Saturday, August 4, 2018

काशी से कामाख्या

काशी विश्वनाथ के चरणों में रहकर पत्रकारिता कर रहे बड़े भाई विश्वनाथ गोकर्ण भैय्या इन दिनों नौकरी की आपाधापी से दूर अपनी जिंदगी जी रहे हैं। दैनिक जागरण आईनेक्स्ट से विदा लेकर अपना स्वतंत्र काम रहे विश्वनाथ भैय्या अभी कामख्या देवी के दर्शन को गए हैं। उनका यह यात्रा संस्मरण पढ़ें। उनकी आज्ञा लेकर अपने ब्लॉग पर डाल रहा हूं। काशी से कामख्या की यह अद्भूत यात्रा आपको एक अलग ही दुनिया में लेकर जाएगी...
रथयात्रा से भेलपुर की ओर जाने वाले रास्ते में काशीराज अपार्टमेंट से सटे एक मोड पर पर न जाने कौन सी ऐसी कशिश है कि उस रास्ते से गुजरते हुए सिर अपने आप बाअदब झुक जाता था। पहले तो समझ में नहीं आया। या यूं कहूं कि ध्यान नहीं गया। एक रोज सांझ की बेला में उधर से गुजरते समय किसी परा शक्ति ने मुझे अपने होने का अहसास कराया और कहा कि देखो, मैं माता कामरूप
कामाख्या हूं। वो इलाका कमच्छा था। जो कभी कामाख्या था पर अपभं्रश होकर कमच्छा हो गया था। जिस दिन यह सब घटित हुआ उसी दिन फेसबुक पर आदरणीय पंडित पद्मपति शर्मा ने एक तस्वीर शेयर की। उनका कहना था कि वो माता कामाख्या की ओरिजनल तस्वीर है और वो भी गुवाहाटी स्थित पवित्र धाम की। मैंने पदम भैया को पंडित इसलिए नहीं कहा कि वो ब्राह्मण हैं। मैं उन्हें पंडित इसलिए कह रहा हूं क्योंकि वो हिन्दी पत्रकारिता के शलाका पुरुष होने के अलावा हर उस विषय के जानकार हैं जिन्हें कम लोग बूझ पाते हैं। गीत संगीत, तंत्र मंत्र से लेकर साहित्य तक के मर्मज्ञ पदम भैया को यह सब उनके गुरुदेव डाॅ शिवप्रसाद सिंह और पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी से प्रसाद स्वरूप प्राप्त हुआ है। बहरहाल, वो क्या अलौकिक चित्र था माता का। मैंने वो तस्वीर मातृ स्वरूपा अपनी बडी बहन आदरणीय मंदाकिनी गोकर्ण को दिखाया। हिन्दी साहित्य से लेकर पराशक्ति दर्शन तक और बुद्ध से लेकर ज्योतिष तक को घोट कर पी चुकीं दीदी उस तस्वीर को देख जैसे सम्मोहित हो गयीं। उनके मंुह से अचानक निकल गया, अरे एक बार तो यहां की यात्रा करनी ही है। बता दूं कि पदम भैया और दीदी एक ही गुरु के शिष्य हैं, सो इन दोनो की विद्वत्ता का पैमाना तय करना मुश्किल है। तो उस दिन काशी से कामाख्या के यात्रा की जैसे नींव रखी गयी। बेटे चिन्मय गोकर्ण को बताया तो उसने कहा कि टिकट से लेकर गुवाहाटी में ठहरने तक का सारा कुछ इंतजाम आॅन लाइन कर लिया जाएगा। उन दिनों नौकरी के तमाम झंझटों के बीच अवकाश मिल पाना मुश्किल था। इधर हाल ही में जैसे ही मैंने नौकरी को त्यागा तो लगा जैसे नील घाटी से कोई पुकार रहा था। आ,,,,जा,,,,,,,जा,,,,। एक रात भोरहरी में करीब चार बजे के आसपास अचानक से नींद खुली तो खुद को पसीने से तर बतर पाया। शायद कोई