारत उनका सब्जेक्ट था। जब इसमें एमफील कर रहे थे तो उन्हें अनुभव हुआ कि बिना उर्दू फारसी जाने मध्यकालीन भारत को ठीक से समझना कठिन है। उन्होंने बड़ी शिद्दत के साथ इसे सीखा, पढ़ा। जब जेएनयू से पीएचडी कर रहे थे तो रिसर्च वर्क में उन्हें इसी उर्दू फारसी के ज्ञान की बदौलत काफी मदद मिली। कुरान का एक-एक कलमा उन्हें रटा हुआ है। किसी उर्दू के शिक्षक से अच्छा उनका उर्दू-फारसी का ज्ञान है। क्या आप स्वीकार कर लेंगे कि वो किसी मदरसे में इमाम बनने की, कुरान की, या मौलवी बनने की शिक्षा-दीक्षा देने के लिए उपयुक्त हैं।
सिर्फ सेकुलर-सेकुलर मत रटिए। बल्कि सेकुलर बनने का प्रयास करिए। दूसरे के धर्म और मजहब का सम्मान करिए। सेकुलरिज्म की आड़ में बेवजह किसी दूसरे धर्म का मजाक मत बनाइए। धार्मिक आस्था और मान्यताओं को दरकिनार मत करिए। कुछ चीजें परदे में रहती हैं तो अच्छा लगता है। इस परदे को मत हटाइए।

Saturday, November 9, 2019

मुझे खबर नहीं मंदिर जले हैं या मस्जिद... मेरी निगाह के आगे तो सब धुंआ है मियां ...


मुझे खबर नहीं मंदिर जले हैं या मस्जिद.
मेरी निगाह के आगे तो सब धुंआ है मियां ...
शायर  डॉ. राहत इंदौरी ने जब इन पंक्तियों को लिखा होगा तो उनके मनएद में क्या चल रहा होगा यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन आज जब रामजन्म भूमि मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया और इसके बाद जिस तरह हिंदुस्तानियों ने संयम और सद्भाव का परिचय दिया, उसने एक नई इबारत जरूर लिख दी है। एक तरफ सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला देकर न्याय की गरिमा बढ़ाई है, वहीं दूसरी तरफ भारत के लोगों ने आपसी प्रेम दिखाकर लोकतंत्र का मान बढ़ा दिया है। पूरे देश को पता है जब मंदिर या मस्जिद जलते हैं तो आम लोगों को सिर्फ धुुंआ ही नजर आता है। पर सियासतदानों के लिए जलते हुए मंदिर और मस्जिद बहुत उपयोगी होते हैं। शनिवार के पूरे दिन के घटनाक्रम पर गभीर मंथन करते हुए यह विचार आया कि हमें सियासती बाजीगरों से दूर रहने की ही जरूरत है।
अयोध्या मामले में जिस दिन सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई पूरी कर ली थी उसी दिन के बाद से पूरे देश में सांप्रदायिक माहौल को लेकर चिंता जताई जाने लगी थी। सभी राज्य अलर्ट मोड में आ गए थे। सबसे अधिक चिंता उत्तर प्रदेश को लेकर थी। फैसले के एक दिन पहले मुख्य न्यायाधीश ने भी यूपी के उच्च अधिकारियों को बुलाकर सुरक्षा व्यवस्था के पूरे निर्देश दिए थे। पर भारतीयों ने कहीं से भी इस बात का अहसास नहीं होने दिया था कि वो परेशान हैं। वो सामान्य तरीके से थे। फैसला आने के बाद भी लोगों ने इसे बेहद सामान्य तरीके से लिया। बधाई के पात्र हैं सोशल मीडिया के शूर वीर भी। इन शूर वीरों ने भी जिस संयम और सौहार्द का परिचय दिया वह एक नजीर बन गई है। भारतीय सोशल मीडिया आज तक इतना संयमित कभी नहीं रहा, जितना फैसला आने के बाद रहा। यही असली भारतीयता है। इसी आपसी भाईचारे ने हम भारतीयों को आज तक जिंदा रखा है। तमाम आक्रांताओं ने हिंदुस्तान को बर्बाद करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी, लेकिन वे न तो हिंदुस्तान को खत्म कर सके और न यहां के लोगों के अंदर के हिंदुस्तानियत को। इसमें भी दो राय नहीं कि सियासती लोगों ने अपने र्स्वाथों के कारण हिंदू-मुस्लिम के रूप में राजनीतिक रोटी को सेंकना जारी रखा। यही कारण है कि वैमनस्य भी बढ़ा। पर जिनके बीच वैमनस्व बढ़ा उन्हीं लोगों ने इसे दूर भी किया। वो कहते हैं न कि...
...हमारी दोस्ती से दुश्मनी शरमाई रहती है,
हम अकबर हैं हमारे दिल में जोधाबाई रहती है।
गिले-शिकवे जरूरी हैं अगर सच्ची मुहब्बत है,
जहां पानी बहुत गहरा हो थोड़ी काई रहती है।

