Saturday, February 20, 2016

टीवी पत्रकारिता : देखना, दिखाना और यूं तेरा मुस्कुराना


टीवी पत्रकारिता में 19 फरवरी 2016 का दिन सच में एक ऐतिहासिक दिन रहा। एनडीटीवी ने अपने प्राइम टाइम शो में टीवी स्क्रीन को ब्लैक करके जो कुछ किया वह प्रयोगात्मक तौर पर बेहतर कहा जा सकता है। एक आईना दिखाने का काम किया है रविश कुमार ने अपने हमपेशा एंकर्स और टीवी पत्रकारों को। क्योंकि जो दिखता है उसे आम लोग सच मान लेते हैं।
पर पूरी पत्रकारिता जगत को कटघरे में रखने की रविश की हमेशा की तरह पुरानी दलील ने फिर से निराश कर दिया है। अगर उन्हें टीवी पत्रकारिता से इतनी ही घिन्न है तो छोड़ क्यों नहीं देते यह पेशा। उनके करीबन हर चौथे पांचवें प्रोग्राम में उनका कहना होता है मैं तो टीवी ही नहीं देखता। यह उनका बड़प्पन हो सकता है कि वह टीवी नहीं देखते, फिर यह राय कैसे बना लेते हैं कि सभी टीवी पत्रकार चोर, उच्चके, फ्रॉड आदि आदि हो गए हैं।

उनका टीवी का ब्लैक डे एक ऐसे इश्यू पर केंद्रित था जिसने पूरे भारत को आंदोलित कर रखा है। इसमें दो राय नहीं कि टीवी चैनलों ने अपनी महिमा गाथा के चक्कर में एक इश्यू को इतना हाइप दे दिया कि यह मामला एक विश्व विद्यालय की कैंपस के निकलकर हर एक चौक चौराहे पर पहुंच गया। पर इसमें दूसरे तमाम एंकर्स, टीवी पत्रकारों, संपादकों को एक साथ बुद्धु बॉक्स की तरह  बुद्धु सिद्ध कर देना कहां तक न्यायोचित है। कहने को रविश ने खुद को भी इस भेड़चाल का हिस्सा कहा, पर यह कहना खुद को बचाने और हीरो सिद्ध करने का सबसे बेहतर नजरिया है।

बात आकर टिकी है कि कौन चैनल कन्हैया मामले में झूठ दिखा रहा है और कौन सच। ध्यान रहे मैं जेएनयू नहीं सिर्फ कन्हैया की बात कह रहा हूं। रविश ने अपने कार्यक्रम में ‘बिना टीवी देखे’  ही फैसला दे दिया कि दो चैनल ही सच दिखा रहे हैं। एवीपी और इंडिया टूडे। जबकि बिना नाम लिए जी न्यूज, इंडिया न्यूज और टाइम्स नाऊ को कटघरे में खड़ा कर दिया कि इन चैनलों ने पूरे मामले का गलत वीडियो दिखाया। हालांकि अभी किसी पुलिस या जांच अधिकारी ने न तो यह पुष्टि की है कि किस चैनल के पास सही वीडियो है किसके पास मॉर्फिंग वाला वीडियो है। ऐसे में अपनी बात को (कन्हैया को दोषमुक्त) करार देने के पीछे कौन सी मंशा काम कर रही है यह समझ से परे है। टीवी की अंधेरी दुनिया से उमर खालिद नाम के युवक का पक्षधर बनना भी कौन सी पत्रकारिता है यह भी समझ से परे है। सिर्फ इतना भर कह देना कि 'हालांकि उमर को भागना नहीं चाहिए' काफी नहीं होता है।

