शार्ली एब्दो के व्यंग्यात्मक
अभिव्यिक्ति पर हुए हमले को बेहद चौंकाने वाला कहना सही नहीं होगा, क्योंकि
अभिव्यक्ति के दायरे और इसके दरिया बन जाने में फर्क करने की प्रक्रिया
अभी शुरू नहीं हुई है। ‘मंथन’ आगे बढ़ाने के पहले हमें सितंबर 2012 की उस
घटना को याद करना होगा, जब इसी पत्रिका ने पैगंबर मोहम्मद से संबंधित एक
विवादास्पद कार्टून का प्रकाशन किया था। पूरे विश्व के मुस्लिम जगत में एक
साथ इतनी तीव्र प्रतिक्रिया की यह शायद सबसे बड़ी घटना थी। बीस से अधिक
देशों में हिंसा भड़क उठी थी। हालात इतने खराब हो गए था कि चालीस से पचास
लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ गया था। इस हिंसात्मक घटना के बाद पूरे
विश्व में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बहस छिड़ गई थी। सिर्फ बहस हुई, कोई
नतीजा नहीं निकला। न ही इस बात पर मंथन हुआ कि हमें धर्म और आस्था के प्रति
अपनी व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति के दायरे को नियंत्रित करने की जरूरत है कि
नहीं। अगर उस वक्त ऐसा कुछ होता तो शायद विश्व के सर्वश्रेष्ठ काटूर्निस्ट
इस वक्त हमारे बीच मौजूद होते।
पूरे विश्व में धर्म, धार्मिक मान्याताओं या किसी समूह की आस्था से जब-जब मजाक किया गया है तीव्र और तीखी प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। कहीं यह प्रतिक्रिया धरना और प्रदर्शन तक सीमित रही, कहीं यह शार्ली एब्दो के आॅफिस में हिंसा के रूप में परीलक्षित हुई। भारत तो अभिव्यक्ति की इस स्वतंत्रता पर हमले का सबसे बड़ा उदाहरण रहा है। आए दिन मीडिया दफ्तरों और मीडियाकर्मियों पर होने वाले हमले इसकी गवाही देते हैं। मैंने अपने इसी मंथन कॉलम में एक बार लिखा था, धर्म या तो उन्मादी बनाता है या आतंकी। आज पेरिस जैसे अल्ट्रा मॉडर्न देश में धर्म के प्रति उन्माद के प्रदर्शन ने बता दिया है कि भारत हो या पेरिस, धर्म और धार्मिक भावनाओं से छेड़छाड़ की तीव्र प्रतिक्रिया ही आएगी।
ऐतिहासिक तथ्य है कि पूरे विश्व को स्वतंत्रता, समानता और विश्व बंधुत्व का पाठ पढ़ाने वाला देश फ्रांस ही है। इतिहास के किताबों में फ्रांस की क्रांति और वहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़े तथ्यों को पढ़ेंंगे तो पाएंगे कि यह देश ऐसे ही इतना आगे नहीं बढ़ा है। पर यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि वहां की आबो हवा में आज भी धार्मिक कट्टरता पैठ जमाए है। कुलीन समाज में पले बढ़ने के बावजूद जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को धार्मिक उन्माद का रूप लेते हुए देखें तो यह लाजिमी हो जाता है कि हम इस स्वतंत्रता के दायरे और दरिया के बीच के फासले पर मंथन करें।
बात पेरिस जैसे अल्ट्रामॉड शहर की हो या रांची जैसे टायर टू सिटी की। धर्म पर लोगों की भावनाएं एक जैसी ही जुड़ी होती हैं। साल 2004 की एक घटना याद आती है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद का मोह त्यागते हुए मनमोहन सिंह का नाम प्रधानमंत्री के रूप में आगे बढ़ाया। पूरे विश्व में यह राजनीतिक घटना चर्चा का विषय बनी। भारत के लगभग सभी अखबारों ने इस घटना को प्रथम पेज की खबर बनाई। एक राष्टÑीय हिंदी दैनिक ने इस घटना को कार्टून के जरिए पेश करने की कोशिश की। मदर मरियम की जगह सोनिया गांधी का चेहरा लगाया गया और उनकी गोद में बैठे प्रभू यीशू के रूप में मनमोहन सिंह की छवि प्रदर्शित