कौन भूल सकता है 16 जून की उस याद को, जब उत्तराखंड के चारों धाम पर एक साथ प्रकृति ने अपना कहर बरपाया था। मंदाकिनी, अलकनंदा, भागीरथी, यमुना सभी नदियां अपने रौद्र रूप में थी। कई हजार लोगों की मौत का गवाह बना था उत्तराखंड। अपनों से बिछड़ने का दर्द क्या होता है ये उन लोगों से बेहतर कोई समझ नहीं सकता जो आज भी अपनों का इंतजार कर रहे हैं।
आज 16 जून को दो साल हो गए। उत्तराखंड सरकार भी आज उस त्रासदी को याद कर संवेदना प्रकट कर रही है। पर सच्चाई यही है कि उस समय की असंवेदनशील उत्तराखंड सरकार ने 16 जून की घटना को छिपा कर रखा था। वह तो भला हो सेना के उस टोही हेलिकॉप्टर का जिसने बेहद खतरनाक हो चुके मौसम के बावजूद केदारघाटी का जायजा लेने का साहस दिखाया था। सेना के हेलिकॉप्टर में सवार वह शख्स आज भी गुमनाम है, जिसने एक ऐसी तस्वीर खींची जिसके बाद पूरा देश रो पड़ा। यही वह तस्वीर थी जो तबाही के 48 घंटे बाद पहली बार 18 जून की शाम देहरादून की मीडिया तक पहुंची।

एक तरफ जहां वह एक तस्वीर त्रासदी की सच्चाई बयां कर रही थी, वहीं तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी था। उत्तराखंड की बहुगुणा सरकार इस तस्वीर से दूर भाग रही थी। लाखों लोगों को मंझधार में छोड़कर प्रदेश के मुखिया मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा अपने लाव लश्कर के साथ 17 जून की शाम ही नई दिल्ली में प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी के दरबार में भीख का कटोरा लेकर पहुंच गए थे। हद ये था कि उत्तराखंड सरकार इतनी दिन हीन बनी थी कि उसके पास इतने पैसे भी नहीं थे कि फौरी तौर पर सहायता के लिए कदम उठाया जाए। सरकार को यह तो मालूम चल ही गया था कि तबाही कैसी है, तभी तो भागे-भागे दिल्ली दरबार पहुंच गए थे सहायता राशि मांगने।
उत्तराखंड सरकार की गिनती स्वतंत्र भारत के अब तक के सबसे असफल सरकारों में की जानी चाहिए जो पूरे प्रदेश को संकट में छोड़कर आर्थिक सहायता के लिए दिल्ली में बैठी थी। हर साल पर्यटकों से करोड़ों रुपए की उगाही करने वाली सरकार के हाथ खाली थे। दो दिन बाद ही आई-नेक्स्ट ने यह खुलासा किया था कि 17-18 जून को ही उत्तराखंड की महान सरकार ने रीजिनल इलेक्ट्रॉनिक चैनल्स को करोड़ों रुपए का विज्ञापन जारी किया था। आज तक यह सवाल अधूरा ही है कि यह विज्ञापन किस उद्देश्य से जारी किए गए थे। आई-नेक्स्ट के खुलासे के बाद भले ही ये विज्ञापन बाद में कैंसिल कर दिए गए थे, लेकिन इस एक घटना से साबित कर दिया था कि बहुगुणा और उनकी चौकरी ने कैसे उत्तराखंड को बर्बाद करने में कोई कोर कसर बांकि नहीं रखी।
पिछले कई दिनों से कई बड़े चैनलों पर उत्तराखंड आने के न्योते का विज्ञापन चल रहा है। बताया जा रहा है कि सबकुछ ठीक है। उत्तराखंड प्रगति के रास्ते पर चल पड़ा है। पर सच्चाई क्या है यह पहाड़ों में बसे उन लाखों लोगों से पूछा जाना चाहिए। पूछा जाना चाहिए कि अगर सबकुछ ठीक है तो पहाड़ों में लंबे समय से बसे गांव के गांव खाली क्यों हो गए हैं? क्यों देहरादून, हरिद्वार और हल्द्वानी के औद्योगिक क्षेत्रों में पहाड़ के हजारों लोग दो जून रोटी के जुगाड़ के लिए भटक रहे हैं। क्यों पंजाब और हरियाणा में उत्तराखंड के लोगों को मजदूरी करते आसानी से देखा जा रहा है? क्यों उत्तराखंड के पहाड़ का युवा देहरादून में दो हजार की नौकरी करने के लिए भी तैयार है?
हर साल यह जून का महीना आएगा जो हमें याद दिलाता रहेगा कि पूरा देश इस जून में कैसे जार-जार रोया था। हमारा यह रुदन, यह कंद्रण उन लाखों लोगों को उनके बिछड़े लोगों से तो नहीं मिलवा सकता, पर यह कंद्रण जरूर होना चाहिए ताकि उत्तराखंड सरकार हर उस दावे में अपना चेहरा देख सके कि उत्तराखंड में सबकुछ ठीक है। वास्तविकता तो यह है कि उत्तराखंड अपने विकास से करीब 20 साल पीछे जा चुका है। इसे संभलने और संवारने में मजबूत इरादों वाले लोगों की जरूरत है। पर अफसोस यह है कि आज भी उन पदों पर वही बैठे हैं जिन पर आपदा के समय घोटालों के कई आरोप लग चुके हैं। आपदा ने विजय बहुगुणा को तो कुर्सी से उतार दिया, पर हरीश रावत भी उन्हीं चांडल चौकड़ी से घिरे हैं जो उन्हें अपने चश्मे से सब कुछ हरा भरा दिखा रहे हैं।
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