Thursday, August 16, 2018

लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं?



कहीं सुना था...जिंदगी की शोर, राजनीति की आपाधापी। रिश्ते नातों की गलियों और क्या खोया क्या पाया के बाजारों से आगे, सोच के रास्ते पर कहीं एक ऐसा नुक्कड़ आता है जहां पहुंच कर इंसान एकांकी हो जाता है। तब जाग उठता है कवि। फिर शब्दों के रंगों से जीवन की अनोखी तस्वीरें बनती हैं। कविताएं और गीत सपनों की तरह आते हैं और कागज पर हमेशा के लिए अपने घर बना लेते हैं। अटल जी की कविताएं ऐसे ही पल, ऐसे ही क्षणों में लिखी गर्इं। जब सुनने वाले और सुनाने वाले में तुम और मैं की दीवारें टूट जाती हैं। दुनिया की सारी धड़कनें सिमट कर एक दिल में आ जाती हैं। और कवि के शब्द दुनिया के हर संवेदनशील इंसान के शब्द बन जाते हैं।

इमरजेंसी के दौर में जब बंगलौर की जेल में अटल जी थे तब उनकी तबियत खराब हो गई थी। उन्हें दिल्ली लाया गया। यहां आॅल इंडिया मेडिकल इंस्टीट्यूट एंड साइंस (एम्स) में रखा गया था। चौथी या पांचवीं मंजिल पर उनका कमरा था। चारों तरफ काफी सुरक्षा थी। रोज सुबह करीब पांच से साढ़े पांच बजे के बीच अटल जी की नींद खुल जाती थी। उनकी नींद लोगों के रुदन, क्रंदन से टूटती थी। अटल जी को आश्चर्य होता था रोज सुबह यहां कौन रोता है। अपने लोगों को उन्होंने पता करने के लिए कहा। पता चला कि जहां उनका कमरा था वहां से थोड़ी दूर नीचे की फ्लोर पर एम्स का शवगृह था। एम्स में इलाज के दौरान जिंदगी की जंग हार जाने वालों के परिजनों को रोज सुबह इसी जगह पर शव सौंपा जाता था। वह रुदन क्रंदन की आवाज यहीं से आती थी। अटल जी ने अपने संस्मरणों में बताया था कं्रदन की आवाज दूर से सुनाई पड़ती थी, लेकिन हृदय को चीर कर चली जाती थी। कवि हृदय अटल जी की कलम से जो शब्द निकले वह जगजीत सिंह के द्वारा गायी गई गजलों में आज भी सुनी जाती हैं। उनके शब्द थे..

