Monday, October 9, 2017

भारत के अर्थिक मोर्चे पर प्रयोगों का दौर

आर्थिक मोर्चे पर भीषण प्रयोगों के दौर से गुजर रही केंद्र की मोदी सरकार ने दीपावली के पहले कुछ फैसलों से मार्केट को थोड़ी राहत देने का प्रयास किया है। इस राहत को भले ही फौरी सहायता राशि के तौर पर देखा जा रहा है, लेकिन मार्केट एक्सपर्ट्स की राय है कि यही फौरी राहत आने वाले समय में मार्केट के लिए स्थायित्व प्रदान करने वाली साबित होगी। राजनीतिक पंडितों की राय में गुजरात चुनाव की तैयारी में जुटी केंद्र सरकार ने खासकर व्यापारियों के हितों की रक्षा में अपना मास्टर स्ट्रोक खेला है। कारण चाहे जो भी हो पर मंथन का समय जरूर है कि इतने भीषण प्रयोगों के दौर से गुजर रही केंद्र सरकार के पास क्या इतना समय है कि वह अपने कार्यकाल में देश के अंदर अर्थव्यवस्था के उस सार्थक माहौल को स्थापित कर सके जिसकी परिकल्पना नोटबंदी और जीएसटी लागू करने के साथ हुई थी।
नोटबंदी लागू हुए करीब एक साल पूरा होने जा रहा है। इस बीच नोटबंदी को लेकर जितने प्रयोग केंद्र सरकार ने किए वह विश्व इतिहास में शायद इससे पहले कभी नहीं हुआ। हर दूसरे दिन नए और पुराने नोटों को लेकर नए-नए नियमों को लागू किया गया। लोग इतने कंफ्यूज हुए कि उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि करना क्या है और छोड़ना क्या है। बैंकों की हालत और भी बेकार थी। न वहां ग्राहकों को समझाने वाला कोई था और न समझने वाला। संभलते संभलते महीनों गुजर गए। नोटबंदी से क्या हासिल हुआ और क्या नुकसान इसका सटिक जवाब न तो केंद्र सरकार के पास है न विपक्षी दलों के पास। सिर्फ अनुमान के आधार पर वार और पलटवार हो रहा है।
केंद्र सरकार से पूछा जाता है कि नोटबंदी से क्या कालाधन पूरी तरह खत्म हो गया? क्या टेरर फंडिंग पर पूरी तरह लगाम लग गई? क्या बैंकों की वित्तीय हालत सुधर गई? क्या रातों रात बैंक कर्जमुक्त हो गए? कितना कालाधान बैंकों में आया? अभी तक केंद्र सरकार का जवाब गोलमोल ही रहा है। कोई भी तथ्यात्मक आंकड़ा जनता के सामने नहीं आया है। दूसरी तरफ विपक्षी दल सिर्फ एक ही रट लगाए रहते हैं कि नोटबंदी भारत का सबसे बड़ा वित्तीय घोटाला है। कई बार तो इसे करीब 45 लाख करोड़ रुपए का घोटाला भी कोट करते हैं। कैसे हुआ यह घोटाला? कैसे हम इसे स्थापित करेंगे कि नोटबंदी एक घोटाला है? कैसे हम इस घोटाले के लिए केंद्र सरकार को कटघरे में खड़ा करेंगे? तमाम सवालों के जवाब के लिए जवाब आता है समय आने पर इसका खुलासा किया जाएगा।
नोटबंदी से स्थिति थोड़ी सामान्य होने की हालत में आती इससे पहले ही केंद्र सरकार ने जीएसटी का एक ऐसा जिन्न मार्केट में उतार दिया जिसके नाम से ही लोगों की जेब ढिली होने लगी। न कोई अधिकारी इसे समझ पा रहा, न व्यापारी। आम आदमी का हाल तो सबसे बुरा रहा। बस एक ही बात रटाई जाने लगी कि पहले हम अलग-अलग टैक्स देते थे। अब एक ही टैक्स देना होगा। यह पाठ सिर्फ एक लाइन था, लेकिन सामान्य लोगों के लिए इस पाठ को समझना और याद करना जिन्नों के देवता का साक्षात्कार करने जैसा ही है। सब कंफ्यूज हैं। सरकार ने क्या किया है। सरकार को क्या करना है। अधिकारी क्या कर रहे हैं। उन्हें क्या करना है। व्यापारी क्या करेंगे क्या नहीं करेंगे। छोटे व्यापारी कहां है। कहां जाएंगे। आम आदमी की बात तो सबसे जुदा है ही। वह तो होटल और रेस्टोरेंट में बिल पर सी-जीएसटी और एस-जीएसटी का नाम पढ़कर बिल काउंटर पर लड़ने मरने को उतारू है कि मोदी जी तो कहते हैं सिर्फ एक टैक्स है। फिर यह सी-जीएसटी और एस-जीएसटी क्या बला है।
