Monday, January 15, 2018

परदे में रहने दो परदा न उठाओ, परदा जो उठ गया तो...

भारतीय न्याय व्यवस्था के सर्वोच्य बिंदु से ही अगर असंतोष के स्वर उत्पन्न हो जाएं तो इसकी गंभीरता को दरकिनार नहीं किया जा सकता है। इस ऐतिहासिक घटनाक्रम ने एक बात तो स्पष्ट कर दिया है कि असंतोष हर तरफ है। कहीं अतिमहत्वाकांक्षा का असंतोष है, तो कहीं कुछ हासिल न कर पाने का असंतोष। सर्वोच्य न्यायालय के चार जजों ने जिस तरह असंतोष में आकर अपनी भड़ास मीडिया के जरिए पूरे देश के सामने जग जाहिर की है उसने निश्चित तौर पर एक ऐसी परंपरा की नींव डाल दी है जो लंबे समय तक देश को प्रभावित करता रहेगा। लंबे समय तक यह मंथन होता रहेगा कि जजों ने मीडिया के सामने आकर अच्छा किया या बुरा किया। पर इतना तो तय है कि अगर परदा न उठता तो बेहतर था। क्योंकि कुछ बातें परदे के अंदर ही रहती है तो संतोष रहता है। 
भारतीय लोकतंत्र के चारों पिलर, चाहे वह विधायिका हो, कार्यपालिका हो, न्यायपालिका हो या फिर मीडिया हो, हर एक पिलर इस वक्त संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। यह संक्रमण अचानक नहीं आया है। यह लंबे समय से चलता आ रहा है। पहले यह संक्रमण छोटे स्तर पर था। फिर इलाज के आभाव में इस संक्रमण ने बड़ा रूप ले लिया। आज यह नासूर बन गया। इस संक्रमण का नाम है भ्रष्टाचार। भ्रष्टाचार रूपी इस संक्रमण ने लोकतंत्र के चारों स्तंभ को इस तरह जकड़ लिया है कि हर तरफ छटपटाहट महसूस होने लगी है। सर्वोच्य न्यायलय के चार जजों का इस तरह सभी परंपराओं को तोड़ कर सार्वजनिक तौर पर अपनी भड़ास निकालना को इसी छटपटाहट की परिणति के तौर पर देखा और समझा जा सकता है। विधायिका, कार्यपालिका और मीडिया में इस तरह की छटपटाहट या व्याकुलता को हम पिछले कुछ वर्षों से कई बार विभिन्न सार्वजनिक मंचों के माध्यम से देख चुके हैं। पर भारतीय इतिहास में शायद यह पहली बार होगा कि इस तरह सारे परदों को हटाते हुए न्यायपालिका ने भी अपनी छटपटाहट को जगजाहिर कर दिया।
गीतकार कफिल आजर अमरोहवी ने एक बार लिखा था..
बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी
लोग बेवजह उदासी का सबब पूछेंगे,
ये भी पूछेंगे के तुम इतने परेशां क्यूं हो,
उंगलियां उठेंगी सूखे हुए बालों की तरफ,
एक नजर देखेंगे गुजरे हुए सालों की तरफ...

