हर तस्वीर के दो पहलू होते हैं। इस तस्वीर का भी है। पहली नजर में मैं भी इस तस्वीर का श्याह पक्ष ही देख सका।
लंबे समय बाद गांव में था। घर में शादी थी। बिहार के पूर्णिया जिले के अमौर प्रखंड में गांव है बलुआ टोली। शहर से काफी दूर इस गांव तक कोसी की धार करीबन हर बरसात में आफत बनकर पहुंचती है। लेकिन विकास की धार पहुंचने में लंबा समय लग जाता है। पिछले आठ-दस साल से गांव तक सीधे पहुंचने के लिए एक पुल बन रहा है, जो विकास को हमेशा मुंह चिढ़ाता रहता है।
खैर बात हो रही है इस तस्वीर की, जो विकास की एक अलग कहानी बयां करती है। गांव घूमने के दौरान नए बने हाईस्कूल के कैंपस में जब मैंने इस शौचालय को देखा तो हैरान रह गया। कैसे कोई इसमें शौच जा सकता है। चारों तरफ से खुला हुआ, शौचालय के नाम पर सिर्फ एक नीले रंग का पैन।
मैंने इस शौचालय के संबंध में स्थानीय ग्रामीणों से बात की, लेकिन उनके पास तथ्यात्मक जानकारी का आभाव था। गांव तक सीधी पहुंच के लिए पुल का लंबे समय से इंतजार कर रहे लोग मोदी और नीतीश सरकार से भड़के हुए थे। नाराजगी में और तड़का लगाकर भड़ास निकाल रहे थे कि केवल इधर-उधर पैसा लगाकर बजट खपा रहे हैं। शौचालय के नाम पर खानापूर्ति कर रहे हैं। पहली नजर में तो मुझे भी उनकी बात सच लगी। पर आसानी से विश्वास नहीं हो रहा था। विश्वास इसलिए नहीं हो रहा था कि जिस स्वच्छ भारत मिशन का इतना जोर से प्रचार प्रसार हो रहा है। विदेशों में चर्चा हो रही है उसका यह हश्र कैसे हो सकता है।
ऐसे में इस फोटो को मैंने अपने बचपन के मित्र को भेजा। मेरा यह मित्र बिहार में स्वच्छता मिशन का प्रोजेक्ट हेड है। गांव-गांव में शौचालय बनवाना उसके काम का हिस्सा है। उसे मैंने लिखा कि ऐसा ही शौचालय बनवाते हो क्या तुम लोग। मैंने उसे मनभर आशीर्वाद दिया और ‘कथित भ्रष्टाचार’ की तस्वीर पर उसके विचार मांगे।
थोड़ी देर बाद उसका फोन आया। खूब हंसा। मैंने फिर आशीर्वाद दिया। शौचालय बनवाने में भी खेल और ऊपर से बेसर्मी वाली हंसी। फिर उसने मुझे बताया। हंस इसलिए रहा हूं कि तुम मीडिया वाले अमूमन सिर्फ एक पक्ष ही देखते हो। दूसरा पक्ष हमेशा इग्नोर कर देते हो। तुम्हारी तस्वीर का भी एक ही पक्ष है।
मैंने कहा, इसीलिए तो तुम्हें भेजा है। कुछ और पक्ष है तो बताओ।
तब उसने विस्तार से बताया।
सही में यह विकास की ही तस्वीर है। इससे बेहतर तस्वीर नहीं हो सकती। जब इस तस्वीर को उसके उपयोग के समय खींचा जाता तो निश्चित तौर पर तारीफ होती। दरअसल इस बार के विधानसभा चुनाव में इस तरह के शौचालय मिशन मोड पर गांव-गांव में बनवाये गये। चुनाव आयोग भी इसे मॉनिटर कर रहा था। गांव में सार्वजनिक शौचालय बहुत कम होते हैं। ऐसे में चुनावी ड्यूटी पर आए अधिकारियों और सुरक्षाबलों को गांव के खेतों में शौचालय जाना होता था।
यह पहली बार था कि केंद्र सरकार के स्वच्छता मिशन अभियान को चुनाव में भी शामिल किया गया था। ऐसे में गांव में अस्थाई शौचालयों को बनवाने पर जोर दिया गया। इसके लिए बकायदा बजट जारी किया गया। एक शौचालय के निर्माण में औसतन दो हजार का खर्च आया।