सपना देखा था मैंने। दिमाग पर जोर डाला तो खुद को किसी पहाडी पर पत्थरों की सीढी चढते पाया। उपर पहंुचने पर एक चैरस जगह पर कोई प्राचीन सा शिखर दिखायी देने लगा। मैं पूरे होशो हवास में था। खूनी लाल रंग का कपडा पहने कुछ लोग दिख रहे थे। एकदम शांत चित्त के वो लोग किसी से कुछ कह नहीं रहे थे पर वो कुछ बुदबुदा रहे थे। उनके देदिप्यमान चेहरे पर बरसता नूर किसी अलौकिक शक्ति से प्रदत्त नजर आ रहा था। ढेर सारे चरिंद परिंद नजर आ रहे थे। गौर किया तो वो सब कबूतर और बकरी के बच्चे थे। सबके चेहरे एकदम उदास, जैसे उनकी जिंदगी में भयानक वीरानी हो। तभी लाल कपडे पहने एक शख्स ने अचानक से मेरा हाथ थामा और एक बडे से हाॅल की ओर चलने लगा। निपट अंधेरा और सन्नाटा तारी था वहां। एक बडी सी परई में जलते हुए दीये की पीली मद्धम सी रोशनी। अजीब सा रहस्यमय शख्स था वो। चार छह सीढी नीचे उतरते ही एक कमरा। वहां लाल अढहुल के फूलों से ढंकी एक प्रतिमा को दंडवत करने का मुझे आदेश देते हुए उसने पुष्पांजलि पढना शुरु कर दिया था। ओम नमो भगवति... चामुंडे... नीलपर्वत वासीनी... नमस्तुते... पुष्प अर्पण के बाद वो मुझे फिर सीढियां उतार रहा था। वहां भी फिर वही पुष्पाजंलि। नमो भगवति... चामुंडा... नीलपर्वत वासीनी... योनी मुद्रा... कामाख्ये नमोस्तुते... उधर वो ब्राह्मण मंत्र पढ रहा था और इधर मैं सजदे में गिरा पडा मां से अपने तमाम पापों के परिहार के लिए झारे झार रो रहा था। मेरे मंुह से निकलते देव्यपराधक्षमापन स्तोत्र की स्पष्ट आवाज जैसे उस हाॅल में गंूज रही थी। मैं जग चुका था। समझ भी गया कि यह सपना था लेकिन सब कुछ घटित होता सा प्रतीत हो रहा था। सुबह चाय पीते हुए भी मन कुछ अलग सा लग रहा था। दोपहर होते होते पुणे से बेटे चिन्मय का फोन आया कि कामाख्या का उसने टिकट बुक करा दिया है। जाते हुए डिब्रूगढ राजधानी में और आते हुए नाॅर्थ ईस्ट एक्सप्रेस में इंतजाम हुआ था। आजकल रेल यात्रा में कन्फर्म टिकट पाना ओलम्पिक में गोल्ड मेडेल पाने से कमतर नहीं है। रहने का भी उसने गुवाहाटी के किसी हारमनी हाउस में इंतजाम किया था। पता चला कि ये कोई होटल नहीं होम स्टे टाइप का मामला है। फोन रखने के बाद मैं रात के सपने और इस पूरे इंतजाम को को-रीलेट करने में डूब गया था। अचानक जब तन्द्रा टूटी तो खुद को घर में बने मंदिर की दहलीज पर पाया। साष्टांग दंडवत में पडा मैं उस अवलम्ब को शुक्राना अदा कर रहा था जो मुझे इन सारे अहसासों से गुजार ही नहीं रहा था बल्कि मुझ गुनहगार को अपने रहम और करम से लगातार नवाज रहा था।

(अगले अंक में राजधानी एक्सप्रेस की यात्रा और वो हारमनी हाउस...)
काशी विश्वनाथ के चरणों में रहकर पत्रकारिता कर रहे बड़े भाई विश्वनाथ गोकर्ण भैय्या इन दिनों नौकरी की आपाधापी से दूर अपनी जिंदगी जी रहे हैं।