Sunday, June 7, 2015

क्या किसी कॉमिक्स कैरेक्टर को खोजा है आपने?

कभी अपने आस-पास देखने की कोशिश की है आपने। हर एक शख्स में आपको कोई न कोई कार्टून कैरेक्टर नजर आ जाएगा। बड़ा मजा आता है चुपचाप इन्हें देखने में। पुरानी यादों को ताजा करने का मौका भी मिल जाता है। कॉमिक्स की दुनिया की शुरुआत भले ही काफी पहले हो गई हो, लेकिन हमने अपने सिक्स्थ स्टैंडर्ड से इस दुनिया को जाना। जाना क्या ये कहिए आत्मसात कर लिया। आत्मसात ऐसा किया कि मां की सुताई आज तक याद है। पता नहीं क्यों मां को कॉमिक्स से इतनी एलर्जी थी।
यह क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया का ही मामला था, जिसे जितना मना करो हम उसके प्रति उतने की आकर्षित हो जाते हैं।
 80 और नब्बे के दसक में जब कॉमिक्स की दुनिया ने मार्केट में पकड़ मजबूत करनी शुरू की तब छोटे-छोटे कैरेक्टर बड़ा मजा देते थे। चाचा चौधरी और साबू की जोड़ी, मोटू पतलू की जोड़ी, बांकेलाल की मजेदार हरकतें, डोगा और नागराज का तुफानी कारनामा, पिंकी की शरारतें। हर एक कैरेक्टर में हम खुद को जोड़ लेते थे। हाल ऐसा था कि नया कॉमिक्स किस दिन मार्केट में आ रहा है, यह तक पता रहता था। भईया और मैं पापा द्वारा दिए गए चिल्लर को जमा करके रखते थे। गली वाली दुकान में कई बार तो एडवांस में पैसा जमा करा आते थे। कॉमिक्स के बाद डाइजेस्ट का समय आया। डाइजेस्ट थोड़ी मोटी होती थी। उसकी कहानी भी लंबी होती थी। कीमत भी अधिक होती थी। हम लोग घर पर मामा-मामी, मौसी, बुआ के आने का इंतजार करते रहते थे। जब वे जाते थे तो हमारे पॉकेट में दस-दस रुपए रख देते थे। हम ऊपरी तौर पर मना करते थे, लेकिन अंदर ही अंदर बड़े खुश होते थे। मन में एक ही बात होती थी, कॉमिक्स या डाइजेस्ट का जुगाड़। धीरे-धीरे कर हमारे घर में नागराज, बांकेलाल, चाचा-चौधरी सहित तमाम कार्टून कैरेक्टर्स की पूरी सीरिज जमा हो गई थी। जब भी मां हम पर गुस्साती थी तो एकाध कॉमिक्स की बली चढ़ जाती थी। कचरे के डब्बे में पड़े टुकड़ों को देखकर दिल बहुत रोता था। कई कॉमिक्स के टुकड़ों को तो हमने और भईया ने जोड़कर फिर से पुनर्जिवित करने का कारनामा भी बखूबी किया था।
आज भी मैं अपने आसपास के माहौल में इन्हीं दिल के सच्चे, दिमाग से चतुर और खुशियां बिखेरने वाले कैरेक्टर्स की खोज करता रहता हूं। हर एक में आप भी खोज कर देखिए कोई न कोई कैरेक्टर तो नजर आ ही जाएगा। मेरे ही आॅफिस में दो शख्स हैं। एक  (पुनीत) साबू की तरह लंबा-चौड़ा, तगड़ा और दूसरा (अंकित) चाचा चौधरी की तरह दुबला-पतला। दोनों को साथ में अगर आप देख लें तो हू-ब-हू मशहूर कार्टूनिस्ट प्राण द्वारा रचित कैरेक्टर ही नजर आएंगे। कई बार उन्हें देखकर मन ही मन खुश हो लेता हूं। बड़ा मजा आता है।
         टीवी पर पहले जीवंत कार्टून कैरेक्टर के रूप में हमने चार्ली चैपलिन को पहचाना। बिना कुछ बोले, सिर्फ अपनी हरकतों से कोई इतना हंसा सकता है, हंसा हंसा कर पागल कर सकता है, यह पहली बार चैपलिन ने ही किया। बाद में मिस्टर बिंस जैसे कैरेक्टर भी आए। पर आज जितनी तेजी से कार्टून चैनल्स की लाइन लगी है, उतनी ही तेजी से बच्चों में अजीब-अजीब हरकतों ने जन्म लेना शुरू कर दिया है। उस वक्त के कॉमिक्स के और आज के टीवी पर आ रहे कार्टून चैनल्स की तुलना कर लें तो जमीन आसमान का फर्क मिलता है। चाहे शिन चैन हो या डोरोमैन। सभी इश्क में पड़ रहे हैं। इत्ती सी छोटी उम्र में लड़कियों को इंप्रेस करने की बात करते हैं।  किसी पर शीन चैन का भूत सवार है तो कोई डोरेमान और नोबिता की तरह ही बोल रहा है। किसी दिन समय निकालकर इन कैरेक्टर्स पर गौर फरमाइए। एक भी ऐसा कैरेक्टर नजर नहीं आएगा जिसमें आज आप किसी का कोई अक्श खोज लें। कई कार्टून तो उन्हीं पुराने कॉमिक्स कैरेक्टर पर बेस्ड होकर ही चल रहे हैं।
कॉमिक्स आउटडेटेड हुआ तो कार्टून कैरेक्टर आए। कार्टून कैरेक्टर से भी बोर हो गए तो एक बार फिर कॉमिक्स कैरेक्टर पर बेस्ड कार्टून सीरिज चल रही है। इन दिनों मोटे-पतलू सबसे हिट है। अब तो इंतजार है कब बांकेलाल स्मॉल स्क्रीन पर प्रकट होगा। एक छोटा भाई है फिल्म इंडस्ट्री में। प्यार से हम उसे छोटा बाबू (शशि वर्मा) कहते हैं, उसी से कहूंगा भाई इस कैरेक्टर को भी टीवी के परदे पर उकेरो। अद्भूत मजा आएगा। फिलहाल जब तक वे कॉमिक्स के सारे कैरेक्टर आपको याद हैं तब तक उन्हें अपने आसपास खोजिए। यकीन मानिए, आज भी वे बड़ा मजा देंगे।

