Monday, June 26, 2017

हे पार्थ! जात न पूछो महामहीम की

महाभारत के युद्ध का एक प्रसंग है। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर वीर अर्जुन मैदान में पहुंचते हैं, हर तरफ अपनों को देखकर उनका मन विचलित हो जाता है। वह अपना धनुष और वाण नीचे रख देते हैं। अर्जुन को इस तरह परेशान देख उनके सारथी कृष्ण पूछते हैं क्या हुआ पार्थ? सामने दुश्मनों को देखकर तुम्हें क्या हो गया? अर्जुन कुछ नहीं बोलते। कातर दृष्टि से अपने सारथी को देखते हैं। आंखों ही आंखों में बहुत कुछ पूछ लेते हैं। फिर भी कृष्ण इंतजार करते हैं अर्जुन के बोलने का। कुछ देर बाद अर्जुन बोलते हैं कैसे मैं अपनों पर ही वाणों की वर्षा करूंगा? कैसे मैं इन्हें मृत होते देख सकता हूं? कृष्ण मुस्कुराते हैं और कहते हैं युद्ध के मैदान में अगर तुम यह देखोगे कि सामने वाला कौन है, उसकी पहचान क्या है, उसकी जाति क्या है, हमारे खून से उसका रिश्ता क्या है, फिर युद्ध कभी नहीं जीत सकते। इसी प्रसंग के साथ कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया। जिसे हम हमेशा पढ़ते और पढ़ाते रहते हैं। अब जरा मंथन करिए भारतीय संविधान के सर्वोच्च पद पर हो रहे चुनाव पर।
राष्ट्रपति चुनाव के लिए सत्ता पक्ष और विपक्ष ने अपने-अपने मोहरे मैदान में उतार दिए हैं। युद्ध के मैदान की तरह दोनों तरफ से शब्दवाणों से हमले हो रहे हैं। कोई पीछे नहीं हट रहा है। सब अपने ही हैं। सब दलित ही हैं। सब भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों का भोग कर रहे हैं। महाभारत के युद्ध की तरह ही यहां पर भी सबकुछ स्क्रिपटेड है। महाभारत के युद्ध में एक ही परिवार के लोग एक दूसरे पर वाणों से हमला कर रहे थे। राष्ट्रपति चुनाव में दलित नाम के तीर से संविधान के सभी नागरिक एक दूसरे पर शब्दवाणों से घायल कर रहे हैं। भारतीय संविधान लहूलुहान हो रहा है। पर किसी को चिंता नहीं। कुरुक्षेत्र की धरती खून से लाल हो रही थी, यहां संविधान की मान्यताओं को छलनी किया जा रहा है।
यह कैसी विडंबना है कि भारतीय गणतंत्र के सबसे सर्वोच्च पद का चुनाव जातिगत आधार पर हो रहा है। राष्ट्रपति प्रत्याशी की सभी काबिलियत गौण है। उसकी शिक्षा-दिक्षा। उसकी परवरिश, मानवीय पहलू, संवेदनात्मक रवैया सबकुछ रद्दी की टोकरी में है। प्रत्याशी की सबसे बड़ी योग्यता है कि वह दलित हैं। दलित समुदाय से आते हैं। चलो यह भी मान लिया जाए कि दलित होना सबसे बड़ी योग्यता है। पर क्या कोई दोनों पक्षों से यह पूछ सकता है कि हुजूर यह भी लगे हाथ बता दें कि दोनों प्रत्याशियों ने दलितों के उत्थान के लिए आज तक क्या-क्या किया है? कितने दलितों का कल्याण किया है? दलितों के लिए बनने वाली पॉलिसी और उसके इंप्लीमेंट में दोनों प्रत्याशियों का क्या-क्या योगदान रहा है? फिर किस तरह भारत के नागरिक इस बात को स्वीकार कर लेंगे कि एक दलित को राष्ट्रपति बना देने से भारतीय संविधान अपने सर्वोत्तम काल में चला जाएगा। भारत के दलितों का उत्पीड़न कम हो जाएगा। मंथन करिए क्या ऐसे ही भारतीय संविधान का सर्वश्रेष्ठ काल बनेगा, जब सभी बड़े दल यह कहते फिर रहे हैं कि मेरा दलित राष्ट्रपति प्रत्याशी तुम्हारे दलित प्रत्याशी से ज्यादा दलित है।

