Monday, November 27, 2017

  आम आदमी पार्टी से ‘चार आदमी पार्टी’ तक
आम आदमी पार्टी जिन मूल्यों के लिए स्थापित की गई थी, पार्टी अब उन सभी मूल्यों से भटक गई है। आज 5 साल बाद कहां खड़े हैं हम, ये कहां आ गए हम। आम आदमी पार्टी से लेकर चार आदमी पार्टी तक आ गए।’’ यह दर्द बयां किया है दिल्ली २सरकार के पूर्व मंत्री और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के कभी सबसे करीबी रहे कपिल मिश्रा ने। आम आदमी पार्टी के अस्तित्व में आए पांच साल हो रहे हैं। कपिल ने अपने ब्लॉग में आम आदमी पार्टी के पूरे अस्तित्व, विजन और कार्यों पर  व्यंग्यात्मक लेकिन तथ्यात्मक विश्लेषण करते हुए कई बड़े सवाल खड़े किए हैं। कपिल मिश्रा बागी हैं, इसलिए उनकी बातों से आम आदमी ज्यादा इत्तेफाक नहीं रखेगी, लेकिन निश्चित तौर पर यह समय आम आदमी पार्टी और इसे चला रहे चंद लोगों के लिए मंथन का वक्त है। मंथन इस बात पर कि क्या जिस उद्देश्य के लिए आम आदमी पार्टी की स्थापना की गई थी वह सही अर्थों में आम आदमी की पार्टी बन सकी।
दो दिन पहले ही एक तस्वीर वायरल हुई थी। इसमें आम आदमी पार्टी के सर्वेसर्वा अरविंद बीमार सी हालत में बिस्तर पर लेटे हैं और उनकी बगल में कवि कुमार विश्वास जमीन पर बैठे हैं। तस्वीर के कई पहलू हैं। यह तस्वीर शायद उन दिनों की है जब स्वराज आंदोलन पूरे शबाब पर था। पूरा देश अन्ना और केजरीवाल के साथ था। ऐसी ही तस्वीरों ने आम आदमी पार्टी के अस्तित्व में आने की पटकथा लिखी थी। उस वक्त ऐसा लगने लगा था कि सच में अब भारत की कई बीमारियों की जड़ इसी तरह के आंदोलन से खत्म की जाएगी। यही कारण था कि अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में जब आम आदमी पार्टी का गठन हुआ तो पूरे देश ने इसे एक तीसरे राजनीतिक विकल्प के रूप में देखा। 
यह आम आदमी की सोच और विश्वास का ही नतीजा था कि चंद महीनों में ही आम आदमी पार्टी ने राष्टÑीय राजधानी को अपने कब्जे में ले लिया। अन्ना आंदोलन के दौरान भी राष्टÑीय राजधानी पर इनका कब्जा था और विधानसभा चुनाव के बाद भी पार्टी के रूप में कब्जा कायम रहा। लोगों का भरोसा इस पार्टी पर इतना अधिक हो गया कि हर तरफ इसकी चर्चा होने लगी। राष्टÑवाद के उन्माद से निकली एक पार्टी पर लोगों को वैसे तो कई बार अफसोस आया, पर सबसे बड़ा अफसोस तब हुआ तब राष्टÑवाद और देशभक्ति का रस घोल कर लोगों को पिलाने वाली पार्टी ने ही भारतीय अस्मिता से जुडेÞ ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ पर ही निशाना साध दिया। केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी पहली ऐसी पार्टी बनी जिसने राष्ट्रवाद को तिलांजलि देते हुए सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत तक मांग डाले। 
आम आदमी से जुडेÞ सभी पुराने लोगों को तानाशाही रवैया दिखाते हुए पहले ही बाहर किया जा चुका था। चाहे योगेंद्र यादव हों या फिर प्रशांत भूषण। सभी को पार्टी ने बाहर का रास्ता सिर्फ इसलिए दिखाया क्योंकि इन लोगों ने पार्टी में लोकतंत्र की बात कहनी शुरू कर दी थी। आम आदमी पार्टी की स्थापना जिन लोकतांत्रिक मुल्यों की रक्षा के लिए की गई थी उन्हीं  लोकतांत्रिक मूल्यों की पार्टी के अंदर हत्या कर दी गई। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद पार्टी मुखिया अरविंद केजरीवाल का अगला लक्ष्य न तो तब नजर आया और न अब नजर आ रहा है। हां इतना जरूर है जिस तरह उन्होंने मोदी भगाओ देश बचाओ का झंडा उठा लिया उसने आम लोगों को यह विश्वास जरूर दिला दिया कि पार्टी अपने लक्ष्य और उद्देश्य से भटक गई है।
