Monday, December 25, 2017

सवाल इस्लाम का नहीं, महिलाओं के हक का है

केंद्र सरकार ने मुस्लिम महिलाओं की सामाजिक सुरक्षा और हक के लिए एक बड़ी पहल की है। तीन तलाक को लेकर तमाम दुश्वारियों को खत्म करते हुए सरकार जल्द संसद में बिल पेश कर सकती है। पर उम्मीद के मुताबिक इस्लाम धर्म के चंद ठेकेदारों ने एक बार फिर अपना पुराना राग अलापना शुरू कर दिया है। पर मंथन का वक्त है कि जो चंद लोग इस बिल को इस्लाम के खिलाफ बताने पर तुले हैं क्या उन्हें मुस्लिम महिलाओं की सामाजिक सुरक्षा और हक का सवाल वाजिब नहीं लगता। उन्हें समझना होगा कि सवाल इस्लाम का नहीं, महिलाओं के हक का है।
आॅल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने केंद्र सरकार के तीन तलाक बिल का सीधा विरोध शुरू कर दिया है। लखनऊ में रविवार को हुई बैठक के बाद बोर्ड ने केंद्र सरकार से बिल को संसद में पेश नहीं करने की मांग की है। बैठक में तीन तलाक के मुद्दे पर विस्तार से चर्चा की गई। बताया गया है कि यह बिल मुस्लिम महिलाओं की परेशानियों को और अधिक बढ़ा देगा। यह बिल औरतों के खिलाफ है। लॉ बोर्ड ने कानून के मसौदे को वापस लेने की मांग की है। बोर्ड ने कहा कि पहले से मौजूद कानून काफी थे, ऐसे में नए बिल की कोई जरूरत नहीं है। बोर्ड का मानना है कि तीन तलाक संबंधी विधेयक का मसौदा मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों, शरियत तथा संविधान के खिलाफ है। इसके अलावा यह मुस्लिम पर्सनल लॉ में दखलंदाजी की भी कोशिश है।
कुछ दिन पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट की बैठक में मुस्लिम महिला (विवाह अधिकारों का संरक्षण) बिल यानि ट्रिपल तलाक बिल को मंजूरी दे दी गई थी। यह बिल संसद के शीतकालीन सत्र में सरकार के मुख्य एजेंडे में शामिल है। उम्मीद थी कि 22 दिसंबर के सत्र में इसे पेश कर दिया जाएगा। पर किसी कारण से यह पेश नहीं हो सका। लंबे समय के मंथन के बाद राजनाथ सिंह की अध्यक्षता में बने मंत्री समूह ने सलाह मशविरे के बाद बिल का ड्राफ्ट तैयार किया था। सुप्रीम कोर्ट ने इस साल तीन तलाक पर लगातार सुनवाई की। अगस्त में कोर्ट ने अंतिम फैसला देते हुए कहा कि तीन तलाक हर तरह से गैरकानूनी है और केंद्र सरकार को इस पर जल्द कानून लाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक इस बिल में तीन तलाक को आपराधिक करने के लिए कड़े प्रावधान शामिल किए गए। तमाम पहलुओं पर विचार के बाद इसे कैबिनेट की मंजूरी मिली थी। इस बिल के अनुसार तीन तलाक को अब गैरजमानती अपराध माना गया है। अब दोषी पाए जाने पर इसके लिए तीन साल की जेल के अलावा जुर्माना भी देना पड़ सकता है। प्रस्तावित कानून एक बार में तीन तलाक या 'तलाक-ए-बिद्दत' पर लागू होगा और यह पीड़िता को अपने तथा नाबालिग बच्चों के लिए गुजारा भत्ता मांगने के लिए मजिस्ट्रेट से गुहार लगाने की शक्ति देगा। पीड़ित महिला मजिस्ट्रेट से नाबालिग बच्चों के संरक्षण का भी अनुरोध कर सकती है और मजिस्ट्रेट इस मुद्दे पर अंतिम फैसला करेंगे। किसी भी तरह का तीन तलाक (बोलकर, लिखकर या ईमेल, एसएमएस और व्हाट्सएप जैसे इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से) गैरकानूनी होगा।
