Monday, October 30, 2017

इशारों को अगर समझो, ताज को ताज रहने दो

विश्व की अमूल्य धरोहरों में से एक ताजमहल को पूरी दुनिया मोहब्बत की निशानी के तौर पर मानती, समझती और देखती आ रही है। विश्व के किसी भी कोने में अगर यह सवाल पूछा जाए तो शायद एक ही जवाब होगा, ताजमहल प्यार की निशानी है। एक सामान्य भारतीय नागरिक को भी इसके हिंदु और मुस्लिम प्रतीक से कोई सरोकार नहीं। क्योंकि प्यार का कोई मजहब नहीं होता। कोई जाति नहीं होती। पर सियासत में वोट की राजनीति हमेशा से ही ऐतिहासिकता पर भारी पड़ी है। कभी ऊंट सही करवट बैठ लेता है कभी गलत करवट ले लेता है।
राममंदिर और बाबरी मस्जिद के विवाद ने जिस तरह पूरे भारत के हिंदुओं और मुस्लिमों को पृथक करते हुए अपने-अपने धर्म के प्रति एकजुट कर दिया था, क्या अब एक बार फिर उसी तरह की सियासती कार्ड खेलने का प्रयास किया जा रहा है? यह सवाल मंथन करने के लिए इसलिए मजबूर कर रहा है क्योंकि जिस तरह उत्तर प्रदेश में इस विवाद को हवा दी गई वह अपने आप में आश्चर्यजनक है। बेहद प्लांड तरीके से इसे अंजाम तक पहुंचाने का प्रयास किया गया। पहले यूपी पर्यटन के कैलेंडर से ताजमहल को गायब कर दिया गया। फिर सालाना बजट से भी इसे निकाल दिया गया। इसके बाद प्रदेश के सबसे विवादित नेताओं और हिंदुओं के तथाकथित बड़े चेहरों का धड़ाधड़ बयान आने लगा। इन सभी प्रकरणों ने यह तथ्य स्थापित करने में मदद कर दी कि ताजमहल और तेजोमहालय शिवमंदिर का विवाद बेहद प्लांड था। फिलहाल जिस तरह यूपी के मुख्यमंत्री ने आनन फानन में ताजहमल का दौरा किया, भगवा वस्त्र पहने वहां झाड़ू लगाई और ताजमहल से जुड़ी नई परियोजनाओं के लिए तत्काल 370 करोड़ रुपए के बजट की घोषणा की वह अपने आप में साबित करता है कि डैमेज कंट्रोल की यह बड़ी कवायद थी।
बीजेपी की थिंक टैंक यूपी में योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाने के बाद से ही भविष्य (2019 लोकसभा चुनाव) के लिए बड़ा सियासती दांव खेलने में जुटी है। ऐसे में मोहब्बत की निशानी से जुड़े विवाद को भी इसी सियासती दांव के नजरिए से देखा जाने लगा है। हालांकि डैमेज कंट्रोल की कवायद ने अहसास दिला दिया है कि यह सियासती दांव फिलहाल उल्टा पड़ गया है। सबसे आश्चर्यजनक है योगी आदित्यनाथ द्वारा ताज को भारतीय संस्कृति का हिस्सा नहीं होने का बयान देना फिर उसी ताज का दर्शन कर वहां झाड़ू लगाना। बीजेपी के थिंक टैंक के साथ-साथ हम भारतीयों को भी मंथन जरूर करना चाहिए कि हम किस राजनीति की भेंट चढ़ जाते हैं।
ताजमहल के साए में अबतक करोड़ों लोगों ने मोहब्बत की कसमें खाई होंगी। करोड़ों लोगों की मोहब्बत परवान चढ़ी होगी। हर दूसरे दिन किसी विदेशी जोड़े के ताज के साए में शादी करने की खबरें आती हैं। बावजूद इसके हम अपनी इस अमूल्य धरोहर को राजनीतिक रोटी सेंकने का जरिया कैसे बना सकते हैं। ताजमहल और तेजोमहालय का विवाद कोई नया नहीं है, लेकिन इस बार जिस तरह इसका राजनीतिकरण किया जा रहा है वह हमारे लिए बेहद शर्मनाक है। 
इतिहास हमेशा से ही हमें तर्क वितर्क की इजाजत देता है। या यूं कहें कि मौका देता है। हजारों ऐसे उदाहरण हमारे सामने मौजूद हैं जब इतिहासकारों ने अपनी-अपनी तरह से इतिहास की व्याख्या की और हमारे विचारों को बदलने में अहम भूमिका निभाई। मेरे पिताजी इतिहास के प्रोफेसर रहे हैं। उन्होंने इतिहास की कई किताबें लिखीं। आज भी उनके सानिध्य में कई शोधार्थी काम कर रहे हैं। मैं भी इतिहास का विद्यार्थी रहा हूं। इसलिए इतिहास को करीब से देखने और समझने का मौका मिला। पिताजी ने जब अपनी पहली किताब लिखी तो वह गांधी के चंपारण आंदोलन पर थी। हम भाई-बहन काफी छोटे थे, पर अच्छी तरह याद है कि उस किताब को लिखने के लिए पिताजी ने कितना लंबा वक्त चंपारण के गांवों में गुजारा। जब बड़ा हुआ तो चंपारण के इतिहास से जुड़ी हजारों किताबों को सामने पाया। कंफ्यूज था कि किसे पढ़ूं। किसे सही मानूं। क्योंकि हर एक किताब में नई कहानी, नई बातें और कुछ नए तथ्यों से रूबरू हो रहा था। कुछ आजादी से पहले के इतिहासकारों की किताबें थीं, कुछ आजादी के बाद की और कुछ गांधी की मृत्यु के बाद के इतिहासकारों की किताबें थीं। सब अपने-अपने चश्मे से चंपारण को देख रहे थे। संयोग देखिए मेरा एक मित्र भी चंपारण का शोधार्थी बन गया। उसने अपनी पीएचडी कंप्लीट की। उसने कई नए तथ्यों का अपने शोधग्रंथ में समावेश किया।
कहने का तात्पर्य है इतिहास की प्रमाणिकता होने के बावजूद उसमें कल्पनाशीलता इतना अहम किरदार निभाती है कि आपके विचार बदल सकते हैं। इतिहासकारों की भी अपनी विचारधारा है, जिसके आधार पर वो अपनी लेखनी चलाते हैं। इसीलिए शायद एक इतिहासकार ही दूसरे इतिहासकार के तथ्यों को घटिया और बेतुका बताता है। कुछ ऐसा ही ताजहमल के साथ हुआ। आधुनिक भारत के बड़े इतिहासकारों में पुरुषोत्तम नागेश ओक का नाम आता है। उनकी किताब ताजमहल एक हिंदू टेंपल ने भारतीय लोगों को एक थ्योरी दी। यह थ्योरी है कि ताजमहल कोई मोहब्बत की निशानी नहीं, बल्कि वह एक शिवमंदिर था। उन्होंने ही बताया कि ताजमहल का वास्तविक नाम तेजोमहालय था और इस शिवमंदिर को जयपुर के राजा मानसिंह प्रथम ने बनवाया था। इसे ही मोडिफाई किया गया और ताजमहल का नाम दिया गया।
अपने इन दावों के आधार पर उन्होंने अदालत का दरवाजा भी खटखटाया। लंबे वाद विवाद के बाद वर्ष 2000 में सुप्रीम कोर्ट ने उनके दावों को खारिज कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने इस दावे को पूरी तरह ओक साहब का दिमागी कीड़ा बताया। वर्ष 2005 में भी इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक याचिका को पूरी तरह खारिज कर दिया था जिसमें यह दावा किया गया था कि ताजमहल को 1196 में हिंदू राजा परमार देव ने बनवाया था। 

