Tuesday, November 24, 2015

‘इंडियंस एंड डॉग्स आर नॉट अलाउड’


इस आलेख के साथ जो तस्वीर आप देख रहे हैं उसमें भारतीय प्रधानमंत्री के साथ ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन दिख रहे हैं। कई दिनों से यह तस्वीर सोशल मीडिया सहित व्हाट्स ऐप पर भी सर्कुलेट हो रही है। साथ में कैप्शन लिखा हुआ है, मोदी जी आगे उस नुक्कड़ से दाएं मुड़ जाइएगा, कुछ देश उधर भी हैं। कल रात मेरे एक और मित्र ने मुझे यह मैसेज इसी संदेश के साथ भेज दिया। मैंने भी उसे जवाब लिख दिया। कहा मित्र इस फोटो को अब इस कैप्शन के साथ पढ़ो। ‘वो देखिए मोदी जी किसी भारतीय की शान में पहली बार अंग्रेजों ने सिर झुकाया है। आप आजादी के इतने सालों बाद पहले भारतीय हो जो ब्रिटेन की संसद में दहाड़ कर आए हो। नहीं तो हम अंग्रेज इंडियंस को कुत्ता ही समझते थे। यहां तक की ट्रेन के डिब्बे पर भी हम लिखते थे, इंडियंस एंड डॉग्स आर नॉट अलाउड।’
दरअसल, बात सिर्फ इस तस्वीर की ही नहीं है। इन दिनों प्रधानमंत्री को लेकर तमाम तरह के ऐसे-ऐसे जोक और मैसेज सर्कुलेट हो रहे हैं जिस पर हर एक भारतीय को शर्मिंदा होना चाहिए। एक तरफ अवॉर्ड लौटाने वाला गिरोह यह कहकर अवॉर्ड लौटा रहा है कि भारत में सहिष्णुता खतरे में है। वहीं, दूसरी तरह बेबाक तरीके से प्रधानमंत्री जैसे गरिमामय पद के खिलाफ अनाप-शनाप भी बोलते हैं। अब इन्हें कौन समझाए कि क्या आपको यह आजादी नहीं लगती कि आप बेबाक तरीके से प्रधानमंत्री के खिलाफ भी बोल सकते हैं। क्यों नहीं आपके बोल फूटते थे जब इमरजेंसी लगी थी? क्यों नहीं इंदिरा गांधी के खिलाफ एक कार्टून बना देते थे। मंथन करने का वक्त है कि हम प्रधानमंत्री जैसे पद की गरिमा का कितना सम्मान करते हैं।
प्रधानमंत्री का सबसे अधिक मजाक उनके विदेश दौरों को लेकर हो रहा है। कोई बजरंगी भाईजान-टू में सलमान को कह रहा है कि कृपया प्रधानमंत्री मोदी को भारत लेकर आएं, कोई उन्हें भारत के भी कई राज्य घूम लेने की सलाह दे रहा है। पर कोई यह बताने को तैयार नहीं है कि प्रधानमंत्री ने ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम के तहत कितने देशों को भारत में निवेश के लिए आमंत्रित किया है। कई ऐसे देश जो भारत को एक गरीब और अविकसित देश के रूप में देखते थे, वे अब भारत में अपना भविष्य का बाजार देख रहे हैं। ब्रेन ड्रेन की समस्या से जो देश सबसे अधिक प्रभावित था उस देश के युवा अब भारत में अपनी संभावनाएं तलाश रहे हैं। हाल ही में ब्रिटेन के दौरे के दौरान ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने जिस तरह तमाम प्रोटोकॉल तोड़कर भारतीय प्रधानमंत्री का स्वागत किया, वह कई मायनों में महत्वपूर्ण है।
जी-20 में शामिल देश हों या फिर सार्क देशों का समूह हो, हर प्लेटफॉर्म पर भारत सबसे आगे खड़ा दिख रहा है। कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने प्रधानमंत्री को अमेरिकी राष्टÑपति के बाद सबसे ताकतवर शख्स माना है। प्रधानमंत्री मोदी ऐसे शख्सियत के तौर पर उभरे हैं जिनकी बात पूरी दुनिया गौर से सुन रही है। स्वतंत्र भारत में शायद पहला दौर है जब वैश्विक स्तर पर भारत इतने सशक्त रूप से विश्व के सामने है। क्या यह सब सिर्फ भारत की गलियों की खाक छानने से मिल जाता? कुआलालंपुर में आसियान देशों के सम्मेलन में जिस तरह भारतीय प्रधानमंत्री की बातों को हर एक राष्टÑ ने सराहा और भारत के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने की बात कही वह ऐसे ही नहीं है। इसमें न केवल भारत की हालिया दिनों की दमदार छवि है, बल्कि पूर्ण बहुमत से भारतीय लोकतंत्र में प्रधानमंत्री बनने वाले शख्स का विजन भी है।
कुछ लोग विपक्षी दलों की हां में हां मिलाते कहते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी को भारत पर भी ध्यान देना चाहिए। यहां की भुखमरी और गरीबी पर ध्यान देना चाहिए। अब इन्हें कौन समझाए कि पिछले साठ साल में सिर्फ यही एक राजनीतिक मुद्दा है, जिस पर सरकारें बनती हैं और गिरती हैं, उसमें प्रधानमंत्री मोदी क्या कर लेंगे? कोई यह क्यों नहीं बताता कि प्रधानमंत्री के भारत में नहीं रहने से कौन सा काम अटका हुआ है। अब प्रधानमंत्री कोई म्युनिसिपल कमिश्नर या जिलाधिकारी तो हैं नहीं कि आम लोगों की गली-कूचे की समस्या का समाधान करता फिरें। प्रधानमंत्री के स्तर पर संसद और कैबिनेट में फैसले लिए जाते हैं। कैबिनेट की बैठक में पिछले एक साल में कई बड़े और महत्वूपर्ण फैसले लागू किए गए हैं। जबकि, संसद का हाल किसी से छिपा नहीं है। एक मामूली से मुद्दे को लेकर कांग्रेस ने संसद ही नहीं चलने दी, जिसके कारण कई महत्वपूर्ण बिल पास ही नहीं हो सके। संसद का शीतकालीन सत्र भी जल्द ही शुरू होने वाला है। विपक्षी दल पहले से ही तैयार बैठे हैं कि संसद नहीं चलने दिया जाएगा।
वाह क्या बात है, एक तरफ तो संसद नहीं चलने देंगे, वहीं दूसरी तरफ बयान जारी करेंगे कि प्रधानमंत्री के विदेश दौरे से सभी काम अटके पड़े हैं। जनता को मूर्ख समझने की गलती करने वालों को यह भी समझने और समझाने की जरूरत है कि सिर्फ बयान जारी करने और सोशल मीडिया में कार्टून जारी कर देने से कोई बड़ा या छोटा नहीं हो जाता है। प्रधानमंत्री पद की अपनी गरिमा होती है, उसका अपना महत्व होता है, हमें उसका सम्मान जरूर करना चाहिए।

कुछ लोग कहते हैं कि जब प्रधानमंत्री ही अपनी गरिमा ताक पर रखकर बिहार चुनाव के समय व्यक्तिगत आक्षेप करते फिर रहे थे तो   हम क्यों उनकी गरिमा का ख्याल रखें? यह सच भी है कि एक प्रधानमंत्री को अपनी पार्टी को सिर्फ राजनीतिक लाभ दिलाने के लिए अमर्यादित बयान नहीं देने चाहिए। अपने बयानों पर संयम रखकर भी वह अपनी पार्टी हितों के लिए काम कर सकते हैं। कौन ऐसा प्रधानमंत्री है जो अपनी पार्टी के लिए काम नहीं करता। सभी करते हैं। पर यह काम एक दायरे में रहकर करना चाहिए, क्योंकि पूरे देश ने उन्हें अपना नेतृत्वकर्ता माना है। देश की कमान उन्हें सौंपी है। ऐसे में प्रधानमंत्री के तौर पर उनसे अपेक्षाएं भी बहुत होती हैं। पर हमें भी मंथन जरूर करना चाहिए कि जो प्रधानमंत्री अपने देश की आन-बान और शान के लिए विश्व से लोहा ले रहा है, उसका मजाक उड़ा कर हम क्या हासिल कर सकते हैं। अगर आप प्रधानमंत्री के कामकाज से खुश नहीं हैं तो पांच साल इंतजार करिए। जिस तरह आपको मौका मिला आपने सत्ता परिवर्तित कर दी, फिर आपको मौका मिलेगा। फिर दिखाइएगा ताकत। पर जब तक कोई अपने पद पर है, उस पद का सम्मान पूरी शिद्दत के साथ करना चाहिए। पूरा विश्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कारण इस वक्त भारत की तरफ देख रहा है। यह वक्त आने वाले भारत के भविष्य की रूप-रेखा तैयार करेगा। ऐसे में हमें भारतीय प्रधानमंत्री के पद पर अभिमान करना चाहिए न कि इस पद का भरे बाजार मजाक उड़ाना चाहिए। 

Saturday, November 7, 2015

... दिल की बात बता देता है असली-नकली चेहरा


आए दिन एफएम पर भूले-बिसरे गीत कार्यक्रमों में आप यह गाना जरूर सुन पाते होंगे, जिसके बोल हैं, ‘लाख छिपाओ छिप न सकेगा राज हो जितना गहरा, दिल की बात बता देता है असली-नकली चेहरा।’ दरअसल, भूले बिसरे गीत आज भी इतने प्रासंगिक हो जाते हैं कि एफएम वाले भी अपने श्रोताओं को मजा दिलाने के लिए इन्हें बजा ही देते हैं। अब हाल के पुरस्कार वापसी कार्यक्रमों की तरफ जरा गौर करिए। फिर यह गाना सुनिए और आनंद लीजिए इसके बोलों के।

 जो साहित्यकार, फिल्मकार, इतिहासकार अपने अवॉर्ड लौटाने के कार्यक्रमों में संयुक्त रूप से भाग लेकर अपनी जय-जय करा रहे हैं, उनके कार्यकाल और लेखनी पर भी जरूर गौर करना चाहिए। अवॉर्ड लौटाने की शुरुआत करने वालों की प्रेरणाश्रोत बनीं लेखिका नयनतारा सहगल। पंडित जवाहर लाल नेहरू की भांजी नयनतारा सहगल ने यह कहकर अवॉर्ड लौटा दिया कि मोदी सरकार देश में सांस्कृतिक एकता कायम करने में नाकाम रही है। इसके बाद तो जैसे लाइन लग गई अवॉर्ड लौटाने की। पर किसी ने नयनतारा से यह सवाल नहीं किया कि आखिर भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल में ही उन्हें सांस्कृतिक एकता में असहिष्णुता क्यों दिखाई पड़ी? कांग्रेस के शासनकाल में वे उस वक्त कहां थीं जब सलमान रुश्दी को भारत आने से रोक दिया गया था। तब वह कहां थीं जब तसलीमा नसरीन को लेकर इतनी टीका-टिप्पणी चल रही थी। पश्चिम बंगाल सरकार ने उन्हें राज्य में घुसने तक नहीं दिया था, उन्हें भारत छोड़ने पर मजबूर किया गया और उस वक्त उन्हें सांस्कृतिक एकता खतरे में क्यों नहीं दिखी जब भारत ने इमरजेंसी जैसा काला दिन देखा?

दरअसल, भारतीय समाज की यह विशेषता रही है कि भेड़चाल में शामिल होकर लोग अपनी प्रसिद्धि देखना शुरू कर देते हैं। एक लेखक ने अवॉर्ड क्या लौटाया यह देश व्यापी अभियान बन गया। कई ऐसे लेखक भी सामने आ गए और वैश्विक स्तर पर चर्चा पा गए, जो लंबे समय से हाशिए पर थे। इसके बाद तो इतिहासकार और फिल्मकारों का भी असली-नकली चेहरा सामने आ गया। सच्चाई यही है कि अवॉर्ड लौटाने वालों में अधिकतर वैसे ही हैं, जिन्होंने साठ साल तक सत्ता का सुख भोगा है। लुटियंस दिल्ली के गलियारों में कोठियां पाकर सरकार की जयगाथा लिखी है।
यह जगतव्यापी सच्चाई है कि सभी लेखक किसी न किसी विचारधारा से प्रभावित रहे हैं। इसी क्रम में अवॉर्ड लौटाने वालों का इतिहास भी खंगालने की जरूरत है। ऐसा नहीं है कि अवॉर्ड लौटाने की परंपरा नई है। इससे पहले भी देशव्यापी मुद्दों पर अवॉर्ड लौटाए गए हैं। इसी क्रम में खुशवंत सिंह का नाम भी लिया जा सकता है। जब उन्होंने सिख दंगों के विरोध में अवॉर्ड लौटा दिया था। पर उस वक्त उनकी उतनी चर्चा नहीं हुई, क्योंकि उस वक्त मीडिया तो थी पर आज के दौर की तरह हाईटेक इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया नहीं थी। जहां एक शब्द लिखने और बोल देने भर से क्षण भर में आवाज दिल्ली से कन्याकुमारी तक पहुंच जाती हो।
तसलीमा नसरीन ने दो दिन पहले लिखे अपने आर्टिकल में उन बुद्धिजीवियों से सवाल किया है, जो अवॉर्ड वापसी फंक्शन में जी-तोड़ मेहनत कर रहे हैं। तस्लीमा ने साफ-साफ पूछा है कि ‘उस वक्त उनकी बौद्धिकता कहां गई थी, जब उनके खिलाफ पांच फतवे जारी किए गए थे। उस वक्त वे कहां थे जब उनके खिलाफ जुबानी हमले हो रहे थे।’ इस सच्चाई से कोई मुंह नहीं फेर सकता है कि जो लोग अवॉर्ड लौटा रहे हैं, उनका असली चेहरा अब नजर आने लगा है। वैचारिक मुद्दों की लड़ाई कोई नई बात नहीं है। तमाम देशों में इसी पर राजनीति होती रही है, पर अवॉर्ड लौटाने जैसे कृत्य को कहीं से उचित नहीं ठहराया जा सकता है। यह न केवल उस अवॉर्ड का अपमान है, बल्कि भारतीयता का भी अपमान है। किसी को एक नेशनल अवॉर्ड पूरे भारत की तरफ से दिया जाता है। उससे हर एक भारतीय की भावनाएं जुड़ी होती हैं। इसे सार्वजनिक तौर पर भरे बाजार में नीलाम करने को हम विरोध का नाम कैसे दे सकते हैं। अगर किसी को सरकार से जुड़े-कामकाज से आपत्ति है तो इसे व्यक्त करने के हजार और भी तरीके हो सकते हैं। पर एक राष्टÑीय सम्मान लौटाने को बौद्धिकता का पतन ही कहा जाना चाहिए।

हालांकि, इस सच्चाई पर भी मंथन की जरूरत है कि आखिर ऐसा क्या हो गया कि इन तथाकथित बुद्धिजीवियों सहित विपक्षी पार्टी कांग्रेस को बैठे-बिठाए इतना बड़ा असहिष्णुता का मुद्दा हाथ लग गया। ‘मेक इन इंडिया’ और ‘डिजिटल इंडिया’ का नारा देने वाली मोदी सरकार कैसे साहित्य और सांस्कृतिक संस्थाओं को बिसरा बैठी। मोदी सरकार की अगर सबसे बड़ी कमजोर कड़ी की खोज शुरू की जाए तो सबसे पहले उनके अपने नेता ही सामने आएंगे। ये वैसे नेता हैं, जो आए दिन बेवजह के विवादित बयान देने के लिए जाने जाते हैं। सख्त प्रशासक की छवि रखने वाले मोदी इन नेताओं को कैसे बर्दाश्त कर रहे हैं, यह भी विचारणीय मुद्दा है। बिहार चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री ने भी जिस स्तर पर जाकर व्यक्तिगत हमले किए हैं, उसे भी कहीं से स्वीकार नहीं किया जा सकता है। एक प्रधानमंत्री की अपनी गरिमा होती है इस गरिमा को भी बनाए रखने की जरूरत है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो जिस बेहतर विजन के साथ भारतीयता का डंका पहली बार वैश्विक   स्तर पर बज रहा है वह जल्द ही रसातल में मिल जाएगा। 

चलते-चलते
वर्तमान में सोशल मीडिया में सम्मानित लेखकों के बारे में तंज कसा मैसेज सर्कुलेट हो रहा है। मसलन लिखा यहां तक जा रहा है कि लेखक अवॉर्ड इसलिए लौटा रहे हैं, क्योंकि ये अवॉर्ड इन्हें बैठे बिठाए मिल गए हैं। कोई वीरता पुरस्कार क्यों नहीं लौटा रहा, इसलिए कि इसमें जान की बाजी लगाई गई है। शायद इन्हीं बातों से हमारे देश के बहादुर सैनिक भी प्रभावित हो गए हैं। जंतर-मंतर पर ‘वन रैंक वन पेंशन’ के लिए लंबे समय से आंदोलनरत पूर्व सैनिकों ने कहा है कि अगर उन्हें जल्द लाभ मिलना शुरू नहीं हुआ तो वे अपने मेडल लौटा देंगे। उनका यह बयान उस वक्त आया है, जब रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने कहा है कि दिवाली से पहले इसका नोटिफिकेशन जारी कर दिया जाएगा।