Friday, August 24, 2018

सरकार मीडिया में हस्तक्षेप करती है क्या?



जब देहरादून में जागरण ग्रुप के साथ था तब की एक कहानी है। पढ़िए फिर पता चलेगा कि सरकार मीडिया के साथ क्या करती है और क्या नहीं कर सकती है?

पिछले कुछ दिनों से मीडिया की आजादी उसकी बेबाकी और उस पर प्रतिबंध को लेकर बहुत कुछ कहा जा रहा है। खासकर तब, जबसे टीवी न्यूज के कुछ प्रमुख चेहरों की विदाई हुई है। उन लोगों को मीडिया के एक धड़े ने अघोषित शहीद का दर्जा दे दिया है। उनके नाम से मोदी सरकार को कोसा जा रहा है। कहा जा रहा है मीडिया पर ऐसा प्रतिबंध लगा दिया गया है कि वह न कुछ बोल सकता है, न लिख सकता है। सरकार ही तय करेगी कि क्या लिखना है, क्या बोलना है। आपको यह कुछ ज्यादा हास्यास्पद नहीं लगता?
अगर ऐसा ही है तो शहीद का दर्ज मिलने के बाद वे कैसे लिख रहे हैं? अब उनपर कैसे प्रतिबंध नहीं लग रहा। जिस दुर्भावना से प्रेरित होकर वो अपनी बातों को बेबाकी से सोशल मीडिया और वेब न्यूज प्लेटफॉर्म पर लिख रहे हैं वह कैसे संभव हो रहा है? जब मोदी सरकार न्यूज चैनल पर प्रतिबंध (जैसा की शहीद पत्रकारों द्वारा बताया जा रहा) लगा सकती है तो वेब न्यूज प्लेटफॉर्म को तो झटके में ब्लॉक करवा सकती है। फिर कूदते रहिए। और हां सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म की टीआरपी तो ऐसी है कि उस तक पहुंचने में चैनल्स को सात जनम तक लग जाएंगे। वहां तो आप बेबाकी के साथ, पूरी हनक के साथ लिख रहे हैं। कौन रोक रहा है आपको? अब सवाल उठता है कि सरकार मीडिया के मामले में हस्तक्षेप करती है या नहीं।

इसका जवाब हां में है बिल्कुल सच है सरकार मीडिया के मामले में कुछ हद तक हस्तक्षेप करती है। खासकर तब जब उसे दर्द होता है। इस दर्द के भी कई प्रकार होते हैं। उसकी चर्चा फिर कभी। फिलहाल बात सरकार के हस्तक्षेप की।
आप अपनी निजी जिंदगी में झांक कर देखिए। आप किसी को दो पैसे भी देते हैं तो उसे आप अपना अहसानमंद मान लेते हैं। अपेक्षा रखते हैं कि वह आपकी हर बात माने। घर के बच्चे को भी पांच रुपए का लॉलीपॉप देकर आप उससे अपने अनुसार काम करवाने की इच्छा रखते हैं। बच्चा नहीं करता है तो उसे जरूर कहते हैं जाओ, अब तुम्हें मैं लॉलीपॉप नहीं दूंगा। फिर आप कैसे यह कैसे सोच सकते हैं कि जो सरकार आपको करोड़ों रुपए का विज्ञापन दे रही है वह आपसे अपेक्षा नहीं रखेगी?
सरकारें अपेक्षा रखती हैं। बहुत ज्यादा अपेक्षा रखती हैं। तभी तो केंद्र में इतना भारी भरकम सूचना और प्रसारण मंत्रालय अस्तित्व में है। राज्य में डिपार्टमेंट आॅफ पब्लिक रिलेशन है। यहां तक की जिलों और तहसीलों तक में सूचना विभाग के प्रतिनिधि मौजूद हैं। यही वो लोग हैं जो मीडिया और सरकार के बीच रिलेशनशिप बनाए रखते हैं। इन्हीं के माध्यम से अखबार या चैनल्स को विज्ञापन मिलता है जहां से करोड़ों रुपए की आमदनी मीडिया हाउसेस के खाते में जाती है। बताइए जरा इतनी भारी भरकम रकम देने वाली सरकार क्यों नहीं अपेक्षा रखेगी। लेकिन क्या इसका मतलब यह निकाला जाए कि सरकार के हाथों मीडिया हाउसेस बिक गई?