की गई। सभी संस्करणों में यह तस्वीर प्रकाशित हुई। रांची में भी यह कार्टून प्रकाशित हुआ। दूसरे दिन शहर में इतनी तीव्र प्रतिक्रिया हुई, जिसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी। शाम होते-होते पूरे आॅफिस को क्रिश्चिन कम्यूनिटी और आदिवासियों ने घेर लिया। काफी मिन्नतें और माफीनामे के बाद इस मामले को रफा-दफा किया जा सका। इस घटना की चर्चा यहां इसलिए कर रहा हूं क्योंकि यह घटना भी पेरिस के शार्ली एब्दो पत्रिका के दफ्तर की तरह ही थी। फर्क बस इतना था कि रांची में मशाल लिए क्रिश्चियन कम्यूनिटी के लोग पत्रकारों से माफी मांगने को कह रहे थे, जबकि पेरिस में उन पत्रकारों को खत्म ही कर दिया गया, जो धार्मिक अभिव्यक्ति के दायरे को दरिया समझ रहे थे।
मंथन का वक्त है कि हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का किस हद तक उपयोग करें। खासकर धार्मिक मामलों में। साथ ही उन मामलों में जिनसे किसी समूदाय विशेष की धार्मिक मान्यताओं को ठेस पहुंचती हो। कार्टून अभिव्यक्ति का एक स्वतंत्र और बेहद दमदार जरिया है। पर क्या किसी को इतनी छूट मिलनी चाहिए कि वह धर्म और आस्था के मामले पर भी अपनी आड़ी-तिरछी रेखाओं के जरिए मजाक उड़ाए। पेरिस की घटना के बाद अमेरिकी विदेशमंत्री जॉन कैरी ने कहा कि यह घटना व्यापक टकराव का हिस्सा है, यह टकराव दो सभ्यताओं के बीच नहीं है, बल्कि खुद सभ्यता और उन लोगों के बीच है जो सभ्य दुनिया के खिलाफ हैं। कहने की जरूरत नहीं कि जॉन कैरी की इस बात में पूरे विश्व की भावनाएं जुड़ी हैं। शार्ली एब्दो के दफ्तर पर हमला न केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है, बल्कि आज के इस सभ्य विश्व समाज में व्यंग्य की प्रासंगिगता पर भी प्रहार है। इस तरह की घटना का समर्थन किसी सूरत में नहीं किया जा सकता, पर हां इतना जरूर है कि इस घटना ने पूरे विश्व को धर्म के प्रति व्यंग्यात्मक सोच पर बहस करने को जरूर प्रेरित कर दिया है।
पूरे विश्व में धर्म, धार्मिक मान्याताओं या किसी समूह की आस्था से जब-जब मजाक किया गया है तीव्र और तीखी प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। कहीं यह प्रतिक्रिया धरना और प्रदर्शन तक सीमित रही, कहीं यह शार्ली एब्दो के आॅफिस में हिंसा के रूप में परीलक्षित हुई। भारत तो अभिव्यक्ति की इस स्वतंत्रता पर हमले का सबसे बड़ा उदाहरण रहा है। आए दिन मीडिया दफ्तरों और मीडियाकर्मियों पर होने वाले हमले इसकी गवाही देते हैं। मैंने अपने इसी मंथन कॉलम में एक बार लिखा था, धर्म या तो उन्मादी बनाता है या आतंकी। आज पेरिस जैसे अल्ट्रा मॉडर्न देश में धर्म के प्रति उन्माद के प्रदर्शन ने बता दिया है कि भारत हो या पेरिस, धर्म और धार्मिक भावनाओं से छेड़छाड़ की तीव्र प्रतिक्रिया ही आएगी।
ऐतिहासिक तथ्य है कि पूरे विश्व को स्वतंत्रता, समानता और विश्व बंधुत्व का पाठ पढ़ाने वाला देश फ्रांस ही है। इतिहास के किताबों में फ्रांस की क्रांति और वहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़े तथ्यों को पढ़ेंंगे तो पाएंगे कि यह देश ऐसे ही इतना आगे नहीं बढ़ा है। पर यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि वहां की आबो हवा में आज भी धार्मिक कट्टरता पैठ जमाए है। कुलीन समाज में पले बढ़ने के बावजूद जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को धार्मिक उन्माद का रूप लेते हुए देखें तो यह लाजिमी हो जाता है कि हम इस स्वतंत्रता के दायरे और दरिया के बीच के फासले पर मंथन करें।
