पहली बार भारत में 1972 में बाघों की गणना की गई थी। बेहद चुनौतीपूर्ण इस कार्य में कई महीनों का वक्त लगा। इस जनगणना के बाद भारत सरकार को बेहद चौंकाने वाले आंकड़े मिले थे। इन आंकड़ों ने यह बात स्थापित कर दी थी कि निश्चित तौर पर आने वाला वक्त एशियाई बाघों के लिए सबसे कठिन है। अगर जल्द कदम नहीं उठाए गए तो बाघ सिर्फ किस्से, कहानियों, किताबों और फोटो में ही नजर आएंगे। उस वक्त देश में मात्र 1,827 बाघ ही शेष बचने का रिकॉर्ड सामने आया था। इसी गणना के बाद अस्तित्व में आया था ‘सेव द टाइगर’ मुहिम। सात अप्रैल 1973 को केंद्र सरकार ने बाघ बचाओ परियोजना का शुभारंभ किया था। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण तथा बाघ व अन्य संकटग्रस्त प्रजाति अपराध नियंत्रण ब्यूरो के गठन संबंधी प्रावधानों की व्यवस्था करने के लिए वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 में संशोधन किया गया। तत्काल बाघों के संरक्षण के लिए नौ बाघ अभयारण्य बनाए गए। धीरे-धीरे इन अभयारण्यों की संख्या आज 50 के करीब पहुंच चुकी है। बाघ के शिकार पर प्रतिबंध लगाने के साथ-साथ सख्ती भी की गई। केंद्र सरकार और राज्य सरकार के प्रयासों का नतीजा यह हुआ कि साल 2014 की गणना में इनकी संख्या 2,226 रिकॉर्ड की गई। यह आंकड़ा उत्साहवर्द्धक इसलिए था क्योंकि 2010 की गणना में इनकी संख्या मात्र 1,706 रिकॉर्ड की गई थी। 2018 में एक बार फिर से बेहद हाईटेक और व्यापक स्तर पर भारत में मौजूद वन्य जीवों की गणना की गई है। उम्मीद जताई जा रही है इस गणना के भी बेहतर रिजल्ट आएंगे। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण द्वारा वर्ष 2022 तक बाघों की संख्या दो गुनी तक करने का लक्ष्य रखा गया है। इस समय पूरी दुनिया में मात्र 3200 बाघ ही शेष बचे हैं। इनमें से आधे भारत में निवास करते हैं।
एक तरफ ‘सेव द टाइगर’ मुहिम चलता रहा, बाघों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी दर्ज होती गई, लेकिन बेहद अफसोसजनक है कि हमारे एशियाई शेर हमसे बिछड़ते गए। एशियाई शेरों के लिए सुरक्षित अभयारण्य के रूप में गिर नेशनल पार्क ने विश्व स्तर पर अपनी अलग पहचान बनाई है। पर पिछले कुछ महीनों में यहां शेरों की लगातार हो रही मौत ने मंथन करने पर विवश कर दिया है। वर्ष 2014-15 की गणना के दौरान करीब 523 एशियाई शेरों के होने की पुष्टि हुई थी। अब इतनी बड़ी तादात में हो रही मौत ने सभी को हैरान कर दिया है। एशियाई शेरों का वैज्ञानिक नाम पेंथरा लियो पर्सिका है। पूरे एशिया में गुजरात के गिर क्षेत्र में स्थापित अभयाराण्य ही एकमात्र संरक्षण स्थल है जहां एशियाई शेर अपने प्राकृतिक रूप में निवास कर रहे हैं। गुजरात का जूनागढ़, अमरेली और भावनगर जिलों में गिर के जंगल करीब 2,450 हेक्टेयर भूमि पर फैले हुए हैं। वर्ष 1965 में शेरों के लिए आरक्षित वन क्षेत्र घोषित किया गया।
