Saturday, February 21, 2015

बहुत याद आए झा सर

रांची प्रवास 2010 के दौरान मैं झा सर और राजीव भाई।
बहुत याद आए झा सर
करीब पांच साल बाद रांची जाने का मौका मिला था। जब से रांची छोड़ा और उसके बाद वहां जाने का मौका मिलता था, एक शख्स थे जिनसे मिले बिना सबकुछ अधूरा सा लगता था। वह थे झा सर। इस बार की रांची यात्रा में आरएन झा सर को काफी मिस किया। बहुत लोगों से मुलाकात हुई। पुरानी यादें ताजा हुर्इं। हरमू रोड से गुजरने का मौका भी मिला। अशोक नगर की तरफ जाते हुए एकबारगी ऐसा लगा कि गाड़ी हरमू चौक से बांयी ओर मोड़ दूं और उस घर के सामने पहुंच जाऊं जहां झा सर ने जिंदगी का लंबा वक्त गुजारा था। बहुत तमन्ना थी उस घर को देखने की। सोचा चलूं देख कर आया जाए उस 420 नंबर की दोनों स्कूटर को। क्या उस घर में अब भी बिल्लियों का जमघट लगा होगा? क्या झा सर की टेबल पर अब भी सैकड़ों कलमों का जखीरा पड़ा होगा। पर हिम्मत नहीं हुई। या यूं कहिए मन ने इजाजत नहीं दी। मन ने इजाजत इसलिए नहीं दी कि क्योंकि आंसूओं ने उसका रास्ता रोक दिया था। हरमू चौक से थोड़ा आगे बढ़ते ही रोड के बांयी ओर से कैप्टन कूल महेंद्र सिंह धौनी का आलिशान बंगला भी नुमाया हुआ। गाड़ी में बैठी मेरी आंटी ने बताया कि जब धौनी यहां आता है रोज यहां हजारों लोगों की भीड़ धौनी की एक झलक पाने को घर के सामने खड़ी रहती है। झा सर और धौनी के बीच कोई समानता नहीं है। पर पता नहीं क्यों मन में बरबस ही यह सवाल कौंध गया कि क्या कभी ऐसा किसी पत्रकार के लिए भी होगा। लोग उस पत्रकार की एक झलक पाने को घंटों उसके घर के बाहर खड़ा होंगे। झा सर शायद जिंदा होते तो इस सवाल का जवाब बेहतर दे पाते। अनुभव के आधार पर बता सकता हूं कि झा सर कहते.. पत्रकारिता ने जिस तेजी ग्लैमर का लबादा ओढ लिया है, पत्रकारों ने उसी तेजी से अपना सम्मान और ग्लैमर खो दिया है। अब वो बात कहां है पत्रकारिता में और पत्रकारों में।
रांची कॉलेज कैंपस के पास से गुजरते हुए पत्रकारिता विभाग का अपना ठौर भी दिखा। वहां भी नहीं गया। बस दूर से ही देखकर यादें ताजा कर ली। जिंदगी है, यूं ही चलती रहेगी। लोग मिलेंगे, बिछड़ेंगे। कुछ यादें धुंधली पड़ जाएंगे, पर कुछ यादें आपकी जिंदगी का अहम हिस्सा बनी रहेंगी। झा सर आप मेरे लिए हमेशा जिंदगी के हर मोड़ पर साथ रहेंगे। साक्षात।

नीचे का आलेख मैंने झा सर की अनंत यात्रा पर चले जाने के दौरान लिखा था। उसे भी साझा कर रहा हूं। 

