
दलाई लामा द्वारा इस तरह कही गई बातों के कई मायने हैं। पर सबसे बड़ी बहस इस पर है कि आखिर ऐसा क्या हो रहा है कि एक धर्मगुरु को इस तरह की राजनीतिक बयानबाजी करने की जरूरत पड़ गई। यहां बता दें कि दलाई लामा ने अपने बयान के दूसरे दिन माफी भी मांग ली थी। पर उनके द्वारा कही गई बातों को पूरा देश सुन रहा है। पूरा विश्व जानता है कि भारत और चीन के बीच तनाव का एक बड़ा प्रमुख कारण दलाई लामा का भारत में शरण लेना है। चीन आज तक यह स्वीकार नहीं कर सका है कि उसके दुश्मनों को भारत ने शरण दे रखी है। क्या दलाई लामा इस बात को भूल गए कि जिस नेहरू की वो आलोचना कर रहे हैं उन्होंने तिब्बती शरणार्थियों के लिए चीन से दुश्मनी मोल ली थी। आज जिसके दम पर वो भारत में स्वतंत्रता पूर्वक जीवन जी रहे हैं उसे ही राजनीति का मुहरा बनाकर वो क्या बताना चाहते हैं। क्या कारण है कि अचानक से जवाहर लाल नेहरू की नीतियों में उन्हें स्वार्थ की बू आने लगी है। क्या दलाई लामा इस बात को भूल चुके हैं कि भारत के विभिन्न राज्यों में रह रहे लाखों तिब्बती शरणार्थी खुली हवा में सांस इसीलिए ले पा रहे हैं क्योंकि भारत की सशक्त विदेश नीति की नींव उसी नेहरू के समय पड़ी थी।
आज भारत की राजनीति को एक अलग चश्मे से देखा जा रहा है। राजनीतिक विश्लेषकों ने इस युग को मोदी युग का नाम दे रखा है। प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी विदेश नीति में व्यापक परिवर्तन किया है। चाहे पड़ोसी देशों के साथ बेहतर संबंध बनाए जाने की दिशा में उनके द्वारा उठाए गए कई अप्रत्याशित कदम हों या फिर पाकिस्तान और म्यांमार में घुसकर दुश्मनों को खत्म करने की रणनीति हो। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साफ कर दिया है कि वे जैसे को तैसा की नीति में विश्वास रखते हैं। इसी क्रम में जब चीनी सेना ने नार्थ ईस्ट में अपनी हलचल बढ़ाई तो भारतीय सेना ने उनका मुंहतोड़ जवाब दिया। जबकि उसी देश के सर्वोच्य पद पर आसीन व्यक्ति को अहमदाबाद के रिवर फ्रंट पर उन्होंने झूला भी झुलाया था। अगर तिब्बती धर्मगुरु इस बात से प्रभावित हैं कि वो हिंदु मुस्लिम का कार्ड खेलकर भारत सरकार को उपकृत कर देंगे, तो शायद यह उनकी सबसे बड़ी भूल होगी। इस वक्त भारत सरकार की नीतियां बिल्कुल स्पष्ट हैं।
राजनीति के अपने मायने हैं। इसकी अपनी अच्छाई और बुराई है। पर एक धर्मगुरु को लेकर पूरे भारत में एक मत है। गुरु को गुरु ही रहना चाहिए। उन्हें न तो राजनीति में आने की जरूरत है और न राजनीतिक बयानबाजी की। भारतीय लोकतंत्र का इतिहास रहा है कि जब-जब किसी धार्मिक गुरु ने राजनीतिक बयानबाजी की है उसे संकट का ही सामना करना पड़ा है। ऐसे में दलाई लामा सहित तमाम धार्मिक गुरुओं को जरूर मंथन करना चाहिए कि उनके द्वारा कही गई राजनीतिक बातों को कितना निगेटिव असर पड़ता है। हो सकता है कि दलाई लामा अपनी बातों के जरिए वर्तमान भारत सरकार को प्रभावित या खुश करना चाहते हों। क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार सार्वजनिक मंचों से भारत की बबार्दी के लिए कांग्रेस की नीतियों को दोष दे चुके हैं। पर यहां गौर करने वाली बात है कि कभी भी प्रधानमंत्री मोदी ने पंडित नेहरू या किसी अन्य बड़े कांग्रेसी नेता पर व्यक्तिगत दोषारोपण नहीं किया है। धर्म गुुरु को यह समझना चाहिए कि यह सेंटिमेंट से जुड़ी बातें हैं। ऐसा कहकर वो अपना ही नुकसान करा रहे हैं। भारत सरकार से उन्हें न तो पहले खतरा था और न आज है। और न भविष्य में इस तरह का खतरा उत्पन्न होने की संभावना है। फिर बेवजह की राजनीतिक बयानबाजी कर वह देश के माहौल को प्रभावित करने का प्रयास क्यों कर रहे हैं।
हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला और मैकलोडगंज में हजारों तिब्बती शरणार्थी स्वतंत्रतापूर्वक रह रहे हैं। देश के किसी कोने में चले जाएं आपको तिब्बती शरणार्थी जरूर मिल जाएंगे। यह भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था और विदेश नीति का ही परिणाम है कि वे इतनी स्वतंत्रता से यहां वहां विचरण कर रहे है और स्थाई रूप से रहे हैं। भारत के सभी राज्यों की सरकारों ने इन्हें विशेष दर्जा दे रखा है। हर राज्य में इनके लिए विशेष व्यवस्था की गई है। कहीं तिब्बती कॉलोनी बसाकर, कहीं तिब्बती मार्केट बसाकर इन शरणार्थियों के लिए रोजी-रोजगार और छत की व्यवस्था की गई है। ऐसे में इनके धर्मगुरु द्वारा दिया गया बयान कहीं न कहीं इन्हें भी प्रभावित कर सकता है। इतना तो तय है कि दलाई लामा कभी भारतीय राजनीति का हिस्सा नहीं बनेंगे। फिर उनके द्वारा हिंदु और मुस्लिम राजनीति जैसी बयानबाजी कहीं से भी स्वीकार्य नहीं है। यह देश के अंदर एक अलग तरह के वैमनस्य फैलाने जैसा ही कृत है जिसकी जितनी भी आलोचना की जाए कम है।
फिलहाल दलाई लामा ने माफी मांग कर अपनी बातों को बैलेंस करने की कोशिश की है। पर उन्हें मंथन जरूर करना चाहिए कि जिस देश ने उन्हें बेहद प्यार और दुलार से रख रखा है उसमें वैमनस्य की बातों को वो क्यों तवज्जो दे रहे हैं।
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