Sunday, April 22, 2018

क्या अविश्वास जताना कांग्रेस की युवा राजनीति है?

लोकतंत्र और लोकतांत्रिक व्यवस्था में कुछ बातें ऐसी होती हैं जो सर्वकालिक मान्य हैं। ऐसी ही एक व्यवस्था है अविश्वास। सरकार में अविश्वास, सरकारी नीतियों में अविश्वास, सरकार के किसी फैसले पर अविश्वास, सरकार की किसी जांच पर अविश्वास, सरकार के हर एक कदम पर अविश्वास। यह अविश्वास बेहद सार्थक होता है, क्योंकि इसी अविश्वास की बदौलत सरकार को इस बात का भय होता है कि वह अपनी कार्यप्रणाली बेहतर रखे। विपक्ष का काम सरकार से सवाल करना और उनकी नीतियों पर तर्कसंगत तरीके से अविश्वास जताना होता है। कांग्रेस को विपक्ष में बैठने का काफी कम अनुभव है। हमेशा से वह सत्ता में रही है। ऐसे में अब जबकि वह लंबे वक्त बाद विपक्ष की सीट पर विराजमान है, उसे सोच समझ कर अविश्वास का हथियार उठाना चाहिए। कुछ संवेदनशील मामले ऐसे हैं जिनमें बिना सोचे समझे अविश्वास का दांव कहीं उल्टा ही न पड़ जाए। खासकर संवैधानिक व्यवस्था और न्यायपालिका की व्यवस्था पर अविश्वास जताकर कांग्रेस ने एक ऐसा गड्ढा खोद डाला है, जिसमें उसके खुद के गिर जाने की संभावना अधिक है।
हाल के वर्षों में कांग्रेस ने बीजेपी सरकार के कुछ ऐसे मामलों पर अविश्वास जताया है जो कांग्रेस के लिए घातक ही सिद्ध हुआ है। पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक का मामला हो, नोटबंदी का मामला हो या फिर जीएसटी जैसे देशहित का मामला हो। कांग्रेस ने अपनी नीतियों में ड्रामेटिक बदलाव किया है। एक सूत्री कार्यक्रम के तहत कांग्रेस ने विपक्ष की भूमिका से अधिक अविश्वास की भूमिका में खुद को स्थापित कर दिया है। लोकतांत्रिक व्यवस्था का सबसे बड़ा आधार ही यही है कि आप सरकार द्वारा किए जा रहे कार्यों पर गहरी नजर रखें। तार्किक तरीके से उन कार्यों की समीक्षा करें। संसद से लेकर सड़क तक आप उन कार्यों और नीतियों का विरोध करें। विपक्ष की इन्हीं भूमिकाओं के कारण सत्ताधारी सरकार थोड़ी डरी रहती है कि कहीं उससे कोई बड़ी चूक या भूल न हो जाए, जिसे विपक्षी पार्टियां बड़ा मुद्दा बना लें।
पर गौर करें, हाल के दिनों में कांग्रेस जैसी अनुभवयुक्त पार्टी की विपक्ष की भूमिका। कांग्रेस फिलवक्त एक ऐसे दौर से गुजर रही है जहां उसके पास राहूल गांधी जैसे युवा और सशक्त नेता की लीडरशीप है तो वहीं पार्टी के कर्ताधर्ता ऐसे लोग हैं जिनके पास अब खोने को कुछ नहीं। ये ऐसे लोग हैं जिन्होंने हमेशा सत्ता का रसास्वादन किया। अब जब उनके पास सत्ता का सुख नहीं है तो बौखलाए हुए हैं। कांग्रेस के युवा नेतृत्व को ऐसी सलाह दे रहे हैं जो उनके गले की फांस बन जा रहा है। विरोधाभासी बयानों, क्रिया कलापों और नीतियों के कारण कांग्रेस खुद ही अपने जाल में फंस जा रही है। कांग्रेस को यह नहीं भूलना चाहिए कि उनका सामना एक ऐसी पार्टी से है जिसने लंबे समय तक विपक्ष की भूमिका निभाई है। एक ऐसी पार्टी से उनका सामना है जिन्होंने मात्र एक वोट से अपनी सरकार को गिरते हुए देखा है। ऐसे में उन्हें पता है कि विपक्ष किस मुद्दे पर किस तरह से रिएक्ट करेगा। वो पूरी तैयारी के साथ मैदान में मौजूद हैं।
कांग्रेस के संदर्भ में यहां तीन महत्वपूर्ण हालिया घटनाओं का जिक्र जरूरी है। पहला मामला कठुआ रेप कांड से जुड़ा है। दूसरा जज लोया की मौत का और तीसरा सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव का। कठुआ रेप मामले में एक तरफ जहां कांग्रेस अध्यक्ष राहूल गांधी के नेतृत्व में आनन फानन में नई दिल्ली में देर रात कैंडल मार्च निकाला जाता है। इसमें प्रियंका वाड्रा और उनके पति रॉबर्ट वाड्रा भी शामिल थे। यह अच्छा संकेत है कि कांग्रेस पार्टी किसी बच्ची को न्याय दिलाने के लिए देर रात सड़क पर आई। पर दूसरी तरफ इस बात पर भी गौर जरूर करना चाहिए कि जहां यह जघन्य अपराध हुआ वहां पार्टी का स्टैंड क्या है। कठुआ में पुलिस की जांच से असंतुष्ट स्थानीय हिंदू संगठन आंदोलित हैं। उनकी मांग है कि सीबीआई इस मामले की जांच करे। ऐसी ही मांग आरोपितों के परिवार के लोग भी कर रहे हैं। इसी मांग को लेकर जम्मू बार काउंसिल के अध्यक्ष बीएस सलाठिया के नेतृत्व में सैकड़ों वकील सड़क पर प्रदर्शन करते हैं और आरोप-पत्र दाखिल होने से रोकने का भी प्रयास करते हैं।