जब विद्यार्थी था तो पिताजी का यह कथन हमेशा से दिलो दिमाग में बैठ गया। पापा का कहना है कि इतिहास को कभी भी वर्तमान के चश्मे से मत देखो। इतिहास को इतिहास के नजरिए से देखो फिर इसे पढ़ने, कहने और लिखने में मजा आएगा। ताजमहल को लेकर उस वक्त के इतिहासकारों, विदेशी यात्रियों के संस्मरण और लेखकों ने जो कुछ भी लिखा है उसे पूर्ण सत्य मानकर भले ही हम न चलें, लेकिन इतना तो जरूर है कि स्थापित तथ्यों से इतनी अविवेकपूर्ण छेड़छाड़ भी न करें। बीजेपी की थिंक ब्रिग्रेड ताजलमहल और तेजोमहालय में विवाद पैदा कर क्या हासिल करना चाह रही है इस पर मंथन करने की जरूरत है। देश के मूड को देखते हुए योगी सरकार ताज को लेकर फिलहाल बैकफुट पर है। बीजेपी की थींक ब्रिग्रेड भी अगर यह इशारा समझ चुकी है तो फिर ताज को ताज ही रहने दिया जाए इसी में सभी की भलाई है, क्योंकि ताजमहल राममंदिर की तरह वोट नहीं दिला सकती। मंथन हमें और आपको भी करना है कि अनावश्यक के विवादों में खुद को न झोंकें।
चलते-चलते
मेरे प्रिय शायर मुनौव्वर राणा की चंद पंक्तियां आप सभी पाठकों के मंथन के लिए हैं...
मोहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है
सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है।।
तवायफ की तरह अपने गलत कामों के चेहरे पर
हुकूमत मंदिर-मस्जिद का पर्दा डाल देती है।।

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