Saturday, November 7, 2015

... दिल की बात बता देता है असली-नकली चेहरा


आए दिन एफएम पर भूले-बिसरे गीत कार्यक्रमों में आप यह गाना जरूर सुन पाते होंगे, जिसके बोल हैं, ‘लाख छिपाओ छिप न सकेगा राज हो जितना गहरा, दिल की बात बता देता है असली-नकली चेहरा।’ दरअसल, भूले बिसरे गीत आज भी इतने प्रासंगिक हो जाते हैं कि एफएम वाले भी अपने श्रोताओं को मजा दिलाने के लिए इन्हें बजा ही देते हैं। अब हाल के पुरस्कार वापसी कार्यक्रमों की तरफ जरा गौर करिए। फिर यह गाना सुनिए और आनंद लीजिए इसके बोलों के।

 जो साहित्यकार, फिल्मकार, इतिहासकार अपने अवॉर्ड लौटाने के कार्यक्रमों में संयुक्त रूप से भाग लेकर अपनी जय-जय करा रहे हैं, उनके कार्यकाल और लेखनी पर भी जरूर गौर करना चाहिए। अवॉर्ड लौटाने की शुरुआत करने वालों की प्रेरणाश्रोत बनीं लेखिका नयनतारा सहगल। पंडित जवाहर लाल नेहरू की भांजी नयनतारा सहगल ने यह कहकर अवॉर्ड लौटा दिया कि मोदी सरकार देश में सांस्कृतिक एकता कायम करने में नाकाम रही है। इसके बाद तो जैसे लाइन लग गई अवॉर्ड लौटाने की। पर किसी ने नयनतारा से यह सवाल नहीं किया कि आखिर भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल में ही उन्हें सांस्कृतिक एकता में असहिष्णुता क्यों दिखाई पड़ी? कांग्रेस के शासनकाल में वे उस वक्त कहां थीं जब सलमान रुश्दी को भारत आने से रोक दिया गया था। तब वह कहां थीं जब तसलीमा नसरीन को लेकर इतनी टीका-टिप्पणी चल रही थी। पश्चिम बंगाल सरकार ने उन्हें राज्य में घुसने तक नहीं दिया था, उन्हें भारत छोड़ने पर मजबूर किया गया और उस वक्त उन्हें सांस्कृतिक एकता खतरे में क्यों नहीं दिखी जब भारत ने इमरजेंसी जैसा काला दिन देखा?

दरअसल, भारतीय समाज की यह विशेषता रही है कि भेड़चाल में शामिल होकर लोग अपनी प्रसिद्धि देखना शुरू कर देते हैं। एक लेखक ने अवॉर्ड क्या लौटाया यह देश व्यापी अभियान बन गया। कई ऐसे लेखक भी सामने आ गए और वैश्विक स्तर पर चर्चा पा गए, जो लंबे समय से हाशिए पर थे। इसके बाद तो इतिहासकार और फिल्मकारों का भी असली-नकली चेहरा सामने आ गया। सच्चाई यही है कि अवॉर्ड लौटाने वालों में अधिकतर वैसे ही हैं, जिन्होंने साठ साल तक सत्ता का सुख भोगा है। लुटियंस दिल्ली के गलियारों में कोठियां पाकर सरकार की जयगाथा लिखी है।
यह जगतव्यापी सच्चाई है कि सभी लेखक किसी न किसी विचारधारा से प्रभावित रहे हैं। इसी क्रम में अवॉर्ड लौटाने वालों का इतिहास भी खंगालने की जरूरत है। ऐसा नहीं है कि अवॉर्ड लौटाने की परंपरा नई है। इससे पहले भी देशव्यापी मुद्दों पर अवॉर्ड लौटाए गए हैं। इसी क्रम में खुशवंत सिंह का नाम भी लिया जा सकता है। जब उन्होंने सिख दंगों के विरोध में अवॉर्ड लौटा दिया था। पर उस वक्त उनकी उतनी चर्चा नहीं हुई, क्योंकि उस वक्त मीडिया तो थी पर आज के दौर की तरह हाईटेक इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया नहीं थी। जहां एक शब्द लिखने और बोल देने भर से क्षण भर में आवाज दिल्ली से कन्याकुमारी तक पहुंच जाती हो।
तसलीमा नसरीन ने दो दिन पहले लिखे अपने आर्टिकल में उन बुद्धिजीवियों से सवाल किया है, जो अवॉर्ड वापसी फंक्शन में जी-तोड़ मेहनत कर रहे हैं। तस्लीमा ने साफ-साफ पूछा है कि ‘उस वक्त उनकी बौद्धिकता कहां गई थी, जब उनके खिलाफ पांच फतवे जारी किए गए थे। उस वक्त वे कहां थे जब उनके खिलाफ जुबानी हमले हो रहे थे।’ इस सच्चाई से कोई मुंह नहीं फेर सकता है कि जो लोग अवॉर्ड लौटा रहे हैं, उनका असली चेहरा अब नजर आने लगा है। वैचारिक मुद्दों की लड़ाई कोई नई बात नहीं है। तमाम देशों में इसी पर राजनीति होती रही है, पर अवॉर्ड लौटाने जैसे कृत्य को कहीं से उचित नहीं ठहराया जा सकता है। यह न केवल उस अवॉर्ड का अपमान है, बल्कि भारतीयता का भी अपमान है। किसी को एक नेशनल अवॉर्ड पूरे भारत की तरफ से दिया जाता है। उससे हर एक भारतीय की भावनाएं जुड़ी होती हैं। इसे सार्वजनिक तौर पर भरे बाजार में नीलाम करने को हम विरोध का नाम कैसे दे सकते हैं। अगर किसी को सरकार से जुड़े-कामकाज से आपत्ति है तो इसे व्यक्त करने के हजार और भी तरीके हो सकते हैं। पर एक राष्टÑीय सम्मान लौटाने को बौद्धिकता का पतन ही कहा जाना चाहिए।