इसका जवाब न में हैलोकतंत्र का चौथा स्तंभ इतना भी कमजोर नहीं है।
विज्ञापन एक साधन है, साध्य नहीं। यह सरकार की भी मजबूरी है कि वह विज्ञापन देकर अपने कार्यों का प्रचार-प्रसार करवाए। अखबार के पन्नों और चैनल्स की टाइमिंग में सभी के रेट्स तय हैं। सब इसी के अनुसार होता है। हां सरकार जरूर चाहती है कि उसके कामों का न्यूज के जरिए भी प्रचार प्रसार हो, ताकि आम लोग लाभांवित हो सके। अब इस अपेक्षा को हस्तक्षेप मान लिया जाए तो इसमें दोष किसका है? अगर हस्तक्षेप कह दिया जाए तो सरकार के इतने बड़े-बड़े घोटाले मीडिया के जरिए कैसे सामने आ जाते हैं? क्यों मीडिया की ही रिपोर्ट पर कई मंत्री और मुख्यमंत्री की कुर्सी तक चली जाती है। यह मीडिया की मजबूती ही है कि वह अपेक्षा और हस्तक्षेप में समानांतर लकीर खींच कर चलती है। अब बात आती है कि आखिर क्यों मीडिया का एक तबका अपने ही प्रोफेशन को बिका हुआ बताने पर तुला हुआ है।
इस सवाल का जवाब देने से पहले अपनी निजी जिंदगी के दो अनुभवों से आपको रू-ब-रू करवाता हूं।
पहला अनुभव है उत्तराखंड की राजधानी देहरादून का। जुलाई 2011 की बात है। पत्रकार से नेता बने रमेश पोखरियाल निशंक उस वक्त उत्तराखंड के मुख्यमंत्री थे। वे खुद दैनिक जागरण में रिपोर्टर के तौर पर नौकरी कर चुके थे। एक अच्छे पत्रकार के रूप में उनकी पहचान थी, शायद आज भी उनके स्वामित्व का एक समाचार पत्र देहरादून से प्रकाशित होता है। बाद में वे राजनीति में आ गए। राजनीतिक पारी दमदार तरीके से निभा रहे हैं। उत्तराखंड सरकार में मुख्यमंत्री के पद तक पहुंचना एक बड़ी उपलब्धि रही। इस वक्त हरिद्वार से सांसद भी हैं। 

तो मैं बता रहा था निशंक मुख्यमंत्री थे। चूंकि मुख्यमंत्री बनने से पहले वे स्वास्थ मंत्री थे, इसलिए यह विभाग भी उन्होंने अपने ही पास रखा था। मैं उस वक्त देहरादून में दैनिक जागरण ग्रुप के बाइलिंगवल टैब्लॉइड न्यूजपेपर ‘आई-नेक्स्ट’ का संपादकीय प्रभारी था। भारत में टैब्लॉइड जर्नलिज्म के क्षेत्र में जागरण गु्रप का यह अभिनव प्रयोग था। टैब्लॉइड जर्नलिज्म के इतिहास को जानेंगे और पढ़ेंगे तो समझ में आएगा टैब्लॉइड जर्नलिज्म का मतलब था सनसनी। पर आई-नेक्स्ट ने इसके विपरीत आम लोगों की भाषा में अखबार निकालकर और गंभीर पत्रकारिता के जरिए अपनी अलग पहचान कायम थी।
आई नेक्स्ट की रिपोर्टिंग टीम में आफताब अजमत मेडिकल और एजुकेशन की बीट कवर करते थे। आफताब इन दिनों अमर उजाला देहरादून की सिटी टीम को हेड कर रहे हैं। उन दिनों हेल्थ बीट उन्हें नई-नई मिली थी। उनके हाथ एक दस्तावेज लगा। यह दस्तावेज क्या था बम था। धमाका था। वे उसे लेकर मेरे पास आए। कहा, सर इस दस्तावेज को देखिए मुझे तो बड़ा घालमेल वाला मामला लग रहा है। मैंने उस दस्तावेज को रख लिया और कहा कल इसे देखेंगे। आज वाली खबरों पर फोकस करो। दूसरे दिन सुबह की मीटिंग के बाद जब मैंने दस्तावेज का अध्ययन किया तो बड़ी खबर हाथ लग गई। मेरी एक दो और क्योरी थी, जिसे आफताब ने अपने सूत्रों से बातचीत कर क्लियर कर दिया। शाम तक एक बड़ी खबर डेवलप हुई।
खबर सीधे तौर से मुख्यमंत्री से जुड़ी थी। उनके स्वास्थ विभाग में बड़ा घोटाला हो रहा था। एक साधारण इंजेक्शन जिसकी मार्केट वैल्यू रीटेल में 4 रुपए थी, उसे करीब 15 रुपए के हिसाब से खरीदा जा रहा था। जबकि थोक भाव में वही इंजेक्शन करीब दो रुपए पचास पैसे की पड़ रही थी। इसी तरह करीब 35 दवाइयों और लाइफ सेविंग इंजेक्शन की पूरी डिटेल हमारे पास थी। बड़ी खबर बन गई। पूरे तथ्यों के आधार पर।