कैबिनेट की मंजूरी के साथ ही इस मुद्दे पर राजनीतिक बहस फिर तेज हो गई है। बहस अगर सार्थक दृष्टि से होती तो इसे पूरे देश के मुस्लिम समुदाय का समर्थन होता। पर इस मामले पर चंद लोग ही विरोध के सुर में सुर मिला रहे हैं। सबसे मुखर रूप से मुस्लिम महिलाओं ने इस बिल का स्वागत किया। मुस्लिम महिलाओं ने इसे अपनी सामाजिक सुरक्षा के लिए उठाया गया सबसे बड़ा कदम बताया।
रविवार को जब लखनऊ में इस बिल के विरोध में स्वर उभरे तो देहरादून में मैंने अपनी छोटी बहन शबनम को फोन लगाया। वकालत पेशे से जुड़ी शबनम से मैंने इस संबंध में इसलिए पूछा क्योंकि वकालत पेशे से पहले वह एक पारिवारिक मुस्लिम महिला है और बेहद धार्मिक भी। सीधा सवाल पूछा तीन तलाक का तुम समर्थन करती हो या विरोध। सीधा जवाब मिला, आज जब मुस्लिम महिलाओं के हक और सोशल सिक्योरिटी की बात हो रही है तो लोग परेशान हैं। हमारे लिए यह बिल किसी सौगात से कम नहीं। जब सभी इस्लामिक देशों में इस पर कानून है तो हमारे यहां क्यों नहीं? यह एक बड़ी पहल है। हम इस कानून के साथ हैं। 
  आॅल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सचिव जफरयाब जिलानी ने कहा है कि हमारे पास खुद के कानून मौजूद हैं। केंद्र सरकार को हमारे पर्सनल लॉ में दखल नहीं देना चाहिए। यह बिल महिलाओं की परेशानियों को और बढ़ा देगा। अब मंथन का समय है कि आखिर परेशानी किसे होगी। पुरुषप्रधान समाज को या महिलाओं को, जिन्हें अंदाजा ही नहीं होता है कि कब उसे तलाक..तलाक..तलाक..कहकर घर से निकाल कर सड़क पर फेंक दिया जाएगा। दरअसल समस्या उन्हें हैं जो हर जगह अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहते हैं। हर बात को इस्लाम से जोड़ने वाले धर्म के चंद ठेकेदारों ने कभी नहीं चाहा कि उनका समाजिक सुरक्षा अधिक मजबूत हो। क्योंकि अगर सामाजिक सुरक्षा बढ़ेगी तो उनका वर्चस्व कम होगा।
हां यह सच है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ में भी तीन तलाक वाली महिलाओं के लिए अलग फोरम है। पर क्या कोई यह आंकड़ा जारी कर सकता है कि इस फोरम ने कितने महिलाओं को न्याय दिलाया है। मंथन करना चाहिए कि अगर महिलाओं को यहां से न्याय मिलता रहता तो सुप्रीम कोर्ट को इतनी कड़ी टिप्पणी नहीं करनी पड़ती। और केंद्र सरकार को इतने कड़े कानून नहीं बनाने पड़ते।
मुस्लिम नेताओं को यह समझना चाहिए कि यह मामला किसी धर्म से जुड़ा मामला नहीं है, यह महिलाओं को उनका हक दिलाने से जुड़ा मामला है। सभी राजनीतिक दलों को अपने अपने हित से उठकर इसका समर्थन करना चाहिए। अगर इस मुद्दे का भी राजनीतिकरण किया गया तो महिलाओं को उनका हक नहीं मिल सकेगा। भारतीय समाज में अन्य धर्म की महिलाओं को भी शादी विवाह को लेकर संविधान के तहत कानूनन सुरक्षा मिली हुई है। ऐसे में हम मुस्लिम महिलाओं को कानूनी सुरक्षा से क्यों महरूम रखना चाहते हैं। यह कैसी राजनीति है? मंथन जरूरी है।
चलते-चलते
आॅल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड ने अपनी बैठक के बाद एक महत्वपूर्ण बात कही है। बोर्ड के अनुसार बिल को ड्राफ्ट करते समय मुस्लिम पक्ष को शामिल नहीं किया गया। अगर सच में ऐसा हुआ है तो सरकार को जरूर मंथन करना चाहिए, क्योंकि जब हमारी नियत साफ है तो सभी को साथ लेकर चलने में क्या बुराई है? ऐसे भी इस अहम मुद्दे पर समाज के अधिसंख्य लोग तो सरकार के साथ ही हैं।