शुक्रवार जब सुबह लिंगमपल्ली से झारखंड के लिए पहली ट्रेन रवाना हुई तो सहसा किसी को विश्वास ही नहीं हुआ। फिर धीरे-धीरे सोशल मीडिया के जरिए ट्रेन की वीडियो सामने आने और आधिकारिक बयान आने के बाद स्पष्ट हो गया कि यह सच है। मजदूर दिवस पर मजदूरों के लिए इससे बड़ी खुशी की कोई बात नहीं हो सकती थी। पर एक सवाल मेरे मन में कौंध रहा था, आखिर ऐसी क्या बात हुई कि लिंगलमपल्ली के मजदूरों पर सरकार अचानक इतनी मेहरबान हो गई। मेहरबान भी ऐसे कि कानो कान किसी को खबर ही नहीं लगी और ट्रेन अपने गंतव्य को 1233 मजदूरों को लेकर निकल भी गई।
दिनभर खबर के पीछे लगा रहा। सफलता हाथ लगी शाम पांच बजे। लिंगमपल्ली मंे इस गोपनीय ऑपरेशन को अंजाम तक पहुंचाने में जिस अधिकारी ने भूमिका निभाई उससे बात हो सकी। बहुत सारी बातें उन्होंने बताई। मजदूरों के रोने से लेकर उनके अभिनंदन तक की कहानी बयां की। बहुत देर बाद जब पूछा कि आखिर ऐसी क्या परिस्थितियां बनीं कि अचानक से सरकार मेहरबान हो गई थी। तो उन्होंने हिचकिचाते हुए सच्चाई बयां की। बताया कि अगर इन मजदूरों को यहां से नहीं भेजा जाता तो कुछ भी बड़ा हो सकता था। दरअसल जिस प्रोजेक्ट में ये मजदूर लगे थे वहां काम पिछले 35 दिनों से बंद था। शुरुआत में तो जैसे तैसे इन मजदूरों ने काम चला लिया। पर जब पैसे खत्म हो गए तो हिंसा कर बैठे। कंपनी कार्यालय में जबर्दस्त तोड़ फोड़ हुई। पुलिस पर हमला हुआ। गाड़ियां तोड़ दी गईं। तीन पुलिसकर्मी अभी हॉस्पिटल में हैं। यह घटना बुधवार को हुई थी। स्थिति इतनी तनावपूर्ण थी कि कभी भी कुछ हो सकता था।
ऐसे में आप आसानी से समझ सकते थे कि कहानी क्या हुई होगी। अगर तेलांगना सरकार इन मजदूरों पर मुकदमा दर्ज कराती तो स्थिति और विकट होती। रोकने का कोई कारण था नहीं, कंपनी वाले पहले ही हाथ खड़े कर चुके थे। ऐसे में एक मात्र विकल्प था इन्हें वापस इनके राज्य भेज दिया जाए। हुआ भी ऐसा ही। मजदूर खुश, वो अपने घर पहुंच गए। स्थानीय प्रशासन भी खुश, चलो बला टली। झारखंड सरकार खुश कि हर जगह उनकी तारीफ हो रही है क्योंकि पूरा देश देखता रह गया और उन्होंने मजदूरों की घर वापसी करवा ली।
अब इस कहानी को थोड़ा आगे लेकर जाएं। शुक्रवार को कई और श्रमिक स्पेशल ट्रेन चल चुकी। खबर जंगल में आग की तरह फैली और आज सुबह से हरियाणा, सूरत, चेन्नई, गुजरात, कश्मीर में मजदूरों के प्रदर्शन शुरू हो गए। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक में फंसे प्रवासी मजदूर बेचैन हैं। महसूस करिए उनकी बेचैनी को। वो दूसरे प्रदेश में खुद को अनाथ महसूस कर रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि यहां रहेंगे तो मर जाएंगे। आखिर उनकी स्थिति ऐसी क्यों हो गई है। कोई रेल की पटरी के सहारे पैदल ही अपने गांव की ओर निकला है। कोई रेहड़ी और साइकिल से अपने परिवार को लेकर चल पड़ा है।
