गंगोत्री धाम में गंगा किनारे मैं। |
मनमीत तो अक्सर मुझसे बहाना बना कर छुट्टी लेता था। बाद में पता चलता था कि वो कभी तुंगनाथ की ट्रैकिंग पर है कभी रुद्रप्रयाग की खाक छान रहा है। मैं भी उसकी छुट्टियों के बारे थोड़ा दरियादिल था, क्योंकि इन छुट्टियों से आने के बाद वो वहां की जो रोमांचक यात्रा का वर्णन करता था, उसे मैं सुनने के लिए बेताब रहता था। आते ही वह सारी फोटो मेरे कंप्यूटर में सेव कर देता था और फिर एक एक फोटो के बारे में विस्तार से बताता था। ऐसे ही एक यात्रा पर वह गोमुख गया था। वहां से वह तपोवन होते हुए बेहद ही रोमांचक ट्रैकिंग कर लौटा था। उसकी यात्रा का वर्णन सुन मैं बेहद उत्साहित हो गया। मन ही मन डियाइड कर लिया कि मैं भी यहां जरूर जाऊंगा।
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पहाड़ के दूरस्त क्षेत्रों में जाने के लिए अखबार लेकर जाने वाली गाड़ियों से बेहतर विकल्प कुछ नहीं है। एक तो रात में इनकी ही सर्विस मौजूद होती है, दूसरी बिल्कुल समय से आप अपने गंतव्य पर पहुंच जाते हैं। मैंने भी यही विकल्प चुना, देर रात आॅफिस का काम समाप्त किया और उत्तरकाशी जाने वाली गाड़ी में बैठ गया। जागरण के सर्कुलेशन मैनेजर ने पहले ही गाड़ी वाले को मेरे लिए बोल दिया था, उसने मेरे लिए आगे वाली सीट रिजर्व रखी थी।
मैं इससे पहले कभी इस तरह की गाड़ी में नहीं गया था। पर कसम से इस यात्रा के बाद दूसरी बार इन गाड़ियों में पहाड़ पर कभी नहीं निकला। सांसें थाम देने वाली यात्रा थी। पहाड़ी रास्तों पर अखबार लेकर जाने वाली गाड़ियों के जांबाज ड्राइवर अस्सी नब्बे पर गाड़ी चलाते हैं। चलती गाड़ियों से बंडल भी फेंकते हुए जब आप इन्हें देखते हैं तो ये किसी सुपर हीरो की तरह नजर आते हैं। आप अगर दिलेर हैं तभी इन गाड़ियों की यात्रा कर रिस्क उठाएं। खैर रात 11 बजे से शुरू हुई यात्रा सुबह पांच बजे उत्तरकाशी में जाकर समाप्त हुई। रातभर मैं बजरंगबली की शरण में रहा।
उत्तरकाशी में उस वक्त जागरण के ब्यूरो चीफ थे रावत जी। उन्होंने मेरे लिए वहीं गढ़वाल निगम के गेस्ट हाउस में एक रूम बुक करवा दिया था। वहां थोड़ी देर आराम करने के बाद मैं गंगोत्री की तरफ निकल गया। उत्तरकाशी में ही पता चल गया था कि कुछ कारणों से गोमुख ट्रैक अभी दो से तीन दिन बंद रहेगा। मैं बेहद निराश हो गया था। पर गंगोत्री जाने का मन में ठान रखा था।
गंगोत्री पहुंचने के बाद मैंने निर्णय लिया कि यहां से ऊपर की ओर रहने वाले साधु सन्यासियों के मिलूंगा। आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि जिस तरह केदारनाथ, बद्रीनाथ, यमुनोत्री धाम साल के छह महीने ही दर्शन के लिए खुले होते हैं। ठीक उसी तरह गंगोत्री धाम की प्रथा है। यहां भी छह महीने मां गंगा की डोली नीचे चली आती है। पूरे छह महीने यह धाम विरान होता है। चारों तरफ बर्फ ही बर्फ होती है। पर गंगोत्री धाम से ऊपर की ओर करीब दो से तीन किलोमीटर हिमालय की गोद में जाएंगे तो वहां आपको चार पांच साधु मिलेंगे जो अलग-अलग गुफाओं में सालों भर वहीं रहते हैं। ये तपस्वी माइनस 30 डिग्री टैंपरेचर में भी सालों भर वहीं जमे रहते हैं।