न तो आप न्यायाधीश हैं और न ही हम। न जनता कोई फैसला लेती है न टीवी के एंकर्स। ऐसे में सवाल उठता है कि हम और आप क्या कर सकते हैं। हम और आप टीवी पर फुटेज देखकर चाहे वह सही है गलत सिर्फ धारणा बना सकते हैं। और उसी धारणा के अनुसार प्रतिक्रया कर सकते हैं। पूरे देश में यही हो रहा है। टीवी फुटेज देखकर लोगों ने धारणा बनाई कि सच में जेएनयू में जो कुछ हुआ है वह देशद्रोह की श्रेणी में आता है। और इसके खिलाफ खड़ा होना चाहिए। पूरे देश में हो रहा प्रदर्शन इसका जीता जागता उदाहरण है। अगर उसी दिन से दूसरे वीडियो भी दूसरे अन्य चैनल्स पर चल गए होते तो शायद इस तरह की धारणा नहीं बनी होती।
सवाल यह उठता है कि जब आप सत्यता के पूजारी हैं तो उसी दिन उन वीडियो को क्यों नहीं टीवी पर प्रसारित करवाया गया जिसमें कन्हैया कुमार भूखमरी से आजादी और पूंजीवाद से आजादी के नारे लगता दिख रहा था। क्यों नहीं एबीपी चैनल ने उस वीडियो फूटेज को उसी दिन जारी किया, जबकि चैनल के एंकर्स पूरे तीन दिन बाद चीख-चीख कर बोल रहे हैं कि सभी चैनल का फूटेज गलत है, सिर्फ उनका फूटेज सच्चा है, क्योंकि हमारी रिपोर्टर और कैमरापर्सन वहीं मौजूद थे। टीवी की दुनिया में हर एक पल कीमती होता है। ऐसे में ऐसी क्या मजबूरी थी कि इस ‘सच्चे फूटेज’ को इतने घंटे तक रोक कर रखा गया।
रविश ने भले ही सच्चे मन से एक खुली बहस को जन्म दिया है कि टीवी पत्रकारिता क्या सच में काठ की उल्लु हो गई है? पर यह इतना आसान भी नहीं है कि इस बहस को इसके अंजाम तक पहुंचाया जाए। टीवी पत्रकारिता आज अपने शैशव काल से उठकर जवानी की तरफ कदम बढ़ा रही है। ब्लैक स्क्रीन के जरिए रविश ने ही स्वीकार किया है कि हमारे बीच के ही कई बड़े पत्रकारों ने नाग नागीन और मुर्दे और कफन की रिपोर्टिंग से टीआरपी बटोरी। आज के कई बड़े पत्रकार श्मशान घाट से ही रिपोर्टिंग करने लगे थे।
वह बाल्यावस्था थी। बाल्यावस्था में हम सभी ऊटपटांग हरकतें ही करते हैं। कभी कुत्ते की पीठ पर बैठकर शेर पर सवार होने का गुमान पाल लेते हैं। कभी पापा के कंधे पर बैठकर लकड़ी की काठी और काठी का घोड़ा गाकर खुश हो लेते हैं। फिर दौर आता है युवावस्था का। जिसमें खून में उबाल होता है। हर एक को देख लेने की मर्दाना फिलिंग आती है। यही हाल इन दिनों टीवी पत्रकारिता का है। बाल्यावस्था से निकलकर युवावस्था की ओर कदम बढ़ा चुकी टीवी पत्रकारिता में एंकर्स ने कुछ ऐसा ही रूप अख्तियार कर लिया है। अपनी बातों को मनवाने के लिए वे जोर-जोर से चिल्ला रहे हैं। तरह-तरह की फुटेज दिखाकर वंदे मातरम के नारे लगवा रहे हैं। या फिर टीवी को ब्लैक स्क्रीन कर अपनी बातों को रख रहे   हैं।

मैं तो रविश कुमार की बात से सौ प्रतिशत सहमत हूं कि हमें सही में टीवी न्यूज चैनल देखना बंद कर देना चाहिए। आधी समस्या वहीं खत्म हो जाएगी। न तो देश भक्ति जागेगी, न तो हम एंकर्स के चिल्लमपो में अपनी राय बनाया करेंगे। न तो हमारा खून खौलेगा, न ही आपका खून खौलेगा। न तो हम समाचार की जगह भाषण सुनेंगे और न ही किसी टीवी एंकर को पत्रकारिता का भगवान घोषित करेंगे। न ही हम मुस्कुराते हुए किसी एंकर को टीवी के ब्लैक डे के बाद उजाले की तरफ जाते हुए देखेंगे और न ही उस उजाले में उस एंकर का मुस्कुराता हुआ चेहरा देखेंगे। और गुनगगुनाएंगे,,, यूं तेरा मुस्कुराना......

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