भारतीय शेरों के शिकार के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के दौरान अंग्रेज शिकारी विशेष तौर पर भारत आया करते थे। भारत सरकार के आंकड़ें कहते हैं कि 1900 आते-आते भारत में शेरों की संख्या सिर्फ 15 रह गई थी। गिर वन क्षेत्र को संरक्षित घोषित करने के बाद निश्चित तौर पर शेरों के शिकार पर रोक लगी और इनकी संख्या लगातार बढ़ती गई। प्राकृतिक रूप में इनका विकास तो हो ही रहा था। भारत सरकार ने जूनागढ़ के सक्करबाग प्रणी संग्रहालय में लॉयन ब्रीडिंग प्रोग्राम की नींव डाली। कृतिम रूप से शेरों का प्रजनन करवाया गया। इसमें भी अप्रत्याशित सफलता मिली और करीब ढ़ाई से तीन सौ शेरों का सफल प्रजनन हो चुका है। निश्चित तौर पर शेरों को बचाने के लिए प्रयास हुए, पर गंभीरता से मंथन करने की जरूरत है कि क्या उस स्तर पर हुए जिसकी आज जरूरत है। एशियाई शेरों के अस्तित्व पर आए संकट का एक बड़ा कारण उनका एक ही क्षेत्र में निवास और संरक्षण करना है। कभी यह प्रयास नहीं किया गया कि गिर वन क्षेत्र के अलावा भारत के अन्य वन्य क्षेत्रों में भी इनके संरक्षण और पल्लवन के लिए रास्ता बनाया जाए। ऐसे वन क्षेत्र विकसित किए जाए जहां इनका प्राकृतिक रूप से संरक्षण किया जा सके।
शेरों के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा संकट उनमें तेजी से फैलने वाला संक्रमण है। वर्ष 1994 में तंजानिया के सेरेनगेटी अभयारण्य में करीब एक हजार शेरों की जान इसी तरह के संक्रमण ने ले ली थी। कारण स्पष्ट था कि एक क्षेत्र विशेष में ही इनका निवास स्थान बना दिया गया था जहां वे एक दूसरे के करीब थे। ऐसा ही कुछ गुजरात के गिर वन क्षेत्र के साथ हो रहा है। संक्रमण के कारण होने वाली बीमारियों और आपदा के कारण इनका बचना मुश्किल हो जाता है। शायद यही कारण है कि आचनक पिछले तीन हफ्तों में दो दर्जन एशियाई शेर असमय मौत के आगोश में चले गए हैं। हालत इतने चिंताजनक हो चुके हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने इन मौतों का स्वत: संज्ञान लिया है। सर्वोच्य अदालत ने केंद्र और राज्य सरकारों को इस पर गंभीरता से ध्यान देने की बात कही है। हर वर्ष ‘सेव द टाइगर’ प्रोजेक्ट के लिए करोड़ों रुपए का बजट जारी होता है। शेरों के संरक्षण के लिए भी अलग से बजट का प्रावधान है। पर गंभीरता से मंथन करने की जरूरत है कि इस बजट को शेरों के संरक्षण के लिए कहां और किस तरह खर्च किया जाए।
वायरल इंफेक्शन और प्रोटोजोआ संक्रमण के कारण सबसे अधिक इनकी मौत होती है। इसके अलावा केनाइन डिस्टेंम्पर वायरस (सीडीवी) भी इनकी मौत का अहम कारण है। यह सभी संक्रमण तेजी से शेरों में फैलते हैं। ऐसे में सबसे अधिक जरूरत अन्य शेर अभराण्य विकसित करने की है। वर्ष 1850 से पहले बिहार, पूर्वी विंध्यास, बुंदेलखंड, दिल्ली, राजस्थान, मध्य भारत सहित पश्चिम भारत में एशियाई शेरों की उपस्थिति के प्रमाण मिलते हैं। ऐसे में इन क्षेत्रों में भी शेरों के लिए सुरक्षित ठिकाने बनाने और खोजने पर मंथन किया जा सकता है। ताकि गुजरात के अलावा भी ये अपने प्राकृतिक संरक्षण में पल और बढ़ सकें। ‘सेव द टाइगर’ मुहिम की तरह ही ‘सेव द लॉयन’ मुहिम को भी व्यापक स्तर पर लॉन्च करने की जरूरत है। कहीं ऐसा न हो कि हम ‘सेव द टाइगर’ रटते रहे और हमारे भारत के गर्व का सर्वोच्य निशान हमसे बिछड़ जाए।
(लेखक आज समाज के संपादक हैं )
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