तूं जहां चलेगा मेरा साया साथ होगा की तर्ज पर अरविंद केजरीवाल ने अपना और अपनी पार्टी का सिर्फ एक ही लक्ष्य तय कर दिया, यह लक्ष्य था मोदी को हराना। उन्हें चुनौती देना। उन्हें ललकारना। लोकसभा चुनाव में बनारस पहुंच जाना। वहां से प्रत्याशी बन जाना। गोवा और पंजाब चुनाव में पूरी ताकत झोंक देना। बिहार में लालू को गले लगाकर अपना हमदम बना लेना। ये कुछ ऐसी घटनाएं हुर्इं जिसने सबसे ज्यादा दिल्ली के लोगों को निराश किया। 
एक पार्टी के रूप में हर जगह आम आदमी पार्टी की जग हंसाई हुई। जबकि एक व्यक्तित्व के रूप में अरविंद केजरीवाल की छवि को सबसे अधिक नुकसान हुआ। जिन मूल्यों के लिए पार्टी की स्थापना हुई, उन सभी मूल्यों से पार्टी भटक गई। पार्टी प्रमुख ने अपना सबसे अधिक समय या तो नरेंद्र मोदी के खिलाफ खर्च किया या फिर दिल्ली  के एलजी से भिड़ने में अपना समय गंवाया। नतीजा दोनों ही मामलों में शुन्य निकला, लेकिन पार्टी के तौर पर आम आदमी पार्टी माइनस में चली गई। इस बीच दिल्ली की जनता अपने निर्णय पर पश्चाताप करती रही दूसरी तरफ पार्टी के आधे से अधिक विधायक जेल की हवा खा आए। तमाम तरह के विवाद और घोटालों की कहानी ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया कि पार्टी कोई भी हो उसका मूल चरित्र न कभी बदला है और न कभी बदलेगा। 
सत्ता हासिल करना आसान हो सकता है, लेकिन उस सत्ता को कायम रखना बेहद मुश्किल है। इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता को कायम रखने के लिए जनता के दिल में रहना जरूरी है। और जनता दिल में सिर्फ उन्हीं को रखती है जो दिल में रहना जानते हैं। आम आदमी पार्टी के लिए यह समय मंथन का है। मंथन विभिन्न दिशाओं में करना है। दूसरे राज्यों में जाकर पार्टी ने अपना हर्ष देख लिया है। सिर्फ उन्माद में आकर सत्ता तक पहुंच जाने को अपनी जीत समझ लेने की भूल से बाहर निकलना होगा। कांग्रेस को पता है कि सत्ता उन्हें   परंपरागत मिलती रही है। भारतीय जनता पार्टी को पता है कि सत्ता पाने के लिए उन्होंने कितना संघर्ष किया है। कितनी जमीनी सच्चाइयों से उन्हें रूबरू होना पड़ा है। पर आम आदमी पार्टी का क्या? मंथन करना होगा कि क्या सिर्फ दिल्ली में हल्ला बोल कर वह पूरे देश में राज कर सकते हैं। क्या सिर्फ हवा हवाई बातें कर पूरे देश की आम आदमी पार्टी बन सकते हैं। 
चलते चलते
वैसे तो आम आदमी पार्टी के लिए कई बड़े नामों ने अपनी पूर्णाहूति दी और पार्टी से निकल गए या निकाल दिए गए। नामों की फेहरिस्त काफी लंबी है। सभी ने पार्टी के अस्तित्व पर सवाल उठाए। पर कपिल मिश्रा पार्टी की अंदरूनी हकीकतों से सबसे अधिक जुड़े रहे। शायद इसीलिए उन्होंने पांच साल की पार्टी पर सबसे बड़ा तंज कसते हुए लिखा है..
आंदोलन की हत्या करके उसकी लाश सजाए बैठे हैं
कुछ लोग अब भी केजरीवाल से आस लगाए बैठे हैं।।