आई-नेक्स्ट अब जागरण के मूल अखबार के साथ मर्ज हो गया है। नाम भी इसका दैनिक जागरण आई-नेक्स्ट हो गया है। अब तो कोई कॉम्टिशन ही नहीं। पर उस दौर में एक ही आर्गेनाइजेशन के अखबारों के बीच जबर्दस्त प्रतिद्वंदिता थी। यह प्रोफेशनल कॉम्पिटशन था। कोई निजी अदावत नहीं थी। खैर हम लोगों ने यह खबर चुपके-चुपके बनाई। आज यह बड़ा हास्यास्पद लगता है, पर उस वक्त दोनों ही तरफ के लोगों को यह शक होता था कि हमारी खबरें चुरा ली जाती हैं। मैंने यह पेज और खबर अंतिम समय तक अपनी टीम से भी डिस्कस नहीं की। सिर्फ मुझे और आफताब को इस बात की जानकारी थी। पेज डिजाइनर हरीश भट्ट से पेज बनवाकर मैंने उसे अलग फोल्डर में रखवा दिया।
इतना तो तय था कि कल उत्तराखंड सरकार की थू-थू तो होगी और मामला गरम होगा। जागरण के संपादक थे कुशल कोठियाल जी। वह अब स्टेट हेड के तौर पर जागरण में हैं। हमेशा मेरे आदरणीय रहे। हमारी टीम में भले ही अंदरुनी तौर पर प्रोफेशनल कॉम्पिटशन था पर हम दोनों के बीच ऐसी कोई बात नहीं थी। मैं हर बात उनसे शेयर करता था। खासकर किसी बड़ी खबर को लेकर। रात साढ़े दस बजे मैं ऊपरी तल पर उनके पास गया। वहां उनसे इस खबर के बारे में चर्चा की। वे हैरान हो गए। बोले, यह तो बहुत बड़ी खबर है। पूछा आपके पास सभी तथ्य तो हैं। मैंने कहा बिल्कुल। उन्होंने एप्रीशिएट किया, पर उनकी भी दाद देनी होगी, उन्होंने भी अपनी टीम को इसकी भनक तक नहीं लगने दी कि सुबह क्या धमाका होने जा रहा है।

जैसा की उम्मीद थी सुबह खबर के प्रकाशित होते ही सरकार की हालत खराब हो गई। विरोधियों ने सरकार को निशाने पर ले लिया। सरकार के पुतले फूंके जाने लगे। हाल यह हुआ कि दिल्ली में कांग्रेस ने इस मुद्दे को लेकर प्रेस कॉन्फे्रंस तक कर दी। चूंकि मामला स्वास्थ विभाग से जुड़ा था और यह विभाग मुख्यमंत्री निशंक के पास ही था, इसलिए निशंक की अपनी ही पार्टी के लोग भी मुखर हो गए।