मैंने इन साधुओं और तपस्वियों के बारे में सुन रखा था, इसलिए इनसे मिलने की जबर्दस्त इच्छा थी। मेरे रहने की व्यवस्था गंगोत्री धाम स्थित मुख्य धर्मशाला में थी। पर मैं गंगोत्री धाम में दर्शन करने के बाद सीधे ऊपर की ओर निकल गया। पीठ पर बैकपैक लादे अपना छोटा वाला डिजिटल कैमरा लिए मैं पगडंडियों के सहारे जैसे-जैसे ऊपर की ओर बढ़ रहा था। चारों तरफ की हसीन वादियों में खोता जा रहा था। एक तरफ कलकल बह रही मां गंगा थीं, दूसरी तरफ हरे भरे वन। दूर से हिमालय की बर्फ से आच्छादित चोटियां एक अलग तरह का रोमांच पैदा कर रही थीं।
मुझे नहीं मालूम था कि कितनी दूर ऊपर तक चढ़ना है। वहां कौन-कौन मिलेगा। किससे क्या बात होगी। वो साधू सन्यासी मुझसे बात भी करेंगे या नहीं। मन में तमाम तरह के विचारों से ओत प्रोत मैं चढ़ता जा रहा था।
मैं पहाड़ का रहने वाला नहीं हूं, इसलिए मेरा कार्डियो सिस्टम उस तरह का नहीं कि बिना थके लगातार चढ़ता जाऊं। मनमीत ने एक बार बेहद वैज्ञानिक तरीके से मुझे पहाड़ी लोगों के कार्डियो सिस्टम पर लेक्चर दिया था। उसने बताया था कि क्यों और कैसे पहाड़ के लोग अपने दिलों की हिफाजत करते हैं। उसी ने बताया था कि मैदान के लोग जब पहाड़ों पर ट्रैकिंग करते हैं तो उन्हें क्या क्या नहीं करना चाहिए। वैसे तो मैंने पहाड़ों में कई बार ट्रैकिंग की है, लेकिन यह रास्ता ट्रैकिंग के लिए बना नहीं था। गोमुख ट्रैकिंग रूट से बिल्कुल उल्टा यह रास्ता था। न तो ठीक से रास्ता समझ में आ रहा था और न यह समझ में आ रहा था कि जाना कहां है। मुझे गंगोत्री धाम के मुख्य पुजारी जी ने इतना जरूर बता दिया था कि उस तरफ से ऊपर चढ़ते जाइए आपको साधू सन्यासियों के दर्शन हो जाएंगे, जो गुफाओं में सालों भर रहते हैं और वहां तप करते हैं।
गंगात्री धाम से ऊपर वीरान पड़ी एक गुफा। |
करीब एक घंटे की चढ़ाई के बाद मैं एक गुफा के पास पहुंचा। बेहद खूबसूरती से वह सजा हुआ था। चारों तरफ हरियाली ही हरियाली थी। मैंने वहां आवाज लगाई। पर कोई नहीं था। बड़ी हिम्मत कर मैं प्रांगण में पहुंचा। चारों तरफ नजर दौड़ाई पर कोई नजर नहीं आया। मां गंगा का किनारा नजर नहीं आ रहा था, इसलिए मैंने निर्णय लिया कि थोड़ा दूसरी तरफ से चलूं। करीब दस मिनट विश्राम कर मैं दूसरी दिशाा की ओर बढ़ गया। मां गंगा का किनारा तुरंत ही नजर आ गया। उसी के सहारे मैं थोड़ा और ऊपर जाने लगा। थोड़ी ही दूर पर मुझे कं्रदण घाट लिखा दिखाई पड़ा।