दूर कहीं कोई रोता है
तन पर पहरा भटक रहा मन
साथी है केवल सुनापन
बिछड़ गया क्या स्वजन किसी का
कं्रदन सदा करुण होता है
दूर कहीं कोई रोता है
जन्मदिवस पर हम इठलाते
क्यूं न मरन त्योहार मनाते
अंतिम यात्रा के अवसर पर
आंसू का अशगुन होता है
दूर कहीं कोई रोता है
अंतर रोये आंख न रोये
धुल जाएंगे स्वप्न संजोए
छल न भरे विश्व में केवल
सपना भी तो सच होता है
इस जीवन से मृत्यु भली है
आतंकित जब गली गली है
मैं भी रोता आसपास जब
कोई कहीं नहीं होता है
दूर कहीं कोई रोता है
पर क्या कोई सोच सकता है जिस एम्स के कमरे में बैठकर उन्होंने मृत्यु से साक्षात्कार करती यह कविता लिखी आज उसी एम्स में वे अंतिम सांस लेंगे। यह अटल जी का निश्चछल और पवित्र दिल ही था जिसने कभी सच्चाई से मुख नहीं मोड़ा। उस अटल सत्य को उन्होंने कविता की पंक्तियों में ढालकर अपनी मौत को भी अमर कर दिया। आज पूरा देश रो रहा है। कं्रदन ऐसा है कि सभी नि:शब्द हैं। मौत साश्वत है। पर इस सत्य को कोई स्वीकार नहीं कर पा रहा है। उनके चाहने वाले कं्रदन कर रहे हैं पर दिल से उस शख्स को मृत्युशैया पर नहीं देख पा रहे हैं। यह अटल जी की महानता की पराकाष्ठा ही थी कि आज धर्म, जाति, ऊंच, नीच, राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं से ऊपर उठकर लोग अपनी भावनाओं को सहेज रहे हैं। उनकी यादों को आत्मसात करने की कोशिश कर रहे हैं।
अपने संस्मरणों को सुनाते हुए उनकी एक रिकॉर्डिंग मेरे आॅडियो कलेक्शन में मौजूद है। उसमें अटल जी कहते हैं। राजनीति की आपधापी और व्यस्तताओं के बीच उन्हें कविता लिखने का अब समय नहीं मिलता। पर पिछले कुछसालों से अपने जन्मदिन के दिन वो एक कविता जरूर लिखते हैं। इन्हीं कविताओं में से उनकी लिखी एक कविता की पंक्तियां हैं.....
जो कल थे वो आज नहीं हैं
जो आज हैं वो कल नहीं होंगे
होने न होने का क्रम इसी तरह चलता रहेगा
हम हैं हम रहेंगे ये भ्रम भी सदा बनता रहेगा
सत्य क्या है
होना या न होना
या दोनों ही सत्य हैं
जो है उसका होना सत्य है
जो नहीं है उसका न होना सत्य है
मुझे लगता है कि होना या न होना
एक ही सत्य के दो आयाम हैं
इसलिए सब समझ का फेर
बुद्धि के व्यायाम हैं
यह पंक्तियां कोई असाधारण व्यक्ति का स्वामी ही लिख सकता है। अटल जी ऐसे ही असाधारण व्यक्ति थे। शायद यही कारण है कि जब एम्स में उनका इलाज चल रहा था पूरे देश में दुआओं का दौर चल रहा था। सभी राजनीतिक दल के लोग उनकी सेहत का हाल चाल पूछने एम्स पहुंच रहे थे। हर एक व्यक्ति गमगीन था। हर एक की आंखों में आंसू थे। अटल जी जब राजनीति में एक ऊंचे मुकाम पर थे तब भी उनका कवि हृदय हमेशा कुछ न कुछ नया लिखता था। उनके लिखे एक-एक शब्द सौ-सौ गोलियों पर भारी पड़ते थे। इमरजेंसी के दौर में जब एक साल बीत गया था। उस दौरान उनकी लिखी ऐसी ही एक कविता की पंक्तियों में वो कहते हैं..
झुलासाता जेठ मास, शरद चांदनी उदास
सिसकी भरते सावन का, अंतर्घट रीत गया
एक बरस बीत गया
सीकचों में सिमटा जग, किंतु विकल प्राण विहग
धरती से अम्बर तक गूंज मुक्ति गीत गया
एक बरस बीत गया
पथ निहारते नयन , गिनते दिन पल छिन
लौट कभी आएगा , मन का जो मीत गया
एक बरस बीत गया
   

अटल जी चाहे संसद के अंदर रहे या बाहर। हमेशा उन्होंने अपनी राजनीतिक विचारधारा को व्यक्तिगत आरोपों प्रत्यारोपों से दूर रखा। आज उनके जैसे बिरले ही जन प्रतिनिधि दिखते हैं। आज उनका जाना राजनीति के एक स्वर्णिम युग का अवसान है। यह अवसान लंबे समय तक भारतीय लोकतंत्र के प्रहरियों को सालता रहेगा। पूरा देश गमगीन है। रो रहा है। दिल से कोई उनकी मृत्यु को स्वीकार नहीं कर पा रहा है। पर मृत्यु अटल है। यह समझना भी जरूरी है। अटल जी के शब्दों में ही..
मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं, जिंदगी सिलसिला, आज कल की नहीं।
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं,
लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं?
अटल जी जैसा व्यक्ति सदियों में पैदा होता है। वे लौट कर आएंगे या नहीं, यह कहा नहीं जा सकता है। पर अपने सिद्धांतों और असाधारण व्यक्तित्व के जरिए वो हर एक भारतीय के दिलों में जिंदा रहेंगे। नमन ऐसे ‘अटल’ को।

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