Thursday, June 23, 2016

‘शोरगुल’ को महसूस भी करिएगा, क्योंकि


ये देख कर पतंगें भी हैरान हो गयीं
अब तो छतें भी हिंदू-मुसलमान हो गयीं
क्या शहर-ए-दिल में जश्न सा रहता था रात दिन
क्या बस्तियां थीं, कैसी बियाबान हो गयीं।।

लंबे समय बाद एक ऐसी फिल्म सिल्वर स्क्रीन पर नुमाया हो रही है, जिसमें आप और हम भी कहीं न कहीं खुद को शामिल पाएंगे। हम उस भीड़ का हिस्सा बना महसूस करेंगे जिसमें शोरगुल होते ही हमारे कान खड़े हो जाते हैं और हम पुलिस, जज, जल्लाद, वहशी सभी की भुमिका निभाने लग जाते हैं। हमें उस शोरगुल में बिल्कुल नजर नहीं आता है कि हम क्या हैं, हमें क्या करना है और क्या नहीं करना है। बस शोरगुल हुआ और हम उधर की ओर बह निकले।
मल्टी स्टारर फिल्म शोरगुल आज रिलीज हो रही थी। उत्तरप्रदेश सरकार ने इसे हरी झंडी भी दे रखी है। पर स्थानीय नेताओं के विरोध के कारण एक बार फिर से फिल्म के रिलीज होने पर संकट पैदा हो गया है। रिलीज डेट को आगे बढ़ा दिया गया है। कहा जा रहा है फिल्म के प्रदर्शन के बाद उन्माद बढ़ सकता है। हद है यार। कोई फिल्म कैसे उन्माद फैला सकती है। फिल्म को फिल्म की तरह देखने की जरूरत है। हां यह सही है कि यह हमारे समाज को ही रिफ्लेक्ट करती है,पर यह कहना कि किसी फिल्म से किसी राजनीतिक दल को नुकसान हो सकता है या किसी राजनीतिक दल को फायदा हो सकता है, यह गलत है।

वैसे तो भारत में दंगों का इतिहास बहुत पुराना और विभत्स रहा है। इन दंगों की पृष्ठभुमि पर कई फिल्में भी बनी हैं। पर शोरगुल पूरी तरह दंगों की साइकोलॉजी, दंगों के राजनीतिकरण, दंगों के साइड इफेक्ट्स पर बनी फिल्म है। फिल्म के क्रिएटिव डायरेक्टर शशि वर्मा हाल ही में चंडीगढ़ आए थे। उनसे जब बातचीत हुई तो पता चला कि फिल्म का नाम पहले जैनब रखा गया था, फिर जब टीम ने महसूस किया कि कहीं नाम से इस फिल्म का मूल कांसेप्ट ही खत्म न हो जाए, इसीलिए फिल्म का नाम शोरगुल रखा गया। शोरगुल भी इसलिए कि फिल्म सिर्फ देखने के लिए नहीं है, बल्कि महसूस करने के लिए है।
फिल्म को लेकर कई कंट्रोवर्सी भी सामने आई है। कहा जा रहा है इसमें जो पात्र हैं वह कहीं न कहीं उत्तरप्रदेश की वतर्मान राजनीति के कद्दावर चेहरे हैं। खबर यह भी आई थी कि सुरक्षा के मद्देनजर मुजफ्फरनगर में इस फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगा दी गई है। पर बावजूद इसके अगर सेंसर बोर्ड ने इसे जारी करने का सर्टिफिकेट दिया है तो हमें कंट्रोवर्सी को इग्नोर करके इस शोरगुल का हिस्सा बनना चाहिए।
वैसे भी कहा जाता है किताबें, कहानियां और फिल्म हमारे समाज की सच्चाई ही बयां करती हैं। फिर इस सच्चाई को महसूस करने में हमें दिक्कत क्या है। दंगे भारत की सच्चाई हैं। और इन दंगों के जरिए जिस तरह राजनीतिक फायदे उठाए जाते हैं उस सच्चाई से भी मुंह मोड़ा नहीं जा सकता है। फिलहाल फिल्म कैसी बनी है और क्या-क्या संदेश देती नजर आती है, क्या सच में यह उत्तरप्रदेश के वतर्मान राजनीतिक चेहरे की हकीकत को बयां कर रही है, यह तो फिल्म देखने के बाद ही पता चलेगा। फिलहाल शायर मुनव्वर राणा की चंद लाइनें जो उन्होंने दंगों की राजनीति को बेहद उम्दा तरीके से कागज पर उकेरा है, सिर्फ आपके लिए। मुनव्वर लिखते हैं.....
खुशहाली में सब होते हैं ऊंची जात
भूखे नंगे लोग हरिजन हो जाते हैं!
राम की बस्ती में जब दंगा होता है
हिंदु मुस्लिम सब रावण हो जाते हैं!!

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