जरा महसूस करिए मजदूरों के अंदर मौजूद उस भय को। क्या हमारी राज्य सरकारों के पास इतना भी सामर्थ्य नहीं कि वो इन्हें दिलासा दे सके कि उनका हम ख्याल रखेंगे। आप मत जाएं। यहीं रूकें। क्या हमारी सरकारें इतनी नाकाम हैं कि दो वक्त की रोटी न खिला सके। पर अफसोस सभी की कलई खुल गई है।
सबसे निष्ठुर तो इंडस्ट्री के वो लोग निकले जिन्होंने इन मजदूरों को भूखा मरने के लिए छोड़ दिया। जिन मजदूरों के दम पर सालों से करोड़ों रुपए कमाए उन्हें एक महीने में पराया कर दिया। यह भी नहीं सोचा कि जब लॉकडाउन खत्म हो जाएगा तो इन्हीं मजदूरों के भरोसे उनकी इंडस्ट्री पटरी पर लौटेगी।
जरा सोचिए जिन पटरियों पर पैदल चल कर मजदूर अपनी जिंदगी को वापस पाने के लिए गांव को निकले हैं क्या वो उन पटरियों की तकलीफदेह यात्रा भूल सकेंगे। क्या वो भूल सकेंगे कि उनके मालिकों ने उनके साथ क्या नीचता दिखाई। यकीन मानिए जितने मजदूरों ने घर वापसी की है उन्होंने दृढ़ निश्चय कर लिया होगा कि चाहे जो हो जाए वापस नहीं लौटेंगे। आने वाले दिनों में अर्थ जगत के हालात को समझिए। कुछ भी इतनी जल्दी पटरी पर नहीं लौटेगा।
अब इसके एक और पहलू को समझिए कि इन मजदूरों को वापस भेजकर कितना बड़ा खतरा उठाया गया है। यूपी की बस्ती से खबर आई है कि महाराष्ट्र से वापस लौटे कई लोग कोरोना संक्रमित पाए गए हैं। बिहार के सुदूर गांव तक में कोरोना पॉजिटिव मिलने लगे हैं। आने वाले समय में खतरा और कितना बड़ा होता जाएगा कहा नहीं जा सकता है।
पहले रटते रहे कि जो जहां हैं वहीं रहिए। अब ऐसी क्या मजबूरी हो गई कि ट्रेन पर ट्रेन चलाई जा रही है? क्या राज्य सरकारों ने अपनी नाकामी मान ली है कि हम महीने दो महीने लाख दो लाख मजदूरों की देखभाल नहीं कर सकते। या फिर इन सरकारों में यह भय समा गया है कि कभी भी बगावत हो सकती है। जैसा कि हो भी रहा है।
कारण चाहे जो भी हो। पर कोरोना काल में मजदूरों का यह हाल इतिहास के पन्नों में दर्ज हो रहा है। आने वाला कल इन सरकारों से जरूर सवाल करेगा कि जिन श्रमिकों के बल पर तुम अपने यहां विकास का रास्ता खोज रहे थे उन्हें किन रास्तों से दोबारा अपने यहां बुलाओगे। और बुलाओगे तो भी क्या वो मजदूर वापस लौटेंगे, ताकि तुम फिर उन्हें थोड़ा संकट आते बेगाना कर दो। भूखा मरने के लिए छोड़ दो।
अब भी समय है रोकिए मजदूरों को। उन्हें विश्वास दिलाइए सरकार उनके साथ है। उनके खाने की पर्याप्त व्यवस्था करिए। आपदा राहत में हर साल करोड़ों रुपए का जो प्रावधान होता है उसे खर्च करिए। दिल बड़ा करिए। दूसरे प्रदेशों के मजदूरों के भरोसे अपने प्रदेश के विकास की गाड़ी चलाते वक्त जो दिल था उसे खोलिए। नहीं खोलिएगा तो बहुत देर हो जाएगी।
1 comment:
बेहतरीन विवेचना श्रमिकों की मजदूरों की,,,,,,,
"मानो या न मानो : श्रमिकों का यह हाल कोरोना का सबसे खतरनाक काल है"
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