अयोध्या में राम मंदिर बनने का रास्ता साफ हो गया है। लंबे विवादों और तमाम सुलह के प्रयासों के बाद आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया है उसने भी राजनीति के कर्णधारों को करारा तमाचा मारा है। राम मंदिर पिछले करीब चार दशकों से भारतीय राजनीति के केंद्र में रहा है। शायद ही ऐसी कोई राजनीतिक पार्टी हो जिसने इस मुद्दे का राजनीतिक फायदा नहीं उठाया हो। खासकर 1992 के बाद राम मंदिर मुद्दे ने भारतीय राजनीति की धारा को ही बदल कर रख दिया था। सियासी सियारों ने अपनी राजनीति को धार देने के लिए हिंदू मुस्लिमों के बीच एक ऐसी विचारधारा को जन्म दे दिया था जिसमें लोग अपने विवेक का इस्तेमाल करना भूल गए थे। बहुत कुछ खोने के बाद जब इस भूल का अहसास हुआ तो हर तरफ न तो मंदिर जलते दिख रहे थे और न मस्जिद जलते, सिर्फ धुंआ ही दिख रहा था।
इस धुंए में लोगों ने अपने आप को देखा। अपनों को देखा। गंगा-यमुनी तहजीब देखी। फिर जाकर अहसास हुआ कि हम कहां हैं। हम क्या कर रहे हैं। शनिवार का दिन भी कुछ ऐसा ही था। शायद यही कारण था कि लोकतंत्र अपने सच्चे मायनों में सामने था। न्यायतंत्र अपनी जगह सही था और लोकतंत्र के छाते के नीचे हर कोई सिर्फ एक हिंदुस्तानी था। यह देखना कितना सुखद है। राम की जीत हुई और सियासी रावणों का आज अंत हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसा फैसला दिया है कि आज के बाद किसी भी राजनीतिक दल के पास राम मंदिर मुद्दा नहीं होगा। कोई भी दल मंदिर मस्जिद के नाम पर राजनीति चमकाने से पहले चार बार सोचेगा। अगर किसी ने मंदिर मस्जिद के नाम पर बांटने की कोशिश भी की तो हमें एक हिंदुस्तानी बनकर उन्हें करारा जवाब देना होगा। जैसा अभी दिया है।
मंदिर मस्जिद के नाम पर धार्मिक भावनाओं को भड़काने, देश की अखंडता, एकता, समरसता पर कुठाराघात करने वालों को हिंदुस्तानियों जो करारा जवाब दिया है वह एक नजीर बन गई है। फैसला चाहे जो आता, लेकिन उस फैसले से पहले ही तमाम हिंदू और मुस्लिम पक्षकारों ने यह बात स्पष्ट कर दी थी कि किसी भी कीमत पर सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ने नहीं दिया जाएगा।

जरा मंथन करिए और सोचिए कि जिस राम मंदिर की वर्षों से सेवा करने वाला एक मुसलमान है। जिस पुरातत्व विभाग के रिपोर्ट को आधार बनाकर कोर्ट ने अपना फैसला दिया है उस रिपोर्ट को बनाने वाला एक मुस्लिम अधिकारी है। मुस्लिम पक्ष का मुकदमा लड़ने वाला वकील एक हिंदू है। ऐसे हिंदुस्तान में सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने वालों की क्या हैसियत। यह हमारी और आपकी ही जिम्मेदारी है कि इस तहजीब और सद्भाव को बनाएं। सियासत का मूल मंत्र ही है कि लड़वाओ और शासन करो। हमेशा से ऐसा ही होता आ रहा है। पर जब-जब एक आम आदमी ने अपनी अक्ल से काम लिया है ऐसे सियासतदानों को करारा जवाब ही मिला है।
फैसले के बाद जिस तरह ओवैसी जैसे नेताओं ने तीखे बोल से प्रतिक्रिया दी और लोगों को भड़काने का काम किया वो बेहद निंदनीय है। पर लोगों ने जिस समझदारी का परिचय दिया उसका कोई मोल नहीं। मंथन करें कि क्यों नहीं इस अनमोल समझदारी को हर एक हिंदुस्तानी हमेशा दिल में रखे। हमें समझने की जरूरत है कि लोकतंत्र का आधार राजनीति है, पर राजनीति का आधार सांप्रदायिक नहीं हो सकता। अंत में चलते-चलते मेरे परम प्रिय शायर मुनव्वर राणा की इन चार पंक्तियों को जरूर पढ़ें और हमेशा गुनगुनाते रहें कि..
मुहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है,
सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है।
तवायफ की तरह अपने गलत कामों के चेहरे पर,
हुकूमत मंदिरों-मस्जिद का पर्दा डाल देती है।