अब जब धीरे-धीरे आम आदमी को सी-जीएसटी और एस-जीएसटी का मतलब समझ आने लगा है तो दशहरे के बाद दीपावली की मार्केटिंग में वह जीएसटी का फायदा खोजने में जुट गया है। उसे वहां कुछ भी पल्ले नहीं पड़ रहा है। वह अखबारों में प्रकाशित हो रहे सरकारी विज्ञापनों को पढ़कर खुश हो रहा है कि जीएसटी लागू होने से क्या-क्या चीज सस्ती हो गई है। भले ही मार्केट में उसे कुछ समझ में आए न आए, लेकिन जैसे ही व्यापारी यह बोलता है कि बिल कच्चा चाहिए कि पक्का। वह तुरंत समझ जाता है कि उसे बिल न कच्चा चाहिए न पक्का। उसे तो सामान सस्ता चाहिए। पक्की बिल मांगने पर जैसे ही दुकानदार उसे 28 परसेंट टैक्स का फंडा समझता है, ग्राहक पैर पीछे खींच लेता है और दांते निपोड़ कर बस इतना कह देता है। छोड़िए बिल का चक्कर। थोड़ा सस्ता मिल जाए तो बिल काहे का।
दो दिन पहले ही जीएसटी काउंसिल की 22वीं बैठक के बाद मोदी सरकार ने जीएसटी को लेकर चल रहे प्रयोगों के दौर में एक और प्रयोग जोड़ दिया है। अब कंपोजिशन स्कीम की लिमिट बढ़ाना, रिटर्न दाखिल करने की प्रक्रिया को मासिक के बजाए तिमाही आधार पर भरना अनिवार्य करना और कुछ वस्तुओं पर टैक्स की दरों को कम करना प्रमुखता से शामिल है। इससे पहले भी जीएसटी काउंसिल की 21 बैठक हो चुकी है। हर बार कोई न कोई नया नियम लागू किया जाता है। यानि प्रयोगों का दौर आने वाले समय में भी चालू रहेगा। फिलहाल जो रियायतें मिली हैं उसमें राजनीतिक गंध आने लगा है। शायद यही कारण है कि अपने दो दिवसीय गुजरात यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री मोदी के भाषण का मुख्य फोकस जीएसटी को लेकर ही था।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रयोग होना अच्छी बात है। शायद इसी कारण भारतीय जनता ने भी प्रयोग के तौर पर पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ भारतीय जनता पार्टी को अपार समर्थन देकर गद्दी सौंपी थी। पर जिस तरह यह लोकतांत्रित सरकार आर्थिक मोर्चे पर प्रयोगों में जुटी है उसका रिजल्ट भी लोग देखना चाहते हैं। आम आदमी को आंकड़ों की जादूगरी से मतलब नहीं होता है। उसे सीधे-सपाट शब्दों में अपना आर्थिक नुकसान और फायदा देखना होता है। अगर सही अर्थों में नोटबंदी और जीएसटी के जिन्न ने आमलोगों को मजबूत तरीके से आर्थिक फायदा पहुंचाया है तो सरकार का यह कर्तव्य है कि वह सीधे-सपाट शब्दों में ही भारत की जनता को उसके फायदे गिनवाए। नहीं तो नोटबंदी और जीएसटी आने से पहले भी लोग दुकान पर कच्चे और पक्के बिल के झोलझाल में फंसते थे और आज भी स्थिति उससे जुदा नहीं है।

चलते-चलते
गुजरात दौरे पर पहुंचे पीएम मोदी ने जीएसटी काउंसिल की 22वीं बैठक का हवाला देते हुए कहा है कि जीएसटी से जुड़े फैसले की वजह से देश में 15 दिन पहले दीपावली आ गई। हमने पहले ही कहा था कि एक बार लागू करने के बाद तीन महीने तक अध्ययन करेंगे। जहां जहां कमियां होंगी, जो शिकायतें होंगी, व्यवहारिकता में कमी होगी, उसे दूर किया जाएगा। हम नहीं चाहते कि देश का कारोबारी फाइलों, बाबुओं और साहबगीरी में फंस जाए। उम्मीद की जानी चाहिए पीएम मोदी अब 23वीं बैठक का इंतजार किए बिना देश को जीएसटी के और भी फायदे गिनवाने में कामयाब हों।

No comments: