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Tuesday, February 16, 2016

एक सैल्यूट सियाचिन के शहीद हिमवीरों के नाम


पिछले साल जब भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी दीपावली की खुशियां सियाचिन के हिमवीरों के साथ मनाई थी तो पूरी दुनिया की नजर अचानक इस ओर मुड़ गई थी। विश्व के सबसे दुर्गम और सबसे ऊंचे युद्ध क्षेत्र में किसी प्रधानमंत्री ने पहली बार कदम रखा था। सियाचिन में मौजूद भारतीय सैनिकों के लिए यह दीपावली की खुशियों से ज्यादा ऊर्जा देने वाला क्षण था। प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में जिस तरह हिमवीरों के हौसले को सलाम किया था वह वैसे ही नहीं था। ये हिमवीर सही अर्थों में इससे कहीं अधिक सैल्यूट के अधिकारी हैं। तीन दिन पहले वहां की दुर्गम परिस्थितियों में शहीद हुए दस हिमवीरों के लिए भले ही कोई मोमबत्ती न जलाए, लेकिन एक सैल्यूट तो उनके नाम की बनती ही है।
यह सैल्यूट इसलिए क्योंकि माइनस पचास डिग्री में बर्फ के बीच ये जवान सिर्फ और सिर्फ हमारे लिए वहां राइफल थामे खड़े हैं, ताकि भारत मां की धरती पर कोई नापाक कदम न रख सके। हर एक भारतीय खुद को महफूज महसूस कर सके, इसीलिए वहां तैनात सैनिक खुद को बर्फ के आगोश में झोंक देते हैं। वैसे तो विश्व का यह सबसे दुर्गम युद्ध क्षेत्र छोटे-मोटे हादसों का गवाह हमेशा बनता ही रहता है, पर लंबे समय बाद एक साथ हमने भारत मां के दस सपूतों को खो दिया है। इस शहादत के बाद एक बार फिर से सियाचिन में सैनिकों की तैनाती, पाकिस्तान के साथ सियाचिन विवाद, पर चर्चा शुरू हो गई है। जब-जब इस दुर्गम युद्ध क्षेत्र में कोई हादसा होता है, तब-तब यह चर्चा शुरू हो जाती है। वर्ष 2012 में जब एक साथ पाकिस्तान के करीब 127 सैनिकों की वहां मौत हुई थी, तब भी अंतरराष्टÑीय स्तर पर दोनों देशों को समझौते की नसीहतें दी जाने लगी थीं।
करीब 18000 फुट की ऊंचाई पर स्थित रणक्षेत्र पर सैन्य गतिविधियां बंद करने का मुद्दा भारत और पाकिस्तान के बीच लंबे समय से चलता आ रहा है। वर्ष 2004 में इस मुद्दे पर लंबी बातचीत भी हुई थी, पर बात नहीं बनी थी, क्योंकि भारत ने 1999 में करगिल का दर्द काफी नजदीक से देखा था। बेहद उजाड़, वीरान और बर्फ से आच्छादित सियाचिन ग्लेशियर सामरिक रूप से दोनों ही देशों के लिए काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। दोनों देशों के बीच विवाद का अंकुरण 1972 भारत-पाक युद्ध के समय ही हो गया था। शिमला समझौते के बाद सियाचिन के एनजे-9842 नामक स्थान पर युद्ध-विराम की सीमा तय कर दी गई थी। पर पाकिस्तान ने हमेशा अपनी मंशा से इसे सशंकित रखा। यहां तक कि अपने मानचित्र में भी इस क्षेत्र को अपना बताया। पाकिस्तान ने लगातार इस क्षेत्र में अपनी गतिविधियां कायम रखीं। इसी का नतीजा था कि भारत ने 1985 में आॅपरेशन मेघदूत के माध्यम से एनजे-9842 के उत्तरी हिस्से को पूर्णरूप से अपने नियंत्रण में ले लिया। यह पूरा हिस्सा सालटोरो के नाम से जाना जाता है। इसका मतलब यह है कि इसके आगे लड़ाई नहीं होगी। सियाचिन का उत्तरी हिस्सा-कराकोरम भारत के पास है। पश्चिम का कुछ भाग पाकिस्तान के पास है। सियाचिन का ही कुछ भाग चीन के पास भी है। एनजे-9842 ही दोनों देशों के बीच लाइन आॅफ एक्चुअल कंट्रोल माना जाता है।
