Saturday, December 27, 2014

शिकायतें तो हमें मौसम-ए-बहार से है

शिकायतें तो हमें मौसम-ए-बहार से है
मुनौवर राणा लिखते हैं कि..
 थकी-मांदी हुई बेचारियां आराम करती हैं, 
न छेड़ो जख्म को बीमारियां आराम करती हैं।
कहां रंगों की आमेजिश (दिखाने) की जहमत आप करते हैं, 
लहू से खेलिए पिचकारियां आराम करती हैं।कुछ ऐसी ही स्थिति हो चुकी है झारखंड और जम्मू कश्मीर की राजनीति की। एक जगह गैर आदिवासी मुख्यमंत्री की ताजपोशी की औपचारिक घोषणा हो चुकी है, वहीं दूसरी तरफ जम्मू में गैर मुस्लिम मुख्यमंत्री की खोज और ताजपोशी के लिए तमाम समीकरण बैठाए जा रहे हैं। क्या एक राज्य के विकास को सिर्फ इस बात पर तौला जा सकता है कि एक गैर आदिवासी मुख्यमंत्री बन जाएगा तो उसके विकास की रफ्तार दोगुनी हो जाएगी। या फिर हिंदु मुख्यमंत्री बन जाने से एक राज्य की तमाम विसंगतियां दूर हो जाएंगी।
मंथन का वक्त है। क्योंकि झारखंड जैसे राज्य की उत्पत्ति के पीछे वही तर्क हैं जो इस वक्त मुख्यमंत्री की खोज में लगाए गए हैं। चौदह साल पहले जब झारखंड राज्य की स्थापना हुई तो उससे पहले लंबा आंदोलन चला। आदिवासियों के नाम से खूब राजनीति हुई। आदिवासियों के विकास, उनके वजूद और उनकी समाज में सहभागिता को लेकर इतने बड़े-बड़े वायदे हुए जो आज तक प्रासंगिक हैं। पर हश्र क्या हुआ, यह किसी से छिपा नहीं है। 14 सालों से राजनीतिक अस्थिरता के दौर से गुजरते हुए इस छोटे से राज्य ने अब तक नौ मुख्यमंत्री देख लिए।
सिर्फ 23 प्रतिशत आदिवासी आबादी वाले झारखंड का सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य, जो नौ मुख्यमंत्री मिले वे आदिवासी ही थे। आदिवासियों का कितना कल्याण हुआ, यह तो जमीनी स्तर पर वही बता सकते हैं। पर इन्हीं आदिवासियों के नाम से मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने वाले एक पूर्व मुख्यमंत्री 25 हजार करोड़ के घोटाले में जेल की हवा तक खा आते हैं। कभी मुंडा, कभी मरांडी और कभी सोरेन के आदिवासी सर नेम से यहां की राजनीति संचालित होती रही। पर विकास का सवाल वहां के आदिवासियों के लिए अभी भी अधूरा ही है। दूसरे राज्यों के र्इंट भट्टे, कल कारखानों और खेतों में मजदूरी करते इन आदिवासियों से पूछा जाना चाहिए कि आदिवासियों के लिए बने स्टेट से उन्हें माइग्रेट क्यों होना पड़ा।
जवाब खोजने के लिए लंबा समय गुजर जाएगा। इसी बीच एक गैर आदिवासी भी 28 दिसंबर को सत्ता की कमान संभाल लेंगे। पर यह सवाल उनका भी पीछा नहीं छोड़ेगा। ठीक उसी तरह जैसे कश्मीर के शासन और वहां की कुर्सी का खेल न तो कभी पूरा विश्व समझ सका है और न भविष्य में समझ सकेगा। एक तरफ जहां राजनीतिक अस्थिरता के बीच झारखंड धीरे-धीरे कई साल पीछे की ओर चलता जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ राजनीतिक स्थिरता होते हुए भी जम्मू-कश्मीर के हालात सुधरने की बजाय बिगड़ते ही जा रहे हैं। आर्थिक रूप असीम संभावनाओं के बावजूद दिनों दिन कमजोर होते जा रहे इस राज्य के विकास के लिए तमाम समीकरणों का मेल किया और करवाया जा रहा है। गैर मुस्लिम मुख्यमंत्री की खोज को इसी समीकरण का प्रमुख हिस्सा माना जा सकता है। पर यहां भी सवाल वही रहेगा, क्या एक गैर आदिवासी या गैर मुस्लिम मुख्यमंत्री बनाकर हम उस राज्य को विकास की उन ऊंचाईयों तक ले जा सकेंगे, जिसकी कभी परिकल्पना की गई थी।
जितनी तेजी से जम्मू-कश्मीर में अलगवाद ने अपनी पकड़ मजबूत की है, उतनी ही तेजी से वहां से विकास कोसों दूर चला गया है। एक समय पर्यटन से होने वाली आमदनी ने यहां की जीडीपी ग्रोथ को टॉप टेन तक पहुंचा दिया था। आज हालात ये हैं कि यहां के युवा दूसरे राज्यों में नौकरी के लिए दर-दर ठोकरें खाने को मजबूर हैं। हालात इस कदर बिगड़े हुए हैं कि इन युवाओं को दूसरे राज्यों में अजनबियों की तरह देखा और समझा जाता है। मंथन करने की जरूरत है कि आखिर यह स्थिति क्यों आई? क्या सिर्फ एक मजहबी मुखिया को बदल देने से या गैर का तमगा जोड़ देने से दोनों राज्यों की जमीनी हकीकत में कुछ बदवाल आएंगे। क्या दोनों राज्य उस संतोषजनक स्थिति तक पहुंचेंगे जिसके लिए सभी दुआएं कर रहे हैं।
हम भारत के लोग काफी संतोषी और प्रगतिवादी होते हैं। हमें उन सच्चाईयों से लड़ना आता है कि कैसे बुरे वक्त के बाद अच्छा वक्त आता है। पूरे देश में फैले झारखंड और जम्मू-कश्मीर के लोगों को भी शायद इन सियासी बदलावों से काफी कुछ उम्मीदें होंगी। शायद इन्हीं उम्मीदों की कहकशां में किसी ने लिखा है कि ...
नदी पहाड़ों से मैदान में तो आती है, 
मगर ये बर्फ पिघलने के बाद आती है। 
शिकायतें तो हमें मौसम-ए-बहार से है, 
खिजां (पतझड़) तो फूलने फलने के बाद आती है।