घाट पढ़कर मुझे आश्चर्य हुआ कि इस विराने में घाट की परिकल्पना किसने की होगी। वहां तक पहुंचने के लिए मुझे अच्छी खासी मशक्त करनी पड़ी। पर वहां पहुंचकर मुझे लगा कि मैं जन्नत में आ गया हूं। चारों तरफ विशाल परिसर। बेहद करीने से सजा हुआ घाट। तरह तरह के पेड़। बिल्कुल मां गंगा के तट पर सजा हुआ प्रांगण मानो ऐसा लग रहा था कि मैं किसी रिसॉर्ट में हूं। बैग उताकर मैंने गंगा जल का सेवन किया और इधर-उधर नजर दौड़ाने लगा। गंगा तट से करीब दो सौ मीटर ऊपर मुझे एक कॉटेज नजर आया। मैं जब ऊपर की ओर आया तो वहां सीढ़ियां मौजूद थी, जो कॉटेज की ओर ले जा रही थीं।
क्रंदण घाट से स्वामी वेदांतानंद की गुफा की ओर जाने वाली सीढ़ी। |
बिल्कुल हरे रंग से पेंट की हुई यह सीढ़ियां ऐसी लग रही थी कि मानो आप किसी स्वर्ग के द्वार की ओर बढ़ रहे हैं। चारों तरफ हरियाली ही हरियाली। मां गंगा के लहरों की आवाज आपके कानों को सुकून दे रही थी। चीड़ियों की चहचहाट मानों आपके रोम-रोम को पुलकित कर रही थीं। यही मई का महीना था, लेकिन वहां का तापमान करीब चार से पांच डिग्री था।
कॉटेज तक पहुंचने में मुझे करीब बीस मीनट लग गए। वहां पहुंचने पर मुझे एक नंग धड़ंग अवस्था में साधु मिले। मैंने उन्हें नमस्कार किया। उन्होंने मुझे बैठने को कहा। मेरा नाम पता जानकर उन्होंने मुझसे बेहद आत्मयिता से बात की। मेरे आने का प्रयोजन पूछा। फिर तो उनसे बातचीत का जो सिलसिला शुरू हुआ वो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था।
उस सन्यासी का नाम स्वामी वेदानंतानंद था। वो करीब चौदह साल से यहीं रह रहे थे। जिसे मैं कॉटेज समझ रहा था वो दरअसल क्रिस्टल की एक गुफा थी, जिसे बेहद ही खूबसूरती से सजाया संवारा गया था। सालों भर वो इसी गुफा में निवास करते हैं। जब गंगोत्री सहित पूरा इलाका बर्फ से छिप जाता है और टेंपरेचर माइनस तीस डिग्री से भी नीचे चला जाता है, तब भी स्वामी वेदांतानंद इसी गुफा में रहते हैं। गुफा में रहने खाने से लेकर वो तमाम सुविधाएं मौजूद थीं जिनकी आप कल्पना नहीं कर सकते हैं। आपको हैरानी होगी कि उस वक्त उनकी गुफा में सीसीटीवी कैमरे तक मौजूद थे।
स्वामी वेदांतानंद से मेरी पहली मुलाकात। |
खैर, जैसे-तैसे मैंने खुद को संयमित किया। बातचीत तो हो ही रही थी। मैंने स्वामी वेदांतानंद से उनकी गुफा में रात गुजारने की अनुमति ले ली। पहले तो वो आनाकानी करते रहे। पर मेरे हठी स्वभाव ने उन्हें मना लिया। उन्होंने मुझे आज्ञा दे दी। सिर्फ एक रात के लिए।
बातचीत में ही उन्होंने बताया कि उनका एक शिष्य है जो दिल्ली का एक बड़ा बिजनेसमैन है। वह जब गंगोत्री धाम बंद होने वाला रहता है तभी आता और पूरे साल का राशन पानी, गैस आदि की व्यवस्था कर चुपचाप चला जाता है। गुफा के पीछे ही एक छोटा सा रूम बना है, जिसमें सालों भर का राशन पानी आदि इकट्ठा रहता है। जब चारों तरफ बर्फ ही बर्फ होती है तब गैस ही एकमात्र सहारा होता है। इसी पर बर्फ को उबालकर पानी तैयार करते हैं। मां गंगा की धाराएं भी जम जाती हैं। ऊपर बर्फ ही बर्फ रहता है, जबकि धारा नीचे से धीरे-धीरे प्रवाहित होती रहती है। वहां से पानी कोई ले नहीं सकता है।