अनंत यात्रा पर  झा सर

झारखंड की पत्रकारिता के एक आधार स्तंभ आरएन झा हमारे बीच से अनंत यात्रा पर निकल गए. जितने साधारण तरीके से उन्होंने अपनी पत्रकारिता के जीवन की यात्रा पूरी की उसी तरह चुपके से जीवन की अनंत यात्रा की ओर रुखसत हुए. शायद उन्हें इस बात का एहसास हो चुका था कि जीवन की यात्रा का पड़ाव आ चुका है इसलिए वह अपनी कमर्भूमि रांची की वादियों में अंतिम सांस लेना चाहते थे, लेकिन वक्त ने उन्हें अपनी मातृभूमि बिहार के मधुबनी के एक छोटे से गांव में ही रोक लिया. जिसने भी उनके मौत की खबर सुनी स्तब्धता और शुन्यता की गहराई में उनकी यादों से दो चार होने लगा.
मैं उनके संपर्क में वर्ष 2000 में आया. रांची के पत्रकारिता विभाग द्वारा आयोजित रिटेन एग्जाम में क्वालिफाई कर जब इंटरव्यू देने पहुंचा तो सामने डायरेक्टर ऋता शुक्ला बैठी थीं. उनकी बगल वाली कुर्सी पर बैठे उस शख्स देखते ही लग गया था कि यह कोई जिंदादिल इंसान है. बेहद दुबला पतला शरीर, आंखों पर मोटा चश्मा, सफेद बाल (जो उनकी स्टाइलिश टोपी के नीचे से नजर आ रही थी) और सबसे अलग उनकी शर्ट. बाद में पता चला कि वह शर्ट उनकी जिंदगी की सबसे बड़ी पूंजी थी. शर्ट पर विश्र्व के सभी नामी अखबारों के खबरों की कटिंग का प्रिंट था. अद्भाूत थी वह शर्ट. पत्रकारिता विभाग में एक साल की पढ़ाई के दौरान इस जिंदादिल इंसान की हर एक बात आज भी याद आती है. पत्रकारिता के पहले दिन के पहले क्लास में उन्होंने पहली सीख दी..... पत्रकारिता में कभी फ्री में काम मत करना, यह तुम्हारी अहमियत कम कर देती है और दूसरों के लिए मुश्किल पैदा कर देती है. आज भी उनकी दी यह सीख मैं अपने जूनियर्स को जरूर देता हूं.
टूट कर मोहब्बत की
ताउम्र उन्होंने अपनी जिंदगी से जीवन संगिनी नाम को दूर रखा. कहते थे मैंने तो पत्रकारिता
से शादी कर ली है, इसी के साथ जीऊंगा इसी के साथ मरूंगा. अपनी पत्रकारिता की जिंदगी के बारे में वे बहुत कम शेयर किया करते थे, लेकिन जो उन्होंने सीखा उसे प्रैक्टिकली अपने शिष्यों से जरूर शेयर करते थे. हिन्दुस्तान टाइम्स में लंबी पारी खेलकर जब वे रिटायर हुए तो रांची स्थित पत्रकारिता विभाग को अपना ठौर बनाया. यहां युवाओं की फौज उनकी रगों में बहते खून को और तेज कर देती थी. अक्सर कहा करते थे आप लोगों के साथ बिताया गया यह लम्हा मुझे मेरी जिंदगी में कई साल जोड़ देता है. उम्र का 85 वां पड़ाव पार करते हुए भी उनका युवाओं जैसा जोश किसी को भी हैरान कर देता था. उन्होंने पत्रकारिता से टूट कर मोहब्बत की.
खोजी पत्रकारिता का 'चौकीदार'
रात का अंधेरा हो या दिन का उजाला, उन्होंने खोजी पत्रकारिता को एक ऐसे मुकाम पर पहुंचाया जो आज भी नए पत्रकारों के लिए एक सीख है. बिहार का अब तक सबसे बड़ा घोटाला जिसे चारा घोटाले के नाम से लोग जानते हैं, यह आरएन झा की कलम की ही पैदाइश थी. चारा घोटाले ने खोजी पत्रकारिता के जो मानक स्थापित किए वह आज भी झारखंड की पत्रकारिता में माइल स्टोन हैं.
420  ही रहना है मुझे
पत्रकारिता में एथिक्स की बातों को उन्होंने अपनी जिंदगी में साक्षात उतार रखा था. आज के दौर की पत्रकारिता को वे संक्रमण का दौर कहा करते थे. उनके पास दो स्कूटर थे. एक लैंबरेडा का पुराना मॉडल और दूसरा वेस्पा. दोनों ही स्कूटर का नंबर 420 था. एक बार ऐसे ही जब उनसे हमने पूछा कि आखिर इसका राज क्या है, तो कहा जिंदगी में 420 को लोग बुरी नजर से देखते हैं, लेकिन मेरी जिंदगी की यही सच्चाई है. पत्रकारिता के पूरे कॅरियर के दौरान उन पर न तो किसी चार सौ बिसी की परछाईं पड़ी और न ही वे अपने पास ऐसे लोगों को फटकने देते थे.
उबले आलू, गरम चाय और सिगरेट का धुंआ
मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया, हर फिक्र को धुंए में उड़ाता चला गया.....जब सदाबहार हीरो देवानंद पर यह सुपर डुपर गीत फिल्माया गया था तो उस वक्त मैं पैदा भी नहीं हुआ था. झा सर के संपर्क में आया तो उन्हें देखकर हर वक्त यही गीत जुबां पर चला आता था. एक बार जब   उनके घर गया तो पता चला कि वे दिनभर चाय और सिगरेट पर ही गुजार देते हैं. रात में उबले हुए आलू और चावल नमक के साथ खाते हैं. सिगरेट और चाय उनकी कमजोरी थी. क्लास में आने से ठीक पहले उनकी सिगरेट बुझती थी और बाहर निकलते ही सुलग जाती थी. उम्र के उस पड़ाव (85 साल) में जब लोग बिस्तर पकड़ लेते हैं पत्रकारिता का यह मसीहा उसी जिंदादिली से सिगरेट का धुंआ उड़ाता था. वर्ष 2010 में रांची में पत्रकारिता विभाग की ओर से एक सेमिनार में मैं भी देहरादून से शामिल हुआ था. उनसे मेरी यह अंतिम मुलाकात थी. उसी जिंदादिली से अपनी बेशकीमती शर्ट और सिगरेट के धूंए के बीच उन्होंने तस्वीर खिंचवाई और कहा इस तस्वीर को संभाल कर रखना. अब अधिक दिनों तक मैं यह शर्ट नहीं पहन सकूंगा. झा सर आप की यादें हमेशा साथ रहेंगी.

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