Monday, April 16, 2018

कैंडल मार्च के लिए सही मुद्दा चुनने की जरूरत

रेप...। कहने को तो सिर्फ दो शब्द हैं। पर जब इसके प्रभाव पर चर्चा होगी तो यकीन मानिए इसकी पीड़िता सौ बार मरती रहेगी। चाहे वह चर्चा मीडिया में हो। पुलिस स्टेशन में हो। या फिर न्याय के द्वार पर हो। रेप को अगर एक वाक्य में परिभाषित किया जाए तो यह कहना अतिशियोक्ति नहीं होगी कि मनुष्य जाति की यह क्रूरतम मानसिकता का परिणाम है। एक ऐसी क्रूरतम मानसिकता जिसका इलाज लंबे समय से खोजा जा रहा है, लेकिन अफसोस यह है कि यह लाइलाज बनता जा रहा है। हर साल हंगामा होता है, बातें होती हैं, राजनीति की जाती है पर एनसीआरबी के आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि यह मानसिकता दिनों दिन बढ़ती जा रही है। मंथन करने की जरूरत है कि हमारे समाज में ऐसा क्या हो रहा है जिसने रेप की मानसिकता को बढ़ाने में मदद की है।
कठुआ में एक बच्ची के साथ जो कुछ भी हुआ उसे न तो पहली घटना मानी जा सकती है और न यह उम्मीद की जा सकती है कि भविष्य में इस तरह की घटना नहीं होगी। बिहार से लेकर बंगाल तक और कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक ऐसी कुत्सित मानसिकता के लोग हमारे सामाज में, हमारे आस-पास, हमारे परिवार में मौजूद हैं जो कभी भी कुछ भी कर सकते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सिर्फ विरोध, प्रदर्शन और कैंडल मार्च निकालकर हम रेप जैसे जघन्य अपराध पर काबू पा सकते हैं। मेरा जवाब है नहीं। यह विरोध प्रदर्शन, कैंडल मार्च सिर्फ और सिर्फ राजनीति के अलावा कुछ भी नहीं है। कैंडल मार्च निकालने वालों में ही आपको कई ऐसे दुष्कर्मी मिल जाएंगे। राष्ट्रीय राजधानी की ही बात कर लें, जिस दिन कांग्रेस के नेतृत्व में देर रात इंडिया गेट पर कैंडल मार्च निकालने का ड्रामा चल रहा था उसी मार्च में महिला मीडियाकर्मी से छेड़छाड़ हो रही थी। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार प्रियंका गांधी तक को इस तरह की असहज स्थिति का सामना करना पड़ गया था। कहने का तात्पर्य यह है कि हम कैंडल मार्च निकालकर मानसिकता को खत्म नहीं कर सकते।
ज्यादा वक्त नहीं गुजरा है, जब नई दिल्ली में निर्भया के साथ जो कुछ हुआ था। पिछले साल ही हिमाचल प्रदेश में हुए गुड़िया रेप कांड की आंच भी अभी कम नहीं हुई है। ऐसे ही कुछ मामले और हैं जिन्हें मीडिया और राजनीतिक दलों की बदौलत काफी चर्चा मिली। ऐसे चंद मामलों के गहन विश्लेषण करने की जरूरत है कि आखिर क्यों ऐसे चंद मामले ही राष्ट्रीय परिदृश्य में क्यों नुमाया होती हैं। जबकि नेशनल क्राइम ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि भारत में प्रतिदिन औसतन 22 महिलाओं के साथ रेप की घटना होती है। आंकड़े बताते हैं कि 2017 में प्रतिदिन औसतन पांच रेप केस राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में दर्ज किए गए। 2017 में दिल्ली में 2049 रेप के मामले दर्ज हुए। आपसे पूछा जाए कि इनमें से कितने मामले आपको याद हैं, आपको जवाब के लिए इधर-उधर झांकना होगा। इनमें से कई रेप मामले ऐसे होंगे जिनमें शायद निर्भया से अधिक दरिंदगी होगी। ऐसे में आपको समझाने की जरूरत नहीं कि कैंडल मार्च और हो-हल्ला करने से कुछ नहीं होगा, जबतक कि हम इस मानसिकता की जड़ तक नहीं पहुंच जाएं।
हद तो यह है कि हाल के वर्षों में चाइल्ड रेप के मामलों में असमान्य बढ़ोतरी हुई है। साल 2016 में 26,898 मामले पोस्को एक्ट में दर्ज हुए। साल 2017 का ग्लोबल पीस इंडेक्स कहता है कि भारत महिला ट्रेवलर्स की लिहाज से चौथा सबसे खतरनाक देश है। मंथन का समय है कि हम किस दौर में जा रहे हैं। सच्चाई यह है कि अगर सही मुद्दों पर अगर हमारे राजनीतिक दल, सामाजिक संगठनों सहित आम लोग अपनी आवाज बुलंद करें तो रेप की कुत्सिक मानसिकता पर सौ फीसदी रोक तो नहीं लगाई जा सकती, हां लेकिन इतना जरूर है कि हम इसके जड़ को समाप्त करने की दिशा में दो कदम आगे बढ़ सकते हैं।
भारत में जिस तेजी से इंटरनेट का विकास हुआ है। उसी तेजी से बच्चों के प्रति यौन हिंसा में बढ़ोतरी दर्ज की गई है। इंटरनेट की सुलभता ने पोर्न साइट के व्यापार को कई गुणा बढ़ा दिया है। तमाम मनोवैज्ञानिकों ने रेप के आरोपियों के व्यवहार पर जब अध्ययन किया तो इस बात के प्रमाण मिलें कि अधिकतर रेप की घटनाएं खासकर बच्चों के साथ हुए यौन हिंसा में इंटरनेट पर मौजूद पोर्न सामग्री सबसे बड़ा कारण है। इंटरनेट की दुनिया में मौजूद पोर्न साइट्स हाल के दिनों में भारतीयों के लिए बेहद सुलभ हो चुकी है। मोबाइल कंपनियों के आपसी होड़ ने इंटरनेट डाटा का और अधिक विस्तार कर दिया है। जिस तरह की होड़ है उससे उम्मीद है कि आने वाले दिनों में इंटरनेट यूज करने वाले देशों की श्रेणी में भारत का स्थान पहला होगा। ऐसे में हमारे अपनों के ही बीच हमारे बच्चे कितने असुरक्षित है यह कल्पना से परे है। पोर्न साइट्स को लेकर यह अलार्मिंग सिचुएशन है। पर इस अलार्मिंग सिचुएशन पर कोई कैंडल मार्च क्यों नहीं निकालता? क्यों नहीं इस समस्या पर विस्तार से चर्चा होती। पोर्न साइट्स को लेकर वर्ष 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने बेहद सख्त रवैया अपनाया था। केंद्र सरकार ने वादा किया था कि चाइल्ड पोर्न और हेट कंटेंट से जुड़ी करीब पांच हजार वेबसाइट जनवरी 2018 में पूरी तरह भारत में बैन कर दी जाएगी। केंद्र सरकार ने कहा था इसके लिए एक खास नीति बनाई जा रही है। इसी क्रम में यह भी वादा किया गया था कि इस तरह के कंटेंट जेनरेट करने और इसका प्रसार करने वालों को कड़ी सजा दिलाने के लिए सरकार मौजूदा आईटी एक्ट में भी बदलाव करने जा रही है। पर केंद्र सरकार से यह पूछने की कोई हिम्मत नहीं कर रहा है कि आखिर इन वादों का क्या हुआ। क्यों नहीं आज तक पोर्न साइट्स बैन करने के लिए कारगर उपाय किए गए? हद तो यह है कि कोई राजनीतिक दल भी इस तरह के मुद्दों पर चर्चा नहीं करता। यूके की नेशनल सोसायटी फॉर प्रिवेंशन आॅफ क्रुएलिटी टू चिल्ड्रेन की 2016 की रिपोर्ट के मुताबिक, आॅनलाइन पोर्नोग्राफी बच्चे के विकास में बाधा बन सकती है और उसकी निर्णय लेने की क्षमता पर भी असर डालती है। बलात्कार जैसे जघन्य कृत के लिए इस तरह के कंटेंट सबसे अधिक जिम्मेदार हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, 15-16 साल की उम्र के 65 फीसदी और 11-16 साल की उम्र की 48 फीसदी बच्चे आॅनलाइन पोर्न की वजह से सीधे तौर पर प्रभावित हैं। यह प्रभाव मानसिक और शारीरिक दोनों तरह से है।
ऐसे में क्या यह जरूरी नहीं कि हम किसी रेप की घटना पर कैंडल मार्च निकालने की जगह इसके जड़ को समाप्त करने के लिए आंदोलन करें। क्यों नहीं तमाम संगठन केंद्र सरकार पर यह दबाव बना रही कि भारत में पोनोग्रॉफी के साइट्स पूरी तरह बंद हो। क्यों नहीं केंद्र सरकार पर यह दबाव बनाया जा रहा है कि इंटरनेट पर बैड कंटेंट जो रेप के लिए ज्यादातर जिम्मेदार हैं उसे रिव्यू किया जाए। आप भी मंथन करिए और सरकार को भी मंथन करने पर मजबूर करिए। नहीं तो कल भी कैंडल मार्च निकला था, लोगों ने अपने फेसबूक और व्हॉट्सअप की डीपी ब्लैक की थी। आज भी वही हो रहा है। हम आने वाले कल में भी अपनी डीपी ब्लैक करते रह जाएंगे और अफसोस करते रह जाएंगे कि हमने अपनी आने वाली पीढ़ी की बच्चियों के लिए कुछ नहीं किया.।

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