इन अस्थाई शौचालयों का सुपर स्ट्रक्चर तिरपाल या टिन का होता है। पानी की व्यवस्था के लिए अस्थाई नल भी लगाए जाते हैं जो वॉटर टैंक के जरिए सप्लाई देते हैं। इस तरह के शौचालय बनाने में जिस तकनीक का उपयोग होता है उसे ऑफ द पिट टॉयलेट कहा जाता है। सामान्य भाषा में बात करें तो आप जहां शौच करते हैं उसका मल कहीं और जाकर संग्रहित होता है।
पहले ऑन द पिट टॉयलेट बनते थे। जिसमें आपका शौच ठीक उसके नीचे लगे गड्ढे में एकत्र होता था। मल ढोने की प्रथा आपको याद होगी। ऑन द पिट टॉयलेट में वही होता है। यह बेहद शर्मनाक था। यह प्रथा अब देश से करीबन समाप्त हो चुकी है।
ऑफ द पिट टॉयलेट में थोड़ी दूर पर एक गड्डा होता है, जिसमें ड्रम लगा होता है। इस ड्रम में कई छेद होते हैं। दरअसल इस तरह के टॉयलेट का कांसेप्ट मल के तत्वों पर निर्भर है। आपको बता दें कि सौ ग्राम मल में 80 फीसदी जल की मात्रा होती है। मल एक छेद वाले ड्रम में जमा होता है। जहां से पानी की मात्रा को मिट्टी सोख लेती है। बचा हुआ मल काफी कम मात्रा में होता है।
यह मल भी काफी उपयोगी होता है। किसानी दुनिया में एनपीके शब्द काफी प्रचलित है। एनपीके का मतलब है नाइट्रोजन, फासफोरस और पोटेशियम। यही मल कुछ वर्षों बाद एनपीके में बदल जाता है। जिसका उपयोग भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने में किया जाता है।
हालांकि ऑफ द पिट टॉयलेट चुंकि अस्थाई होते हैं, इसीलिए एनपीके का खास महत्व नहीं, लेकिन स्वच्छ भारत मिशन में जिस तरह के टॉयलेट बन रहे हैं वहां इसका बेहतर प्रबंधन हो रहा है। इस टॉयलेट को ट्विन पिट टॉयलेट कहा जाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मन की बात में इस तरह के टॉयलेट के बारे में कई बार जिक्र किया है। इसमें दो चैंबर बने होते हैं। प्रॉसेस वही है। मल के अस्सी प्रतिशत पानी को जमीन सोख लेती है, बीस प्रतिशत बचा मल कुछ वर्षों बाद बेहतरीन खाद बन जाता है। इसमें गंध भी नहीं होता है।
हालांकि एक सवाल का जवाब अभी तलाश रहा हूं। माना की ये अस्थाई टॉयलेट हैं। चुनाव कर्मियों के लिए किसी सौगात से कम नहीं हैं। पर चुनाव का कार्य समाप्त हो जाने पर क्या इसे ग्राम पंचायत या संबंधित स्कूल को हैंड ओवर नहीं किया जा सकता, ताकि वो अपने खर्च से इसका मेंटेंनेंस कर सकें? इससे गांव में एक सार्वजनिक शौचालय और बढ़ जाएगा, सुविधा बढ़ जाएगी और लोग भी अपनी भड़ास निकालने के लिए इस तरह के ‘विकास’ का सहारा नहीं लेंगे।
7 comments:
बहुत सही। काम कम दिखावा ज्यादा
शानदार ब्लॉग भईया
चरणस्पर्श
शानदार ब्लॉग भईया
चरणस्पर्श
जबरदस्त ब्लॉग
जबरदस्त ब्लॉग
बहुत शानदार शब्दजाल में दूसरे पहलू को आपने बताया।
बहुत शानदार शब्दजाल में दूसरे पहलू को आपने बताया।
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