अमरोहवी साहब की यह चंद पंक्तियां यहां मौजूं इसलिए है क्योंकि उंगलियां उठ रही हैं सूखे और सफेद हो चुके बालों की तरफ। सवाल हर तरफ पूछे जा रहे हैं। तंज हर तरफ से हो रहे हैं। कोई इन्हें वामपंथी कह रहा, कोई इन्हें कांग्रेसी कह रहा। कोई इन्हें मोदी विरोधी कह रहा है। कोई इन्हें विशेष लाभ का लालची बता रहा। यह पूछा जा रहा है कि आप अब तक चुप क्यों हैं। लोग गुजरे सालों की तरफ भी देख रहे हैं। पर सच्चाई यह है कि चारों माननीय न्यायाधिश कठिन तप और कर्म साधना के बल पर इस पद पर आसीन हुए हैं। इस पद और मर्यादा को पाना हर एक के बूते की बात नहीं होगी। करोड़ों में से चंद लोग ही ऐसे होते हैं जिन्हें सर्वोच्य न्यायायल में न्यायाधीश के पद पर आसीन होने का सौभाग्य प्राप्त होता है। ऐसे में इतनी ईमानदारी और निष्ठा पर बेवजह सवाल पैदा किए जा रहे हैं। इसे लंबे समय से झेल रहे छटपटाहट के तौर पर देखा जा सकता है।
पर यह मंथन का विषय है कि आखिर ऐसी क्या छटपटाहट या बौखलाहट थी जिसने इन चार जजों को इस तरह सार्वजनिक मंच पर आने को विवश कर दिया? क्या यह इनकी एक मानवीय भूल थी? या सच में आज न्यायिक व्यवस्था पर खतरा उत्पन्न हो गया है? दरअसल यह बहस की कुछ ऐसी बातें हैं जिसे हम जिस चश्मे से देखेंगे यह वैसा ही नजर आएगा। वैसा ही किया भी जा रहा है। सोशल मीडिया यूनिवर्सिटी के दक्ष कलाकारों ने इस मुद्दे को अपने-अपने नजरिए से देखने का मौका दे दिया है। यहां की बातें वहां से जोड़ते हुए इन न्यायाधिशों को मजाक का पात्र बना दिया है। पर अगर आप ईमानदारी से देखेंगे तो आपको इनके अंदर न्याय व्यवस्था के संक्रमण से लड़ने की कुलबुलाहट नजर आएगी।
भारत के किसी भी नागरिक का अगर कभी भी भारतीय न्यायव्यवस्था से सामना हुआ होगा उसे मालूम होगा कि यहां भ्रष्टाचार रूपी संक्रमण किस तरह से हावी है। हर कदम पर आप इसे महसूस कर सकते हैं। चाहे वह किसी आदेश की कॉपी निकालने की प्रक्रिया हो या फिर मनचाही कोर्ट डेट लेनी की बात। हर कोई इसे जानता और समझता है। पर कहने की हिम्मत कोई नहीं करता। क्योंकि उन्हें इस बात का डर होता है कि इसे माननीय न्यायालय की अवमानना मानकर अंदर कर दिया जाएगा। न्याय के पदों पर बैठे जज भी इसे भलीभांति समझते हैं, इसीलिए समय समय पर नए-नए नियम लगाते हैं। अचानक जांच करते हैं। पर सारी कवायद धरी की धरी रह जाती है। अब जब सर्वोच्य न्यायाधिशों ने ही इस सच्चाई को उजागर कर दिया है कि हर तरफ मनमानी हो रही है तो कहने को कुछ बाकीनहीं रह जाता है। मनमानी का उनका संदर्भ भले ही सर्वोच्य न्यायालय के सर्वोच्य पद की तरफ है, पर अगर इसे निचले न्यायालय के निचले पायदान का भी मान लें तो अतिशियोक्ति नहीं होगी।
कुछ मंचों पर यह कहा जा रहा है कि जजों को सार्वजनिक तौर पर सामने नहीं आना चाहिए था। यह अदालत का अंदरुनी मसला था, वहीं निपटा लेना चाहिए था। यह गलत परंपरा की शुरुआत हो गई है। पर यह तो वही बात हो गई कि परदे के भीतर जो भी हो रहा है वह अच्छा ही होगा। अच्छा हुआ जज सामने आए। कम से कम देश के लोगों को यह तो पता चला कि न्यायपालिका के संक्रमण को वहां बैठे न्यायाधिश भी झेल रहे हैं। समझ रहे हैं। रिएक्ट कर रहे हैं। कभी न कभी तो यह गुबार फटना ही था। यह तो महज संयोग ही है कि यह ऐतिहासिक घटनाक्रम मोदी युग में हुआ। जिसके कारण इस अतिमहत्वपूर्ण घटनाक्रम को भी राजनीतिक के चश्मे से देखा जाने लगा है। यह एक ऐसी विडंबना है जिस पर हमें संताप करना चाहिए। जो घटनाक्रम न्यायिक व्यवस्था में सुधार की दृष्टि से कालजयी बन सकती है उसे हम बेवजह राजनीति चश्मा पहनाने की कोशिश कर रहे हैं। यह बेहद दुखदायी है।
इस ऐतिहासिक घटनाक्रम को अदालती दीवार के इर्द गिर्द ही रहने दें तो देश को एक नई दिशा मिलेगी। पर इसका राजनीति फायदा उठाने की कोशिश अगर कोई राजनीतिक दल करता तो पूरे देश को भी मंथन करना चाहिए कि वह क्या चाहती है। एक संक्रमणरहित न्याय व्यवस्था में उसका विश्वास है या फिर राजनीतिक न्याय व्यवस्था में। इस ऐतिहासिक घटनाक्रम पर सोशल मीडिया यूनिवर्सिटी के ज्ञान पर अपना ध्यान केंद्रीत मत करिए। मंथन करिए और पूरी न्यायव्यवस्था के संक्रमण रहित होने का इंतजार कीजिए। क्योंकि जो चीज पहले परदे में थी, वहां से परदा हट गया। और जब परदा हट ही गया है तो भेद भी खुल ही जाए तो बेहतर होगा।

No comments: