Thursday, January 22, 2009

नए ज़माने का शहर है

किसी shyar ने कहा है नए ज़माने का शहर है जरा फासले से मिला करो हमारे समाज ने शायद इन पंक्तियों को इतना आत्मशत कर लिया है की उन्हें सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने से मतलब रह गया है। अभी मैं दो दिन पहले चंडीगढ़ गया था। वहां के अख़बारों में छपी एक ख़बर ने अन्दर से झकझोर कर रख दिया। ख़बर थी दो बहनों की। एक बहन जो बचपन से ही अपाहिज थी और दूसरी बहन जिसने अपनी बहन के लिए पुरी जिन्दगी न्योछावर कर दी। तमाम परेसानियों को झेलते हुए दोनों एक दुसरे के लिए जी रही थीं। बरी बहन जो अपाहिज उसके लिए छोटी बहन ने वो सबकुछ किया जो एक परेंट्स करते हैं। अचानक एक दिन छोटी बहन घर में ही मौत के आगोश में चली गई। अपाहिज बहन बगल के ही बेड पर ही तीन दिन अपनी बहन के लाश के साथ गुमसुम परी रही। पारोसिओं ने भी कोई सुध नहीं ली की तीन दिन से बंद परे मकान में क्या कुछ हो गया। बात तब सामने आई जब लाश दुर्गन्ध मरने लगी और उसकी दुर्गन्ध ने सिटी ब्यूटी फुल के माहोल को विचलित कर दिया। पुलिस को सुचना दी गई। जब दरवाजा तोरा गया तो अन्दर की स्थिति देख सभी की ऑंखें खुली की खुली रह गईं। अपाहिज बहन की सांसें चल रही थीं। पुलिस ने उसे हॉस्पिटल पन्हुचाकर अपना कर्तव्य निभा दिया। लेकिन आज का सभ्य समाज शायद अपना कर्तव्य भूल चुका है। वह भूल चुका है की फासला इतना भी न हो की हम सबकुछ खो दें और बाद में अफ्शोश करने के अलावा कुछ न रहे.

1 comment:

Harish said...

bahut accha hai. kabhi mile to aur baat bata dege. par abhi to itana hi kah sakte hai ki aap likhane me bahut asar hai. aise hi likhte rahana. sahitya ki duniya bahut naam hoga. aise meri shubh kamanaye hai.