Tuesday, October 24, 2017

विकास = भात-भात कहकर बच्ची ने तोड़ा दम

जब से यह खबर देखी और पढ़ी मन अंदर से विचलित हो गया। कितना दर्दनाक होगा वह पल जब एक बच्ची ने अपनी मां के सामने भात-भात कहते हुए दम तोड़ दिया होगा। कितनी बेबश होगी वह मां जो अपने कलेजे के टुकड़े को अपनी आंखों के सामने तिल-तिल मरता देख रही होगी। यह सोचकर ही रूह कांप जाती है कि आज के इस सभ्य और 21वीं सदी के समाज में भी कोई भूख और कुपोषण से काल का ग्रास बन सकता है। पर झारखंड के सिमडेगा जिले में एक बच्ची की मौत ने मंथन करने पर विवश कर दिया है कि आखिर क्या कारण है कि हम अपनी आधारभूत जरूरतों को पूरा करने में भी नाकाम हो रहे हैं।
सिमडेगा में जिस 11 साल की बच्ची ने दम तोड़ा उसकी मां ने जब पूरी कहानी बयां कि तो एक अजीब सी स्तब्ध कर देने वाली बातों का खुलासा हुआ। मां ने बताया कि हमारी बेटी के भूख मिटाने का साधन मिड डे मील था। दुर्गा पूजा की छुट्टियों के कारण कई दिनों से स्कूल बंद था। राशन कार्ड के जरिए पीडीएस स्कीम के तहत जो राशन मिलता था वह कई महीनों से बंद कर दिया गया था। क्योंकि सरकार का आदेश था राशन कार्ड को आधार कार्ड से लिंक करवाओ। पिछले आठ दिनों से घर में अन्न का एक दाना नहीं था। और अंतत: उस बच्ची ने मां के सामने भात-भात कहते दम तोड़ दिया। भूख से उसका पेट अकड़ गया था।
यह खबर निश्चित तौर पर सोचने और समझने पर हमें मजबूर कर देती है। ऐसी खबरों पर मंथन इसलिए भी जरूरी है क्योंकि वैश्विक भूखमरी सूचकांक यानी ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) में भारत कई कदम और नीचे उतर गया है। हाल ही में जारी हुए जीएचआई के सूचकांक में भारत का स्थान 119 देशों में 100वें नंबर पर है। यह चिंता का सबब इसलिए भी है क्योंकि वर्ष 2016 में भारत का स्थान 97वां था, जो तीन स्थान और पीछे खिसक गया है। यह एक ऐसा तथ्य है जिसे नकारा नहीं जा सकता है। यह कैसी विडंबना है कि हम जहां एक तरफ डिजिटल भारत की परिकल्पना लिए आगे बढ़ रहे हैं वहीं हमारे यहां भूख से मरने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। मंथन जरूरी इसलिए भी है क्योंकि इस ग्लोबल इंडेक्स में उत्तर कोरिया, बांग्लादेश और इराक जैसे देश भी भारत से ऊपर हैं।
वॉशिंगटन स्थित इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (आईएफपीआरआई) द्वारा हर साल भूखमरी सूचकांक बनाया जाता है। इस सूचकांक में भारत हमेशा से नीचे रहता आया है। केंद्र सरकार लगातार भारत की जमीनी समस्याओं को दूर करने के लिए प्रयासरत हैं। तमाम सरकारी एजेंसियां भी इस काम में लगी हैं। हर साल करोड़ों रुपए का बजट भी जारी होता है। हर मंच से भारत से भूखमरी और कुपोषण समाप्त करने का वादा किया जाता है। फिर भी अगर हमारी स्थिति में सुधार नहीं हो रहा है तो यह गंभीर विषय है। कहां चूक हो रही है। क्या केंद्र सरकार अपनी नीतियों के कार्यान्वयन में मात खा रही है, या फिर आज भी नोडल एजेंसियों से भ्रष्टाचार खत्म नहीं किया जा सका है। ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिन पर गंभीरता से मंथन जरूरी है। आईएफपीआरआई ने भारत के परिपे्रक्ष्य में एक और गंभीर विषय की तरफ ध्यान दिलाया है। यह है यहां की विषम अर्थव्यवस्था। रिपोर्ट के अनुसार भारत की एक फीसदी आबादी के पास देश के कुल धन का आधे से ज्यादा हिस्सा है। 
इस विषमता का आशय यह है कि जो धन देश में पैदा हो रहा है उसका ज्यादातर हिस्सा कुछ धनाढ्य लोगों के हाथों में सिमट कर रह जाता है। कहने का तात्पर्य है कि देश तो धनी हो रहा है, लेकिन उसका लाभ देश के बहुसंख्य लोगों को नहीं मिल रहा है। हमारी आधी से अधिक आबादी आज भी बुनियादी सुविधाओं से वंचित है। इन बुनियादी सुविधाओं में सबसे बड़ा मसला भूख मिटाने का है। जिस देश में दो वक्त की रोटी से अगर हमारी बहुसंख्य आबादी वंचित रह जा रही है वहां हम सिर्फ बुलेट ट्रेन चलाकर विकास का सपना नहीं बुन सकते हैं। केंद्र सरकार ने कई वर्ष पहले जब पोलियो उन्मूलन का संकल्प लिया था जो एक नारा दिया था। वह नारा था एक भी बच्चा छूट गया, समझो सुरक्षा चक्र टूट गया। कुछ ऐसा ही भूखमरी के मामले में हैं। अगर आज के इस विकासात्मक समाज में भूख से एक इंसान की मौत होती है तो समझिए हम विकास के किस पायदान पर मौजूद हैं। केंद्र सरकार, राज्य सरकार, विभिन्न नोडल और सरकारी एजेंसियों के अलावा भारत की सवा सौ करोड़ आबादी को भी इस पर मंथन करने की जरूरत है। 
भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य बनता है कि खुद की भूख मिटाने के साथ उन असंख्य लोगों के बारे में सोचे जहां दो वक्त चुल्हा नहीं जल रहा है। डस्टबिन में खाना फेंकने से पहले यह जरूर सोचे कि कई बच्चे आज भूखे सो रहे होंगे। देश की संपूर्ण आबादी को अन्न उपलब्ध करवाने के लिए केंद्र सरकार अपनी पूरी ताकत झोंक दे। यही सही मायने में सरकारी तंत्र की जीत है, क्योंकि वैश्विक स्तर पर जीएचआई जैसे आंकड़ों में हमारे पिछड़ने का मतलब साफ है। हम चाहे जितनी भी तरक्की कर लें, पर भूख से होने वाली एक भी मौत हमारे सभ्य और विकसित होने पर तमाचा ही है। क्या हम कुछ ऐसा नहीं कर सकते कि सभी को दो वक्त की रोटी मयस्सर हो। आप भी मंथन करें।

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