10 comments:

Shashi Verma (filmmaker) said...

कमाल कि दुनिया थी वो,ये सारे किरदार्के साथ जिते थे हम लोग,हर नये अंक मे मिलने कि बेचैनि...न पढ पाने कि सोच हिं हमलोगो को कुंठित कर देती.लगता अपना कोइ कंही छुट गया है...क्या दिन थे वो...बिल्कुल कुछ अपने चहेते पात्र को जिवंत कर सिनेमा मे दिखाने का श्रेय ज़रूर लूंगा

mrinal said...

हा हा हा। वाकई बचपन के दिन याद आ गए। वो किताबो के अंदर कॉमिक्स डाल के पढ़ना ओर पकड़ें जाने पे माँ की चप्पल की मार का कुछ अलग ही मजा था ।

mrinal said...

वो हमारा पहला इश्क़ था। माँ के चप्पलौ से ही आराम आता था....:)

musaffir said...

हां छोटा बाबू जरूर इंतजार रहेगा।।।।

musaffir said...

हां भईया चप्पल और हाथ वाले पंखे की सुताई ईतनी जल्दी कैसे भूल जाएंगे,, हाहाहाहाहाहााा

musaffir said...

हां भईया चप्पल और हाथ वाले पंखे की सुताई ईतनी जल्दी कैसे भूल जाएंगे,, हाहाहाहाहाहााा

musaffir said...

हां छोटा बाबू जरूर इंतजार रहेगा।।।।

Unknown said...

वाकई ही सर आपने इस लेख ने बचपन के दिनों की यादें ताज़ा करा दी सही मे कॉमिक की दुनिया की निराली थी मुझे तो कई बार आज भी इस जादुई दुनिया मे खो जाना अच्छा लगता है

musaffir said...

@Prachi haan ye to hai.. bachpan sahi me mazedar hota hai...

punit ka blog said...

इसे तब पढ़ा था जब आपने लिखा था। आज पढ़ने के बाद वो दिन फिर प्रशांगिक हो गए।