सलाठिया राज्यसभा में कांग्रेस के नेता प्रतिपक्ष गुलाम नबी आजाद के मुख्य चुनावी एजेंट होने के साथ-साथ कांग्रेस के पुराने कार्यकर्ता हैं। क्यों नहीं दिल्ली में बैठे कांग्रेस पार्टी के सलाहकार मंडल मामले की सीबीआई जांच की मांग कर रहे हैं। क्या कारण है कि जम्मू में कांग्रेस के नेता घटना की सीबीआई जांच की मांग कर रहे हैं तो दिल्ली में इन्हीं के प्रतिनिधि जम्मू से विपरीत भाषा बोल रहे हैं? क्यों दिल्ली और जम्मू में एक ही राजनीतिक दल की भावनाओं में एकरूपता नहीं है? इस विरोधाभास का कारण क्या है? उन्नाव मामले में सीबीआई की जांच जायज है तो कठुआ मामले में यह मांग नजायज कैसे हो सकती है? क्यों सीबीआई जांच की मांग को सांप्रदायिकता का चश्मा पहनाने का प्रयास किया गया?
ठीक इसी तरह जज लोया के संबंध में आए फैसले के बाद कांग्रेस का स्टैंड रहा। आखिर क्या कारण है कि मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग की राजनीति ठीक फैसले के बाद आती है। भले ही प्रेस कांफे्रंस में कांग्रेस के नेताओं ने कपिल सिब्बल के नेतृत्व में अपना स्टैंड क्लियर किया। उन्होंने यह बताया कि जज लोया के फैसले से इस मामले का कोई लेना देना नहीं। उन्होंने पांच बिंदुओं पर महाभियोग की बात कही, इनमें जज लोया के फैसले का कहीं जिक्र नहीं। पर पूरे देश में संदेश क्या गया? क्या पार्टी को इस पर मंथन नहीं करना चाहिए। दूसरे दिन जब मीडिया के जरिए पूरे मामले का विश्लेषण हुआ तब यह बात लोगों को समझ आई कि आखिर चीफ जस्टिस के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव का मूल कारण क्या है।
भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में यह पहला मौका है जब किसी मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ इस तरह का कदम उठाया गया है। संसद में अंकों की बाजीगरी के बीच कांग्रेस को भी यह पता है कि उसका यह प्रस्ताव खारिज हो जाएगा। खुद कांग्रेस इस मुद्दे पर दो फाड़ है। महाभियोग प्रस्ताव पर जिस तरह पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, पूर्व वित्त और गृह मंत्री पी. चिदम्बरम, पूर्व विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद, पूर्व कानून मंत्री अश्विनी कुमार और वरिष्ठ कांग्रेस सांसद और अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने दूरी बनाई है वह अपने आप में बहुत कुछ बता रहा है। यह सिर्फ और सिर्फ कपिल सिब्बल के दिमाग की उपज है जिसने कांग्रेस जैसी विश्वसनीय पार्टी को अविश्वसनीय बनाने का खेल रचा है। क्या राहूल गांधी ने पार्टी के इस ऐतिहासिक कदम से पहले पार्टी के बड़े नेताओं से कोई राय नहीं ली? सवाल इसलिए भी उठ रहे हैं क्योंकि कांग्रेस ने चीफ जस्टिस के खिलाफ जिन पांच बिंदुओं का जिक्र किया है उसमें चार बिंदु तीस साल पहले के हैं। इसमें दीपक मिश्रा के खिलाफ एक जमीन और ट्रस्ट से जुड़ा मामला है। दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग लाने से पहले कांग्रेस यह क्यों भूल गई कि उनकी नियुक्ति कांग्रेस कार्यकाल में ही हुई थी। क्यों नहीं उस वक्त इस मामले पर गौर किया गया। क्यों नहीं उस वक्त दीपक मिश्रा की नियुक्ति को रद किया गया।
ऐसे वक्त में जब पूरा विश्व एक तरफ जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देख रहा है, वहीं दूसरी तरफ भारतीय लोकतंत्र की सबसे पुरानी पार्टी के युवा नेतृत्व पर भी उसकी नजर है। कांग्रेस को गंभीर मंथन करने की जरूरत है। खासकर युवा अध्यक्ष को इस बात को समझना जरूरी है कि सरकार पर अविश्वास करना जरूरी है, लेकिन यह अविश्वास कहां जताया जाए उस वक्त का इंतजार सबसे जरूरी है। कहीं ऐसा न हो कि हर बात में अविश्वास की राजनीति कांग्रेस की बची खुची राजनीतिक पैठ को भी न ले डूबे। सर्जिकल स्ट्राइक पर अविश्वास, चुनाव आयोग पर अविश्वास, सीबीआई पर अविश्वास, संसदीय प्रक्रिया पर अविश्वास, चंद सांसदों के बलबूते सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के बाद अब मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ आत्मघाती अविश्वास कांग्रेस को कहां लेकर जाएगा। इस पर मंथन जरूरी है।

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