भारत के पहले राष्ट्रपति कौन थे, इसका जवाब तुरंत आपको मिल जाएगा। लोग आसानी से बोल देंगे भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद थे। पर उनकी जात क्या थी यह कम लोग ही बता पाएंगे। गुगल बाबा भी उनकी जात बताने में हिचकिचाएंगे। आज की नौजवान पीढ़ी तो यह भी नहीं जानती होगी कि बिहार के जिस छोटे से गांव में रहकर उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी कि वहां क्या दलित और क्या सवर्ण सभी की स्थिति एक जैसी ही थी। भारत के दूसरे राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जाति भी बहुत खोजबीन करने के बाद आपको पता चलेगी। पर उन्होंने राष्ट्रपति के रूप में जो काम किया वह सभी को पता है।
भारत के राष्ट्रपति का पद अपने आप में एक विराट गरिमा समेटे हुए है। पर विडंबना देखिए दोनों ही प्रत्याशी जो बेहद ही शालीन, उच्च शिक्षा प्राप्त हैं, उन्हें किस कदर जातिगत राजनीति में धकेल दिया गया है। सोशल मीडिया में हर तरफ दोनों प्रत्याशियों को लेकर तमाम आपत्तीजनक पोस्ट पढ़ने को मिल रहे हैं। आज तक के भारतीय इतिहास में ऐसी परिस्थति कभी सामने नहीं आई कि राष्ट्रपति का चुनाव इस तरह जातिगत हो जाएगा। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि सभी छोटे बड़े दलों ने आम चुनावों में भले ही दलित वोट की राजनीति को सर्वोपरि रखा, लेकिन राष्ट्रपति जैसे गरिमामयी चुनाव से इस दलित राजनीति को अलग रखा। अब सबकुछ खुला खेल है। क्या विधायक का चुनाव और क्या राष्टÑपति का। युद्ध के मैदान और सत्ता की राजनीति में सबकुछ जायज है।
पुनश्च, कृष्ण ने अर्जुन से कहा पार्थ तुम यह मत देखो सामने कौन है, सिर्फ यह समझो वो दुश्मन हैं और तुम्हें उनका संहार करना है। इसके लिए तुम्हें जो तीर चलाना है चलाओ। जिस गति से उनपर वार करना है करो। यही धर्म कहता है। युद्धनीति यही है। महाकवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी कालजयी रचना जयद्रथ वध के प्रसंग में लिखते हैं... 
अधिकार खो कर बैठे रहना, यह महा दुष्कर्म है,
न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है।
इस तत्व पर ही कौरवों से पाण्डवों का रण हुआ,
जो भव्य भारतवर्ष के कल्पान्त का कारण हुआ।।
सब लोग हिलमिल कर चलो, पारस्परिक ईर्ष्या तजो,
भारत न दुर्दिन देखता, मचता महाभारत न जो।।
हो स्वप्नतुल्य सदैव को सब शौर्य सहसा खो गया,
हा ! हा ! इसी समराग्नि में सर्वस्व स्वाहा हो गया।
दुर्वृत्त दुर्योधन न जो शठता-सहित हठ ठानता,
जो प्रेम-पूर्वक पाण्डवों की मान्यता को मानता,
तो डूबता भारत न यों रण-रक्त-पारावार में,
ले डूबता है एक पापी नाव को मझधार में।
हा ! बन्धुओं के ही करों से बन्धु-गण मारे गये !
हा ! तात से सुत, शिष्य से गुरु स-हठ संहारे गये। 
 
मंथन करने का वक्त है। हम किसके लिए राष्ट्रपति का चुनाव कर रहे हैं। अपने स्वार्थ के लिए। दलितों के उत्थान के लिए। भारतवर्ष के गौरवमयी इतिहास को बचाने के लिए। या फिर महाभारत के युद्ध की तरह अपने ही बंधु बांधव को एक दूसरे से लड़वाने के लिए। कांग्रेस इस तरह की राजनीति के लिए कुख्यात रही है, जिसका परिणाम वह इस वक्त भुगत रही है। लंबे समय बाद जब भारत की जनता ने बीजेपी को सत्ता की कमान सौंपी है तो उससे भी इसी तरह की राजनीति की उम्मीद लोगों को नहीं है। भारत के युवा नई सोच के साथ राजनीति को देख रहे हैं। ऐसे में तमाम दलों को मंथन के साथ-साथ संभलने की भी जरूरत है। नहीं तो तेरा दलित मेरे से ज्यादा दलित है का रट लगाए हम अपने ही अपनों को मारते रह जाएंगे।

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