Tuesday, July 26, 2016

कश्मीर की घाटियों के रहस्य और रोमांच


करगिल से गुजरते वक्त--



लद्दाक मंडल के तहत दो जिले आते हैं। लेह और करगिल। हिमाचल की तरफ से जाएंगे तो पहले लेह आएगा है और उसके बाद करगिल। कश्मरी को समझने के लिए मेने लेह से सफर करने का निर्णय लिया। लेह से लगभग 223 किलोमीटर की दूरी पर करगिल है और एनएच- वन हाईवे यहीं से शुरू भी होता है। पंेगोग झील से लौटने के बाद लेह के एक होटल में सुबह उठकर बाहर आया तो लगा नहीं कि भारत में हूं। लगा जैसे कजाकिस्तान या तिब्बती के किसी प्रांत में हूं। पूरा इलाका शीत मरुस्थल है। कहीं कोई वनस्पति नहीं। कोरी ठंड और दूर तक नारंगी मिट्टी के पठार। शहर छोड़कर थोड़ा दूर चलेंंगे तो लगेगा मानो मीडिल इस्ट के देश मंे पहुंच गए। लेह में काफी टूरिस्ट आते हैं। जो हिमाचल के मनाली से रोहतांक पास- जिस्पा और नेलांग होते हुए एक लंबे सफर से गुजरते हुए लेह पहुंचते हैं और यहां से खारदुंगला घाटी, पेंगगोंग झील, नुबरा घाटी की तरफ मुड़ जाते हैंं। कम ही लोग करगिल की तरफ जाते हैं। 

दो दिन लेह और उसके आसपास खाक छानने के बाद हमने करगिल जाना तय किया। यहां से शुरू होने वाला हाईवे-1 करगिल से कुछ आगे सियाचीन के नीचे से गुजरता है। इसी हाईवे को विदेशी ताकते कश्मीर की गर्दन भी कहते हैं। जो लेह से दिल्ली तक 1292 किलोमीटर तक है। बहरहाल, लेह में गुजारी आखिरी रात को इजारयली ग्रुप के लाइव बैंड में कब लोकल छंग पीकर थिरकने लगा और कब नींद आ गई पता नहीं चला। सुबह ड्राइवर ने उठाया तो सीधे फ्रेश होकर अपनी फेवरेट बुलेरो जीप के स्टीयरिंग को हाथ में पकड़ लिया और दबा दिया एक्सीलरेटर। हां, एक बात बता दूं कि लेह में अस्सी फीसदी बोद्ध और बीस फीसदी मिश्रित धर्मों के लोग रहते हैं। लेकिन जैसे ही करगिल की तरफ आगे बढ़ते जाएंगे, फर्क आना महसूस होने लगेगा। लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर आगे पूरी तरह से मुस्लिम बहुल इलाका शुरू होने लगेगा। मठों के बदल अब मस्जिद दिखने लगेगी। वहीं बांशिदे मंगोलियसं लगेंगे। दिखने में लेह के बांशिदों की तरह, लेकिन धर्म अलग। एक लंबे थकाने वाले सफर के बाद करगिल से कुछ पहले शाम चार बजे हम एक चाय की दुकान में रुके और चाय बना रहे मुख्तर से पूछा कि करगिल की लड़ाई कहां हुई। मुख्तर जैसे इस सवाल का इंतजार में बैठा हो। तपाक से बोला ये जो उत्तरी पहाड़ी है न। यहीं पाकिस्तानी चेकपोस्ट है। यहीं से गोले बरसे और हम पर गिरे। हमने पूछा क्या अब डर नहीं लगता। वो छोटी मटकी में चाय डालते हुए बेपरवाह बोला, आदत है। 

करगिल में प्रवेश करते ही पुलिस ने हमें डायवर्जन रूट पकड़ने को कहा। हमने कारण पूछा तो बताया कि किसी रसूखदार शख्स का जनाजा शहर के अंदर से गुजर रहा है। पुरा शहर मातम में है। हमने डायवर्जन से जाना ठीक नहीं समझा। हम वहीं पर रुक गए। लगभग सात बजे करगिल कस्बे में हमने प्रवेश किया। यहां लेह की तरह हालत दूसरे थे। हमे बतौर टूरिस्ट कोई तजव्वो नहीं दी गई। एक छोटे से होटल में कमरा लेने के बाद मैं नीचे रेस्टोरेंट में आ गया और चाय मांगी। तभी एक बुजुर्ग चाय बनाते हुए होटल के सामने दिखे तो उनसे अवाज लगा कर चाय होटल के रेस्टोरेंट में ही मंगा ली। अब मेरा ड्राइवर पहली बार बोला। भाईसाहब, आतंकवादी भी यहीं रहते होंेगे न। मेने बस उससे तफरी लेने के लिए इतना ही बोला, कभी भी हमला हो सकता है। फिर वो मुझे सुबह ही दिखा। बहरहाल, वहां होटल के बाहर कुछ कश्मीरी युवा खड़े थे। मैं उनके साथ खड़ा हो गया। कुछ ही देरी में मेरी उनसे दोस्ती हो गई और किस्सेबाज होने के कारण कुछ ही देर में मेने उन्हें उत्तराखंड आपदा से लेकर अमेरिका और इजारयल तक को लानत के किस्से सुना डाले।
अब वो मुझसे खुश थे। उन्होंने मुझे काबा (वहां की लोकल चाय) ऑफर की। अगली सुबह मैं भी आगे बढ़ चला। सोनमर्ग और कश्मीर की तरफ...........

(जारी रहेगा)

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