Monday, December 26, 2016

राजनीति से बहुत ऊपर है शिवाजी का कद

 
भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई करीब तीन हजार छह सौ करोड़ रुपए की लागत के एक ऐसे प्रोजेक्ट का गवाह बनने जा रही है जो आने वाले समय में महाराष्टÑ की राजनीति का आधार बन सकती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों मुंबई में अरब सागर के बीच छत्रपति शिवाजी महाराज के स्मारक की नींव रख दी है। सागर के उफान मारते पानी के बीच बनने वाला यह स्मारक आने वाले दिनों में महाराष्टÑ की राजनीति में क्या उफान लाएगा यह तो आने वाला वक्त बताएगा। फिलहाल इस स्मारक के विरोध में भी स्वर उठने लगे हैं। पर यह वक्त बीजेपी सहित तमाम दूसरी राजनीतिक पार्टियों और महाराष्टÑ से जुड़े संगठनों के लिए मंथन का वक्त है कि क्या शिवाजी का कद इतना छोटा है कि उन्हें राजनीति में झोंक दिया जाना चाहिए? पूरे विश्व के कोने-कोने में हमें तमाम ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे जहां हम वहां की सभ्यता और संस्कृति के साथ-साथ वहां के युगपुरुषों की प्रतिमाएं मौजूद हैं।
भारत के भी कई राज्यों में हमें वहां के युगपुरुषों की प्रतिमाएं और स्मारक मिल जाएंगे। यह आने वाली पीढ़ियों के लिए किसी प्रेरणा से कम नहीं होते हैं। इन स्मारकों और प्रतिमाओं के सामने फोटो खिंचवाकर हम उन्हें अपने एलबम में सजाना शान की बात समझते हैं। ऐसे में अगर भारतीय अस्मिता की आन-बान और शान के प्रतीक माने जाने वाले शिवाजी का स्मारक बनाया जा रहा है तो विरोध के स्वर क्यों? दुनिया के सबसे ऊंचे स्मारक के रूप में इसे पहचाना जाएगा। क्या यह सुखद नहीं कि पूरे विश्व में अभी स्टेच्यू आॅफ लिबर्टी की जो पहचान है वह भारतीय अस्मिता के प्रतीक की तरफ शिफ्ट हो जाएगी।
अरब सागर में 32 एकड़ की चट्टान पर बनने वाले इस मराठा शासक की 192 मीटर ऊंची प्रतिमा दुनिया के किसी भी पर्यटक के लिए आकर्षण का केंद्र बनेगी। एक बार में यहां दस हजार पर्यटक आ सकते हैं। इनमें वो दर्शक भी शामिल होंगे, जिन्होंने शिवाजी को न कभी पढ़ा होगा और न उनके बारे में जानते होंगे। पर एक बार यहां आने के बाद उन्हें भी शिवाजी महाराज के प्रति जानने की इच्छा जरूर होगी। क्या यह कम नहीं है कि इसी बहाने में हम भारतीय इतिहास के उस युगपुरुष को याद कर सकेंगे, जिन्होंने हिंदुस्तान का सिर कभी झुकने नहीं दिया।
भारतीय इतिहास में छात्रपति शिवाजी के शासन, उनके संघर्ष, उनके द्वारा किए कार्यों को बेहद सम्मानजनक स्थान मिला हुआ है। कई विदेशी सेनाओं ने तो शिवाजी के युद्ध नीति पर बकायदा अध्ययन कर रखा है। वियतनाम के सैन्य इतिहास में शिवाजी को भगवान की तरह पूजा जाता रहा है। एक बार वहां के सेनाध्यक्ष ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया था कि अमेरिका के साथ इतना लंबा संघर्ष सिर्फ और सिर्फ छत्रपति शिवाजी की युद्ध तकनीक के आधार पर ही संभव हो सका था। शिवाजी महाराज ने छद्म युद्ध की जो तकनीक इजात की थी वह आज भी अतुलनिय है। भारतीय सैन्य इतिहास में तो शिवाजी को भारतीय नौसेना का पितामह कहा जाता है।