अब सवाल यह उठता है कि यह उजाड़ क्षेत्र दोनों देशों के लिए इतना महत्वपूर्ण क्यों है? जबकि दोनों देशों को हर दिन अपने सैनिकों पर करोड़ों रुपए खर्च करने पड़ रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक सियाचिन में भारत को अपने सैनिकों पर हर दिन करीब साढ़े पांच करोड़ रुपए खर्च करने पड़ते हैं। कुछ ऐसा ही हाल पाकिस्तान का भी है। यह सैन्य क्षेत्र सिर्फ और सिर्फ भरोसे और नाक की लड़ाई का मामला है। दोनों देशों में एक दूसरे के प्रति भरोसा नहीं है। दोनों को भय है कि अगर उन्होंने अपने सैनिक हटाए तो एक दूसरे के क्षेत्र पर कब्जा हो जाएगा।
भारत और पाकिस्तान के बीच कई संवेदनशील मसलों की फेहरिस्त में सियाचिन ग्लेशियर विवाद भी काफी ऊपर है। जब कभी-भी सियाचिन में सैनिकों के साथ हादसे होते हैं, तर्क और कुतर्क का दौर शुरू हो जाता है। पाकिस्तान के साथ शांति संबंधों की वकालत करने वाले कहते हैं कि दोनों देशों के बीच परस्पर विश्वास पैदा करने के लिए इस इलाके में सैन्य गतिविधियां पूरी तरह बंद कर देनी चाहिए। पर क्या भारतीय सेना करगिल के विश्वासघात को भूल सकती है, जब बर्फ के मौसम में भारतीय सेना के खाली पोस्ट पर पाकिस्तानी सेना ने कब्जा जमा लिया था। सियाचिन कश्मीर विवाद का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और यही वजह है कि इसका इस्तेमाल महज विश्वास पैदा करने वाले हथियार की तरह नहीं किया जा सकता है।
सियाचिन के दुर्गम क्षेत्र के बारे में कहा जाता है कि अगर वहां नंगी हथेली से बर्फ को छू लिया गया तो हथेली को काटने के अलावा दूसरा रास्ता ही नहीं बचता है। हर साल दोनों देशों के काफी सैनिक इस दुर्गम क्षेत्र में अपंगता का शिकार बनते हैं। इसके बावजूद यह युद्ध क्षेत्र सैनिकों से भरा रहता है। साल 2012 में जब भूस्खलन में 127 पाकिस्तानी सैनिक मारे गए थे तब विदेशी अखबारों में इस बात का जिक्र किया गया था कि क्यों पाकिस्तान सियाचिन ग्लेशियर विवाद को जल्द से जल्द सुलझाना चाहता है। दरअसल, इस क्षेत्र में भारतीय सेना ने जबर्दस्त दबदबा बना रखा है, जबकि पाकिस्तान आर्थिक तंगी सहित संसाधनों की कमी के कारण काफी नुकसान में है। इसीलिए भारत में भी मौजूद पाकिस्तानी समर्थक हमेशा सियाचिन को शांति दूत के रूप   में प्रस्तुत करते हैं। ऐसे शांतिदूतों का हमें हमेशा खुलकर विरोध करना चाहिए, क्योंकि भारत ने पाकिस्तान के साथ कई विश्वासघात देखे हैं। ऐसे में किसी भी कीमत पर पाकिस्तान को खुली सीमा नहीं दी जा सकती है।

भरतीय सेना ने जिस अदम्य सैन्य शक्ति और हौसले के दम पर सियाचिन को महफूज कर रखा है, उसकी जितनी तारीफ की जाए कम है। एवलांच में दस सैनिकों की शहादत के बाद एक बार फिर सियाचिन का यह सबसे दुर्गम युद्धक्षेत्र हमें अपने सैनिकों पर गर्व करने पर मौका दे रहा है। ऐसे में आइए एक सैल्यूट हम उन हिमवरों को जरूर करें, जिनकी बदौलत हमारी सीमाएं सुरक्षित हैं।