बात पेरिस जैसे अल्ट्रामॉड शहर की हो या रांची जैसे टायर टू सिटी की। धर्म पर लोगों की भावनाएं एक जैसी ही जुड़ी होती हैं। साल 2004 की एक घटना याद आती है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद का मोह त्यागते हुए मनमोहन सिंह का नाम प्रधानमंत्री के रूप में आगे बढ़ाया। पूरे विश्व में यह राजनीतिक घटना चर्चा का विषय बनी। भारत के लगभग सभी अखबारों ने इस घटना को प्रथम पेज की खबर बनाई। एक राष्टÑीय हिंदी दैनिक ने इस घटना को कार्टून के जरिए पेश करने की कोशिश की। मदर मरियम की जगह सोनिया गांधी का चेहरा लगाया गया और उनकी गोद में बैठे प्रभू यीशू के रूप में मनमोहन सिंह की छवि प्रदर्शित की गई। सभी संस्करणों में यह तस्वीर प्रकाशित हुई। रांची में भी यह कार्टून प्रकाशित हुआ। दूसरे दिन शहर में इतनी तीव्र प्रतिक्रिया हुई, जिसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी। शाम होते-होते पूरे आॅफिस को क्रिश्चिन कम्यूनिटी और आदिवासियों ने घेर लिया। काफी मिन्नतें और माफीनामे के बाद इस मामले को रफा-दफा किया जा सका। इस घटना की चर्चा यहां इसलिए कर रहा हूं क्योंकि यह घटना भी पेरिस के शार्ली एब्दो पत्रिका के दफ्तर की तरह ही थी। फर्क बस इतना था कि रांची में मशाल लिए क्रिश्चियन कम्यूनिटी के लोग पत्रकारों से माफी मांगने को कह रहे थे, जबकि पेरिस में उन पत्रकारों को खत्म ही कर दिया गया, जो धार्मिक अभिव्यक्ति के दायरे को दरिया समझ रहे थे।
मंथन का वक्त है कि हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का किस हद तक उपयोग करें। खासकर धार्मिक मामलों में। साथ ही उन मामलों में जिनसे किसी समूदाय विशेष की धार्मिक मान्यताओं को ठेस पहुंचती हो। कार्टून अभिव्यक्ति का एक स्वतंत्र और बेहद दमदार जरिया है। पर क्या किसी को इतनी छूट मिलनी चाहिए कि वह धर्म और आस्था के मामले पर भी अपनी आड़ी-तिरछी रेखाओं के जरिए मजाक उड़ाए। पेरिस की घटना के बाद अमेरिकी विदेशमंत्री जॉन कैरी ने कहा कि यह घटना व्यापक टकराव का हिस्सा है, यह टकराव दो सभ्यताओं के बीच नहीं है, बल्कि खुद सभ्यता और उन लोगों के बीच है जो सभ्य दुनिया के खिलाफ हैं। कहने की जरूरत नहीं कि जॉन कैरी की इस बात में पूरे विश्व की भावनाएं जुड़ी हैं। शार्ली एब्दो के दफ्तर पर हमला न केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है, बल्कि आज के इस सभ्य विश्व समाज में व्यंग्य की प्रासंगिगता पर भी प्रहार है। इस तरह की घटना का समर्थन किसी सूरत में नहीं किया जा सकता, पर हां इतना जरूर है कि इस घटना ने पूरे विश्व को धर्म के प्रति व्यंग्यात्मक सोच पर बहस करने को जरूर प्रेरित कर दिया है।
2 comments:
Reason of attack to thik hai, bahas bhi honi chahiye lakin hamla jaayaj nahi ho sakta
Jaayaj to padoshi per haath uthana bhi nahi hai
bachon ko school me maarna bhi nahi hai
Es hamle ki pratikriya ke taur per hum Sabko aantakwad ke khilaf prachar karna chahiye
itna prachar ki aatankwadi bhi khud se nafrat karne lage
mera to Yahi maanana hai sir
सही कहा मुकेश जी आपने। मैंने •ाी यही लिखा है कि हमले को कतई जायज नहीं ठहराया जा सकता। मंथन तो इस बात पर करना है कि हम धर्म के मामले में आड़ी तिरछी रेखाओं को कितनी स्वतंत्रता लेनी चाहिए।
Post a Comment