बात यहीं थमती तो ठीक। पर निशंक ने सीधा फोन किया जागरण के मालिकों को। चूंकि वे जागरण में ही रिपोर्टर रह चुके थे। इसलिए मालिकों से उनके सीधे संबंध थे। सीधा फोन गया नोएडा में बैठे संजय गुप्ता जी के पास। उनका फोन आया जागरण देहरादून के यूनिट हेड अनुराग गुप्ता जी के पास। सभी तरफ जबर्दस्त टेंशन का माहौल बन गया था। मेरी भी पेशी हो गई। यूनिट हेड अनुराग जी के केबिन में मैं, कुशल जी और अनुराग जी बैठे थे। संजय गुप्ता जी उधर से फोन पर थे। फोन स्पीकर पर करवा दिया गया था। पहला सवाल मुझसे पूछा गया। क्या आपकी खबर सही है। मैंने पूरे कॉन्फिडेंस के साथ कहा, हां। यह पूरी तरह तथ्यों के आधार पर है। फिर सवाल कुशल कोठियाल जी से था। वह रेफरी की भूमिका में थे। उनसे भी यही पूछा गया। कुशल जी ने भी कहा सर खबर काफी अच्छी है और पूरे तथ्यों के आधार पर है। फिर सवाल था, तो मुख्यमंत्री क्यों नाराज हैं? निशंक कुशल जी के अच्छे मित्रों में रहे हैं।

कुशल जी ने बताया कि मेरे पास भी निशंक जी का फोन सुबह-सुबह आया था। वो खबर के लिए नाराज नहीं थे, बल्कि खबर के साथ उनकी बड़ी सी फोटो लग गई है इसीलिए नाराज हैं। उनको खबर से अधिक फोटो से आपत्ति है। कुणाल युवा खून हैं। उन्होंने अति-उत्साह में उनकी बड़ी फोटो भी लगा दी थी। मुझे अति-उत्साह से बचने की सलाह देने के साथ बरी कर दिया गया।
पर असली कांड अब शुरू हुआ। एक मालिक, एक डायरेक्टर और संपादक की हैसियत से संजय गुप्ता जी ने जो कुछ भी किया वह मेरी पत्रकारिता की जिंदगी के लिए एक सबक बन गया। दरअसल उत्तराखंड सरकार ने जागरण गु्रप को झुकाने के लिए दो दिन बाद प्रकाशित होने वाले सप्लीमेंट से अपना हाथ एक झटके में पीछे खींच लिया था। मुझे ठीक से तो मालूम नहीं, लेकिन यह विज्ञापन डील करीब 35 से 40 लाख रुपए की थी। संजय गुप्ता जी ने साफ निर्देश दिया। अगर खबर सही है। तथ्यात्मक है। किसी बायसनेस से नहीं है, तो फिर झुकने की जरूरत नहीं। ऐेसे लाखों रुपए की कोई वैल्यू नहीं। खबर है तभी अखबार है।

कुशल जी को निर्देश मिले कि जो आई-नेक्स्ट में प्रकाशित होगा वही खबरें आप भी जागरण के मुख्य एडिशन में लगाएं। मन गदगद हो गया। कहां मैं कठघरे में था, कहां पूरे ग्रुप के संपादक ने खबरों को लेकर ऐसा स्टैंड लिया। मन हो रहा था, काश फोन की जगह सामने संजय गुप्ता जी होते, सैल्यूट जरूर कर देता। पूरे तेवर के साथ खबरों को लगाया गया। जबर्दस्त फॉलोअप में पूरी टीम को झोंक दिया गया। एक से बढ़कर एक फॉलोअप किया गया। एक फॉलोअप की चर्चा जरूर करना चाहूंगा।