गुफा पूरी तरह क्रिस्टल की बनी थी। जिसके अंदर अगर आप साधारण कपड़ों में भी रहेंगे तो आपको अत्यधिक ठंड का अहसास नहीं होगा। गुफा के सटे ही एक कृत्रिम गुफा भी बनाई गई है जिसमें स्वामी वेदांतानंद अपना तप करते हैं। धुनी भी वहीं रमाई गई थी। वहां एक छोटी सी खिड़की थी जहां से मांग गंगा का दर्शन होता था।
सीसीटीवी के बारे में स्वामी वेदांतानंद ने बेहद रोमांचक जानकारी दी। उन्होंने बताया कि वो सालों भर पूरी दुनिया से कटे रहते हैं, इसलिए उनके भक्त ने यहां सीसीटीवी इंस्टॉल करवा दिया, ताकि मुझे पता चलता रहे कि उनकी गुफा के बाहर क्या हो रहा है। ठंड के दिनों में जब पूरा क्षेत्र विरान हो जाता है तो कई बार इस सीसीटीवी में उन्हें पोलर बियर से लेकर ऐसे जानवर नजर आते हैं जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। एक बार इस सीसीटीवी में बर्फ में रहने वाला तेंदूआ भी कैद हुआ था। गुफा में सोलर सिस्टम इंस्टॉल था। जो सालों भर जैसे तैसे काम करता रहता है। गर्मियों में तो दिक्कत नहीं होती, लेकिन सर्दियों में कभी कभी यहां सूर्य की किरणें पहुंचती हैं।
गुफा के अंदर की तस्वीर। यहां सीसीटीवी मॉनिटर लगा है
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इतने सारे गर्म कपड़े डाल कर मैं घाट तक पहुंचा था, पर सच मानिए मैं वहां पांच मिनट भी खड़ा रह नहीं सका। और वो संत वहां बेहद कम कपड़ों में कंद्रण घाट पर मां गंगा को अपने आंसू समर्पित कर रहे थे। उनकी मां-मां की पुकार मानोे मां गंगा से साक्षात्कार कर ही थी। अगले कुछ मिनटों बाद मैं वापस गुफा में था। ठंड से मेरे हाथ पांव सुन्न हो गए थे।
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स्वामी जी की आज्ञा लेकर मैं दोबारा ट्रैकिंग करता हुआ शाम करीब चार बजे नीचे गंगोत्री मंदिर तक पहुंचा। शाम की आरती में शामिल हुआ। मुख्य पुजारी से मिला और उन्हें पूरी बात बताई। वो बेहद आश्चर्यचकित थे। वो इस बात से हैरान थे कि कैसे मैं रात भर स्वामी वेदांतानंद की गुफा में रहा। सबसे ज्यादा हैरानी इस बात से थी कि उन्होंने आज्ञा कैसे दे दी। जब मैंने यह राज खोला कि मैं आज भी उनकी गुफा में ही रहूंगा तो मानो वो पगला गए। कहने लगे यह असंभव है। मैंने कहा, मेरा सारा सामान वहीं है। आरती के बाद मैं वहीं जा रहा हूं।
शाम में गंगोत्री धाम और वहां होने वाली गंगा की आरती। |
मैं दोबारा सात बजे गुफा में था। स्वामी वेदांतानंद अपनी समाधी में चले गए थे। मैंने चुपचाप अपना भोजन ग्रहण किया। थोड़ा ध्यान किया। फिर सो गया। सुबह चार बजे मैं काफी सारे गर्म कपड़े पहने क्रंदन घाट पर था। मां गंगा का आचमन किया। पानी इतना ठंडा था कि मानो हाथ की अंगुली महसूस ही नहीं हो रही थी। पर जैसे ही आचमन किया पूरे शरीर में गरमाहट दौड़ गई। यकीन मानिए गर्म चादर मैंने किनारे रख दिया और सिर्फ ट्रैक सूट में करीब तीन घंटे तक वहीं ध्यान लगाता रहा। इस बीच स्वामी वेदांतानंद अपनी साधना में लीन रहे।
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इन दो दिनों गुफा में रहना। प्रकृति को नजदीक से महूसस करना। मां गंगा का सानिध्य। मेरे मन के अंदर एक नई ऊर्जा का संचालन कर रहे थे। बहुत सारी यादों को अपने छोटे से कैमरे और मन के अंदर समेटे मैंने उनसे विदा लिया। वादा किया था फिर जल्दी उनसे मिलने आऊंगा। पर वक्त की आपाधापी ने आज तक दोबार वहां जाने का मौका नहीं दिया।
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तो जाइए आप भी किसी गुफा यात्रा पर। उत्तराखंड में रहने वाले मेरे मित्रों ने बताया है कि इन गुफाओं का किराया मात्र हजार रुपए के करीब है। फोटो जर्नलिस्ट अरुण सिंह अभी एक सप्ताह पहले ही केदारनाथ की यात्रा से लौट कर आए हैं। बेहद शानदार रिपोर्ट उन्होंने तैयार की है। पर वो गुफा पर स्टोरी बनाने से चूक गए हैं। उनसे जब बात हुई तो उन्होंने कहा कि जल्द ही इस पर एक स्टोरी तैयार करूंगा, ताकि पूरी दुनिया को पता चल सके कि गुफा स्टे क्या होता है। प्रधानमंत्री मोदी का एक बार फिर से शुक्रिया। उन्होंने पूरी दुनिया को इस स्टे से परिचय करवाया।
यात्रा वृतांत थोड़ा लंबा हो गया है, पर आपको अच्छी लगे तो इसे जरूर शेयर करें, ताकि दूसरे लोग भी जान सकें कि गुफा सिर्फ आदिम जाति के लिए नहीं है, वहां हमारे आपके जैसे साधारण लोग भी प्रकृति का सानिध्य पा सकते हैं। सभी तस्वीरें मेरे द्वारा ही ली गई हैं। इसे कहीं प्रकाशित करने से पहले मेरी स्वीकृति बिल्कुल ही आवश्यक नहीं है। धन्यवाद
7 comments:
इस यादगार पल के संयमित ढंग से प्रस्तुती और फोटो को पढ़कर व देखकर बहुत अच्छा लगा।
शानदार!लिखे तो आप हैं। लेकिन मैं आपकी जगह खुद को महसूस कर रहा हूं।
वृतांत का रस्वादान मैंने सुन कर पहले ही कर चुका था मगर पढ़ कर दुबारा अपने आप को रोमांचित होने से रोक नहीं पाया।इच्छा है कि एक बार आपके साथ पुनः इस पहाड़ के अध्यात्म तीर्थ पर चला जाए।
अब तो हमारी भी प्रबल इच्छा हो रही है इन हसीन वादियों में जाने की।
बहुत ही खूबसूरती से उस अलौकिक दुनिया का चित्र सहित वर्णन, अत्यंत प्रेरक🙏🙏
अभूतपूर्व अनुभव हैं आपके आलौकिक हमारी इस देवभूमि में आध्यात्मिक पर्यटन की अपार संभावनाएं छुपी हैं आप जैसे यात्रा वृतांत लिखने वाले लेखकों के कारण इसको विश्व प्रसिद्धि मिलेगी साधुवाद
सर,यात्रा का बेहद खूबसूरत तरीके से वर्णन किया है आपने।
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