हालांकि, इस सच्चाई पर भी मंथन की जरूरत है कि आखिर ऐसा क्या हो गया कि इन तथाकथित बुद्धिजीवियों सहित विपक्षी पार्टी कांग्रेस को बैठे-बिठाए इतना बड़ा असहिष्णुता का मुद्दा हाथ लग गया। ‘मेक इन इंडिया’ और ‘डिजिटल इंडिया’ का नारा देने वाली मोदी सरकार कैसे साहित्य और सांस्कृतिक संस्थाओं को बिसरा बैठी। मोदी सरकार की अगर सबसे बड़ी कमजोर कड़ी की खोज शुरू की जाए तो सबसे पहले उनके अपने नेता ही सामने आएंगे। ये वैसे नेता हैं, जो आए दिन बेवजह के विवादित बयान देने के लिए जाने जाते हैं। सख्त प्रशासक की छवि रखने वाले मोदी इन नेताओं को कैसे बर्दाश्त कर रहे हैं, यह भी विचारणीय मुद्दा है। बिहार चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री ने भी जिस स्तर पर जाकर व्यक्तिगत हमले किए हैं, उसे भी कहीं से स्वीकार नहीं किया जा सकता है। एक प्रधानमंत्री की अपनी गरिमा होती है इस गरिमा को भी बनाए रखने की जरूरत है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो जिस बेहतर विजन के साथ भारतीयता का डंका पहली बार वैश्विक   स्तर पर बज रहा है वह जल्द ही रसातल में मिल जाएगा। 

चलते-चलते
वर्तमान में सोशल मीडिया में सम्मानित लेखकों के बारे में तंज कसा मैसेज सर्कुलेट हो रहा है। मसलन लिखा यहां तक जा रहा है कि लेखक अवॉर्ड इसलिए लौटा रहे हैं, क्योंकि ये अवॉर्ड इन्हें बैठे बिठाए मिल गए हैं। कोई वीरता पुरस्कार क्यों नहीं लौटा रहा, इसलिए कि इसमें जान की बाजी लगाई गई है। शायद इन्हीं बातों से हमारे देश के बहादुर सैनिक भी प्रभावित हो गए हैं। जंतर-मंतर पर ‘वन रैंक वन पेंशन’ के लिए लंबे समय से आंदोलनरत पूर्व सैनिकों ने कहा है कि अगर उन्हें जल्द लाभ मिलना शुरू नहीं हुआ तो वे अपने मेडल लौटा देंगे। उनका यह बयान उस वक्त आया है, जब रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने कहा है कि दिवाली से पहले इसका नोटिफिकेशन जारी कर दिया जाएगा।

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