ब्रिटिश इतिहास में दर्ज है कि शिवाजी की सेना में 85 फ्रिगेड यानि लड़ाई के लिए छोटे जहाज और करीब तीन बड़े जहाज मौजूद थे। जिस शिवाजी के नाम से दुश्मनों की रूह कांप जाती थी अगर उस शिवाजी महाराज को भारतीय आन-बान के प्रतीक के रूप में इतना ऊंचा दर्जा दिया जा रहा है तो आपत्ति क्यों? दरअसल शिवाजी के स्मारक और स्टेच्यू के विरोध के पीछे कई तर्कपूर्ण कारण भी मौजूद हैं। केंद्र सरकार और महाराष्टÑ सरकार को इन तर्कपूर्ण कारणों पर भी ध्यान देना चाहिए। पूरे महाराष्टÑ सहित कई क्षेत्रों में शिवाजी के ऐतिहासिक किले मौजूद हैं, जो बेहद खराब स्थिति में हैं। यही नहीं शिवाजी से जुड़ी कई यादें भी देखरेख के आभाव में विलुप्त हो चुकीहैं, या विलुप्त होने की कगार पर है। कभी भी किसी केंद्र सरकार ने और न ही राज्य सरकार ने इन किलों, स्मारकों और यादों को सहेजने का जज्बा दिखाया और न सम्मान दिया।
भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीयत पर शक भी इसीलिए किया जा रहा है क्योंकि जितनी भी सरकारें आईं हैं उन्होंने शिवाजी को राजनीति के चश्मे में ही देखने की कोशिश की है। हर चुनाव में छत्रपति शिवाजी को राजनीति के अखाड़े में उतार दिया जाता है। ऐसे में स्वाभाविक रूप से नरेंद्र मोदी द्वारा किए जा रहे शिलान्यास पर भी राजनीति हो रही है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। जिस शिवाजी के स्मारक का शिलान्यास महाराष्टÑ की देवेंद्र फर्नांडिस की सरकार और प्रधानमंत्री मोदी ने धूमधाम से किया है, उस स्मारक की परिकल्पना कभी कांग्रेस ने की थी। वर्ष 2004 में कांग्रेस और एनसीपी की सरकार ने इस स्मारक की घोषणा की थी। लंबे समय से स्मारक की यह फाइल दफ्तरों में धूल फांकती रही। हर बार चुनावी मौसम में यह फाइल मुद्दों के रूप में वोटर्स के सामने आई। चुनावी मौसम बीत जाने के बाद फिर से शिवाजी इतिहास के पन्नों में ही दफन होते रहे। अब लंबे समय बाद इतिहास का पन्ना शिलान्यास तक पहुंचा है। बताया जा रहा है कि चंद महीनों में महाराष्टÑ में महापालिकाओं के चुनाव व्यापक स्तर पर होने जा रहे हैं। लोकसभा और विधानसभा चुनाव की बात की जाए तो सिर्फ 41.8 प्रतिशत वोट बीजेपी को मिले थे। ऐसे में यह बात भी उठ रही है कि कहीं एक बार फिर से शिवाजी के   विशालकाय स्मारक की परिकल्पना सिर्फ परिकल्पना ही बनकर न रह जाए। नोटबंदी के बाद वैसे भी भारतीय अर्थव्यवस्था पर बड़ा प्रश्नचिह्न लगा है। तीन महीने बाद बजट का मौसम भी शुरू हो जाएगा। ऐसे में करीब तीन हजार छह सौ करोड़ रुपए के प्रोजेक्ट के लिए बजट कहां से आएगा।
शिवाजी स्मारक के शिलान्यास से पहले मुंबई में कई जगहों पर शिवसेना और बीजेपी का पोस्टर वार भी पूरे देश ने देखा है। बीजेपी के पोस्टर में न तो बाबा साहब और न ही उद्धव ठाकरे को जगह मिली। वहीं शिवसेना ने इस स्मारक को बाबा साहब का ड्रीम प्रोजेक्ट बताया है। ऐसे में शक की कोई गुंजाइश नहीं बचती कि यह प्रोजेक्ट सिरे चढ़ भी सकेगा की नहीं। वैसे भी अभी महाराष्टÑ में बाबा साहब अंबेडकर स्मारक की राजनीति शुरू नहीं हुई है। बीजेपी सरकार पर दबाव रहेगा कि जितना भव्य शिवाजी मेमोरियल होगा उतना ही भव्य डॉ अंबेडकर स्मारक भी होना चाहिए। पर मंथन जरूर करना चाहिए कि इन सभी राजनीतिक दबावों, राजनीतिक स्वार्थ और वाद-विवाद से ऊपर हमारे युग पुरुषों की पहचान कायम होनी चाहिए की नहीं। इन युगपुरुषों का कद राजनीति से कई गुना ऊपर स्थापित है।

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