हमारी टीम सभी सरकारी अस्पतालों में गई। जिन मरीजों को मुफ्त में दवाइयां दी जाती थीं, उनसे भी कैसे बाहर से दवाइयां मंगाई जा रही थी, इसकी पड़ताल की गई। इसी को फोकस करती हुई खबर प्रकाशित हुई...हेडिंग थी .. यह घोटाला करतम सिंह के साथ है.. दरअसल करतम सिंह एक मरीज का नाम था। करतम सिंह बाद में घोटाले का पोस्टर ब्वॉय बन गए। स्टोरी का थीम था कि चलो महंगी दवाइयां खरीद ली गई, पर यह करतम सिंह जैसे जरूरतमंद मरीजों तक तो पहुंचे।

उधर, सबसे खराब स्थिति निश्ांक जी की थी। कहां वो जागरण के मालिकों से सीधी बात कर अपनी हनक दिखा रहे थे। लाखों का विज्ञापन रोक कर दबाव बना रहे थे। कहां, अब लारजेस्ट सर्कुलेशन वाले अखबार में उनकी पोल पट्टी खुलने लगी। आई-नेक्स्ट का सर्कुलेशन देहरादून सिटी तक ही सीमित था, क्योंकि इसे शहर का अखबार ही बनाया गया था। लेकिन जागरण की धमक पूरे उत्तराखंड में थी। दैनिक जागरण के जरिए देहरादून से लेकर गंगोत्री तक उत्तराखंड सरकार का दवाई घोटाला सामने आ गया। हर तरफ सरकार की थू-थू होने लगी। सरकार बैकफुट पर आ गई। अनआॅफिशियली सबसे पहले विज्ञापन रोकने को लेकर माफी मांगी गई। सप्लीमेंट का प्रकाशन भी हुआ। बावजूद इसके दवाई घोटाले से जुड़ी खबरें नहीं रुकी। उधर, सरकार ने अपनी साख बचने के लिए दोषियों पर कड़ी कार्रवाई की। हालांकि बाद में निशंक को भी इस्तीफा देना पड़ा था। आॅफ द रिकॉर्ड यही दवा घोटाला निशंक की कुर्सी खिसकाने के लिए जिम्मेदार था।

लौटते हैं मोदी सरकार के सेंसरशिप वाले प्रोपेगेंडा की तरफ। मीडिया के ही कुछ शहीद टाइप पत्रकारों ने यह बात फैलानी शुरू की है कि मोदी सरकार ने मीडिया पर लगाम कस रखा है। पर यही शहीद पत्रकार वेब मीडिया पर, सोशल मीडिया पर अपनी खूब भड़ास निकाल रहे हैं। इनसे कोई क्यों नहीं पूछता कि यहां उन पर लगाम क्यों नहीं लग रही?

दरअसल बात पत्रकारिता में बैलेंंस और बायसनेस की है। आपकी रिपोर्ट कितनी बैलेंस है, इस पर निर्भर करती है आपकी क्रेडेबिलिटी। हर चीज को अगर आप बायसनेस से रिपोर्ट करेंगे तो किसी को भी कष्ट होगा ही। खासकर आपके संस्थान को, क्योंकि उसकी क्रेडेबिलिटी डाउन होती है। बार-बार की चेतावनी के बाद भी अगर आप एजेंडा पत्रकारिता करेंगे तो आपका खात्मा तय है। कारक कोई भी हो सकता है। यह नहीं भूलना चाहिए कि तमाम घोटाले पत्रकारों ने ही उजागर किए हैं। वो आज भी उसी हनक के साथ पत्रकारिता कर रहे हैं। कोई भी सरकार नहीं चाहती कि मीडिया से उसका छत्तीस का आंकड़ा हो। निंदक नियरे राखिए के फॉर्मूले पर सरकार चलती है। लोकतंत्र चलता है। तमाम खबरों पर ही सरकार एक्शन लेती है, तभी पत्रकारिता की साख कमजोर नहीं होती है। यह नहीं भूलना चाहिए। पत्रकार के तौर पर आप सरकार को आइना दिखाइए। एजेंडा मत चलाइए।

दूसरे भाग में एक और उदाहरण के जरिए आपको बताऊंगा कि अगर आपकी पत्रकारिता बायसनेस से भरी नहीं है तो सरकार क्यों आपके साथ चलती है।